स्वच्छ जल के बगैर न तो निजी स्वच्छता संभव है न स्वस्थता और न शौचालयों का उपयोग कर पाना संभव है। एक तरफ देश और दुनिया में वातावरण में आ रहे बदलाव के कारण बढ रहे तापमान के कारण हिमालय में गिलेशियर का क्षेत्रफल सिमट रहा है, पर्वतीय क्षेत्र में अधिकतर प्राकृतिक स्त्रोत सूखते जा रहे हैं, अधिक दोहन से भूजल का स्तर गिरने के कारण धरती की गागर खाली होने जा रही है, देश की अधिकतर नदियों में औद्योगिक अपशिष्ट, सीवेज और शहरों में बहने वाले गंदे नालों को ठिकाने लगाकर दुषित किया जा चुका है और फसलों में अत्यधिक रसायन, कीटनाशकों का छिड़काव करने और सीवेज नेटवर्क से वंचित क्षेत्र में मल-मूत्र को ठिकाने लगाने के लिए बने शौचालयों के टैंकों से रिसाव होने से भूजल दुषित हो रहा है।
प्रतिवर्ष गरमियों के मौसम में देश की बडी आबादी को पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने को विवश हो जाती हैं वर्ष 2016 में पानी के अकाल के कारण केन्द्र सरकार को देश के 253 जिलों को सूखा क्षेत्र घोषित करना पड़ा था। सरकार न तो गर्मियों के मौसम में जल संकट के वक्त देशवासियों को पर्याप्त मात्रा में पीने के पानी की आपूत्ति कर पाती है और न देश में अब तक बन चुके शौचालयों का उपयोग करने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध करवा पाई है।
केन्द्र सरकार पिछले 4 साल से गांधी के चश्मे को स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक बनाकर, नारों में स्वच्छ भारत का शोर और शौचालय बनवाने पर जोर दे रही है। उसने देश में सबके लिये घर-घर में, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनवा कर खुले में शौच की प्रवृत्ति पर विराम लगाकर 2 अक्टूबर 2019 की गांधी जी के 150 वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या तक देश को खुले में शौच मुक्त भारत (ओडीएफ) हासिल करने का लक्ष्य तय कर रखा है। इसको हासिल करने के लिये मोदी सरकार ग्रामीण भारत में 1.96 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से निजी,सामुहिक और सामुदायिक स्तर पर लगभग 1.2 करोड़ शौचालयों का निर्माण करवाने में जुटी हुई है।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत देशभर में बनवाये जा चुके शौचालयों को स्वच्छ भारत के लिए सबसे अहम कार्य और अपनी उपलब्धि मानते हुए मोदी सरकार गत 26 जुलाई 2018 को संसद में 19 राज्यों गुजरात, उत्तराखंड,सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा, चंडीगढ़, दमन और दीव, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, मेघालय, दादरा और नगर हवेली, पंजाब, मिजोरम, राजस्थान, अंडमान और निकोबार द्वीपों, लक्षद्वीप, महाराष्ट्र, और आंध्र प्रदेश को खुले में शौच से मुक्तÓ (ओडीएफ) घोषित कर चुकी है। संसद के समक्ष खुले मे शौच मुक्त उक्त राज्यों की सूची पेश करते हुए केन्द्रिय ग्रामीण विकास, पंचायत राज मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर कहा था कि भारत के उक्त राज्यों के 418 जिले, 4018 ब्लॉक तथा 4 लाख 125 गाँव सौ फीसदी खुले में शौच से मुक्तÓ (ओडीएफ) हो चुके हैं।
