कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी पर अंकुश के लिए बिना दवा के सबसे कारगर तरीका सोशल डिस्टेंस के तौर पर सामने आया। चूँकि चीन में सबसे पहले इस नामुराद बीमारी ने पाँव पसारे, लिहाज़ा यह सुरक्षित तरीका वहीं से अस्तित्त्व में आया। वहाँ इसके नतीजे काफी अच्छे रहे और बिना किसी दवाई, टीका या वेक्सीन के चीन ने काफी राहत पायी। इसके अलावा अन्य कोई चारा नहीं था। हमारे यहाँ इसका पालन पुलिस के अलावा और कौन करा सकता है? प्रभावित लोगों का उपचार डॉक्टरों, नर्सों और अन्य सहायकों के अलावा और कौन कर सकता है?
दुर्भाग्य की बात यह कि हमारे देश में इन्हीं दो वर्गों पर जानलेवा हमले तक हुए। भारत के अलावा अन्य किसी देश में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। अमेरिका में विरोध स्वरूप कुछ लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन कहीं कोई हिंसा या हिंसक घटना नहीं हुई। हमारे यहाँ कुछ घटनाएँ तो ऐसी घटीं, जिन्हें देखकर लगता नहीं कि किसी सभ्य समाज में ऐसी घटनाएँ घट सकती हैं।
पटियाला (पंजाब) की वह घटना देश के लोगों को झकझोर देने वाली रही, जिसमें धारधार हथियारों से लैस तथाकथित निहंगों ने एक एएसआई (अब एसआई) की कलाई काट दी, जबकि तीन अन्य को जख्मी कर दिया। लॉकडाउन की अविध में पुलिस पर जानलेवा हमले की सम्भवत: यह पहली घटना रही, जिसने आम जनमानस की धारणा पुलिस के प्रति बदली।
अब तक तो जो घटनाएँ हो रही थीं, उनमें पुलिस कानून का पालन कराने के लिए काफी सख्ती कर रही थी। कहीं-कहीं तो बर्बरता से पिटाई की घटनाओं के बारे में पढ़कर, सुनकर या वीडियो देखकर पुलिस के प्रति आक्रोश की भावनाएँ तक पैदा हुईं। सड़कों पर किसी काम से या फिर कहीं-कहीं तफरी पर निकले लोगों को बेरहमी से पीटा गया। उन्हें समझा-बुझाकर या चेतावनी देकर भी तो छोड़ा जा सकता था। वे देश के लोग हैं। कानून का पालन बेशक नहीं कर रहे, पर कोई दंगाई तो नहीं; जिनसे कानून व्यवस्था बिगडऩे का खतरा हो। ऐसी पिटाई की घटनाओं से लोगों के मन में पुलिस की वही क्रूर छवि अंकित रही, जो अमूमन रहती है। पर पंजाब की इस घटना से पुलिस के प्रति लोगों की धारणा बदली। उन्हें खाकी में वो जांबाज़ दिखे, जो ड््यूटी के दौरान जान देने में भी गुरेज़ नहीं करते और हमलावरों के प्रति गुस्से की इस भावना ने जैसे पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में डॉक्टर की टीम पर हमला हुआ। इसमें डॉक्टर एस.सी. अग्रवाल तो बुरी तरह से घायल हो गये, जबकि टीम के अन्य सदस्यों को जान बचाकर भागना पड़ा। उनके साथ दो-चार पुलिसकर्मी भी थे; लेकिन बेकाबू भीड़ के आगे उन्हें भी जान बचाकर भागना पड़ा। गनीमत रही कि हमले में किसी की जान नहीं गयी। लेकिन इसने डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकॢमयों की सेवा भावना के ज•बे को तोड़कर रख दिया।
इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप देश के अन्य हिस्सों में बिना पुख्ता सुरक्षा के डॉक्टरों की टीमों ने मोहल्लों और गलियों में जाकर नमूने लेने से मना कर दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि बावजूद इन घटनाओं के कोरोना के खिलाफ लड़ाई इसी तरह से जारी रहेगी। सरकारें भी ऐसी घटनाओं को गम्भीरता से ले रही हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो ऐसे लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मामले दर्ज करने से गुरेज़ नहीं की। दु:ख इस बात का है कि कुछ अराजक तत्त्वों की वजह से अगर अभियान नाकाम होता है, तो इसकी कीमत हज़ारों-लाखों लोगों को अपनी जान की कीमत देकर चुकानी पड़ेगी।
इस महामारी से बचाव में लगे डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्यकॢमयों, पुलिस और अन्य गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों पर उग्र होकर हमले कर रहे लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी ही चाहिए। इनके खिलाफ गम्भीर धाराओं के तहत मामले दर्ज होने चाहिए। इसके बाद ठोस साक्ष्यों के साथ मामले अदालत में जाएँ, ताकि ऐसे लोग सज़ा से बच नहीं सकें।
ऐसी घटनाएँ देश के कई हिस्सों में हुईं, हो रही हैं और अगर अराजक लोगों से सख्ती से नहीं निपटा गया, तो आगे भी होती रहेंगी। एक विशेष समुदाय में भय का माहौल क्यों है? क्या कोई साज़िश के तहत ऐसा है या फिर बढ़ते अविश्वास की भावना का परिणाम है यह?
डॉक्टरों और पुलिस पर हमले की ज़्यादातर घटनाएँ एक विशेष समुदाय से जुड़ी रहीं। गलत संदेश गया कि डॉक्टर उन्हें स्वस्थ होते हुए भी ऐसी कोई दवा या टीका लगा देंगे, जिससे वे कोरोना वायरस से ग्रस्त हो जाएँगे। यह सब नासमझी और मूर्खतापूर्ण बातें हैं। पूरा देश ही क्यों विश्व ही महामारी से बचाव के लिए लड़ रहा है। ऐसे में ऐसी सोच को क्यों पैदा होने दिया जा रहा है?
जहाँ लोकतंत्र नहीं, वहाँ सरकारें सख्ती से किसी भी आदेश का पालन कराने का अधिकार रखती हैं। लोगों को भी इस बात का पता होता है। सवाल है कि जिन देशों में लोकतंत्र है और लोग जनप्रतिनिधियों को चुनकर सरकार बनाते हैं, वहाँ क्या आदेशों का उल्लंघन करने का किसी को कोई अधिकार है? उत्तर होगा नहीं। बावजूद इसके सब कुछ हो रहा है। चीन और उत्तर कोरिया जैसे देशों में भी जैसा वहाँ की सरकारों ने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ। वहाँ लोगों ने हर आदेश का पालन किया। पर हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो सका। नतीजतन अभद्र घटनाएँ हो रही हैं।
लॉकडाउन के दौरान पटियाला (पंजाब) में नाके ड्यूटी पर तैनात पुलिस टीम पर हमले की खबर अपने में चौंकाने वाली है। यह घटना नयी नहीं, बल्कि अपने आपमें अलग है। किस तरह से तथाकथित निहंगों ने वहाँ खड़े पुलिसकॢमयों पर जानलेवा हमला कर दिया। किसी को ऐसी स्थिति का अंदाज़ा नहीं रहा होगा। यह सब कुछ ही मिनटों में हो गया। पुलिस ने तो ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें ही जान बचाने के लिए भागना पड़ सकता है।
