देश में सांसदों, विधायकों और दूसरे चुने हुए जनप्रतिनिधियों का हुक्म अपने-अपने स्तर पर उन लोगों पर चलता है, जो अच्छे-ख़ासे पढ़े-लिखे होते हैं। इसमें अधिकतर नौकरशाह और वरिष्ठ अधिकारी होते हैं। लेकिन जनप्रतिनिधि अनपढ़ भी हो सकता है। उसका रिकॉर्ड आपराधिक भी हो सकता है और वह काम चलाऊ रूप से भी पढ़ा-लिखा, यानी दो-चार क्लास तक पढ़ा-लिखा भी हो सकता है। यानी जिसकी कोई योग्यता न हो, वह नेता बन सकता है। हालाँकि इसे लेकर कई बार माँग उठती रही है कि जनप्रतिनिधियों की योग्यता निर्धारित होनी चाहिए, यानी वे कम-से-कम कॉलेज या यूनिवर्सिटी से शिक्षा हासिल कर चुके हों। हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भी कहा कि देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सांसदों-विधायकों की शिक्षा के मामले में न्यूनतम योग्यता की अनिवार्यता न होने को लेकर अफ़सोस जताया था; लेकिन उनके इस पछतावे पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया।
दरअसल हाई कोर्ट के जस्टिस महाबीर सिंह सिंधु ने 26 नवंबर, 1949 को देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के संविधान सभा में दिये भाषण का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि क़ानून बनाने वालों की बजाय, क़ानून को लागू करने या लागू करने में मदद करने वालों के लिए उच्च योग्यता पर ज़ोर देना असंगत है। उन्होंने सांसदों और विधायकों की शैक्षणिक योग्यता तय नहीं करने को पहली और देश की भाषा में संविधान नहीं लिखने को दूसरी ग़लती बताते हुए इस पर अफ़सोस ज़ाहिर किया था। जस्टिस महाबीर सिंह सिंधु ने कहा कि 75 साल बीत गये; लेकिन आज तक पहला पछतावा सुधार की प्रतीक्षा कर रहा है। आज भी देश में मंत्री, सांसद या विधायक बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की यह टिप्पणी तब आयी, जब भाजपा नेता और पूर्व विधायक राव नरबीर सिंह के ख़िलाफ़ नामांकन-पत्र में शैक्षणिक योग्यता की ग़लत जानकारी देने के आरोप में एक याचिका दायर की गयी थी, जिसे योग्यता निर्धारित न होने के चलते कोर्ट ने पहले राष्ट्रपति की अफ़सोस वाले भाषण को दोहराते हुए ख़ारिज कर दिया।
दरअसल इस मामले में जस्टिस महावीर सिंह सिंधु ने कहा कि लगभग 75 वर्ष बीत चुके हैं; लेकिन आज तक ‘पहला पछतावा’ सुधार की प्रतीक्षा कर रहा है। आज भी हमारे देश में मंत्री, संसद सदस्य या विधानसभा सदस्य बनने के लिए किसी शैक्षिक योग्यता की ज़रूरत नहीं है। इस टिप्पणी के दौरान हाई कोर्ट ने याचिकाओं को सुना और उन्हें यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि पर्याप्त सामग्री है, जो स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि प्रतिवादी ने वर्ष 1988 में हिंदी मध्यमा (विशारद) की डिग्री प्राप्त की थी, जो बीए के समकक्ष है और साथ ही वर्ष 2001 में उत्तम (साहित्य रत्न) की डिग्री प्राप्त की थी, जो बीए (ऑनर्स) के समकक्ष है। ऐसी स्थिति में इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि प्रतिवादी के पास 15 जनवरी, 2005 और 25 सितंबर, 2014 को नामांकन-पत्र दाख़िल करते समय स्नातक की डिग्री थी। कोर्ट ने कहा कि भले ही डिग्री किसी ऐसी यूनिवर्सिटी से हासिल की गयी हो, जो यूजीसी से मान्यता प्राप्त नहीं है; लेकिन इससे प्रतिवादी को नामांकन पत्र के साथ संलग्न फॉर्म संख्या-26 में कोई ग़लत घोषणा करने या इसके समर्थन में हलफ़नामा दाख़िल करने और कथित तरीक़े से अभियोजन का सामना करने के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
