जनवरी, 2019 में 103वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद-15 और 16 में खण्ड (6) सम्मिलित करके आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसकी संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है, जिस पर 13 सितंबर को पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ सुनवाई करेगी। महात्मा गाँधी ‘यंग इंडिया’ में लिखे गये अपने लेख ‘जाति बनाम वर्ग’ में लिखते हैं- ‘जाति व्यवस्था वर्ग व्यवस्था से इसलिए बेहतर है कि जाति सामाजिक स्थायित्व के लिए सर्वोत्तम सम्भव समायोजन है।’ हालाँकि वर्तमान में ऐसा नहीं है। भारतीय समाज में जातिवाद का स्वरूप सदैव से विघटनकारी रहा है। वास्तव में जातिवाद मानव द्वारा मानव के उत्पीडऩ का सबसे सुनियोजित षड्यंत्र है। भारतीय समाज में जातिवाद का इतिहास बड़ा वीभत्स रहा है। किन्तु आज उस कड़वे अतीत का प्रयोग विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा देकर सत्ता हथियाने के लिए हो रहा है। दरअसल यह लोकतंत्र में ऐतिहासिक रूप से पिछड़ी, दमित, दलित जातियों की भागीदारी में वृद्धि का संवैधानिक मार्ग है।
आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) तबक़े को 10 फ़ीसदी आरक्षण का मूल उद्देश्य प्रतिनिधित्व का सही निरूपण है, न कि आर्थिक समानता स्थापित करना। यह आरक्षण ग़रीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है। ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण शुरुआत से ही एक राजनीतिक एवं अनुचित निर्णय था। जिन जातियों को लक्ष्य करके यह लागू हुआ, उन्हें पहले से सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल है। यह उम्मीद कि इससे आरक्षण का विरोध कम हो जाएगा, ग़लत साबित हुई। वास्तव में इससे आरक्षण की सुलग रही अंदरूनी आग और भडक़ी है, यहाँ तक कि आरक्षण को 100 फ़ीसदी तक ले जाने की माँग शुरू हो गयी। जिसको सवर्ण, पिछड़ी और अनुसूचित जाति-जनजातियों में जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर विभाजित किया गया हो।
भारत में राजनीतिक लाभ के लिए संविधान की अवहेलना का इतिहास रहा है। मंडल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़ों के 27 फ़ीसदी आरक्षण को लागू रखते हुए निर्णय दिया था कि सकल आरक्षण 50 फ़ीसदी से अधिक नहीं होगा (इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ, 1992)। किन्तु तमिलनाडु में आरक्षण को 69 फ़ीसदी किये जाने सम्बन्धी क़ानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कर न्यायिक समीक्षा के अधिकार से दूर रखा गया। इस प्रक्रिया को सन् 2016 में केंद्र सरकार ने आगे बढ़ाते हुआ ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू कर दिया।
देश में मनोनुकूल न्यायिक निर्णय की माँग की एक नयी प्रथा स्थापित हो चुकी है। उदाहरणस्वरूप, सर्वोच्च न्यायालय ने जब मंडल कमीशन के आधार पर पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को स्वीकार किया, तब उसे लोकतंत्र का रक्षक कहा गया। किन्तु वही न्यायालय जब हरिजन एक्ट के दुरुपयोग की समीक्षा कर उसमें सुधार करना चाहता है, तब यही प्रशंसक वर्ग संख्या बल के आधार पर आगजनी, तोड़-फोड़, उपद्रव के बलबूते सरकार पर दबाव बनाकर न्यायालय के निर्णय को संवैधानिक संशोधन द्वारा अस्वीकृत करा देता है। हरिजन एक्ट में सुधार के विरोध में यह उचित तर्क है कि निर्णय अपवादों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु प्रताडि़तों की सुध भी ली जानी चाहिए और प्रताडक़ों को दण्डित किया जाना चाहिए। लेकिन आरक्षण के नाम पर हिंसात्मक आन्दोलन एक परिपाटी बन चुका है। पिछले कुछ वर्षों में गुर्जर, जाट, मराठा और पाटीदार आदि जातियों ने विध्वंसक आन्दोलनों द्वारा आम जनता को आतंकित करने के साथ-साथ सरकार व प्रशासन को मजबूर कर अपनी माँगें मनवाने की कोशिश की। अदम गोंडवी ठीक ही लिखते हैं-
‘कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है।’
भारतीय समाज सम्भवत: दुनिया का सबसे विचित्र समाज है, जहाँ जातिगत नेतृत्व निरंतर स्वयं को सर्वाधिक पिछड़ा और दलित बनाये रखने और सरकार से अपनी माँगें मनवाने की ज़िद पर अड़े हैं। संविधान सभा का विचार था कि समाज में समानता आने पर धीरे-धीरे इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाएगा। लेकिन राजनीति की कलुषित दृष्टि ने इसे स्थायी विघटनकारी स्वरूप में ढाल दिया है। अब यह समझना कठिन है कि आरक्षण का संघर्ष कहाँ जाकर रुकेगा?