पंजाब की घटना में तो पुलिसकॢमयों का शुरुआती बर्ताव भी बुरा नहीं था। वहाँ नाके पर आगे जाने के लिए जब पुलिसकॢमयों ने एक पिकअप गाड़ी चालक से कफ्र्यू पास की माँग की, तो उसे अनसुना किया गया। अवरोधक तोड़कर जब गाड़ी आगे बढ़ी, तो पुलिस टीम ने गाड़ी पर डंडे चलाये। इस दौरान अन्दर से निकले लोगों ने हाथों में कृपाण (कटार) लेकर वहाँ सुरक्षा में खड़े वर्दीधारियों पर हमला कर दिया। इसमें एक सहायक पुलिस निरीक्षक की कलाई कट गयी, जबकि तीन अन्य को जख्मी हो गये। हालाँकि चंडीगढ़ के पीजीआई में ऑपरेशन के बाद कटी कलाई जोड़ दी गयी और अन्य जख्मी जवानों का इलाज भी कर दिया गया। फिलहाल वे सब ठीक हैं।
इस घटना की प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। लॉकडाउन के दौरान शायद देश की यह पहली ऐसी घटना रही, जिसने आम जनमानस के मन में कई तरह के सवाल खड़े कर दिये। जैसे, क्या मौज़ूदा स्थिति में पुलिस पर ऐसे हमले की कल्पना भी की जा सकती है? सामान्य दिनों में ऐसी घटनाएँ होती हैं, चाहे उनके होने के तरीके अलग-अलग हों। उन्हें उतना महत्त्व नहीं मिलता, जितना इस घटना को मिला। सबसे सुखद बात यह रही कि इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। लेकिन यह भी अच्छा हुआ कि इस घटना को धाॢमक या राजनीतिक रंग नहीं दिया जा सका।
सिखों के सबसे बड़े धाॢमक संगठन शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने इस घटना की घोर निंदा करते हुए हमलावरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की माँग के साथ इस घटना को किसी धर्म विशेष से जोड़कर न देखने की बात भी कही। इससे बड़ी बात निहंग प्रमुख बाबा बलबीर सिंह ने कह दी। उन्होंने हमलावरों के कृत्य की कड़ी आलोचना करते हुए इसे असामाजिक तत्त्वों की कारस्तानी बताया। अन्य धाॢमक और सामाजिक संगठनों ने कायराना हमला बताते हुए उनके खिलाफ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई की माँग की।
यह घटना पटियाला में हुई, जो मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह का गृहनगर भी है। ऐसे में पुलिस के मनोबल को और ज़्यादा मज़बूत करने की ज़रूरत थी और सरकार ने ऐसा करके पूरा समर्थन भी दिया। हमलावर एक धर्म विशेष के थे; अगर उनको किसी भी तरह से अपरोक्ष समर्थन मिल जाता, तो इसका व्यापक असर होता। पर ऐसा नहीं हुआ और होना भी नहीं चाहिए। यही वजह रही कि पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करके एक महिला समेत 10 तथाकथित निहंगों को गिरफ्तार कर लिया। यह कार्रवाई भी शान्तिपूर्ण नहीं रही, बल्कि इसके लिए मान-मनौव्वल के बाद सख्ती बरती गयी। सभी आरोपी पुलिस हिरासत में हैं।
सवाल यह कि आिखर उस दिन ऐसी क्या नौबत आ गयी, जिसमें पिकअप सवारों ने पुलिस पर जानलेवा हमला कर खाकी को ही चुनौती दे डाली? उनके इतना उग्र होने की मुख्य वजह क्या रही होगी? क्या हमलावर कोरोना वायरस से उपजी गम्भीर स्थिति को जानते नहीं थे? या फिर उन्हें सब कुछ अपनी मर्ज़ी से ही करना था? कफ्र्यू लगाने और इतनी सख्ती के कारणों का तो उन्हें पता ही रहा होगा! फिर वे बिना पास के कफ्र्यू के बीच बाहर क्यों निकले?
