जरूरत या चुनौती

राहुल गांधी आधिकारिक तौर पर पिछले आठ सालों से राजनीति में सक्रिय हैं. 2004 से अमेठी संसदीय क्षेत्र का यह सांसद हर किसी की नजर में भारत का अगला (अगला नहीं तो अगले से अगला) प्रधानमंत्री है.  अमेठी के लोगों की जिंदगी में जब से राहुल यहां से सांसद बने हैं कुछ बदलाव आया हो या नहीं, आखिर में उन्हें ही यहां से जीतना है. पत्रकार अपने लेखों और बहसों में राहुल का परिचय ‘देश का अगला प्रधानमंत्री’, ‘भविष्य में देश का नेतृत्व करने वाला’ जैसे भारी शब्दों द्वारा देते रहे हैं. फिर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता भी हैं ही जो राहुल गांधी की इस छवि को वक्त-बेवक्त बुलंद करने की जुगत में लगे रहते हैं. सार यही है कि भारत में विपक्षी पार्टियों को छोड़कर तकरीबन हर व्यक्ति यह मान चुका है कि आने वाले वक्त में राहुल गांधी ही इस देश के नेता होंगे.

ऐसे में कुछ सवाल उठते हैं: क्या राहुल गांधी वास्तव में देश की बागडोर संभालने के काबिल हैं? क्या उनमें वह समझ और काबिलियत है जिसकी तस्वीर इस देश के लोगों को उनके मातहत अक्सर दिखाने की कोशिश करते हैं? क्या नेहरू परिवार का यह वारिस बिना किसी सहारे के इस देश का नेता चुना जा सकता है? क्या कांग्रेस पार्टी का भविष्य उनके युवा हाथों में सुरक्षित है? और अगर ऐसा नहीं है तो क्या इसके लिए उनको अपने ही परिवार के एक अन्य करिश्माई व्यक्तित्व का सहारा लेने की जरूरत है?

हाल ही में कांग्रेस के दिवंगत नेता वसंत साठे और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीके जाफर शरीफ ने अपने बयानों से दबी-छुपी बातों को आवाज दे दी थी. इन दोनों ही वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि राहुल गांधी की छोटी बहन प्रियंका गांधी को अब सक्रिय राजनीति में आना चाहिए. 23 सितंबर को अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले वसंत साठे का कहना था कि ‘अगर कांग्रेस को फिर से सत्ता में आना है तो उसको इंदिरा जी की तरह आम लोगों के बीच जाकर उनको अपनी तरफ आकर्षित करने का हुनर रखने वाला नेता चाहिए. आज के समय में वह नेता सिर्फ प्रियंका गांधी हैं.’ वहीं जाफर शरीफ का मानना था, ‘प्रियंका राजनीति में तो हैं ही वह अपने भाई और मां के निर्वाचन क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली का ख्याल भी रखती हैं. अब जबकि उनमें मास अपील और असर ज्यादा है तो उन्हें क्यों कोई केंद्रीय भूमिका नहीं मिलनी चाहिए? इस वक्त कांग्रेस को करिश्माई और ऊर्जावान नेताओं की सख्त जरूरत है.’ वहीं इमेज गुरू दिलीप चैरियन के मुताबिक, ‘किसी भी जन-नेता की छवि को बनाने के लिए पांच महत्वपूर्ण विशेषताएं जरूरी होती हैं. करिश्माई होना, दृढ़ विश्वासी होना, लोगों से संवाद स्थापित करने की प्रतिभा होना, हौसला होना और आखिर में मौलिकता का होना. ये सारी विशेषताएं प्रियंका गांधी में हैं जिसकी वजह से वे एक लोकप्रिय जन-नेता बनेंगी.’

इन नेताओं के अलावा भी प्रियंका के राजनीति में आने को लेकर कई आवाजें बीच-बीच में उठती रहती हैं. लेकिन हाईकमान के डर और कांग्रेस पार्टी में चापलूसी की परंपरा के चलते कोई भी कांग्रेसी इस मसले पर बात करके सोनिया जी और राहुल जी को नाराज नहीं करना चाहता. उनमें से कई तो प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को मीडिया गॉसिप और बेवजह ऊंची पतंग उड़ाने जैसा बताकर दरकिनार कर देते हैं. लेकिन यदि कुछ पीछे जाकर सक्रिय राजनीति में राहुल के शुरुआती दिनों से लेकर हाल के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो राहुल की राजनीतिक तस्वीर उतनी आशाजनक नहीं बन पाती. इसलिए अब तमाम राजनीतिक विश्लेषक राहुल की अकेले कांग्रेस की नैया पार लगाने की क्षमता पर सवाल उठाने लगे हैं. कइयों का मानना है कि ऐसा करने के लिए उन्हें प्रियंका गांधी के रूप में एक मजबूत सहारे की आवश्यकता पड़ेगी. मगर क्या वे और उनकी मां सोनिया गांधी इस सहारे का एक सीमा से परे जाकर इस्तेमाल करना चाहेंगे ऐसे सवाल भी इन जानकारों के मन में उठ रहे हैं.

25 मई, 1991 की गर्म दोपहरी को पूरे हिंदुस्तान का ध्यान नई दिल्ली के शक्ति स्थल में 19 साल की एक लड़की ने अपनी ओर खींचा. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अंत्येष्टि के वक्त लोगों ने पहली बार प्रियंका गांधी को एक ऐसी भूमिका में देखा जिसमें वे त्रासदी के बाद के संवेदनशील वक्त में अपने परिवार, राहुल और सोनिया को संभाल रही थीं. कभी हाथ राहुल के कंधे पर था तो कभी वे सोनिया को ढाढस बंधा रही थीं. उन तस्वीरों और नेहरू-गांधी परिवार के प्रति हमारी अंध-श्रद्धा ने कई बातों को जन्म दे डालाः बिलकुल इंदिरा जैसी दिखती हैं. इतनी-सी उम्र में भी कितनी समझदार हैं. साड़ी में इंदिरा गांधी जैसा ही प्रभाव पैदा करती हैं. इसके कुछ साल बाद कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस में तकरीबन हर बार ही एक मानक सवाल की तरह यह पूछा जाने लगा – क्या प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएंगी?