जब सभी को आरक्षण की चाशनी पसन्द है, तो फिर आरक्षण की उपयोगिता साबित करने के लिए तथाकथित सवर्णों को कोसना अनुचित ही है। दुनिया का ऐसा कौन-सा दण्डविधान है, जो पूर्वजों की ग़लतियों के लिए वर्तमान पीढ़ी को दण्डित करने को न्यायोचित ठहराता हो? आरक्षण के दावेदारों का यह तर्क कि हमारे पूर्वजों पर सवर्णों ने अत्याचार किये, बिल्कुल सही है। लेकिन वर्तमान में यह सम्भव नहीं है। किसी भी समाज में कुछ अपराधी होना अलग बात है; उससे शायद ही कोई समाज अछूता हो। फिर भी तथाकथित सवर्ण वर्ग अपने पूर्वजों के अपराधों के प्रायश्चित स्वरूप स्वतंत्रता के सात दशकों से भी अधिक समय से इस व्यवस्था को स्वीकार कर रहा है। रही सामाजिक छुआछूत की बात, तो तथाकथित पिछड़ा वर्ग हो या दलित वर्ग, सभी जातियों में यह विकृति विद्यमान है। कई जगह तो एक ही वर्ग में जातिगत भेदभाव के चलते विवाह सम्बन्ध तो दूर, खानपान तक वर्जित है। फिर इस अनुचित परम्परा के लिए अकेले तथाकथित सवर्ण जातियों को ही क्यों दोषी ठहराया जाए? रही बात पिछड़ेपन की, तो दलित और पिछड़े वर्ग के सरकारी सेवाओं में नियुक्त लोग पिछड़ा-दलितवाद के नारे के साथ आरक्षण की मलाई खा रहे हैं। वास्तव में दलित एवं पिछड़ी जातियों में पिछले 70 दशकों में उभर आया एक सम्भ्रांत वर्ग स्वयं अपनी जाति के लोगों का शत्रु बना बैठा है। यथार्थ यही है कि जो जातियाँ आरक्षण के लाभ से जितना अधिक प्रतिनिधित्व हासिल कर चूकी हैं, वही सबसे अधिक आरक्षण बचाओ-आरक्षण बढ़ाओ का शोर मचा रही हैं।
सामाजिक संघर्ष के नाम पर जातिगत गोलबंदी करने वाले लालू यादव को अपने बेटों से अधिक योग्य कोई दलित या पिछड़े वर्ग का नेता पूरे बिहार में नहीं मिला। मुलायम सिंह यादव अखिलेश यादव के परे कुछ नहीं देख पाये। संजय निषाद की निषाद पार्टी, ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा, सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल, रामविलास पासवान की लोजपा, सभी की यही स्थिति है। पिछड़ावाद एवं सामाजिक असमानता के भावुक नारों के बीच इन्हें सत्ता सुख चाहिए। असल इन लोगों का पूरा ज़ोर इस बात पर रहता है कि उनकी जाति और वर्ग के लोग इनके पीछे गोलबंद होकर इन्हें सत्ता में बनाये रखें। किन्तु जब सत्ता की अधिकारिता विभाजन की बात आती है, तो ये अपने वर्ग क्या, अपनी जाति के लोगों के साथ उसे बाँटने को तैयार नहीं होते। आरक्षण और राजनीतिक संघर्ष में इन जातिवादी नेताओं को साथ सबका चाहिए; लेकिन सत्ता में किसी की भागीदारी बर्दाश्त नहीं है। इस सम्बन्ध में सबसे बड़ा आश्चर्यजनक रु$ख जागृत दलित नेतृत्व का अनुपम उदाहरण कहलाने वाली मायावती जैसी जुझारू राजनेत्री का रहा। उनसे अधिक सामाजिक संघर्ष को कौन समझ सकता है? लेकिन वह भी परिवारवाद का मोह नहीं त्याग पायीं।
आज जिस जातिगत जनगणना की माँग हो रहीं है, उसके मूल में आरक्षण लाभ से अधिक राजनीतिक लाभ की मंशा है। इसके लिए सबसे अधिक उत्सुकता पिछड़े वर्ग से आने वाली सशक्त जातियों, यादव, मौर्य, कुर्मी आदि के नेताओं की ओर से है। इन्हें लगता है कि जातिगत जनगणना से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर वे सवर्णों के विरुद्ध पिछड़ों एवं दलितों की गोलबंदी का मोर्चा खोल देंगे। लेकिन यह मामला ख़ुद की अंतर्विरोधों से घिरा है। जातिगत जनगणना के परिणाम पिछड़ों में अगड़ी बन चुकी जातियों के ख़िलाफ़ उसी वर्ग की वास्तविक पिछड़ी जातियों के तीव्र विरोध के रूप में सामने आएगा। पिछड़ा वर्ग की उप-श्रेणियों के निर्धारण हेतु अक्टूबर, 2017 में गठित रोहिणी आयोग की रिपोर्ट पिछले चार दशकों की पिछड़ा वर्ग की राजनीति की दशा-दिशा बदल देगी। वे, जो जाति आधारित राजनीति के बूते सत्ता हथियाने का मुग़ालता पाले बैठे हैं; उनका भ्रम भी दूर हो जाएगा।
आज वास्तविक पिछड़ा और दलित वर्ग भी समझने लगा है कि उसकी प्रगति के वास्तविक शत्रु उन्हीं की जातियों-वर्गों के लोग हैं। प्रश्न है कि जो जातियाँ सत्ता में अपने ही वर्ग को लोगों, यहाँ तक कि अपने परिवार के अलावा अपनी ही जातियों के लोगों को आगे नहीं आने दे रहे, वे किस सामाजिक समता और समान अवसरों के नारा दे रहे हैं?