बता दें कि निहंगों को सिख धर्म में गुरु की फोज के तौर पर जाना जाता है। अलग बाणे (वेशभूषा) में दिखने वाले ये लोग हथियारबन्द रहते हैं। मान्यता है कि ये हथियारों का प्रयोग लोगों को ज़ुल्म से बचाने के लिए करते हैं और ज़रूरत पडऩे पर अपना बचाव भी करते हैं। पटियाला नाके पर तो उन्हें अपने बचाव के लिए हथियार निकालने की ज़रूरत ही नहीं थी। पास न होने पर ज़्यादा-से-ज़्यादा चालान या अन्य कानूनी कार्रवाई होती। अगर गुरद्वारे के काम का हवाला देते, तो शायद उन्हें उच्चाधिकारों से अनुमति भी मिल सकती थी।
वैसे नाका तोडऩे के बाद जिस तरह से पिकअप पर डंडे चलाये गये, उससे भी निहंग आवेश में आ गये। इनका प्रमुख हमलावर बलविंदर सिंह कृपाण लेकर दूर तक दौड़ा, जबकि दो अन्य वहीं खड़े तलवारें लहराते रहे। बाद में पूरे तंत्र को धता बताते हुए ये निकल गये और गुरद्वारे में पहुँच गये।
एक वर्ग का कहना है कि पुलिस ने गाड़ी पर डंडे चलाकर एक तरह से उन्हें हमला करने की भूमिका तैयार कर दी। उनकी राय में पुलिस ने संयम बरता होता, तो शायद यह घटना टल जाती। बहरहाल, जो भी हुआ, उसकी चौतरफा निंदा हुई। अपुष्ट सूत्र बताते हैं कि बलबेड़ा के जिस गुरद्वारे से हमलवरों की गिरफ्तारी हुई, वहाँ से हथियार, मादक पदार्थ और भारी मात्रा में नकदी आदि मिली है। निहंग बलविंदर सिंह का अतीत भी उजला नहीं है। ज़मीन कब्ज़ाने और छिटपुट विवाद में उसके हिंसक होने की कई बातें सामने आयी हैं। पास की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की शिकायत भी उसके खिलाफ थी; लेकिन धमकी के बाद वादी ने उसे वापस ले लिया था।
पुलिस पर जानलेवा हमले की घटना कोई नयी तो नहीं, पर सवाल मौज़ूदा हालात का है, जिसमें पुलिस पर लोगों की सुरक्षा की और अहम् ज़िम्मेदारी है। राज्य में कफ्र्यू के शुरुआती दिनों में सोशल मीडिया पर आने वाली वीडियो में ज़्यादातर पंजाब से जुड़ी ही देखने को मिलीं, जिनमें कफ्र्यू का उल्लंघन करने पर पुलिसकर्मी लोगों को बेरहमी से पीटते नज़र आये। देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसी घटनाएँ हुईं, लेकिन प्रमुखता इसी राज्य को मिली। इसकी बहुत तीव्र प्रतिक्रिया हुई, जिस पर सरकार ने संज्ञान लिया। उसके बाद बाकायदा ऐसी घटनाओं में कमी आयी। फिर तो यह होने लगा कि बड़े अधिकारी हाथ जोड़कर लोगों से घरों में रहने और कफ्र्यू का पालन करने का आग्रह करते हुए दिखे। इससे लोगों में पुलिस के प्रति सोच बदली।
ज़रूरतमंदों को घर-घर राशन पहुँचाने की खबरों और सोशल मीडिया पर आने वाले वीडियो ने पहले की छवि को बिल्कुल बदलकर रख दिया। यही वजह रही कि हमले के बाद आरोपियों पर कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई करने की माँग उठी। सोशल मीडिया पर आरोपियों के समर्थन में डाले गये पोस्ट पर पुलिस ने कार्रवाई की। घटना को राजनीतिक या धाॢमक रंग मिल जाता, तो फिर पुलिस के मनोबल का क्या होता? कौन खतरा उठाने के लिए आगे आता? इन सभी को देखते हुए सरकार ने कड़ी कार्रवाई की अनुशंसा दी, जो मौज़ूदा स्थिति का तकाज़ा भी था।
फिलहाल घटना को निहंगों से जोड़कर देखे जाने की भी आलोचना हो रही है। निहंग प्रमुख बलबीर सिंह ने आरोपियों को अपने संगठन का सदस्य होने से इन्कार कर दिया है। उनकी राय में कफ्र्यू के दौरान बिना अनुमति के निकलने और पास माँगने पर ड्यूटी पर तैनात पुलिसकॢमयों पर ही जानलेवा हमला करना कानून का खुलेआम मज़ाक उड़ाने जैसा है। जब सभी लोग आदेशों की पालना कर रहे हैं, तो बाणा पहने निहंगों के पास ऐसे क्या विशेषाधिकार थे, जिसके चलते वे मनमानी करने पर उतारू हो गये?