अब तक कागजातों में बन चुके शौचालयों और धरातल पर बन चुके शौचालयों का भौतिक सर्वेक्षण करने पर न केवल शौचालयों की संख्या में बडा अंतर उजागर हो चुका है बल्कि केन्द्र सरकार संसद में जिन राज्यों को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर चुकी है ऐसे राज्यों में शामिल उत्तराखंड के बारे में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) अपनी रिपोर्ट व गुजरात के बारे में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारियों और भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की उस रिपोर्ट से केन्द्र सरकार की पोल खुल चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक उक्त दोनों राज्यों में शौचालयो से वंचित रह चुके परिवार बड़ी संख्या में खुले में शौच करने को विवश हैं।
यही नहीं देश में लाखों ऐसे घरों में शौचालय बनवाये जा चुके हैं जिन घरों में शौचालयों मे उपयोग करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है, जिन घरों में बने शौचालयों में उपयोग करने के लिये पर्याप्त पानी तो उपलब्ध है लेकिन उनके शौचालयों के टैंक भर जाने के बाद न तो साफ करने के लिए किसी तरह की सुरक्षित व्यवस्था है और न टैंकों से निकाले जाने वाली गंदगी को ठिकाने लगाने के लिए ऐसी जगह है जिससे गंदगी के कारण बिमारियां न फैल सकें। शौचालयों के टैंकों से निकलने वाली गैस से हवा दूषित होने से वातावरण भी दूषित हो रहा है।
खुले में शौच पर विराम लगाकर महिलाओं की निजता और सम्मान की हिफाजत तो हो सकती है लेकिन इस वैज्ञानिक युग मे शौचालय बनवा कर न तो मल-मूत्र को सीवेज के माध्यम से नदियों में ठिकाने लगाकर नदियों को गंदे नालों में और न टैंक बनाकर भूजल में ठिकाने लगाकर पेयजल के अहम श्रोतों को दूषित करने की प्रवृत्ति को किसी भी दशा में न तो मानवीय, न सामाजिक, न व्यवहारिक, न वैचारिक तौर पर सही ठहराया जा सकता है तब ऐसे में इसे गांधी की दृष्टि और सपने का स्वच्छ भारत बताना न केवल गलत है बल्कि यह गांधी की सोच और विचार धारा के भी विपरीत है।
मशीनों से पानी का रंग-रूप और स्वाद तो बदला जा सकता है लेकिन जरूरत के लिये मशीनों से पर्याप्त पानी उत्तपति संभव नहीं है। हाल में जिस तरह स्वच्छ भारत अभियान के तहत केन्द्र सरकार की संसद में की गई घोषणा की सीएजी की रिपोर्ट और आरटीआई से मांगी गई जानकारी के कारण पोल-खोल हो चुकी है उस हिसाब से देखें तो सबके लिये शौचालय बनने में अभी एक दशक से अधिक अवधि तक इंतजार करना पडेगा।
हम मशीनों से पानी को साफ कर सकते हैं गंदा कर सकते हैं रंग बदल सकते हैं लेकिन जरूरत के मुताबिक पानी को उत्तपन्न नहीं कर सकते हैं जल के बगैर न स्वच्छता संभव है और स्वस्थता यही नहीं जल के बगैर पृथ्वी पर प्राण्ी जगत की कल्पना करना व्यर्थ है। इससे बड़ा सत्य यह है कि हमें जिन्दा रहने के लिए दिनभर में औसतन 10 बार जल का सेवन करना पड़ता है।
जल के बिना इनसान कुछ घण्टो से अधिक जिन्दा नहीं रह सकता है। मानव को अन्य कार्यो के लिए भी लगभग 10 से 15 बार जल का प्रत्यक्ष उपयोग करना पड़ता हैं। यह करना मानव को स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। जीवित रहने के लिए न केवल जल पहली अति आवश्यक वस्तु है बल्कि हमारी हर आवस्यक वस्तु का उत्पादन भी जल के बिना नहि हो सकता।
