देश की कृषि पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ रहा है। कृषि (खेती) करने वाले जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटें? इसको लेकर कृषि विशेषज्ञों, किसानों और व्यापारियों ने ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि एक तो जलवायु वायु परिवर्तन है, दूसरा हमारी व्यवस्था में तमाम दोष हैं। भारत कृषि प्रधान देश होने के बावजूद किसानों की समस्याओं का समाधान यहाँ ठीक से नहीं होता। इससे किसानों की समस्याएँ लगातार बनी और बढ़ती रहती हैं।
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के कृषि वैज्ञानिक डॉ. गजेंद्र चंद्रावरकर का कहना है कि किसानों के पास कृषि उत्पादन बढ़ाने के संसाधनों की कमी है, ऊपर से सुविधाएँ किसानों को सरकार से मिलनी चाहिए, वो मिलती नहीं हैं। इसके अलावा जलवायु परिर्वतन के कारण कभी ज़्यादा वर्षा, तो कभी ज़्यादा गर्मी और सूखा पड़ता है, जिसका सीधा असर कृषि पर पड़ता है। एक दौर में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों की फ़सलों की अपनी अलग पहचान होती थी। पंजाब में मक्का, गेहूँ, चावल और सब्ज़ियों में पत्ता गोभी, टमाटर, आलू और हरी मिर्च आदि अधिक होती हैं। वहीं मध्य प्रदेश में गेहूँ, चना और धान अधिक होते हैं। जलवायु परिवर्तन से यह पहचान धूमिल हुई है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं फ़सल ज़्यादा हो रही, तो कहीं कम हो रही है। यह जलवायु परिवर्तन का ही तो असर है, जो मार्च के महीने में मई जैसी गर्मी पड़ रही है। इसका असर कृषि पर पड़ रहा है। यह फ़सल पकने का समय है, इस समय खेतों में नमी की ज़रूरत है। इस गर्मी से गेहूँ की हज़ारों कुन्तल पैदावार कम होगी।
कृषि मामलों के जानकार किशन पाल का कहना है कि भारत में अधिकतर किसान मौसम के सहारे खेती करते हैं। लेकिन अब कई अमानवीय कृत्यों के कारण पिछले कुछ वर्षों से खेती पर विपरीत असर पड़ रहा है, जिसका ख़ामियाज़ा पूरी मानव जाति को भुगतना पड़ रहा है। भारत में लगभग 70 $फीसदी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, जो कई समस्याओं से जूझ रही है। एक दौर में पंजाब को लेकर देश के बाक़ी राज्यों के किसानों में एक उत्साह रहता था कि वे भी पंजाब की तर्ज पर खेती करके उत्पादन क्षमता बढ़ाएँगे। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण पंजाब में भी काफ़ी अन्तर देखा जा रहा है।
किसान भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि एक तरफ़ किसानों को महँगाई मार रही है, दूसरी तरफ़ प्राकृतिक आपदाएँ। फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उसके पास संसाधन नहीं हैं। हाल यह है कि किसानों का पूरा परिवार खेती के अलावा कोई दूसरा काम तक नहीं कर पाता। अब डीजल, बीज, खाद, बिजली-पानी सब महँगे होते जा रहे हैं। उस पर हर मौसम में मौसम की मार अलग। ऐसे हालात में पैदावार को बढ़ाना मुश्किल हो रहा है। कृषि वैज्ञानिक खेतों में आकर कृषि उत्पादन बढ़ाने के नये-नये फार्मूले तो बताते हैं; लेकिन संसाधनों के अभाव में उनका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में टमाटर, हरी मिर्ची और अन्य हरी सब्ज़ियों की पैदावार ज़्यादा होती है, जिसकी सप्लाई दिल्ली सहित अन्य राज्यों में होती है। लेकिन इसी मार्च में अचानक पड़ी गर्मी से सभी सब्ज़ियों की पैदावार पर असर पड़ रहा है।
पूसा कृषि अनुसंधान से जुड़े एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते संकट और उससे निपटने के लिए तमाम शोध हो रहे हैं। बड़े-बड़े सेमिनार हो रहे हैं। लेकिन उसका सीधा लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है, न ही उन्हें सही जानकारी दी जा रही है। इसकी वजह यह है कि जिन कृषि वैज्ञानिकों की तैनाती ज़िला और तहसील स्तर पर की गयी है, उनका किसानों से और फ़सल से कोई लेना-देना नहीं है।
आज़ादपुर मंडी के व्यापारी प्रमोद कुमार का कहना है कि सरकार सहित तमाम अर्थशास्त्री खेती को लेकर तर्क तो देते हैं; समय-समय पर आँकड़े भी पेश करते हैं; लेकिन किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। बड़े किसानों तो बेहतर उत्पादन ले लेते हैं; लेकिन छोटे किसानों को हमेशा घाटा होता है। पिछले दो-तीन साल से छोटे और मझौले किसानों की फ़सल मंडी में कम बिकने को आ रही है। खेती के लिए समय पर पानी की ज़रूरत होती है। लेकिन जल स्तर के लगातार गिरने से वे फ़सलों की पर्याप्त सिंचाई नहीं कर पाते। मौसम के इंतज़ार में समय पर बुबाई नहीं कर पाते। कई बार तो समय पर बीज और खाद भी नहीं मिलते। अभी दो साल से खाद की क़िल्लत से किसान परेशान रहे हैं। ऊपर से महँगाई। बड़े किसानों की वजह से कोरोना महामारी के दौर में मक्का निर्यात बढ़ा है। लेकिन छोटे और मझौले किसानों का मक्का उत्पादन न के बराबर रहा है। मक्का भारत में गेहूँ और चावल के बाद तीसरी फ़सल है।
कृषि वैज्ञानिक ज्ञानेंद्र सिंह का कहना है कि जलवायु संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। इससे निपटने के लिए सरकार को ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है; ताकि किसानों को सीधा लाभ मिल सके। इसके लिए किसानों के लिए अलग से आयोग का गठन होना चाहिए, जहाँ किसानों की समस्याओं का निराकरण हो। उन्हें डीजल, बीज, खाद और बिजली सस्ते मूल्य पर मिलें। सब्सिडी मिले। अगर हम जलवायु परिवर्तन का रोना रोते रहे, तो कृषि पर गहरा संकट आ सकता है। इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी फ़सलों की अच्छी पैदावार के लिए समाधान खोजना होगा, अन्यथा छोटे-मझोले किसानों की दशा और ख़राब होगी। इससे किसानों का खेती से और भी मोहभंग होगा और पलायन बढ़ेगा।
विपणन सत्र 2021-22 के बाद पिछले साल देश में सरकार द्वारा $करीब 433.32 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की ख़रीद की गयी थी, जो एक बेहतरीन रिकॉर्ड है। क्योंकि उससे पिछले साल यानी विपणन सत्र 2020-21 के बाद 389.92 लाख मीट्रिक टन गेहूँ सरकार द्वारा ख़रीदा गया था। लेकिन इस साल पैदावार कम होने पर फिर से सरकारी ख़रीद घट सकती है। इस पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी न मिलने का भी असर पड़ सकता है। हालाँकि वित्त वर्ष 2022-23 के लिए आम बजट पेश करते समय केंद्रीय वित्त एवं कॉरपोरेट मामलों की मंत्री निर्मला सीतारमण ने ख़रीद लक्ष्य को बढ़ाने की बात कही थी। लेकिन फ़सल उत्पादन ही कम होगा, तो ख़रीद कहाँ से होगी?