शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
सरकार और उप राज्यपाल वी.के. सक्सेना की शिकायतें आये दिन करते रहते हैं। अब दिल्ली में नगर निगम के मेयर के चुनाव में अड़चन को लेकर बवाल मचा हुआ है। सच तो यही है कि भाजपा किसी भी हाल में अपना मेयर चुनना चाहती है, जिसके चलते वह इसे नगर निगम चुनाव की तरह ही लम्बे समय तक लटकाना चाहती है।
पर दुर्भाग्य यह है कि भाजपा नेता चुनाव न होने देने का आरोप आप पर लगा रहे हैं। वहीं आप नेता इसे लेकर देश की शीर्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाने से लेकर सडक़ पर उतरने तक के लिए ख़ुद को मजबूर बता रहे हैं। दिल्ली की जनता को मेयर चुनाव से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं है। जनता चुपचाप यह तमाशा देख रही है। कुछ लोग ज़रूर इस पर चर्चा तथा बहस कर रहे हैं, जिसमें दोनों पक्षों के लोग हैं। भाजपा के पक्ष के भी और आप के पक्ष के भी।
दिल्ली को दिल्ली की जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार ही ठीक से नहीं चला पा रही है। यह सब केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण हो रहा है। उप राज्यपाल की अनुमति के बिना कोई भी निर्णय न ले पाने में असमर्थ दिल्ली सरकार केंद्र सरकार के सौतैले छोटे भाई की तरह अकेली और असहाय दिख रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा दूसरे आप नेता इसका दोष केंद्र दिल्ली नगर निगम को मेयर न मिलने से दिल्ली में नगर निगम के कई महत्त्वपूर्ण फ़ैसले रुके हुए हैं। बजट भी रुका हुआ है। नगर निगम के कई कार्य रुके हुए हैं। कई कार्य धीमी गति से चल रहे हैं। कई कार्यों का बजट ख़त्म हो रहा है। देखने में आया है कि जनता की चिन्ता किये बिना अपनी-अपनी चिन्ता में लगी राजनीतिक पार्टियाँ किसी भी हाल में सत्ता चाहती हैं। भाजपा इस दौड़ में सबसे आगे है।
दिल्ली में नगर निगम के मेयर का चुनाव न हो पाने के चलते डिप्टी मेयर तथा स्थायी समिति के छ: सदस्यों का चुनाव भी रुका हुआ है। तीसरी बार चुनाव न हो पाने से परेशानी उन्हें नहीं है, जो सत्ता में हर दिन मलाई काट रहे हैं, बल्कि उन्हें है, जो हर दिन मेहनत करके आजीविका चलाते हैं। मेयर चुनाव को लेकर सदन की तीसरी बैठक बेनतीजा रहने का अर्थ है- दिल्ली के उप राज्यपाल वी.के. सक्सेना की बड़ी नाकामी; जो कि दिल्ली को अपने दम पर चलाने का ठेका लेकर बैठे हैं। जब एक पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ अपना मेयर चुनने की स्थिति में हैं, तो उसे क्यों मेयर नहीं चुनने दिया जा रहा है, यह बात गले से नहीं उतरती। पर उप राज्यपाल वी.के. सक्सेना के गले यह बात कैसे उतर रही है कि उनके कार्यकाल में नैतिकता को ताक में रखकर एक बड़ी पार्टी अपनी ताक़त का फ़ायदा उठाकर दूसरी ऐसी किसी पार्टी को उठने नहीं देना चाहती, जो चुनाव जीतकर सत्ता में आयी है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उप राज्यपाल निष्पक्ष न होकर सबसे ताक़तवर उस सत्ता के साथ ही खड़े हैं, जिसने उन्हें चुना है। फिर यह पद संवैधानिक कैसे हुआ और उसकी संवैधानिक गरिमा कहाँ बची?