बहरहाल, इस विषय पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में भी संसद में ख़ूब चर्चा हुई और इस बात पर कुछ सांसदों ने ज़ोर डाला कि लोकसभा का चुनाव लड़ने से लेकर राज्यसभा तक में अच्छे पढ़े-लिखे और क़ाबिल लोगों को आना चाहिए, जिसके लिए सांसदों और विधायकों की शैक्षिक योग्यता निर्धारित की जानी चाहिए। लेकिन ज़्यादातर सांसदों ने इस प्रस्ताव को नकार दिया था और इस प्रस्ताव को नकारने वालों में काफ़ी संख्या में पढ़े-लिखे सांसद भी थे। लेकिन सवाल यह है कि सभी जनप्रतिनिधियों की बात तो दूर, क्या आज सभी सांसद और सभी विधायक पढ़े-लिखे हैं? हालाँकि आज अगर देखें, तो तक़रीबन 80 फ़ीसदी सांसद और विधायक कम-से-कम ग्रेजुएशन या उससे ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं। हालाँकि यह अच्छी बात है कि इस बार की 18वीं लोकसभा में कोई सांसद निरक्षर नहीं है, जिसकी वजह कई पुरानों को टिकट न मिलना भी है। इनमें से 34 सांसद 10वीं पास हैं। 65 सांसद 12वीं पास हैं। 147 सांसद ग्रेजुएट हैं। 147 सांसद पोस्ट ग्रेजुएट हैं और 98 सांसद ग्रेजुएट प्रोफेशनल हैं। इनमें से भाजपा के 240 सांसदों में से 64 सांसद ग्रेजुएट हैं। 49 पोस्ट ग्रेजुएट हैं। 87 सांसदों के पास दूसरी डिग्रियाँ हैं। बाक़ी 40 सांसद कक्षा पाँच से 12वीं तक ही पढ़े-लिखे हैं। वहीं कांग्रेस के 99 सांसदों में से 24 ग्रेजुएट हैं। 27 पोस्ट ग्रेजुएट हैं और 21 सांसद प्रोफेशनल ग्रेजुएट हैं। जबकि 19 सांसद कम पढ़े-लिखे हैं। तक़रीबन यही हाल बाक़ी पार्टियों का भी है। लेकिन कई सांसदों और विधायकों की शिक्षा पर सवाल उठते रहे हैं।
दो-तीन साल पहले तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्रियों को लेकर भी देश भर में काफ़ी बवाल मचा था और यह मामला न सिर्फ़ उन्हें डिग्री देने वाली यूनिवर्सिटी के सुबूत देने तक पहुँचा, बल्कि कोर्ट तक भी पहुँचा। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा कि देश भर में एक बहस छिड़ गयी और कुछ लोग अनपढ़ और चौथी फेल जैसे शब्दों का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर करते दिखे। हालाँकि इसे उचित नहीं माना जा सकता; लेकिन इसका असर यह हुआ कि गृह मंत्री अमित शाह को प्रेस कॉन्फ्रेंस तक करनी पड़ी और प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री दिखानी पड़ी। हालाँकि बाद में उस पर भी सवाल उठते रहे और लोगों ने मार्क कर करके डिग्री में ग़लतियों को उजागर करने का दावा किया। इस मामले में सन् 1978 में कम्प्यूटराइज्ड बीए की डिग्री होने पर सबसे ज़्यादा सवाल उठे, जो उनके द्वारा दी गयी जानकारी या यह कहें कि डिग्री के मुताबिक, दिल्ली यूनिवर्सिटी से मिली हुई है। इसके बाद उनकी एमए की डिग्री साल 1983 की है, जो उन्होंने गुजरात की एक यूनिवर्सिटी से ली है। हालाँकि ये अलग मसला है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उन्होंने एंटायर पॉलिटिक्स में एमए किया है, जिसे लेकर काफ़ी लोग सोशल मीडिया पर मज़ाक़ के लहजे में काफ़ी दिनों तक भिड़े रहे।