सन् 2015 की सिविल सेवा परीक्षा में पहली रैंक हासिल करने वाली अनुसूचित जाति की महिला अभ्यर्थी प्री एग्जाम आरक्षण की वजह से पास कर पायीं। उनके माता-पिता आई.ई.एस. अधिकारी रहे थे। अन्यत्र दलित वर्ग से ही आने वाली एक आईएफएस अधिकारी, जो दिसंबर, 2013 में वीजा धोखाधड़ी का आरोप में सुर्ख़ियों में रहीं; के पिता भी आईएएस अधिकारी रहे हैं। ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। क्या ऐसे लोगों को आरक्षण का लाभ मिलना उचित है? अगर मुलायम सिंह और लालू यादव, रामविलास पासवान, जगजीवन राम के परिवार पिछड़े हैं; तो इस देश को अगड़ा होने की परिभाषा बतायी जानी चाहिए। सत्य तो यही है कि आज बौद्धिक, राजनीतिक एवं मीडिया जगत का एक वर्ग दलित और पिछड़ेपन को गौरवान्वित (ग्लोरिफाइड) करने में लगा है, जिसका ध्येय जातिगत विभाजन को हमेशा ही चर्चा में रखकर सामाजिक विभाजन बनाये रखना है।
जिस जन्मना विशेषाधिकार का विरोध स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर से होता रहा है, वर्तमान में उसी को संवैधानिक आधार पर पोषित किया जा रहा है। अमेरिकी दार्शनिक जॉन डेवी लिखते हैं- ‘अतीत में रुचि, वर्तमान की सुरक्षा तथा सुखद भविष्य के निर्माण के लिए किया जाता है।’ लेकिन भारत में जातिवाद एवं वर्ण-व्यवस्था का इतिहास कुरेदकर देश में प्रतिद्वंद्वी वर्ग स्थापित किये जा रहे हैं। समझना होगा कि प्रतिशोध एवं प्रतिस्पर्धा में लिप्त वर्ग सदैव राष्ट्र तथा समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। इससे एक बात तो तय है कि जिस लक्ष्य को लेकर संविधान सभा ने आरक्षण का प्रावधान किया था, वर्तमान में यह व्यवस्था अपने लक्ष्य से भटक चुकी है। अब यह तय कर पाना कठिन है कि इनमें दोष किसका कम और किसका अधिक है? इसलिए यह सही हो सकता है कि आरक्षण आर्थिक स्थिति के आधार पर होना चाहिए। अन्यथा हर जाति, वर्ग के ग़रीबों का ह$क छिनता रहेगा और यह राष्ट्र की प्रगति में सबसे ज़्यादा बाधक है। भारत विभाजन पर लिखा गया फैज़ का यह शे’र आरक्षण के संघर्ष से उपजी भावना को निरूपित करता है –
‘ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर;
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।’ (सुब्ह-ए-आज़ादी, अगस्त-1947)।
स्वतंत्रता के इस अमृत-काल में यह नितांत आवश्यक है कि आरक्षण की समीक्षा हो। जानना ज़रूरी है कि आरक्षण अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ है? साथ ही इसके दुरुपयोग, लक्षित लाभार्थियों तक पहुँचने में होने वालीं समस्याओं का समाधान हो। सबसे ज़रूरी इसका एक सर्वमान्य स्वरूप निर्धारित हो; जो समाज को जोड़े, न कि उसके लिए विघटनकारी सिद्ध हो।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)