क्या जम्मू कश्मीर में भाजपा-नैशनल कांफ्रेंस और गुलाम नबी आज़ाद की जल्दी बनने वाली पार्टी का गठबंधन बनाने की तैयारी है ? भाजपा से हाथ मिलाने पर पीडीपी को घाटी में हुए नुकसान के बावजूद एनसी यह रिस्क ले सकती है। आज़ाद, जिन्होंने हाल में कांग्रेस छोड़ी है और अपनी पार्टी बनाने की तैयारी कर रहे हैं, को लंबे समय से नैशनल कांफ्रेंस के सर्वेसर्वा पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला का करीबी माना जाता है। आज़ाद आजकल पीएम मोदी के प्रति ‘झुकाव’ का संकेत दे ही रहे हैं।
‘तहलका’ को मिली जानकारी के मुताबिक भले आज़ाद अभी नजाकत को समझते हुए भाजपा के साथ जाने की बात से इनकार कर रहे हों, उनके ताजा भाषणों से साफ़ दिख रहा है कि वे भाजपा, खासकर पीएम मोदी के प्रति नरम हैं। जम्मू कश्मीर में धारा 370 वापस लेकर मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया था। साथ ही इसे विधानसभा के साथ केंद्र शासित राज्य बना दिया था।
आज़ाद शुरू में मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ दिखे थे, लेकिन बाद में उन्होंने चुप्पी साध ली थी। कांग्रेस से अलग होकर तो अब आज़ाद खुलकर कहने लगे हैं कि जम्मू कश्मीर में धारा 370 को अगर कोई तत्काल बहाल कर सकता है तो वे पीएम मोदी ही हो सकते हैं, और कोई नहीं, क्योंकि मोदी ने ही तीन कृषि कानूनों को भी वापस लिया था।
अब आज़ाद कांग्रेस से बाहर चले गए हैं और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नैशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं तो संकेत मिल रहे हैं कि केंद्र अब्दुल्ला के प्रति नरम पड़ रहा है। भाजपा, जो किसी भी सूरत में जम्मू कश्मीर में अपनी सरकार बनाने की इच्छुक दिख रही है, पहले भी पीपल’स कांफ्रेंस के नेता सज्जाद लोन को अपने पाले में करके सरकार बनाने की असफल कोशिश कर चुकी है। लोन, जो कुछ महीने के लिए देश से बाहर हैं, से बात नहीं हो सकी।
जम्मू कश्मीर में अगले साल अप्रैल के आसपास विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। वहां हाल में विधानसभा क्षेत्रों की हदबंदी का काम पूरा हो गया था। हालांकि, बाहर के लोगों को वोट के अधिकार देने की चर्चा से कश्मीर में नाराजगी है। वहां आतंकवाद पर अभी भी काबू नहीं पाया जा सका है और अगस्त, 2019 में सुरक्षा बलों की जो संख्या बढ़ाई गयी थी, वह जस की तस है।
राज्य, खासकर कश्मीर में सुरक्षा बलों को मिले विशेषाधिकार वाले कानून अफस्पा (एएफएसपीए) वापस करने की भी मांग है, जैसी की उत्तर पूर्व में है। हालांकि, सरकार वहां ऐसी कोई ढील देने के मूड में नहीं। कारण है अभी भी वहां आतंकवादी घटनाएं जारी हैं। यह भी रिपोर्ट्स हैं कि आतंकवादी गुट स्थानीय युवाओं की भर्ती कर रहे हैं। ऐसे में शांतिपूर्वक विधानसभा चुनाव करवाने की चुनौती छोटी नहीं है।
लेकिन इन सब हालात के बावजूद राजनीतिक गतिविधियां शुरू होती दिख रही हैं। वैसे फ़ारूक़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली गुपकार गठबंधन ने हाल में मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने की बात कही थी। आज़ाद, जो फ़ारूक़ के करीबी माने जाते हैं, के भी गुपकार के साथ जाने की संभावना जताई जा रही थी। हालांकि, नैशनल कांफ्रेंस और भाजपा के ‘दोस्ती’ करने की तरफ बढ़ने की चर्चा से घाटी में राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है।
यह कहना कठिन है कि क्या नेशनल कांफ्रेंस सचमुच भाजपा के साथ जाने का रिस्क लेगी। वह पीडीपी के प्रति घाटी की जनता की नाराजगी देख चुकी है। लेकिन हाल में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रवींद्र रैना के एक इंटरव्यू में उमर अब्दुल्ला को ‘केंद्र शासित प्रदेश के शीर्ष नेताओं में रत्न की तरह हैं, वाले बयान से राजनीतिक माहौल में गर्मी आ गयी है।
जवाब में उमर ने जो कहा वह भी उत्सुकता बढ़ाने के लिए काफी है। उमर ने कहा – ‘राजनीति में विभाजन और नफरत ही होती है, ऐसा क्यों माना जाता है ? यह बात कहां लिखी है कि राजनीतिक असहमति के लिए हमें एक दूसरे से व्यक्तिगत रूप से घृणा करनी होगी ? मेरे राजनीतिक विरोधी हैं, मेरे दुश्मन नहीं हैं। मैं रवींद्र के अच्छे शब्दों के लिए आभारी हूं।’
जाहिर है भाजपा के लिए हाल तक तल्ख़ भाषा इस्तेमाल करने वाले नैशनल कांफ्रेंस नेता के यह बोल कुछ हट कर हैं। आज़ाद भी दिलचस्प भाषा बोल रहे हैं और रवींद्र रैना के शब्दों में भी उमर के प्रति मिठास झलक रही है। क्या कश्मीर में भाजपा-आज़ाद-एनसी के बीच ‘राजनीतिक खीर’ पकने की तैयारी है !