प्रियंका से जुड़े इस सवाल से सोनिया को भी अक्सर गुजरना पड़ता था. हाल ही में कांग्रेस पार्टी पर आई किताब ’24 अकबर रोड’ के लेखक और द टेलीग्राफ के एसोसिएट एडीटर राशिद किदवई याद करते हैं, ‘जब भी सोनिया से प्रियंका के राजनीति में आने से जुड़ा कोई सवाल पार्टी फोरम या मीडिया में किया जाता तो वे हमेशा कहतीं – मेरे बच्चों राहुल और प्रियंका को ही यह फैसला करना है कि वे कब राजनीति में आना चाहते हैं. उस वक्त तक कोई भी यह नहीं पकड़ पाया कि प्रियंका से जुड़े सवाल पर सोनिया हमेशा राहुल को क्यों बीच में ले आती हैं…मतलब साफ था कि वे हमेशा से चाहती थीं कि राहुल ही राजनीति में आएं. फिर जब 2004 में राहुल सक्रिय राजनीति में आए तो इस पर तमाम कांग्रेसी नेता हैरान रह गए क्योंकि उन्हें भी मीडिया और आम लोगों की तरह यह उम्मीद थी कि प्रियंका राजनीति में आएंगी.’

राहुल पर लीडरशिप थोपी गई है और प्रियंका जन्मजात लीडर हैं. करिश्माई व्यक्तित्व अभी सिर्फ प्रियंका के पास है :वसंत साठे, दिवंगत कांग्रेस नेता

राहुल का सक्रिय राजनीति में आना 1998 में ही तब तय हो गया था जब सोनिया ने प्रियंका और राहुल से सलाह-मशवरा करके सक्रिय राजनीति में आने का फैसला किया था. सोनिया को इस नए वातावरण से तालमेल बैठाने के लिए अपने सबसे करीबी सलाहकारों राहुल और प्रियंका की जरूरत थी. उस वक्त राहुल लंदन में थे और प्रियंका की फरवरी 1997 में ही शादी हो चुकी थी. तब गांधी परिवार ने मिल कर एक फैसला किया और राहुल लंदन स्थित कंपनी मॉनिटर की कंसलटेंसी वाली नौकरी छोड़ भारत चले आए. इस फैसले के वक्त ही राहुल के राजनीति में आने की नींव पड़ चुकी थी जो सभी को 2004 में मूर्तरूप लेती दिखी. इस दौरान परदे के पीछे राहुल का राजनीतिक प्रशिक्षण जारी रहा जिसमें वे सोनिया गांधी को सलाह भी देते और पार्टी की कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश भी करते थे. जनवरी 2004 आते-आते राहुल राजनीतिक मसलों पर ज्यादा खुल कर काम करने लगे और आने वाले लोकसभा चुनावों में ज्यादा दिलचस्पी दिखाने लगे.

मगर राहुल गांधी का यह राजनीतिक प्रशिक्षण पिछले आठ साल से जारी है. आज तक इसने कोई खास परिणाम हमारे सामने नहीं रखा है. सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहा यह राजकुमार आज भी अपनी जमीन खोज रहा है और इस प्रक्रिया में मजबूत जमीन की जगह अक्सर रपटीली या पोली जमीन पर पैर रख देता है फिर उठकर संभलने की कोशिश करता है और एक नयी जमीन पर अपना तंबू गाड़ने की कोशिश में लग जाता है. शायद यही वह सतत समझ है जो राहुल इतने सालों में हासिल कर पाए हैं. दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय दैनिक के राजनीतिक संपादक राहुल को सलाह देते हैं, ‘राहुल को यह समझना होगा कि राजनीति में गैरहाजिर रहने वालों की कोई जगह नहीं होती है. आपने 3-4 महीने काम किया और फिर आप सुप्तावस्था में चले गए. इस तरह की कार्यप्रणाली भारतीय राजनीति में नहीं हो सकती है.’

पिछले साल सितंबर माह में दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुए धमाकों के पीड़ितों से मिलने अस्पताल पहुंचे राहुल गांधी को जिस तरह पीड़ितों के परिजनों ने हूट किया वह भले ही आवेश में किया गया विरोध हो मगर एक इशारा भी है कि अब लोग केवल उनकी बातों से प्रभावित होने को तैयार नहीं.
हालांकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में राहुल गांधी की तमाम जनसभाएं बेहद सफल रही हैं, मगर इसी साल जनवरी में जब राहुल गांधी आजमगढ़ के प्रतिष्ठित मुसलिम संस्थान शिब्ली कॉलेज में एक जनसभा को संबोधित करने पहुंचे तो उन्हें वहां भारी विरोध का सामना करना पड़ा. यहां लोगों ने राहुल का पुतला तक फूंक डाला. बाद में कन्वेंशन हॉल में केवल लड़कियों की मौजूदगी में ही उन्हें अपनी बात रखनी पड़ी. यहां का विरोध इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि दिग्विजय सिंह ने मात्र एक दिन पहले प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की भूमिका पर सवाल उठाते हुए बटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताया था जिसके ज्यादातर आरोपित आजमगढ़ के ही हैं.

राहुल की बातों से मोहभंग की एक मिसाल बुंदेलखंड में भी दिखी. हमीरपुर में बाहरी लोगों को टिकट दिए जाने से नाराज करीब 500 कांग्रेसियों ने बदलाव की राजनीति की बातें करते रहने वाले राहुल गांधी के दौरे के दौरान इस्तीफा दे दिया. बुंदेलखंड में राहुल की कई सभाओं में अपेक्षित से काफी कम भीड़ जुटना भी उनके प्रबंधकों के लिए चिंता का विषय बना रहा. बुंदेलखंड के एक पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि किसी हादसे आदि के बाद वहां जाकर लोगों की दुख भरी बातें सुन भर के आ जाना राहुल की पीआर टीम का एक अनोखा प्रयोग जैसा बन चुका है.

अमेठी में प्रियंका गांधीराहुल और उनकी पीआर टीम ने राहुल के लिए यह छवि खुद गढ़ी है. जहां आज की युवा पीढ़ी उभरते और चमकते अर्बन इंडिया का हिस्सा बनना चाहती है, वहीं यह छवि राहुल को गरीबों की आवाज बनाने वाली छवि है. हालांकि 2004 के आम चुनाव में उतरने से पहले के राहुल गांधी इस छवि से अलग थे. हार्वर्ड में पढ़ा यह नौजवान वहां अनुपस्थिति के लिए जाना जाता था, सुपर बाइक के प्रति उसकी दीवानगी जगजाहिर थी और एक स्पैनिश गर्लफ्रेंड के साथ रिश्ते की बात भी. अब उनकी एक अलग ही छवि गढ़ी गई है. अब सुजुकी क्रूजर सुपरबाइक (राहुल द्वारा खरीदी आखिरी सुपरबाइक) की जगह किसानों की आम मोटरसाइिकल ने ले ली है जिसकी पिछली सीट पर सवार हो वे कभी उत्तर प्रदेश, कभी हरियाणा तो कभी महाराष्ट्र के गांवों में पाए जाते हैं. उनके निजी जीवन के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. हालांकि हार्वर्ड में पड़ी अनुपस्थित रहने की आदत अभी भी कायम है. 15वी लोकसभा में अभी तक राहुल गांधी की उपस्थिति 40 फीसदी से कुछ कम ही है.

