जल संकट से बचने के लिए परम्परागत जल संसाधनों का संरक्षण ही बड़ा उपाय
देश में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु ऐसे राज्य हैं, जहाँ भूजल यानी ग्राउंड वाटर की 100 फ़ीसदी खपत होती आ रही है। जो कुछ हिस्सों में 385 फ़ीसदी के स्तर तक जा चुकी है। 267 ज़िलों में राष्ट्रीय औसत से अधिक भूजल निकाला जा चुका है। कई और राज्यों में भी भूजल की ऐसी स्थिति है। कहा गया है कि विश्व भर में केवल भारत में भूजल का दोहन सबसे अधिक हो रहा है। जितना पानी एक साल में ज़मीन के अन्दर जाता है, उसका 63 फ़ीसदी निकाल लिया जाता है। ज़्यादातर जल स्रोत दूषित हैं और प्रदूषण की वजह से नदियाँ भी सूख रही हैं। जलवायु परिवर्तन, ख़राब प्रबंधन, जल स्रोतों की घटती संख्या और निवेश की कमी आदि कई चुनौतियाँ हैं, जो जल संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं। वैज्ञानिकों ने वर्ष 2050 तक 87 देशों में पानी के गहरे संकट का अनुमान जताया है। ऐसे में जल संकट से बचने के लिए परंपरागत जल संसाधनों का पुनर्भरण और संरक्षण आवश्यक हो जाता है।
अंतरराष्ट्रीय सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पानी की खपत इतनी है जितनी चीन और अमेरिका मिलकर करते हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो विश्व में तीन फ़ीसदी ही ताज़ा पानी है। दो-तिहाई पानी जमे हुए ग्लेशियरों में है, जो मानव के उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है। स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय जल संस्थान द्वारा सन् 1991 से हर साल होने वाले कार्यक्रम के तहत इस बार 23 अगस्त से पहली सितंबर तक विश्व जल सप्ताह मनाया गया, जिसका थीम ‘सीइंग द अनसीन : द वैल्यू ऑफ वाटर’ रही। आज की वैश्विक ज़रूरत है कि जल को समझा जाए और उसका सम्मान किया जाए। जल सप्ताह आयोजन के दौरान कई कार्यक्रम कड़ी में हैं। इनमें तीन मुख्य जल आयाम हैं:- लोगों व विकास के लिए पानी का मूल्य, प्रकृति व बदलते मौसम के लिए पानी का मूल्य, और पानी का वित्तीय एवं आर्थिक मूल्य।
देश में पारम्परिक जल स्रोतों के संरक्षण, विकास व उनके देश हित में उपयोग के लिए तालाब विकास प्राधिकरण के गठन के लिए अरण्य संस्था के सचिव संजय कश्यप ने 23 अगस्त, 2014 को तत्कालीन जल संसाधन मंत्री उमा भारती को एक पत्र लिखा था। उन्होंने कहा था कि देश इन दिनों गम्भीर जल संकट से गुज़र रहा है। बढ़ती आबादी, खेती, नगरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण पानी की बढ़ती खपत और नदियों को बाँधने के व्यापक व्यय व दुष्परिणाम सभी के सामने हैं। ऐसे में हमारे पारम्परिक जल स्रोत तालाब ही उम्मीद की किरण की तरह हैं। पत्र में वे लिखते हैं कि आज़ादी के समय 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाये रखने के लिए बहुत ज़रूरी होता था। देश भर में तालाबों, बावडिय़ों और पोखरों की वर्ष 2000-2001 में गिनती की गयी थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पाँच लाख से ज़्यादा है। आज़ादी के बाद 53 वर्षों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। क़रीब 15 फ़ीसदी बेकार पड़े हैं। आज 20 लाख तालाब बनवाने का ख़र्च 20 लाख करोड़ से कम नहीं होगा। इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय तालाब प्राधिकरण का गठन करने का अनुरोध किया।
तालाब कई मायनों में महत्त्वपूर्ण होता है। जहाँ यह स्थानीय लोगों को पानी उपलब्ध कराता है, वहीं जैव विविधता, पर्यटन और आर्थिक स्थिति मज़बूत करने के लिए भी सहायक होता है। मध्य प्रदेश के भोपाल शहर का भोज ताल इसके लिए प्रसिद्ध उदाहरण है। भोज ताल यानी बड़े तालाब का निर्माण 11वीं शताब्दी में राजा भोज ने करवाया था। इसका निर्माण कमला पार्क में कोलांज नदी पर मिट्टी का बाँध बनाकर किया गया था। बड़े तालाब से भोपाल शहर की लगभग 40 फ़ीसदी जनसंख्या को पेयजल प्रदान किया जाता है।
जल संरक्षण और वर्षा जल संचय (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) के लिए जाने जाते आईएएस स्वर्गीय अनुपम मिश्रा अपने संबोधन में कहा करते थे कि सैकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्ये से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हज़ार बनती थीं। पिछले 200 वर्षों में नये क़िस्म की थोड़ी-सी पढ़ाई पड़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।
‘आज भी खरे हैं तालाब’ अनुपम मिश्रा की एक अच्छी कृति है, जिसमें तालाबों के बारे में विस्तार से गाथा गायी गयी है। अनुपम मिश्रा ने अपने एक लेख ‘अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल’ में बड़े सुन्दर ढंग से समाज को आईना दिखाया है। वह कहते हैं कि जब अंग्रेज हमारे यहाँ आये थे, तो हमारे देश में कोई सिंचाई विभाग नहीं था। कोई इंजीनियर नहीं था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं थी। वैसी शिक्षा देने वाला कोई विद्यालय, महाविद्यालय तक नहीं था। सिंचाई की शिक्षा नहीं थी। पर सिंचाई का शिक्षण हर जगह था और समाज उस शिक्षण को अपने मन में संजोकर रखता था। उस शिक्षण को अपनी ज़मीन पर उतारता था।
जब अंग्रेज यहाँ आये, तब हमारे यहाँ एक भी सिविल इंजीनियर नहीं था। पर सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूर्व तक कोई 25 लाख छोटे-बड़े तालाब थे। इनसे भी ज़्यादा संख्या में ज़मीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुएँ बनाये गये थे। वर्षा का पानी तालाबों में कैसे आएगा? किस तरह के क्षेत्र से यहाँ-वहाँ से बहता आएगा? उसको अपनी अनुभवी आँखों से नाप लिया जाता था। फिर यह पानी साल भर कैसे पीने का पानी जुटाएगा और किस तरह की $फसलों को जीवन देगा, इस सब की बारीक़ योजना सैकड़ों मील दूर बैठे लोग नहीं बनाते थे, जबकि वहीं बसे लोग उस क्षेत्र में अपना बसना सार्थक करते थे।