25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य के रूप में देश का 18 वां राज्य बने हिमाचल प्रदेश की विधानसभा में 1993 के बाद पहली बार एक कम्युनिस्ट नेता विधायक बना। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के जुझारू नेता राकेश सिंघा ने ठियोग विधानसभा क्षेत्र से विधानसभा में प्रवेश किया। इससे पूर्व 1993 में भी वे शिमला से विधायक चुने गए थे। विधानसभा में अपनी ओजस्वी वाणी के लिए मशहूर राकेश सिंघा से विभिन्न मुद्दों पर बात की मनमोहन सिंह ने । पेश हैं उस बातचीत के कुछ अंश।
हिमाचल प्रदेश एक कृषि प्रधान राज्य है और कम्युनिस्ट पार्टियां सालों से यहां किसानों, मज़दूरों और कर्मचारियों के आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं, पर वोट की राजनीति में ये पार्टियां कुछ ज़्यादा नहीं कर पाती। ऐसा क्यो?
यह पहाड़ी प्रदेश पूंजीवादी वर्ग का समर्थन करने वाले दो दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ है। जब लोगों को अपने अधिकारों की लड़ाई लडऩी होती है तो वे लाल झंडे के साथ जाते हैं। उन्हें पता है कि ये लोग ही उनके हकों की रक्षा कर सकते हैं। पर वोट डालते समय जाति और क्षेत्रवाद बीच में आ जाता है। इस चीज़ को तोडऩे के लिए कम्युनिस्टों को एक ‘वैकल्पिक राजनीति’ लाने की ज़रूरत है इसके लिए लगातार संघर्ष किया जा रहा है। पर यह काम आसान नहीं है। वैसे भी आंदोलन और चुनाव दो अलग-अलग बातें हैं। ऐसा नहीं है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच स्थान तलाश नहीं किया जा सकता, ‘लोकराज’ पार्टी और ‘हिमाचल विकास कांग्रेस’ ने ऐसा करके दिखाया है। परंतु कम्युनिस्ट पार्टियों को अभी अपना स्थान तलाशना है। इसके लिए कम्युनिस्ट दल यह कोशिश कर रहे हैं कि सरकार की दिशा आम लोगों की समस्याओं की ओर घुमाई जाए। उन मसलों पर बात हो जो आम आदमी के जीवन से जुड़े हैं। पार्टी इन्हीं बातों को लेकर आगे बढ़ रही है और इसी से ही पार्टी का विकास होगा।
पूंजीपतियों की कोशिश है कि कोई गरीब या मध्यवर्ग का आदमी चुनाव न लड़ सके। चुनावों को महंगे से महंगा बनाना इन पूंजीवादी पार्टियों के हक में है। इन्होंने ‘बांड व्यवस्था’ को शुरू किया। कुल 900 करोड़ के बांड आए। इनमें से 700 करोड़ के तो अकेले भाजपा के खाते में ही गए। इस तरह जो पारदर्शिता खातों में होनी चाहिए वह भी नहीं है। इस पैसे से ये पार्टियां इस तरह का वातावरण तैयार कर देती हंै जिससे लगता है कि जीत इन्हीं के उम्मीदवारों की होने वाली है। वे लोग गाडिय़ों के बड़े-बड़े काफिले सड़कों पर उतार देते हैं। इसका मनोवैज्ञनिक प्रभाव लोगों पर पड़ता है।
इस कारण राज्य में ‘वाम-लोकतांत्रिक’ कार्यक्रम खड़ा करना पड़ेगा। इस पहाड़ी राज्य की परिस्थितियां बाकी राज्यों से अलग है। यहां के लोगों और सरकार को उसके पूरे अधिकार ही नहीं मिले। प्रदेश में छह लाख हैक्टेयर भूमि थी। 1980 में केेंद्र ने यहां वन संरक्षण कानून लागू किया। इसमें से एक लाख हैक्टेयर भूमि ‘डैमों’ में चली गई। उसके बदले में राज्य को कुछ नहीं मिला। इसी मुद्दे पर रंगाराजन आयोग ने कहा था कि इस भूमि के बदले राज्य को 12.5 फीसद ‘रायल्टी’ मिलनी चाहिए। लेकिन इस मुद्दे को कोई पुख्ता तरीके से नहीं उठा रहा। माकपा इस तरह के मुद्दे उठा कर लोगों के बीच जा रही है। इसी वजह से आज हिमाचल प्रदेश का युवा हमारी पार्टी के निकट आ रहा है।
प्रदेश में पार्टी का आधार किन लोगों में है?
राज्य में पार्टी मौलिक रूप से मज़दूरों, किसानों, दलितों और महिलाओं पर आधारित है। युवा व छात्र भी बड़ी गिनती में पार्टी के साथ जुड़ रहे हैं। यहां शुरू में ही ज़मीन सुधार लागू हो जाने के कारण उस तरह की जागीरदारी व्यवस्था नहीं रही है जैसी कई और राज्यों बनी। लेकिन नव उदारवाद के कारण गरीबों का पूरा विकास नहीं हो पाया। आज यहां किसानों की अपनी समस्याएं हंै। दूसरी ओर पूंजीवादी व्यवस्था पर खतरा मंडरा रहा है क्योंकि पूरे देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। नौकरियों के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। इसी कारण प्रदेश में बार-बार जन आंदोलन पैदा हो रहे हैं। सरकार के पास सिवाए इन आंदोलनों को दबाने के उनका कोई हल नहीं है। इन्हीं लोगों को लेकर प्रदेश में विभिन्न आंदोलन चलते रहे हैं। इनके जरिए ही यहां पार्टी का आधार बना है। आज जो भी लोग पार्टी में हैं या पार्टी के साथ जुड़े हैं उनमें से अधिकतर समाज के इन्ही वर्गों से आते हैं। इनके अलावा यहां का बुद्धिजीवी वर्ग जिनमें डाक्टर,प्रोफेसर, पत्रकार और इंजीनियर शामिल हैं पार्टी के समर्थक व सदस्य है।
प्रदेश में पार्टी ने कौन-कौन से आंदोलन, खड़े किए और उनमें कितनी सफलता मिली?