जब प्रियंका गांधी में मास अपील और उनका असर ज्यादा है तो उन्हें क्यों कोई केंद्रीय भूमिका नहीं मिलनी चाहिए? : सीके जाफर शरीफ, वरिष्ठ कांग्रेस नेता

2009 के लोकसभा चुनावों के बाद का वक्त भी राहुल के लिए कुछ खास नहीं रहा है. 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का अकेले चुनावों में जाने का फैसला कांग्रेस को बहुत भारी पड़ा और वह सिर्फ 4 सीटें ही जीत पाई. यहां तक कि राहुल के करीबी बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर तक अपनी सीट नहीं बचा पाए. हार के बाद यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तक को कहना पड़ा कि पार्टी को बिहार में फिर से शुरुआत करनी पड़ेगी.

इसके अलावा भट्टा-पारसोल की घटना ने भी राहुल की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया. 16 मई को प्रधानमंत्री से मिलने के बाद राहुल गांधी ने प्रेस के सामने दावा कर दिया, ‘काफी अमानवीय और क्रूरता पूर्ण हरकतें हुईं हैं भट्टा परसौल में…वहां राख के 74 बड़े-बड़े ढेर हैं जिनके अंदर शव पड़े हुए हैं. गांव में हर कोई इसके बारे में जानता है…औरतों के साथ बलात्कार हुआ है, लोगों को बुरी तरह से पीटा गया है.’ मगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भट्टा-पारसोल में पुलिस द्वारा बलात्कार के आरोपों को खारिज कर दिया जिससे राहुल और उनके सलाहकारों की खासी किरकिरी हुई.

इस सारे प्रकरण के पीछे सुजान लोग राहुल के करीबी सलाहकारों खासकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की भूमिका को जिम्मेदार ठहराते हैं. अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले तहलका के साथ बातचीत में (इसकी रिकॉर्डिंग तहलका के पास है) दिवंगत वसंत साठे ने राहुल को कुछ इस तरह की सलाह दी थी, ‘राहुल को अपने सलाहकारों से थोड़ा संभल कर रहना चाहिए…उन्हें भट्टा परसौल जैसी गलतियों से बचना चाहिए.’ वहीं प्रतिष्ठित पत्रकार सईद नकवी कहते हैं, ‘देखिए कोई चमचा सलाहकार नहीं हो सकता है…सलाहकार वह होता है जो आपको मना करे कि आप गलत कर रहे हैं… और यहां ऐसा कोई आदमी मुझे दिखाई नहीं देता.’

राहुल के पास कई ऐसे मौके थे जब वे खुद को ‘भविष्य का नेता’ या ‘जन-नेता’ साबित कर सकते थे. मगर वे ज्यादातर ऐसे मौकों पर ज्यादा कुछ करते नजर नहीं आए. सोनिया गांधी ने ऑपरेशन के लिए अमेरिका जाते वक्त जनार्दन दिवेदी, अहमद पटेल और एके एंटनी के साथ राहुल गांधी को मिलाकर बनाई समिति को पार्टी का काम-काज देखने की जिम्मेदारी सौंपी थी. यह पहला बड़ा इशारा था कि आने वाले वक्त में पार्टी का नेतृत्व राहुल गांधी को स्थानांतरित किए जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. मगर लोकपाल मुद्दे पर जिस तरह पार्टी और सरकार के आला मंत्रियों ने फैसले लिए उसके लिए एक तबका राहुल को भी जिम्मेदार मान रहा है. पार्टी मीटिंग में अन्ना हजारे वाले मसले पर कोई दूरदर्शिता नहीं दिखाना, सही निर्णय न ले पाने की अक्षमता, आला मंत्रियों के सामने कोई ठोस समाधान न रख पाने के लिए राहुल को जबर्दस्त आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था. जैसा कि वसंत साठे का कहना था, ‘देखिए, जिन लोगों में राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं है अगर आप उन लोगों से सलाह लेंगे और उस पर अमल भी करेंगे तो मामला तो गड़बड़ होगा ही. आप भले ही बहुत अच्छे तर्क और दलीलें दे सकते हों लेकिन राजनीतिक सूझ-बूझ होना बहुत जरूरी है.’

लोकपाल मसले पर कांग्रेस के आखिरी हथियार की तरह सामने आया राहुल का संसद में दिया भाषण भी लोगों को प्रभावित करने में नाकाम रहा. 26 अगस्त, 2011 को राहुल पहली बार 15वीं लोकसभा में किसी मसले पर बोले थे. शून्य काल के दौरान राहुल ने बोलने की इजाजत मांगी और 15 मिनट तक लिखा हुआ भाषण पढ़ते रहे. जबकि शून्यकाल में कोई भी सदस्य किसी भी मुद्दे पर तीन से पांच मिनिट से ज्यादा नहीं बोल सकता है. सईद नकवी कहते हैं, ‘उस भाषण को देख कर लगा जैसे राहुल ने कभी पब्लिक स्पीच दी ही नहीं हो. आप कैसे सोच सकते हो कि हड़बड़ाई हुई तेज आवाज में लिखे हुए कागज को पढ़ देने भर से आप लोकपाल जैसे मसले पर लोगों का दिल जीत लोगे या कोई विशेष प्रभाव डाल पाओगे.’ उस भाषण के बाद अगले दिन जब पूरा विपक्ष उन्हें सवालों से घेरने के लिए तैयार था, राहुल अमेरिका जा चुके थे.

प्रियंका से बहुत लोग आकर्षित होते हैं, यह एक बड़ी खूबी है. देखकर लगता भी है कि उनमें राजनीतिक समझ ज्यादा है : मणिशंकर अय्यर, कांग्रेस नेता

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक आज के दौर की राजनीति में जब लोगों ने चुनावों के बाद और उनसे कुछ समय पहले तक जनता का मुंह तक देखना बंद कर दिया हो जनता के बीच समय-समय पर जाते रहने की अपनी अहमियत है. लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा गांधी लाल बहादुर शास्त्री के कैबिनेट में एक साल के करीब ही जूनियर मंत्री रही थीं. और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले सिर्फ तीन साल का समय राजनीति में गुजारा था. वहीं राहुल गांधी पिछले दस से ज्यादा साल से राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे हैं. सईद नकवी चुटकी लेते हुए याद दिलाते हैं, ‘बच्चे को जब सालों तक तैरना सिखा कर समंदर के पास ले जाया जाता है कि जाओ बेटा तैरो, यह तुम्हारा देश है तो राहुल साहब अमेठी हो कर वापस आ जाते हैं.’