बहरहाल, मेरा मानना यह है कि सांसदों और विधायकों से लेकर छोटे स्तर के चुनावों तक में भी ऐसे नेताओं के चुनाव लड़ने से रोक होनी चाहिए, जिनकी योग्यता कम हो और जो भले ही बहुत अच्छी शिक्षा हासिल कर चुके हों; लेकिन उनका आपराधिक रिकॉर्ड रहा हो। बल्कि ऐसे लोगों का बहिष्कार सभी पार्टियों को भी करना चाहिए और उन्हें पार्टी की सदस्यता तक नहीं देनी चाहिए। आज हम देख रहे हैं कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों में बड़ी संख्या में सांसद, विधायक और दूसरे चुने हुए जनप्रतिनिधियों का आपराधिक रिकॉर्ड है और खुलेआम वो न सिर्फ़ घूम रहे हैं, बल्कि किसी भी आपराधिक मामले में उन्हें सज़ा नहीं हो रही है। और ऐसे लोग चुनाव लड़कर संसद और विधानसभाओं में बैठे हैं। चुनाव आयोग के मुताबिक, इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जीतकर आए 543 सांसदों में से 251 सांसद दाग़ी हैं। यानी क़रीब 46 फ़ीसदी सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी प्रकार से हर विधानसभा में काफ़ी संख्या में आपराधिक मुक़दमों से घिरे हुए विधायक और मंत्री मिल जाएँगे।
दरअसल, संविधान ने अनुच्छेद-19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, जिसका मतलब यह है कि देश के हर नागरिक को अपनी बात रखने का अधिकार है। लेकिन अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे, जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि रही है, वो न सिर्फ़ चुनावों से लेकर संसद और विधानसभा पहुँचने पर भी कुछ भी ऊटपटाँग बोलते हैं, बल्कि कई के बयान तो देश में भ्रम, नफ़रत, दंगा-फ़साद और बवाल फैलाने के लिए के लिए काफ़ी होते हैं। आज जितने उम्मीदवार चुनाव में खड़े होते हैं, उनमें ज़्यादा उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले होते हैं। ये लोग चुनाव में जो अनाप-शनाप करोड़ों रुपये उड़ाते हैं, वो भी सब ईमानदारी का नहीं होता। ज़ाहिर है जितना बड़ा चुनाव होता है, उसमें उतना ज़्यादा दमख़म दिखाने और दिखावा करने का चलन हो चुका है; और जो जितना ज़्यादा पैसा ख़र्च करता है, वो पैसा उससे की गुना भ्रष्टाचार से बनाता भी है। कहावत है कि बिना शिक्षा के कोई भी आदमी सही शिक्षित साक्षर या शिक्षित ही नहीं होता, बल्कि शिक्षा तरीक़े से न हो, तो देश का तो दूर की बात किसी क्षेत्र या एक गाँव का भला नहीं कर सकता। हालाँकि शिक्षित होने का मतलब महज़ किसी का साक्षर होना या स्कूली शिक्षा हासिल करना ही नहीं है, बल्कि संस्कारित होना भी है। लेकिन आज देश की सियासत में शामिल अशिक्षित और असंस्कारित जनप्रतिनिधियों की वजह से युवाओं पर कितना बुरा असर पड़ रहा है, इस पर हमें विचार करने की ज़रूरत है। इसलिए अगर देश का सर्वांगीण विकास चाहिए, तो कम कम-से-कम उन चुने हुए जनप्रतिनिधियों का उच्च स्तर तक पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है, जो उच्च स्तर की पढ़ाई करने के बाद देश की सबसे कठिन परीक्षाओं को पास करके बने अफ़सरों पर हुक्म चलाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)