नदियों के देश में एक तरफ वर्ष 2012 में जिस वक्त तत्कालीन यूपीए सरकार ने देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के तहत 2012 से 2017 तक कुल 89,956 करोड़ रपए खर्च करने का लक्ष्य था उस वक्त बाजार में बोतल बंद पानी का कारोबार 6,000 करोड़ वार्षिक था जो पिछले सात वर्षो में बढकर 36,000 करोड़ वार्षिक पहुंच चुका है। जबकि इस अवधि के दौरान केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम में अपनी हिस्सेदारी 43,691 करोड़ और राज्य सरकारों ने अपने हिस्से के 46,265 करोड़ रूपये वर्ष 2017 तक खर्च कर सभी ग्रामीण आबादियों तथा स्कूलों तक सुरक्षित व शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य पूरा करना था। 50 फीसदी ग्रामीण आबादी को पाइप लाइन के जरिए और 35 फीसदी ग्रामीण घरों में कनेक्शन दिये जाने का लक्ष्य था।
सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक इस अवधि में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम पर 81,168 करोड़ रपए खर्च होने के बावजूद केवल 44 फीसदी ग्रामीण आबादी तथा 85 फीसदी स्कूलों को ही शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराया जा सका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 18 फीसदी ग्रामीण आबादी को ही पोर्टेबल पेयजल पाइललाइन के जरिए उपलब्ध कराया जा सका है और केवल 17 फीसदी परिवारों को ही पेयजल कनेक्शन दिये जा सके हैं।
देश की 19 फीसदी आबादी अनुमानित 153 जिलों में आर्सेनिक युक्त पानी पीने को विवश है देश के देश के 11 राज्यों की 40 फीसदी से अध्कि आबादी की प्यास बुझाने वाली गंगा को 1986 से अब तक साफ करने पर अनुमानित 4800 करोड़ खर्च हो चुके हैं खजाना तो साफ हो रहा है लेकिन गंगा साफ नहीं हो पा रही है। गर्मियों में सूख पडऩे पर देश में पानी का जो हा-हा कार मचता है उसको हाल के वर्षो में वर्ष 2016 में हम सबने देखा केन्द्र सरकार को स्वयं 253 जिलों को सूखा घोषित करना पडा। देश में भूजल का अत्यधिक दोहन से जल स्तर 150 से 950 फिट की गहराई तक पहुंच चुका है। मशीनों से पानी का रंग-रूप और स्वाद बदल सकते हैं लेकिन आवश्यकता के लिये पानी बना नहीं सकते। हमारे पास जल का भंडार सुरक्षित हो तो हम पानी को नदियों, नहरों,पाईप लाईनों, टैंकरों, बाल्टियों और बोतलों से बांट सकते हैं गरमियों में एक तरफ नदियां सूख जाती हैं और भूजल का स्तर भी गिर चुका होता है और दूसरी तरफ बांधों की झीलों का पानी प्राकृतिक तौर पर वाष्प बनने और जमीन के द्वारा सोखने के कारण कम हो जाता है
वर्षात के मौसम में 120 दिनों को प्रकृति का सृजन काल माना जाता है। इस अवधि के दौरान नदियों में पर्याप्त पानी रहता हैं, अधिक वर्षा प्राकृतिक आपदा-बाढ़ और कम वर्षा पानी और भोजन के अकाल का का प्रमुख कारणा हैं। एक वर्षात के दौरान जल भंडारण करने के लिये एक ऐसी आधुनिक विधि को अपनाने की जरूरत है जिस विधि के तहत देशवासियों के खेत-खलियान, घर-बार और रोजी-रोठी के संसाधनों को डुबाये बगैर देशवासियों की जरूरत के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी का भंडारण किया जा सके और दूसरे अति वृष्टि के कारण होने वाली बाढ़ की तवाही से देश को बचाया जा सके और मल-मूत्र को नदियों और भूजल में ठिकाने लगाने की बजाय जैविक तरीके से ठिकाने लगाने की विधि को अपनाया जाये।
*लेखक: संघर्ष वाहिनी के संपादक है।