निहंग पीडि़त लोगों की रक्षा के लिए आगे आएँ, तो उनका और हमारे संगठन का बड़प्पन है। सिख धर्म यही सिखाता है कि हथियार किसी पर बेवजह हमला करने के लिए नहीं, बल्कि कमज़ोर की रक्षा के लिए हैं। उन लोगों न केवल धर्म के विपरीत काम किया, बल्कि आम लोगों में निहंगों की छवि को भी धूमिल करने की कोशिश की। इसलिए उन पर कानूनी कार्रवाई वाजिब है।
कहा जा रहा है कि हमले का प्रमख आरोपी बाबा बलविंदर सिंह विवादास्पद रहा है। वह करीब 20 साल पहले अहमदगढ़ से यहाँ आया था। उसने निजी प्रयास से बलबेड़ा नामक स्थान पर गुरुद्वारा खिचड़ी साहिब बनवाया। बलविंदर पर आरोप है कि उसने गुरुद्वारे के साथ लगती डेढ़ एकड़ ज़मीन पर कब्ज़ा कर रखा है। इस बाबत भूपेंद्र सिंह ने शिकायत दी थी, लेकिन बाद में कोई कारण बताये बिना उसने अपनी शिकायत वापस ले ली थी।
खाकी का गौरव
पुलिस की बर्बरता की घटनाएँ आमजन में सिहरन पैदा कर देती हैं। सच बाहर लाने या फिर सबक सिखाने के लिए हिरासत में मौत या फिर इसके मुहाने पर पहुँचाने की घटनाओं से खाकी भी काफी बदनाम है। एनकाउंटरों पर भी सवाल उठते रहे हैं। लेकिन जब उन पर हमला होता तो है, लोग उनके समर्थन में भी आ खड़े होते हैं। दिल्ली में एनआरसी के मुद्दे पर एक शख्स के निहत्थे पुलिसकर्मी पर पिस्तौल तान देने की घटना के बाद कैसे वह पुलिसकर्मी जांबाज़ के तौर पर उभरा। पुलिस का काम ही कुछ ऐसा है कि कभी-न-कभी कोई एक पक्ष उसकी आलोचना में आ खड़ा होता है। पटियाला की घटना में भी यही हुआ। कानून का पालन कराने के दौरान उनकी जान पर बन आयी। ऐसी या समकक्ष घटनाएँ पहले भी होती रही हैं और भविष्य में न हों, यह सम्भव नहीं। लेकिन खाकी को अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करनी ही होगी, क्योंकि यही उनकी ड्यूटी है और देश के प्रति फर्ज़ भी।
जांबाज़ी का सम्मान
मुस्तैदी से ड्यूटी निभाने के दौरान घायल होने वाले पंजाब पुलिस के सहायक पुलिस निरीक्षक (एएसआई) हरजीत सिंह को राज्य सरकार ने तरक्की देकर पुलिस निरीक्षक (एसआई) बना दिया है। उनके अलावा तीन घायल होने वाले थानाधिकारी बिक्कर सिंह, एएसआई रघबीर सिंह और राज सिंह के साथ ही पंजाब मंडी बोर्ड के यादवेंद्र सिंह को सराहनीय सेवा के लिए सम्मानित किया है। मुख्यमंत्री ने पुलिस महानिदेशक दिनकर गुप्ता को घटना के बाद जांबाज़ पुलिसकॢमयों को उचित पुरस्कार देने को कहा था। मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिये पीजीआई में उपचार करा रहे हरजीत सिंह से बात करके उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना की और उनकी बहादुरी का सम्मान किया। मुख्यमंत्री ने उन्हें बाकायदा बेटा कहकर सम्बोधित किया। सरकार की इस कार्रवाई से पुलिस का मनोबल और ज़्यादा बढ़ा है।
