मान लीजिए कि अस्पताल में आपका कोई सगा, मित्र या पड़ोसी भर्ती है. निश्चित ही, एक दिन, समय निकालकर आप उसे देखने जाएंगे. बीमारी में न पहुंचे तो दोस्ती या रिश्तेदारी ही क्या? मान लें कि आपका मरीज मेरी देखरेख में भर्ती है. मैं इस हैसियत से आपको कुछ सलाहें देना चाहूंगा. आप इन सलाहों को मानकर यदि अस्पताल में ‘विजिट’ करने जाएंगे तो न केवल आपको सुविधा होगी बल्कि अस्पताल के कर्मचारियों के काम में भी व्यवधान नहीं पड़ेगा जो अमूमन ऐसे में पड़ा करता है.
पहली सलाहः जब तक बिल्कुल जरूरी न हो गया हो, अस्पताल के ‘विजिटिंग’ समय में ही अपना मरीज देखने जाएं. अस्पताल का काम ‘विजिटिंग आवर्स’ के हिसाब से ही आयोजित किया जाता है. आप कभी-भी मुंह उठाकर वहां पहुंच जाएंगे तो तब डॉक्टरों के राउंड, ड्रेसिंग, मरीजों की साफ-सफाई, ड्रिप लगाने, दवाइयों का बांटना चल रहा हो सकता है. ऐसे में आप अपने मरीज के इलाज में अड़ंगा डालेंगे और दूसरे मरीजों में भी. ऐसा न करें. फोन करके पता कर लें और ‘विजिटिंग समय’ में ही अस्पताल पधारें.
दूसरी सलाहः बड़ी-सी टीम लेकर अस्पताल न पहुंच जाएं. पत्नी तक तो ठीक है परंतु जो मिला, उसी को बताया कि ‘बॉस, नरेंद्र बीमार है – चलते हो देखने?’ और साथ लेकर चल दिए, यह बात ठीक नहीं. आप अस्पताल जा रहे हैं पिकनिक मनाने नहीं.
तीसरी सलाहः बच्चों को कतई साथ न ले जाएं. लोग, कई बार बहुत छोटे, बल्कि गोद में उठाने वाले या बमुश्किल लुढ़क कर चलने वाले बच्चों तक को अस्पताल लेकर पहुंच जाते हैं. याद रहे कि अस्पताल बीमारियों का समंदर है. बच्चे मौके तथा स्थान की नजाकत भी नहीं समझते. वे बड़ा-सा बरामदा देखकर दौड़ जाते हैं, वार्ड में छुपा-छुपाई खेलने लगते हैं और वहां किसी भी मशीन या दवाइयों को उलट-पुलट सकते हैं. आप बाद में उन्हें ठोकें-पीटें, डांटें-फटकारें – इससे बेहतर है कि बच्चों को साथ लेकर ही न जाएं.
चौथी सलाहः बच्चों को तो फिर भी एक बार अम्ल है - क्या करें, बच्चे हैं – पर आप भी जब वहां जाकर यूं ही, बच्चों की तरह जिज्ञासावश बीपी यंत्र, स्टेथोस्कोप, मॉनीटर, आक्सीजन सिलेंडर, बेडपॉन इत्यादि से खेलने लगते हैं, तब उसका क्या किया जाये? मैं शुरू में ही बता चुका हूं कि अस्पताल की चीजों का बिना बात के छूने पर अस्पताल का ‘क्रॉस इन्फेक्शन’ भी आपको होने का डर रहता है.
पांचवीं सलाहः मरीज के कागजों (अस्पताल की ‘केस-शीट’ इत्यादि) को न उलटें-पलटें. वहां सब कुछ यूं भी डॉक्टरी भाषा में तकनीकी तौर पर दर्ज किया जाता है जिसे समझने में कई बार दूसरे डॉक्टर तक को नानी याद आ जाती है. सो आप कुछ भी नहीं समझेंगे बल्कि गलत समझकर कन्फ्यूज अलग होंगे. याद रहे कि मरीज की रिकॉर्ड-फाइल एक महत्वपूर्ण क्लीनिकल (तथा कानूनी) दस्तावेज है. आपकी छेड़छाड़ से इधर के पेज उधर हो गए, अथवा महत्वपूर्ण टेस्ट रिपोर्टें गुम गईं या अदल-बदल गईं तो मरीज के इलाज में गंभीर गड़बड़ियां तक हो सकती हैं.
छठवीं सलाहः मरीज के पास धरे एक्स-रे, ईसीजी आदि न देखने लग जाएं. पल्ले कुछ पड़ेगा नहीं. ऊपर से इधर-उधर कर देंगे तो बाद में डाॅक्टर रोता फिरेगा. गीले या गंदे हाथ लगा दिए तो एक्स-रे फिल्म को अलग खराब कर देंगे. फिर तो मरीज और डॉक्टर दोनों रोते फिरेंगे.
सातवीं सलाहः मरीज के पास थोड़ी देर बैठकर ही वापस चले जाएं. गप्पें मारने न बैठ जाएं. बेचारा बीमार है. उसे आराम करने दें. वहां महफिल न लगा लें. याद रखें आप वहां पिकनिक पर नहीं आए हैं कि पूरा मजा वसूलकर ही वापस निकलेंगे.
आठवीं सलाहः आपके मरीज की बीमारी, इलाज तथा खान-पान इत्यादि के बारे में डॉक्टर ने उसको तथा उसके चौबीसों घंटे वहां रहने वाले परिवारजनों को पहले ही बताया होता है. आप अतिरिक्त उत्साह में तथा अपनी ‘तथाकथित चिंता’ जताने के लिए यह तय न कर लें कि मैं अभी डॉक्टर से पूछता हूं न कि इनका बुखार कल से उतरा क्यों नहीं है. यह चिंता हो तो साथ वालों से दरियाफ्त कर लें कि डॉक्टर लोग क्या बता रहे हैं. आखिर डॉक्टर कितने लोगों को वही बात बताएगा?
नौवीं सलाहः सलाह यह है कि जाकर मरीज को अपनी सलाह देने न बैठ जाइए. उन्हें अपने उन चाचा जी का किस्सा न सुनाने लगें जिनको ‘एकदम तेरी ही तरह’ बुखार आया था और बाद में ‘मेनिन्जाइटिस’ निकला तो मरते-मरते बचे थे. मरीज को डराएं मत. हमारे देश में पुराना मरीज डॉक्टर से भी ज्यादा समझदार होता है. कम से कम वह तो यही मानता है. अपने बीपी या हार्ट की दवाइयां मरीज पर न थोपें. वही बीमारी हर मरीज में अलग-सा इलाज का तरीका मांगती है. डॉक्टर का काम डॉक्टर को करने दें. अपने गैरजिम्मेदाराना ‘लूज कमेंेट्स’ से मरीज का विश्वास डाॅक्टर में न डिगाए.
दसवीं और अंतिम सलाह यह है कि यदि इनमें से कोई भी सलाह अस्पताल का कोई भी स्टाफ आपको देता है तो बुरा न मानें. वह आपके मरीज के लिए ही ऐसा कह रहा है. आप ये सलाहें मानेंगे तो अस्पताल की बड़ी मदद करेंगे.