मगर अब शायद राहुल का अमेठी तक तैरना भी कम ही हो पाता है. पिछले से पिछले साल नवंबर में आखिरी बार दौरा करने अमेठी आए राहुल तकरीबन एक साल से वहां के दौरे पर नहीं गए. सुबह जाकर शाम को वापस लौट आना दौरे की परिभाषा में नहीं गिना जाता है. चुनावों की अधिसूचना जारी होने से कुछ समय पहले अमेठी में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से लेकर वहां आम वोटरों तक की यही शिकायत थी कि राहुल किसी से मुलाकात ही नहीं करते हैं. आम दिनों में दिल्ली के अपने सरकारी आवास 12 तुगलक रोड पर अमेठी की जनता के लिए राहुल ने मंगलवार का समय निर्धारित कर रखा है. मगर यहां भी राहुल का अमेठी की जनता से मिलना न के बराबर ही रहा है.

पिछले सात साल से राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र होने के बावजूद अमेठी आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसता है. किसानों को खेती के लिए खाद नहीं है, बिजली की आपूर्ति नहीं है, हैंडपंपों की कमी है, अमेठी कस्बे को छोड़ दें तो आस-पास के गांवों में सड़क नहीं है, प्राथमिक शिक्षा का स्तर काफी खराब है, नौकरियां नहीं हैं. यहां के एक क्षेत्र पंचायत सदस्य के अनुसार, ‘राहुल जी खाद, बिजली, नौकरी जैसी मूलभूत समस्याओं के बारे में तो सुनते ही नहीं है. बस कह देते हैं कि विकास होगा और लोग नौकरियां पाएंगे. मगर सात साल हो गए हैं, किसी को कोई नौकरी नहीं मिली.’ एक कांग्रेस कार्यकर्ता के अनुसार, ‘यहां पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई समस्या सुनने वाला नहीं है. यहां के विधायक राज परिवार से हैं, राजा हैं. और फिर राहुल गांधी तो देश के नेता है, तो वह सबसे बड़े राजा हुए. इसलिए न तो हम कार्यकर्ताओं की और न ही आम जनता की यहां कोई सुनता है.’

कहने के लिए तो अमेठी में राहुल ने आईआईआईटी और एनआईएफटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान खुलवाए हैं. सर्व-सुविधा संपन्न संजय गांधी अस्पताल है जिसे फॉर्टिस संचालित करता है. कुछ नई फैक्टरियां भी हैं. लेकिन विकास के इन मॉडलों के पीछे की कहानी यह है कि ये सभी बड़े-बड़े नाम अमेठी की जनता के ज्यादा काम नहीं आए हैं. अमेठी में कई सालों से कांग्रेस को कवर करते रहे दैनिक जागरण के पत्रकार अमित मिश्रा बताते हैं, ‘आईआईआईटी खुलने से अमेठी के लोगों को कौन-सा फायदा हो गया. अमेठी का एक भी छात्र नहीं है इसमें. उत्तर प्रदेश का ही मिल जाए तो बहुत है. यहां के लोगों को रोजगार भी नहीं देते हैं ये संस्थान. देंगे भी तो चपरासी या चाय पिलाने या झाडू लगाने वाले जैसे कामों के लिए ही रखे जाते हैं.’ वहीं फॉर्टिस द्वारा संचालित संजय गांधी अस्पताल सर्व सुविधा संपन्न तो है मगर जब से यह प्राइवेट हाथों में गया है अमेठी के लोगों के लिए यहां इलाज करवाना मुश्किल हो गया है.

अमेठी के रहवासी अनिल पांडे के अनुसार, ‘अमेठी के लोगों को यहां पर 2-3 हजार में नौकरी दी जाती है और बाहर से बुला कर लाए गए लोगों को उसी काम के लिए 8 से 10 हजार तक दिए जाते हैं.’ अमेठी में तकरीबन सभी लोग इस बात से नाराज हैं कि अमेठी में विकास और नौकरी के नाम पर खोले जा रहे ऐसे कई संस्थान और फैक्टरियों में खुद अमेठी के लोगों को रोजगार नहीं दिया जा रहा है.राहुल लोगों से मिलते हुए

अमेठी कस्बे से 15 किलोमीटर दूर मटमैले छप्परों से पटे पड़े पुरी जवाहर गांव की दलित बस्ती में सुनीता रहती है जिसके घर के आगे तब पीपली लाइव के नत्था की तरह ही मीडिया का हुजुम उमड़ पड़ा था जब पहली बार राहुल गांधी ने पास के संसदीय क्षेत्र सुल्तानपुर की एक रैली में सुनीता के बच्चों का जिक्र किया था. राहुल सुनीता के यहां 26 जनवरी, 2008 को रात भर ठहरे थे और खाना भी खाया था. राहुल के आने के बाद जिंदगी में किस तरह का सुधार आया इस सवाल पर सुनीता गुस्से में कहती हैं, ‘आप खुद ही देख सकते हैं कि हमारी हालत क्या है. कुछ भी नहीं बदला है.

किसी योजना का लाभ नहीं दिया गया, न राशन कार्ड है न जाब कार्ड. जो काम पहले करते थे वही अभी भी कर रहे हैं.’ चार बच्चों की मां सुनीता की इस दलित बस्ती में बिजली नहीं है और न ही सड़क है. साल भर पहले पूरे जवाहर गांव में बिजली आ चुकी है मगर दलितों की इस बस्ती को बाहर रखा गया. ‘बिजलीवालों का कहना था कि हम लोगों को बिजली की कोई जरूरत नहीं है. बिजली के लिए राहुल गांधी हमारी मदद क्यों नहीं करते हैं?’ हालांकि यहां ज्यादातर बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना प्रदेश सरकार का काम है, मगर स्थानीय निवासी इस बात से ज्यादा आहत हैं कि राहुल उनके लिए भूले-भटके मुंहजबानी की बजाय जमीन पर कभी कोई संघर्ष क्यों नहीं छेड़ते.

