इलेक्टोरल बॉन्ड यानी चुनावी बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों के लिए चाँदी बनाने का ज़रिया बन चुका है। यह बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने का एक ऐसा नया तरीक़ा है, जिसका खेल आम लोगों की समझ से बाहर है। अब इसकी कुछ-कुछ जानकारियाँ छन-छनकर बाहर आ रही हैं, जिसे लेकर एक पढ़ा-लिखा वर्ग इस चंदे की गोपनीयता को सार्वजनिक करने की माँग कर रहा है, जो कि राजनीतिक पार्टियों को खटक रहा है। हालाँकि कुछ पार्टियाँ, जिन्हें इस बॉन्ड से बड़ा फ़ायदा नहीं मिल रहा है, वो भी इसे सार्वजनिक करवाना चाहती हैं, ताकि चुनावी बॉन्ड का बेजा फ़ायदा उठाने वाली पार्टियों की पोल खुल सके।
दरअसल चुनावी बॉन्ड योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड $खरीदे जा सकते हैं, जिनकी अवधि 15 दिनों की होती है। चुनावी बॉन्ड का इस्तेमाल सिर्फ़ पंजीकृत और उन्हीं राजनीतिक पार्टियों को दान देने के लिए किया जा सकता है, जिन्होंने पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में पड़े कुल वोटों में से कम-से-कम एक फ़ीसदी वोट हासिल किये हों। चुनावी बॉन्ड को सरकार लोकसभा चुनाव के वर्ष में अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी कर सकती है। बहरहाल आँकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच साल पहले चुनावी बॉन्ड लॉन्च किया गया था। यानी ये चुनावी बॉन्ड भारतीय जनता पार्टी की केंद्र की मोदी सरकार ने शुरू कराया और हैरत वाली बात है कि आज भारतीय को देश की बाक़ी क़रीब 59 मान्यता प्राप्त सक्रिय राजनीतिक पार्टियों से ज़्यादा चंदा मिला है। यानी इन पाँच वर्षों में अकेले भाजपा को आधे से ज़्यादा चुनावी चंदा मिला है। लेकिन कोई भी पार्टी यह बताने को तैयार नहीं है कि उसे चुनावी बॉन्ड के ज़रिये कब, कितना चुनावी चंदा मिला? इसी के चलते चुनावी बॉन्ड की वैद्यता को लेकर अब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँच गया है, जो कि एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की जनहित याचिका के तहत दायर किया है। इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की पीठ कर रही है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड की वैधता को लेकर हुई सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि हक़ीक़त में चुनावी बॉन्ड योजना कॉर्पोरेट घरानों से रिश्वत लेने का एक तरीक़ा है, जो कि राजनीतिक पार्टियों के बारे में जानकारी के नागरिकों के मौलिक अधिकार का सीधा-सीधा उल्लंघन है। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के पिछले $फैसलों का हवाला दिया और कहा कि अगर नागरिकों को उम्मीदवारों के बारे में जानने का अधिकार है, तो उन्हें निश्चित रूप से यह भी जानने का अधिकार है कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाले लोग कौन हैं? प्रशांत भूषण ने कहा है कि चुनावी बॉन्ड एक अपारदर्शी योजना है, जिसकी वजह से सिर्फ़ सरकार को ही पता होता है कि किस पार्टी को कितना चुनावी बॉन्ड के ज़रिये चंदा मिला? बाक़ी कोई पार्टी भी नहीं जान सकती कि इस बॉन्ड के ज़रिये किस पार्टी को कितना पैसा चंदे के रूप में मिला है? पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि जिन पार्टियों को किसी कम्पनी या पूँजीपति के द्वारा चंदा दिया गया है, मौज़ूदा मोदी सरकार ने उन पार्टी नेताओं के साथ-साथ चंदा देने वाली कम्पनियों और पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई की कोशिश की है। दरअसल हिन्दुस्तान में गुप्त चंदे का मामला तो बहुत पहले से उठता रहा है; लेकिन उसमें तब भी मोटा-मोटी पता चल जाता था कि किस पार्टी के पास कितना चंदा आया या पार्टी की आमदनी कितनी है? उसके पास पैसा कितना है? लेकिन जबसे चुनावी बॉन्ड के ज़रिये पार्टियों को चंदा मिलने लगा है, तबसे यह गोपनीयता और ज़्यादा बढ़ गयी है। आज तक केंद्र की मोदी सरकार ने नहीं बताया कि भाजपा को अब तक कितना चंदा मिला है? चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते पाँच वर्षों में देश की राजनीतिक पार्टियों को क़रीब 9,208.23 करोड़ रुपये का चंदा मिला है। हालाँकि मेरे $खयाल से यह जानकारी पुख्ता नहीं है और जहाँ तक चंदे का सवाल है, यह इससे भी कई गुना ज़्यादा हो सकता है।
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2016 से सन् 2022 के बीच के पाँच वर्षों में कुल छ: राष्ट्रीय पार्टियों और क़रीब 24 क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बॉण्ड के ज़रिये क़रीब 9,208.23 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले। इस चंदे में से अकेले भाजपा को क़रीब 5,271.97 करोड़ रुपये का चंदा मिला है, जबकि कांग्रेस को 952.90 करोड़ रुपये से ज़्यादा और बाक़ी क़रीब 2,983.36 करोड़ रुपये का चंदा बाक़ी की क़रीब 28 राजनीतिक पार्टियों को मिला है। यह हैरत की बात है कि इतने पर भी केंद्र की मोदी सरकार दूसरी पार्टियों के नेताओं के यहाँ छापेमारी कराने पर आमादा है और $खुद कई बड़े और ज़रूरी सवालों के जवाब देने से भी साफ़ इनकार कर देती है, जिसमें कि पीएम केयर्स फंड की जानकारी नहीं देना भी शामिल है।