ऑपरेशन सफल
कलाई कटने के बाद पुलिस अधिकारी हरजीत सिंह की हिम्मत प्रशंसनीय है। उनकी सकारात्मक सोच और ज•बे को उनका ऑपरेशन करने वाली टीम के प्रमुख डॉक्टर रमेश शर्मा भी मान चुके हैं। रमेश शर्मा की राय में अगर कोई कमज़ोर व्यक्ति होता और उसकी सोच नकारात्मक होती, तो सम्भवत: ऑपरेशन इतना सफल नहीं होता। जो व्यक्ति अपने कटे अंग के साथ अस्पताल तक पहुँच जाए और भयंकर दर्द के बावजूद उसकी हिम्मत कायम रहे, उसका नाम हरजीत सिंह ही हो सकता है।
घटना के बाद पंजाब के पुलिस प्रमुख दिनकर गुप्ता ने पीजीआई चंडीगढ़ के निदेशक डॉक्टर जगत राम को घटना की सूचना देते हुए ऑपरेशन की तैयारी रखने का संदेश दिया था। उन्होंने घटना की गम्भीरता को देखते हुए तुरन्त प्लास्टिक सर्जरी के प्रमुख डॉक्टर रमेश शर्मा को अपनी टीम तैयार रहने को कहा। पटियाला से चंडीगढ़ पहुँचने में करीब एक घंटा लगा। समय रहते संस्थान में पहुँचने का नतीजा यह रहा कि ऑपरेशन सफल हो गया। देरी होने पर इसकी सम्भावना और कम हो सकती थी।
डॉक्टर शर्मा की टीम में डॉक्टर सुनील गाबा, डॉक्टर जैरी आर. जोन, डॉक्टर सूरज नय्यर, डॉक्टर मयंक, डॉक्टर चंद्रा और डॉक्टर शुभेंदु थे। करीब साढ़े सात घंटे तक ऑपरेशन चला। 12 अप्रैल के बाद हरजीत सिंह का दूसरा ऑपरेशन भी हो गया है। डॉक्टरों ने ऑपरेशन को पूरी तरह से सफल बताया है। कुछ महीनों तक हाथ की फिजियोथेरेपी करानी होगी। करीब छ: माह के दौरान हाथ के पूरी तरह से सामान्य होने की बात कही गयी है। खुद हरजीत सिंह मानते हैं कि वे पूरी तरह से ठीक हो जाएँगे; क्योंकि उन्हें हाथ की हलचल का काफी कुछ आभास होने लगा है।
हरजीत सिंह के परिवार में पत्नी बलविंदर कौर के अलावा एक बेटा अर्शप्रीत सिंह है। बेटे अर्शप्रीत को घटना की जानकारी टीवी के माध्यम से मिली, तो वह सन्न रह गया। उसने तुरन्त टीवी की केबल ही निकाल दी, ताकि माँ को इसके बारे में पता न चले। कुछ अप्रिय होने की आशंका से उसने ऐसा किया। मगर ऐसी बातें भला ज़्यादा समय तक कहाँ छिप पाती हैं? कुछ समय बाद परिवार के लोगों को घटना के बारे में पता चल गया। ऑपरेशन की सफलता के बाद सभी खुश हैं। करीबी शहर राजपुरा में रहने वाले गुरजीत सिंह को भाई हरजीत सिंह की बहादुरी पर गर्व है।
कौन होते हैं निहंग?