राहुल गांधी स्वदेश फिल्म के नायक शाहरुख खान की तरह दलित के यहां रात तो बिताते हैं मगर उस नायक की तरह शायद उनकी पीड़ा नहीं समझ पाते. नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि तकरीबन चार साल बाद भी सुनीता के यहां न तो बिजली है, न सड़क, न पक्का घर, न बीपीएल/एपीएल कार्ड, न नरेगा का जॉब कार्ड और न ही पानी. 18 घरों के बीच सिर्फ एक हैंडपंप वाली इस बस्ती में राहुल तालाब का वादा करके जा चुके हैं. ‘राहुल जी की गाड़ी ठीक वहीं रुकी थी जहां हैंडपंप लगा है. हम लोगों ने उन से तालाब खुदवाने की विनती की थी. राहुल जी ने कहा था कि मनरेगा के तहत यहां तालाब खुदवाया जाएगा. मगर अभी तक तो कुछ नहीं हुआ है.’ सुनीता राजीव गांधी महिला विकास परियोजना यानी समूह की सदस्य हैं और हर महीने 30 रुपये जमा करवाती हैं. ‘समूह का सदस्य होने से मुसीबत के वक्त पैसे के लिए हमें साहूकारों के पास नहीं जाना पड़ता है.’ अपने बच्चों को निहारते हुए कहती है, ‘राहुल के जाने के बाद आस-पास के गांवों में लोगों को लगा कि सुनीता का घर पक्का हो गया है, घर में बिजली आ गई है, उसके घर के बाहर गाड़ी खड़ी है. मगर कुछ भी नहीं बदला. बस आप पत्रकार लोगों का आना-जाना बढ़ गया है.’ सुनीता के पड़ोस में रहने वाले श्रवण कुमार के अनुसार, ‘यहां न नौकरी है न कोई धंधा है. बस दिहाड़ी के भरोसे रहते हैं. नरेगा में तीन-छह महीने में एक बार 10 दिन के लिए काम मिलता है जिसके पैसों के लिए फिर एक-दो महीने इंतजार करो. जब राहुल जी आए थे तो लगा था भगवान श्रीराम आ गए हैं हमारे घर, अब तो कुछ बदलेगा. लेकिन कुछ नहीं बदला. जैसे फटे कपड़े में जगह-जगह चीथड़े लगा देते हैं न, वैसे ही थोड़े-बहुत काम किए हैं राहुल जी ने यहां बस.’

सुनीता से भी बुरी स्थिति में शिवकुमारी हैं. अमेठी से 20 किलोमीटर दूर सेमरा गांव की इस दलित विधवा के यहां 2009 के जनवरी माह में राहुल ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड के साथ रुके थे. छप्परों की छत वाले दो छोटे कमरों को देख कर आश्चर्य होता है कि शिवकुमारी ने राहुल और मिलीबैंड के रात भर रुकने का इंतजाम यहां कैसे किया होगा. एक वरिष्ठ पत्रकार जो राहुल गांधी के दौरों को कवर करते हैं, बताते हैं, ‘राहुल के आने के एक हफ्ते बाद जब मैं शिवकुमारी से मिलने गया था तो उसके पांचों बच्चे चावल के लिए आपस में लड़ रहे थे. पता नहीं शिवकुमारी ने राहुल और मिलीबैंड को कैसे खिलाया होगा.’ यह पूछने पर कि राहुल की खातिरदारी कैसे की, शिवकुमारी कहती हैं.’मेरे पास घर में कुछ भी नहीं था. सब बंदोबस्त कांग्रेसियों ने ही किया था.’ राहुल के आने के बाद क्या कुछ बदला के सवाल पर मुंह फेरते हुए कहती हैं, ‘मैं क्या कह सकती हूं. आप खुद ही देख सकते हैं.’ हम भी राहुल की ही तरह उसकी खराब हालत को देख वापस चले आए. सेमरा गांव के ही कालिका प्रसाद के अनुसार, ‘राहुल जी ने सिर्फ समूह की महिलाओं के लिए ही कुछ काम किया है. हमारे लिए तो कुछ भी नहीं किया. अभी भी हम लोग मजदूरी ही कर रहे हैं. सेमरा गांव की प्रधान रामपति के बेटे बाबूलाल के अनुसार, ‘राहुल के आने के बाद न तो कोई योजना ही आई न ही कोई काम हुआ. वैसा ही चल रहा है जैसा चलता था.’

राहुल गांधी से जुड़े ऐसे कई उदाहरण अमेठी के पत्रकार आपको सुना सकते हैं जिसमें वे वादा करके उन वादों और गरीबों को भूल गए. वहीं आम लोग और कांग्रेस कार्यकर्ता प्रियंका गांधी का जिक्र आने पर कहते हैं कि भले ही प्रियंका सिर्फ चुनावों के दौरान अमेठी में दिखती हों मगर उस दौरान उनके द्वारा किए गए काम आज भी उन्हें याद हैं. 2004 में चुनावी दौरे पर अमेठी आई प्रियंका का ध्यान एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने दलित रामभजन की तरफ दिलाया जिसका घर दबंगों ने जला दिया था और उससे उसकी जमीन भी छीन ली थी. पुलिस ने भी केस दर्ज करने से मना कर दिया था. प्रियंका पता चलते ही रामभजन को लेकर पुलिस के पास गईं और उसका केस दर्ज करवाया.

शायद यह पहली बार होगा जब नेहरू परिवार का कोई सदस्य आजादी के बाद थाना गया होगा. उसके बाद प्रियंका ने रामभजन के घर को दोबारा बनाने के लिए सभी कांग्रेस कार्यकर्ताओं से चंदा करवाया और अलग से जमीन खरीदकर उसका घर फिर से बनवाया. साथ ही घर में आय का स्रोत बना रहे इसके लिए प्रियंका ने बाद में रामभजन के लड़के शंभु को नौकरी के लिए दुबई भी भेजा. अमेठी में इस तरह के उदाहरण राहुल से जुड़े हुए नहीं मिलते. एक कांग्रेस कार्यकर्ता के अनुसार, ‘प्रियंका कभी राहुल की तरह किसी दलित के घर नहीं रुकीं मगर उनकी तकलीफों का अंदाजा रखती हैं. वहीं राहुल दलितों के छप्पर वाले बिना बिजली के घरों में रात गुजारने के बाद भी उनकी तकलीफों को नहीं समझ पाते और बस सभाओं में और मीडिया में दलितों और गरीबों का जिक्र भर करते रहते हैं.’