बहरहाल चुनावी बॉन्ड मामले पर इसी साल 31 अक्टूबर से सुनवाई शुरू हुई थी। हालाँकि इससे एक दिन पहले ही अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने चुनावी बॉन्ड योजना के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यह योजना राजनीतिक पार्टियों को दिये जाने वाले चंदे को सफेद धन (व्हाइट मनी) के रूप में इस्तेमाल करने को बढ़ावा देती है और नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी जानने का सामान्य अधिकार नहीं होना चाहिए। हालाँकि यह बात समझ से परे है कि जो पार्टियाँ चुनावों में अनाप-शनाप काला धन उड़ाती हैं और जो राजनीति में आने से लेकर सत्ता में आने पर भी अपने खर्च और चंदे का हिसाब-किताब गड़बड़ रखती हैं, वो किस प्रकार से काले धन को स$फेद धन में बदलेंगी? क्योंकि अभी तक जितनी भी पार्टियों की सरकारें केंद्र या राज्यों में बनी हैं, हमने देखा है कि सत्ता में आने वाली पार्टियाँ तो मज़बूत हुई ही हैं, साथ ही उनके नेता, सांसद, विधायक और मंत्री सभी धन-संपत्ति में दिन दूने और रात चौगुने मज़बूत हुए हैं। फिर ये किस आधार पर कहा जा रहा है कि पार्टियाँ चंदे के रूप में कालाधन लेकर उसे सफेद कर रही हैं? लेकिन अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी के बयान से साफ़ है कि केंद्र की मोदी सरकार किसी भी हाल में इस पक्ष में नहीं है कि कोई भी चुनावी बॉन्ड के ज़रिये मिले चंदे या कहें कि कालेधन के बारे में जाने और सरकार भी यह नहीं चाहती कि इस लाभ की योजना में कोई बदलाव किया जाए।
हालाँकि एक महत्त्वपूर्ण बात अर्टानी जनरल आर. वेंकटरमणी ने साफ़ कर दी कि राजनीतिक पार्टियों के पास जो चंदा चुनावी बॉन्ड के ज़रिये आता है, वो कालाधन है या कहें कि एक नंबर का पैसा नहीं है। इसका मतलब यह भी हुआ कि सरकार को पता है कि किसके पास काला धन है? सरकार ऐसे लोगों को चंदा लेकर बख्श देती है और उनके ख़िलाफ़ कोई जाँच नहीं करवाती, बल्कि उन्हें उलटा लाभ पहुँचाती है। चुनावों में हर पार्टी कहती है कि वह कालेधन पर रोक लगाएगी। केंद्र में आने से पहले भाजपा की तरफ से भी ऐसे ही वादे किये गये थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो 2014 में सत्ता में आने से पहले ये तक कहा था कि उनकी सरकार केंद्र में बनते ही वह विदेशों में जमा कालाधन वापस लाएँगे। उन्होंने देश के हर नागरिक को 15-15 लाख देने का जुमला भी दिया था और यह कहा था कि उनके पास कालेधन वालों की लिस्ट है। लेकिन अब खबरें आ रही हैं कि उनके सत्ता में आने से पहले जितना कालाधन स्विस बैंकों का था, उससे क़रीब तीन गुना कालाधन उनके क़रीब साढ़े नौ साल के कार्यकाल में हो चुका है और अब वह कालेधन का नाम तक नहीं लेते। चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने की माँग करते हुए इस मामले में वरिष्ठ वकील और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कहा कि आप (सरकार) उस जानकारी को पब्लिक डोमेन में न डालकर भ्रष्ट लेन-देन को संरक्षण दे रहे हैं। मैं एफआईआर दर्ज नहीं करा सकता, क्योंकि मुझ पर मानहानि का मुक़दमा हो जाएगा। मैं अदालत नहीं जा सकता, क्योंकि मेरे पास कोई डेटा नहीं होगा। तो हम किस अदालती आदेश की बात कर रहे हैं?
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड के मामले में इसकी क़ानूनी वैधता को लेकर सुनवाई चल रही है और इस बारे में अब आम लोग भी जानना चाहते हैं कि आख़िर क्या इस तरह से राजनीतिक पार्टियों को कितना पैसा मिल रहा है? इसे पैसे से राजनीतिक पार्टियों को क्या फ़ायदा हो रहा है और उन्हें केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक कितना फ़ायदा पहुँचाती हैं, जिनसे उन्हें गुप्त रूप से चंदा मिलता है? ज़ाहिर सी बात है कि बिना फ़ायदे या लालच के कोई भी पूँजीपति या कम्पनी किसी पार्टी को चंदा नहीं दे सकती।
सवाल यह भी है कि आज जब चुनावी बॉन्ड का मामला इतना उछल चुका है, तब क्या साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका कोई उलट असर पड़ेगा? क्योंकि भाजपा ने तो साफ़ कर दिया है कि जी, जो पैसा पार्टी के खाते में आया या नक़दी के रूप में उसके पास आया, वो तो हमें खुद नहीं पता कि आया कहाँ से, तो हम इसके बारे में कैसे बताएँ? यह तो वाहक बॉन्ड हैं। इस तरह से सैकड़ों करोड़ रुपये का गमन राजनीतिक पार्टियाँ साल भर में चुनावी चंदे या पार्टी चंदे के रूप में लेकर गमन कर जाती हैं और चुनावों में महँगे प्रचार से लेकर वोट खरीदने और सरकारें तोडऩे में इसका बेजा इस्तेमाल करती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)