जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी, निराला को बता रहे हैं कि पार्टी के अलग-अलग नेताओं का अलग-अलग सुर उनकी पार्टी का लोकतांत्रिक स्वरूप दिखाता है
नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा कि जो भी विशेष राज्य का दर्जा देगा, समर्थन उसी को दे देंगे. क्या कांग्रेस के साथ जाने की संभावना है?
नीतीश का पूरा भाषण सुनें. इस पंक्ति के पहले उन्होंने यह कहा कि इस सरकार के पाप का घड़ा भर चुका है. यानी वे इस वर्तमान सरकार को पापी मानते ही हैं तो जो केंद्र में अगली सरकार बनेगी और उसे समर्थन देना होगा तो जाहिर-सी बात है, वह इस सरकार के संदर्भ में नहीं है. दूसरी बात यह भी तो सोचें कि जनता के बीच यह संदेश भी देना होता है कि हमारा इस मसले को लेकर इतना कमिटमेंट है.
शरद यादव ने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाए हम कांग्रेस के साथ नहीं जा सकते. नीतीश कुमार और शरद यादव आजकल एक-दूसरे के उलट बात कहते रहते हैं. क्या परिस्थितियों का हवाला देकर नीतीश कांग्रेस के साथ जा सकते हैं कभी?
ना, मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा कभी भी संभव होगा क्योंकि हम यह जानते हैं, मानते हैं और हमेशा कहते भी रहे हैं कि इतने वर्षों में बिहार की जो दुर्दशा हुई है, उसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेवार रही है. फिर उसके साथ जाना असंभव ही तो है न! आप कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे, यह दावा कर रहे हैं. भाजपा का साथ कभी भी छोड़ा जा सकता है, यह भी तो तय-सा है! नहीं, भाजपा का साथ कब छोड़ा जा सकता है यह नीतीश कुमार ने बता दिया है. हम भाजपा से अलग होने की बात तो अपनी ओर से कह भी नहीं रहे हैं. सिर्फ यह कह रहे हैं कि देश का प्रधानमंत्री ऐसा हो जो सबको साथ लेकर चले.
जदयू का आधिकारिक रुख किसकी बात को माना जाए. नीतीश कुमार ने हाल में कहा था कि चुनाव के पहले पीएम का नाम घोषित हो. शरद यादव ने कहा चुनाव के बाद हो. इतना अंतर्द्वंद्व क्यों?
हां, इसे बयानों का अलगाव कह सकते हैं, जिसकी कई वजहें हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि मौलिक तौर पर विचारों में भिन्नता आ गई है हमारे बीच. इधर पार्टी की कोई मीटिंग नहीं हुई है, इसलिए भी बयानों में यह अलगाव दिख रहा है. ऐसा ही राष्ट्रपति चुनाव के मसले पर भी दिखा, लेकिन आप लोग यह क्यों चाहते हैं कि सभी एक ही सुर में बोलें. अलग-अलग बोलना ही तो लोकतंत्र है.
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बार-बार नरेंद्र मोदी का नाम या कांग्रेस-भाजपा के समर्थन की बात इसलिए भी उछाली जाती है ताकि दूसरी बातें दबी रहें. जैसे कि दलित हत्याओं में बिहार शीर्ष पर आया, महिलाओं पर हिंसा का ग्राफ बढ़ा आदि.
मैंने दलित हत्याओं वाले आंकड़े नहीं देखे हैं इसलिए अभी उस पर कुछ नहीं कह सकता, लेकिन आप यह मान लें कि अपराध और भ्रष्टाचार से पूरी तरह से मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि एक आदर्श समाज की स्थापना न हो जाए. जिसे रामराज कहते हैं, वह न आ जाए. नीतीश धरती पर स्वर्ग उतार देंगे, ऐसा क्यों सोचते हैं, लेकिन कोई एक कसौटी तो तय करनी होगी मूल्यांकन के लिए. फिर देखिए और आंकिए कि काम हो रहा है या नहीं, बदलाव आया है या नहीं. लालू प्रसाद के 15 सालों के राज से तुलना कीजिए. आज पटना के डाकबंगला चौराहे पर रात 11 बजे के बाद भी लोग आइसक्रीम खाते हुए मिल जाएंगे. गांवों में रात में जाते हुए लोग मिल जाएंगे. पहले यह लगता था कि जो अपराधी हैं उन्हें सरकार और प्रशासन का संरक्षण मिला हुआ है, अब यह बात नहीं है. सरकार अपनी ओर से हरसंभव कोशिश कर रही है. कहीं-कहीं और कभी-कभी के अपवादों को प्रवृत्ति नहीं कह सकते. रही बात सुशासन की तो वर्षों से बिगड़ी हुई चीज पांच-सात साल में पूरी तरह पटरी पर आ जाएगी, ऐसा लगता है आपको!
आपके अनुसार दो जून, 2012 की घटना को भी अपवाद माना जाए जब राजधानी पटना में ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद तांडव मचाया गया और पुलिस तमाशबीन बनी रही?
नहीं, इस पर मैं नीतीश कुमार और सरकार से मतांतर रखता हूं. वह घटना अपवाद नहीं थी.
क्या मानना है आपका?
वह मैं सार्वजनिक रूप से नहीं कहना चाहता, पर नीतीश कुमार को कह चुका हूं.
सार्वजनिक रूप से यह तो बताइए कि नीतीश कुमार के विकास का जो मॉडल है उससे क्या सब कुछ पटरी पर आ जाएगा?
मैं अलग राय रखता हूं. बिहार को विकास के लिए एक नए नजरिये की जरूरत है. तथाकथित बुद्धिजीवियों के पास जाने या उन्हें बुलाने से कुछ नहीं होने वाला. हमें गांधी के पास लौटना होगा. गांधी के रास्ते ही संभव है.
आप तो पूरी तरह मतभिन्नता दिखा रहे हैं. नीतीश बुद्धिजीवियों के पास जाने और उन्हें बुलाने में ज्यादा भरोसा करते हैं और आप उन्हें खारिज कर रहे हैं.
तो क्या हुआ. जो नीतीश सोचते हैं, वह कहते हैं या करते हैं. जो मुझे महसूस हो रहा है, वह मैं कह रहा हूं. सबको बोलने और सोचने की आजादी है.