अमेठी में कांग्रेस कार्यकर्ताओं और जनता से बात करने पर यह भी साफ होता है कि यहां राहुल से ज्यादा लोकप्रिय प्रियंका हैं. जैसा कि कांग्रेस से जुड़े एक कार्यकर्ता बताते हैं जिनके पिता राजीव गांधी के करीबी रहे थे, ‘प्रियंका कार्यकर्ताओं से अच्छे संबंध बना कर चलती हैं. जिससे भी मिलती हैं अपनेपन से मिलती हैं. लोगों को उनके काम करने का तरीका भी पसंद आता है. वे हमेशा चाहती हैं कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे लोगों को फायदा मिले.’ एक पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्साह से बताते हैं, ‘1999 में जब प्रियंका सोनिया जी के साथ आई थी यहां तब अमेठी में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब थी. यहां के राजा संजय सिंह तब भाजपा में थे और भाजपा के दिग्गज नेता यहां आकर सोनिया जी के विदेशी मूल के मुद्दे को उछाल रहे थे. ऐसे में प्रियंका ने वह चुनाव सोनिया जी को जितवाने में बहुत योगदान दिया था.’ एक बुजुर्ग कार्यकर्ता कहते हैं, ‘प्रियंका बहुत मिलनसार महिला हैं. सब को नाम से याद रखती हैं और मिलकर हमेशा आपका हाल-चाल पूछती हैं, आपकी परेशानियां के बारे में बात करती हैं. प्रियंका जी कांग्रेस को एक पारिवारिक संगठन की तरह मान कर चलती हैं. वहीं राहुल लोगों को जानते हैं मगर आप सामने से निकलें तो आप पर ध्यान ही नहीं देंगें.’

अमेठी में प्रियंका की लोकप्रियता से राशिद किदवई भी इतेफाक रखते हैंं, ‘जो कार्यकर्ता उनके साथ काम करते हैं उनको प्रियंका आदर्श और प्रेरित करने वाली नेता लगती हैं. लोग प्रियंका के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं. मुझे लगता है प्रियंका में उनके चाचा संजय गांधी की खूबियां आई है. संजय गांधी बहुत ही अच्छे प्रबंधक थे.’

राहुल गांधी बच्चों के साथ प्रियंका के बारे में कुछ इसी तरह की सोच यूथ कांग्रेस के पूर्व प्रदेश महासचिव धर्मेंद्र शुक्ला की है जो अपनी राजनीतिक समझ को प्रियंका गांधी की देन बताते हैं. ‘प्रियंका गांधी की वजह से अमेठी में आपको एक-दो नहीं कम से कम 500 ऐसे कार्यकर्ता मिल जाएंगे जो यूथ कांग्रेस से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं. वे सभी प्रियंका को अपना आदर्श नेता मानते हैं.’ अमेठी में प्रियंका की लोकप्रियता से जुड़ी एक घटना शुक्ला बताते हैं, ‘एक बार प्रियंका रात में रोड से अमेठी आ रही थीं. लोगों को पता चला तो सड़क के किनारे बीसियों किलोमीटर तक इतनी भीड़ इकट्ठा हो गई कि एसपीजी और यूपी पुलिस सड़क के दोनों तरफ रस्सा लगा-लगा के परेशान हो गई. लोग अंधेरे में हाथों में लालटेन लेकर खड़े हुए थे और गाड़ी गुजरने पर हाथ हिला कर खुश हो जाते थे. इतना आकर्षण है अमेठी में प्रियंका जी को लेकर.’

प्रियंका सिर्फ अमेठी में ही लोकप्रिय हों ऐसा नहीं है. कांग्रेस के पुराने नेताओं से लेकर विपक्ष के नेताओं तक सभी प्रियंका की लोकप्रियता और उनके करिश्माई व्यक्तित्व से वाकिफ हैं. दिवंगत नेता वसंत साठे का इस बारे में कहना था, ’प्रियंका की सबसे बड़ी खूबी है उनका व्यक्तित्व, जो इंदिरा गांधी के जैसा है. वे आज के वक्त की इंदिरा बन सकती हैं. उनमें दूसरा सबसे बड़ा गुण हैं कि वे लोगों को आकर्षित कर सकती हैं. तो अगर वे रायबरेली और अमेठी के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में भी निकल पड़ती हैं, तो सोचिए क्या होगा.’ साठे की इस बात से मणि शंकर अय्यर भी इतेफाक रखते हैं कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में आकर सोनिया का हाथ बंटाना चाहिए. उनके अनुसार, ‘उनमें काफी करिश्मा है. कभी-कभी बाहर निकलती हैं मगर बहुत लोग आकर्षित होते हैं, यह एक बड़ी खूबी है. उनको देख कर लगता भी है कि उनमें राजनीतिक समझ ज्यादा है.’

सुषमा स्वराज और उमा भारती ने मुझसे कहा था कि अगर प्रियंका राजनीति में आ गईं तो हमें आसानी से हरा देंगी. : राशिद किदवई, वरिष्ठ पत्रकार

वहीं राशिद किदवई प्रियंका को लेकर विपक्ष की मानसिकता के बारे में बताते हैं, ‘भाजपा की सुषमा स्वराज और उमा भारती ने बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि अगर प्रियंका सही में सक्रिय राजनीति में आ गईंं तो हमें चुनावों में आसानी से हरा देंगी. साफ है कि विपक्ष के अंदर प्रियंका को लेकर डर बैठा हुआ है.’ सुषमा स्वराज शायद अपने खुद के अनुभव के आधार पर यह स्वीकार कर रही थीं क्योंकि वे 1999 में सोनिया के खिलाफ बेल्लारी सीट जीतने के बारे में तब तक आश्वस्त थीं जब तक प्रियंका मैदान में नहीं उतरी थीं. राशिद किदवई उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘उस चुनाव में सोनिया दो जगह से लड़ी थी. राय बरेली और बेल्लारी. बेल्लारी का चुनाव बहुत करीबी था. आखिरी दिन के चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने एक मार्च निकाला था. उस रैली में आश्चर्यजनक रूप से पूरा बेल्लारी शहर सड़कों पर उतर आया था. सोनिया गांधी की वजह से नहीं, प्रियंका की वजह से. प्रियंका ने उस चुनाव को पूरी तरह अपनी मां के पक्ष में कर दिया था. इस बात का पता उसी दिन लग गया था कि यहां से कौन जीतने वाला है.’

वसंत साठे का कहना था कि कांग्रेस के पास गठबंधन की राजनीति से बचने के लिए एक जननेता प्रियंका गांधी के रूप में मौजूद है. उनके मुताबिक, ‘कांग्रेस आखिर कब तक गठबंधन की राजनीति करती रहेगी. कांग्रेस की लीडरशिप को यह इरादा करना चाहिए कि वह 2014 के चुनाव में 300 से ज्यादा सीटें जीत कर सिंगल पार्टी में लोकसभा में आए. मगर यह होगा कैसे? कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी के रूप में एक ऐसा नेता है जो देश भर में घूम कर लोगों को कांग्रेस की तरफ मोबिलाइज कर सकता है. प्रियंका की छवि आम लोगों के बीच भी अच्छी है और पार्टी के कार्यकर्ता भी उन्हें बहुत पसंद करते हैं. यकीन न हो तो अमेठी जा कर देख लें.’ बीबीसी में काम कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार, ‘प्रियंका में स्वाभाविक नेत्री वाले गुण हैं. उनका पूरा व्यक्तित्व राजनीतिक जीवन के लिए ही बना है. ऐसे में अगर वह सक्रिय राजनीति में नहीं आती हैं तो यह बहुत निराशा की बात होगी.’