सिख धर्म में निहंगों का अपना इतिहास है। निहंग का मतलब है- निर्बलों की रक्षा करने वाला। ये देश की रक्षा के लिए गुरुगोबिंद सिंह द्वारा तैयार फौज के लोग हैं। इन्हें निडर सैनिक माना जाता है। देश में इनकी संख्या हज़ारों में है। इनके तरुणा दल, विधिचंद दल और बुड्ढा दल हैं। इन्हें गुरु की लाडली फौज के नाम से भी जाना जाता है। गुरबाणी का पाठ और बाणे (नीली वेशभूषा) में रहना इनकी पहचान है। इनमें ब्रह्मचारी और गृहस्थ दोनों होते हैं। ये ज़्यादातर समूहों में रहते हैं और एक जगह से दूसरी जगह सिखों के ऐतिहासिक स्थलों पर जाते रहते हैं। हथियार चलाने में इन्हें निपुणता हासिल होती है। कमज़ोर की रक्षा करना इनके धर्म में शामिल है। निहंग घोड़ों पर शौर्य दिखाने के अलावा ये हथियार चलाने में माहिर होते हैं। सिखों में इनका बहुत महत्त्व है। इस समय निहंग प्रमुख बाबा बलबीर सिंह हैं।
अतीत के पन्ने
विश्व में महामारियों का इतिहास रहा है। एक संयोग 20 का भी रहा है। वर्ष 1720 में द ग्रेट प्लेग ऑफ मार्शले नामक बीमारी फैली। जो फ्रांस के मार्शले शहर से उपजी और उसे यही नाम दे दिया गया। इसमें एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हुई। तब विज्ञान इतना समृद्ध नहीं था। लिहाज़ा जब तक इसके कारणों का पता चलता, तब तक व्यापक स्तर पर इससे जनहानि हो चुकी थी। इसके ठीक 100 साल बाद वर्ष 1820 आया, तो एशियाई देशों में हैज़ा फैला। यह इसी उपमहाद्वीप में रहा अन्य विश्व के देश इससे प्रभावित नहीं हुए। ठीक इसके 100 साल बाद 1920 में स्पेनिश फ्लू एक विकराल महामारी के रूप में आया। स्पेन से निकली इस बीमारी ने महामारी का रूप लिया, तो देखते-ही-देखते यह विश्वव्यापी हो गयी।
जानकारी के मुताबिक, इसमें मरने वालों की संख्या पाँच करोड़ के आसपास तक बतायी जाती है। संख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसकी विकरालता को लेकर शक की कोई गुंजाइश नहीं है। इस सदी की बात करें, तो वर्ष 2020 में कोरोना वायरस के तौर पर विगत 400 साल में चौथी बार महामारी ने दस्तक दी है। वैश्विक स्तर पर फैली इन महामारियों से लाखों की तादाद में लोगों की मौत हुई। खास बात यह है कि इन सभी महामारियों की जन्मस्थली कभी भारत नहीं रहा है। लेकिन वह इससे प्रभावित नहीं हुए बिना भी नहीं रह सका है। चार सदियों में बड़ी महामहारियों के बीच ऐसा नहीं कि यहाँ भी सब कुछ ठीक रहा हो। उससे पहले महामारी प्रकृति के प्रकोप के तौर पर जानी गयी। वर्ष 1347-1351 के दौरान चीन में प्लेग फैला। इसका विस्तार अन्य उप महाद्वीपों में हुआ। उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक, इससे तीन करोड़ से ज़्यादा लोग मौत के मुँह में समा गये। इसकी भयावहता और मारक क्षमता के कारण इसे ब्लैक डेथ के नाम से जाना गया। चूहों के पिस्सुओं से होने वाली इस बीमारी के आतंक से भारत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका था। वर्ष 1860 में चीन में फिर से प्लेग की दस्तक हुई, इससे एशियाई देश बेहद प्रभावित हुए, विशेषकर भारत। इसे तब मॉडर्न प्लेग का नाम दिया गया और इस पर अंकुश पाया गया, तब तक सवा करोड़ से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी। इनमें एक करोड़ के लगभग भारत के लोग ही थे। महामारियाँ रूप और कारण बदल-बदल कर आती रही हैं और हज़ारों-लाखों लोगों को यह सोचने पर मजबूर करती रही हैं कि आिखर इंसान ज़िन्दा रहे, तो कैसे?
वर्ष 1950 में एशियन फ्लू और 1968 में हॉन्ग कॉन्ग फ्लू, कुछ साल पहले तक स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू। कुल मिलाकर पशु-पक्षियों से होने वाली बीमारियाँ ही बाद में महामारी बनती हैं। कोरोना वायरस के बारे में भी यही बात कही जाती है। हालाँकि अधिकृत और वैज्ञानिक तौर पर कहना मुश्किल है कि यह वायरस इंसानों में कैसे आया? अलग-अलग धारणाओं के बीच फिलहाल यह शोध का विषय ही कहा जा सकता है।