पीठासीन अधिकारी को भी पहले चुने हुए एल्डरमैन को वोट डालने का अधिकार देने की क्या ज़रूरत पड़ी है? पीठासीन अधिकारी को भी निष्पक्ष रहकर जनता द्वारा चुने गये पार्षदों को वोट डालने का पहला मौक़ा देना चाहिए। मेयर, डिप्टी मेयर और स्थायी समिति के छ: सदस्यों अर्थात् तीनों ही चुनाव एक साथ कराने के आदेश देने का क्या अर्थ हो सकता है? इसी को लेकर आम आदमी पार्टी के पार्षद मौखिक तथा लिखित विरोध करते रहे हैं, जिसे भाजपा नेता आप द्वारा ही चुनाव न होने देने के रूप में पेश कर रहे हैं। भाजपा नेता आप नेताओं को इसे लेकर अदालत से सज़ा दिलाने की बात भी कर रहे हैं। उन्हें सदन से बाहर करने की माँग भी करते हैं। पर जब भाजपा पार्षद हंगामा करते हैं, तो सदन स्थगित कर दिया जाता है।
समझ से परे है कि तीन-तीन बार मतदान की बारी आयी पर मेयर चुनाव नहीं हो सके। मेयर चुनाव में पहले ही देरी के बाद जब छ: जनवरी को बैठक हुई, तो भी मनोनीत सदस्यों द्वारा पहले वोटिंग करने को लेकर ही हंगामा हुआ और चुनाव नहीं हो सका। आप का कहना है कि मनोनीत सदस्य वोटिंग नहीं कर सकते, जबकि भाजपा का कहना है कि यह उनका संवैधानिक अधिकार है।
भाजपा ने इन सदस्यों के माध्यम से लगभग बहुमत के क़रीब ख़ुद को लाकर खड़ा कर लिया है। पहले मनोनीत सदस्यों को वोटिंग करने का अधिकार नहीं होता था। दिल्ली नगर निगम में मनोनीत पार्षद अर्थात् एल्डरमैन की तैनाती दिल्ली नगर निगम एक्ट-1957 के तहत होती है। दिल्ली उच्च अदालत ने 27 अप्रैल 2015 में एल्डरमैन को वार्ड कमेटी के चुनाव में वोटिंग का अधिकार दिया था। यहीं से विवाद शुरू होता है। दिल्ली नगर निगम एक्ट-1957 किसी भी रूप में राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों को मनोनीत पार्षद के तौर पर चुनने से नहीं रोकती। मनोनीत पार्षद पूरे पाँच साल दिल्ली नगर निगम में काम भी करते हैं। पर अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि चुने हुए एल्डरमैन दिल्ली उच्च अदालत ने मेयर के चुनाव में वोटिंग का अधिकार है या नहीं? उन्हें वार्ड कमेटी में वोटिंग का अधिकार तो दिया है।
मेयर चुनाव से पहले दिल्ली के उप राज्यपाल वी.के. सक्सेना जिन 10 एल्डरमैन को मनोनीत कर चुके हैं, उनके नाम विनोद कुमार, लक्ष्मण आर्य, मुकेश मान, राजकुमार भाटिया, मोहन गोयल, महेश सिंह तोमर, संजय त्यागी, कमल जीत सिंह, रोहताश कुमार और राजपाल राणा हैं। आप नेता कह रहे हैं कि उपराज्यपाल ने मेयर पद के चुनाव से पहले दिल्ली नगर निगम के लिए 10 एल्डरमैन चुनने में नियमों की धज्जियाँ उड़ायी हैं।
आप नेता आतिशी कह रही हैं कि सभी एल्डरमैन भाजपा के कार्यकर्ता हैं, जिनके नाम दिल्ली सरकार को सूचित किये बिना भाजपा द्वारा सीधे उपराज्यपाल को भेज गये थे। अब मेयर चुनाव को लेकर हालात इतने बिगड़ गये हैं कि यह आसान नहीं रह गया है। राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि भाजपा हर हाल में अपना मेयर बनाना चाहती है, जिसके लिए वह किसी भी सीमा तक जाने से नहीं चूकने वाली। कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना तो यहाँ तक है कि भाजपा किसी भी हाल में नगर निगम नहीं छोड़ेगी, जिसके लिए वह आप पार्षदों को भी तोडऩे के जुगाड़ में लगी है।
इस मामले को लेकर हंगामा भी इस क़दर बढ़ गया है कि मेयर चुनाव को लेकर होने वाली बैठकों में भाजपा और आप पार्षदों में ख़ूब नोक-झोंक होती है। झगड़े के हालात बन जाते हैं। ऐसे में यह ज़िम्मेदारी पीठासीन अधिकारी और दिल्ली के उप राज्यपाल की बनती है कि वे मिलकर मामले को सँभालें और नैतिकता के नाते उचित तरीक़े से मेयर का चुनाव होने दें। यह उनकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी भी है। दोनों को ही जनादेश की अवहेलना करने और होने देने से बचना चाहिए। प्रश्न यह है कि अगर आप की जगह भाजपा के पाले में बहुमत के लायक सीटें नगर निगम चुनाव में आयी होतीं, तो क्या वह अब तक मेयर चुनने से चूकती? क्या तब भी भाजपा नेता किसी दूसरी पार्टी के हस्तक्षेप को बर्दाश्त कर पाती? नहीं, तो वे अब अनैतिकता पर क्यों उतरे हुए हैं?
यह कम शर्मनाक नहीं है कि मेयर के चुनाव में कोई बलवा खड़ा न हो जाए, इसके लिए का$फी संख्या में पुलिस के साथ अर्धसैनिक बल के जवानों तथा सिविल डिफेंस वालंटियर्स और कमांडो को तैनात करना पड़ रहा है। यह सदन की गरिमा के ख़िलाफ़ तो है ही, उप राज्यपाल की नैतिकता पर भी प्रश्नचिह्न है। 26 जनवरी को आप महापौर चुनाव कराने को लेकर शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर चुकी है। भाजपा नेता आप नेता तथा दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को घेरने में लगे हैं। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कह रहे हैं कि संविधान के मुताबिक मनोनीत पार्षदों के पास वोटिंग का अधिकार नहीं है। दिल्ली नगर निगम एक्ट में भी साफ़ लिखा है कि मनोनीत पार्षदों के पास वोटिंग का हक़ नहीं होगा।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भी इस बात को साफ़ कर दिया है मनोनीत पार्षदों को मतदान करने का अधिकार नहीं है। अब देखना होगा कि भाजपा सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को भाजपा मानती है या नहीं।