प्रियंका में जनसभाओं में जनता को खुद से जोड़ने का भी हुनर है. वह वक्ता भी अच्छी हैं और हिंदी में प्रवाह के साथ लोगों से संवाद स्थापित कर लेती हैं. साथ ही उनमें यह समझ भी है कि भारत की जनता भावुक होने के साथ-साथ दिल से वोट करती है न कि दिमाग से. अपनी राजनीतिक समझ का एक उदाहरण प्रियंका ने अपने शुरुआती दौर में ही दे दिया था. 1999 में रायबरेली से पारिवारिक मित्र कैप्टन सतीश शर्मा के खिलाफ राजीव गांधी के भाई और भाजपा में शामिल हो चुके अरुण नेहरू खड़े हुए थे. भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरू तब तक आगे थे जब तक प्रियंका मैदान में उतरी नहीं थी. रायबरेली में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए प्रियंका ने खरी हिंदी में सीधे आम लोगों से सवाल किया, ‘मुझे आप लोगों से शिकायत है. मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते हुए जिस शख्स ने गद्दारी की, अपने ही भाई की पीठ में छुरा मारा, जवाब दीजिए, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई? यहां आने से पहले मैंने अपनी मां से बात की थी. मां ने कहा किसी की बुराई मत करना. मगर मैं जवान हूं, दिल की बात आपसे न कहूं, तो किससे कहूं.’ राशिद किदवई याद करते हुए बताते हैं, ‘युवा प्रियंका की भावुकता इतनी जबर्दस्त थी कि भीड़ स्तब्ध होकर सुनती रह गई.’ उस इलाके के मतदाता प्रियंका के भाषण के बाद ही अपना मन बना चुके थे. अरुण नेहरू की चुनाव परिणाम आने पर जमानत तक जब्त हो गई थी.

प्रियंका गांधी के पास इंदिरा की छवि होने का भी फायदा है. जैसा कि सईद नकवी कहते हैं, ‘उनकी शक्ल तो इंदिरा से मिलती है ही वे इंदिरा से ज्यादा खूबसूरत भी हैं. उनके बाल बिलकुल इंदिरा जैसे हैं. इंदिरा गांधी की इस छवि का उन्हें फायदा अभी भी मिल रहा है और आगे भी मिलता रहेगा.’ इमेज गुरू दिलीप चैरियन भी मानते हैं कि प्रियंका के पास लोगों को आकर्षित करने की असाधारण प्रतिभा है. प्रियंका के करिश्माई व्यक्तित्व की वजह से अभी से ही उनके समर्थन में भारी जनाधार है, लेकिन इसकी चर्चा पार्टी सर्किट में नहीं होती है. पुराने नेताओं से लेकर आज के समर्थक तक उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं. नेहरू परिवार और उनकी प्रभावशाली छवि का मिलाप प्रियंका को असाधारण नेता बनाता है.’

लेकिन आश्चर्य की बात है कि पुराने नेताओं के लगातार सुझाव देने, विपक्ष के प्रियंका की लोकप्रियता से घबराए हुए होने और अमेठी-रायबरेली-बेल्लारी में लोगों के बीच प्रियंका को लेकर उत्साह को देखने के बाद भी आखिर क्यों प्रियंका को सक्रिय राजनीति से दूर रखा जा रहा है. साल 2009 में जब प्रियंका अमेठी में अपने भाई के पक्ष में लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रही थीं तो उस समय पत्रकारों के साथ बातचीत में उनके पति रॉबर्ट वाड्रा का कहना था, ‘उन्हें (राजनीति में) अवश्य आना चाहिए… जब समय सही होगा तो वे ऐसा करेंगी.’ समय सही कब होगा इस बारे में पूछने पर वाड्रा का कहना था, ‘जब भी उन्हें लगेगा कि बच्चे बड़े हो गए हैं.’

इस बात को तीन साल गुजर चुके हैं. उनके बच्चे भी अब खासे बड़े हो चुके हैं. तो फिर वे राजनीति में प्रवेश क्यों नहीं कर रहीं? वसंत साठे भी यही सवाल करते हुए कहते हैं, ‘पहले प्रियंका का कहना था कि वे बच्चों से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहतीं मगर अब तो उनके बच्चे भी बड़े हो गए हैं. मुझे दुख इस बात का है कि सोनिया जी के जो वर्तमान राजनीतिक सलाहकार हैं उनका जमीन से कोई जुड़ाव कभी रहा ही नहीं, इसी वजह से कभी सोनिया जी को वह सलाह नहीं दे पाते जो पार्टी के हित में है.’

राशिद किदवई के अनुसार, ‘प्रियंका अपने निजी जीवन में काफी खुश हैं. उन्होनें हाल ही में रणथंभौर के शेरों पर एक कॉफी टेबल किताब लिखने में सहयोग किया है. उनकी वन्य जीवन और फोटोग्राफी में दिलचस्पी है. बच्चों का पालन-पोषण करने में खुश हैं. प्रियंका के लिए शायद राजनीति में आना या कैबिनेट मिनिस्टर बनना लक्ष्य नहीं है. यह परिवार इस मामले में दुनिया के दूसरे राजनीतिक परिवारों से अलग है. साथ ही अभी परिवार के दो सदस्य राजनीति में हैं ही. राहुल के सक्रिय राजनीति में आगे बढ़ने का फैसला सोनिया, राहुल और प्रियंका तीनों ने मिल कर लिया था. और प्रियंका इस फैसले से खुश हैं. ज्यादातर राजनीतिक परिवार में भाई-बहनों के बीच होड़ होती है. लेकिन यह परिवार एक-दूसरे के बहुत करीब है. इसलिए राहुल अपने काम से खुश हैं और प्रियंका अपने काम से.’

वहीं सईद नकवी एक पारंपरिक वजह की तरफ इशारा करते हैं, ‘मेरे ख्याल से हिंदुस्तानी मां बेटों को ज्यादा आगे बढ़ाती है और बेटियों को कम. और हिंदुस्तानी मां की ही तरह इटालियन माएं भी बेटे को ही ज्यादा चाहती हैं. और अगर बेटा कमजोर है, तो मां उसकी ज्यादा फिक्र करेगी ही.’ लेकिन अमेठी में यूथ कांग्रेस के लोकसभा उपाध्यक्ष धर्मेंद्र शुक्ला प्रियंका से उनके घर पर ही निजी बातचीत का हवाला देकर कहते हैं, ‘साल भर पहले हमने प्रियंका जी से कहा था कि दीदी आप को देश के लिए बाहर निकलने की जरूरत है. तब उन्होंने कहा था कि अभी समय है, समय का इंतजार करो. और वैसे भी प्रियंका कोई जमीन लेकर खेती तो करेंगी नहीं, राजनीति से जुड़े परिवार से हैं तो जरूर राजनीति में आएंगी. बस सही समय का इंतजार है.’

मगर क्या यह सही समय नहीं है? कांग्रेस की हर तरफ गिरती साख, सोनिया का बीमार और उम्रदराज होना और राहुल गांधी पर भी कई सवाल खड़े होना क्या प्रियंका के राजनीति में आने को पार्टी के लिए जरूरी नहीं बनाते? क्या राहुल गांधी को आने वाले वक्त में प्रियंका की मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी? इस पर वसंत साठे का कहना था, ‘कुछ लोग जन्मजात लीडर होते हैं और कुछ पर लीडरशिप थोपी जाती है. तो राहुल के ऊपर लीडरशिप थोपी गई है और प्रियंका जन्मजात लीडर हैं. भले ही राहुल अच्छा काम करने की कोशिश करते हों लेकिन अब करिश्माई व्यक्तित्व कहां से लाएं. वो अभी सिर्फ प्रियंका के पास है.’ राहुल की इन कमियों से सईद नकवी भी इतेफाक रखते हैं. देखिए राहुल गांधी ने आज तक कोई बड़ा इंटरव्यू नहीं दिया है. बस दो-चार लाइन बोल कर चले जाते हैं. तो हम कैसे मान लें कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वे बात कर सकेंगे. राहुल ने पिछले आठ सालों में आपसे बात की है क्या? उन्हें इतना लंबा वक्त मिला, प्लेटफार्म मिला, परिवार का सपोर्ट मिला. उसके बावजूद अपने आपको अभी तक साबित नहीं कर पाए हैं. कांग्रेस अभी नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रही है.’

कांग्रेस के भीतर यही गंभीर नेतृत्व संकट प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को लेकर छिट-पुट आवाजों को सही ठहरा रहा है. हालांकि राशिद किदवई के अनुसार राजनीति लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट के मुताबिक नहीं चलती, ‘इस तरह की अटकल लगाने से पहले हमें सोनिया गांधी के जीवन पर नजर डाल लेनी चाहिए. सिर्फ राजीव की पत्नी बनने का ख्वाब देखने वाली इस महिला को न चाहते हुए भी कांग्रेस पार्टी को चलाने के लिए तैयार होना पड़ा. इसलिए मैं कहता हूं कि राजनीति में कुछ भी पूर्व नियोजित नहीं है.’ मगर वही वसंत साठे का तर्क था कि क्यों किसी आपदा का इंतजार किया जाए, ‘अगर सोनिया जी के पद छोड़ने के बाद या किसी अप्रिय घटना के बाद प्रियंका को राजनीति में लाया जाता है तो उसका क्या फायदा. यह तो वही बात हुई न कि बाप मरेगा तभी बैल बंटेगा. यही सही वक्त है उन्हें राजनीति में लाने का.’

कुछ ही दिन पहले प्रियंका ने राजनीति में वे ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने की इच्छुक हैं इसका एक संकेत जरूर दिया था. उनका कहना था कि राहुल चाहें तो वे पूरे उत्तर प्रदेश में भी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर सकती हैं. मगर उनके इस सार्वजनिक प्रस्ताव पर न तो राहुल ने कोई प्रतिक्रिया दी और न ही पार्टी ने. जिस देश में राजनीतिक दल फिल्मी सितारों से लेकर तमाम अन्य आकर्षणों से मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में लगे रहते हैं वहां प्रियंका गांधी वाड्रा के इस प्रस्ताव पर जरा भी हलचल नहीं मचना तमाम सवाल खड़े करता है.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक भले ही राजनीति में प्रियंका खुद राहुल के लिए कभी चुनौती न बनना चाहें मगर यदि वे राजनीति में आती हैं तो ऐसा होना लाजिमी है. कांग्रेस और भारतीय राजनीति का भी इतिहास रहा है कि यहां वही बिकता है जो वोट दिलाता है. ऐसे हालात में सक्रिय राजनीति में आने पर प्रियंका राहुल से इक्कीस साबित हो सकती हैं. कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि हो सकता है राजनीति में राहुल के मुकाबले प्रियंका के ज्यादा सशक्त होने की बात सही नहीं हो मगर अभी तक वे काफी हद तक पूरे देश के लिए एक रहस्यमयी शख्सियत बनी हुई हैं. इसके विपरीत राहुल को काफी हद तक लोग जानने-समझने लगे हैं. इसलिए कुछ समय तक प्रियंका आकर्षण के पैमाने पर राहुल से इक्कीस लगकर कांग्रेस में एक और सत्ताकेंद्र बन सकती हैं. यह गांधी परिवार नहीं चाहता है और इसलिए प्रियंका को अमेठी और रायबरेली की राजनीति तक सीमित रखा जा रहा है.

एक आकलन यह भी है कि राहुल को अपनी असल लड़ाई 2014 में लोकसभा चुनाव के वक्त लड़नी है. उस वक्त शायद सोनिया राजनीति में उतनी सक्रिय न रहना चाहें. तब प्रियंका राहुल की सबसे बड़ी ताकत साबित हो सकती हैं. उस समय नई-नई राजनीति में उतरी प्रियंका कांग्रेस को जबर्दस्त मजबूती तो देंगी मगर इतने कम समय में देश की निगाह में अपने भाई के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बन सकेंगी.

अब अगर इन सभी बातों का लब्बोलुबाब निकालें तो प्रियंका गांधी जब भी सक्रिय राजनीति में आएंगी कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकती हैं. लेकिन उनका राजनीति में आना खुद उन पर नहीं बल्कि काफी हद तक उनके भाई पर इससे पड़ने वाले प्रभाव पर निर्भर करेगा. इस संबंध में एक घटना याद करना जरूरी हैः पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त सफलता के बाद राहुल और प्रियंका इकट्ठे मीडिया के सामने आए थे. उस वक्त पत्रकारों ने राहुल से पूछा था कि प्रदेश में अपनी सफलता का कितना श्रेय वे प्रियंका को देते हैं. सवाल पूरा होने से पहले ही प्रियंका का कहना था कि ‘इसका सारा श्रेय राहुल को जाता है.’ जबकि राहुल ने सफलता का श्रेय पूरी टीम को देकर इस सवाल को हवा में उड़ा दिया था.