यदि छात्र आंदोलन छोड़ भी दें तो राज्य में ‘सीटू’ के नेतृत्व में कई बड़े आंदोलन चले। ध्यान देने की बात यह है कि हिमाचल प्रदेश में जितनी भी पन बिजली परियोजनाएं चल रही हैं उनमें सीटू की यूनियनें हैं। यहां मज़दूरों की मांगों के लिए मज़दूर आंदोलन करते रहते हैं। नाथपा-झाखड़ी, लारजी, कड़छम-वांगतू जैसी बड़ी परियोजनाओं में मज़दूरों के संघर्ष तीन महीने चला। इस दौरान वहां धारा 144 लगी रही और पुलिस की सात कंपनियां वहां तैनात रहीं। पर मज़दूरों को डरा नहीं सकी। अंत में जेपी कंपनी को अपनी देनदारी चुकाने के लिए 80 हजार करोड़ की संपत्ति बेचनी पड़ी। इन निजी कंपनियों के शोषण के खिलाफ मज़दूरों ने हमेशा ही सफलता हासिल की। आज भी हम लोग मज़दूर, किसान और छात्रों की उचित मांगों को लेकर संघर्षरत रहते हैं।
विधानसभा में लगभग 24 साल बाद कोई कम्युनिस्ट विधायक बना है। आप ऐसा क्या कर रहे हैं जो बाकी दलों के विधायक नहीं कर पाते?
हमारे लिए विधानसभा वह प्लेटफार्म है जहां से हम अपनी और लोगों की आवाज़ और मांगों को ज़्यादा पुख्ता तरीके से उठा सकते हैं। हम सरकार से सीधा सवाल करते हैं। विधानसभा में पूछे सवालों पर सरकार को जवाब देना ही होता है। फसल बीमा को लेकर मैंने लगातार सवाल उठाए, इसके अलावा गुडिय़ा कांड को विधानसभा में उठाने का लाभ मिला। प्रदेश में बढ़ रहा नशे का प्रचलन बहुत ही खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका है। इसको लेकर मैंने विधानसभा में सवाल उठाए। इसका सकारात्मक असर हुआ। नौकरियों को लेकर भी मैंने विधानसभा में प्रश्न किए काम को ‘आउट सोर्स’ करने पर सवाल उठाए। हमारी मांग थी कि महिला और पुरूष दोनों को ही ‘समान काम के लिए समान वेतन’ मिलना चाहिए। निजी क्षेत्र में इस बात की अनदेखी की जाती रही है। हमारा काम है जनहित के मुद्दे विधानसभा में उठाना और बाहर से उन पर दवाब बनवाना। इसी प्रकार भूमि के मुद्दों को भी विधानसभा के पटल पर उठाया गया।
देश में आप कम्युनिस्ट पार्टियों का भविष्य क्या है?
देश में मंहगाई, बेरोज़गारी और गरीबी के मसलों को दूर करने का फार्मूला केवल माक्र्सवाद में है। बाकी लोग कुछ भी कर लें इन चीजों का हल नहीं निकाल सकते। इस कारण कम्युनिस्ट आंदोलन हमेशा सार्थक रहता है और रहेगा। पर, आज यहां दूसरी पार्टी देश के पूंजीपतियों के हितों की रक्षा कर रही हैं कि समाज जाति, धर्म या संप्रदाय के नाम पर बांटने में लगी हैं।
पश्चिम बंगाल में 34 साल के वाम मोर्चा शासन के दौरान एक भी संाप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। यहां तक कि 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में सिखों को मारा गया, काटा गया, उस समय भी पश्चिम बंगाल में एक भी सिख की जान नहीं गई। लेकिन आज वहां तृणमूल कांग्रेस केवल सांप्रदायिकता का कार्ड खेल रही है। आज वहां बंगाली समाज हिंदू और मुसलमान के नाम पर बांटा जा रहा है। स्वाभाविक है यदि यह ऐसे ही चलता रहा तो इस का नुकसान वामपंथी ताकतों को होगा। इसी प्रकार त्रिपुरा और केरल में भी ऐसा करने का प्रयास हो रहा हैं। इनसे निपटने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों को सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्षों के लिए भी तैयार रहना होगा।
धनाढ्य परिवार का वामपंथी बेटा
यह एक विरोधाभास नही ंतो और क्या है, एक धनी किसान परिवार में पैदा होने वाला एक लड़का आज पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध में सीना तान कर खड़ा है। ठियोग से माकर््सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के विधायक राकेश सिंघा ऐसा ही एक व्यक्तित्व है। अमर शहीद भगत सिंह के जन्म दिवस 28 सितंबर को हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ में पैदा हुए राकेश सिंघा के भाषणों और सोच में भगत सिंह के साथ काफी समानाताएं हैं। भगत सिंह भी एक धनी किसान परिवार से थे और सिंघा का परिवार भी बहुत सम्पन्न है। पर इन दोनों ने अपने लिए जो लक्ष्य तय किए थे वे उनकी पारिवारक पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाते थे।
प्रदेश की आर्थिक स्थिति को बदलने में सेब की बड़ी भूमिका रही है। कोटगढ़ के क्षेत्र में सबसे पहले सेब लाने का काम राकेश सिंघा के परदादा गोपीचंद सिंघा ने किया था। 1884 में वे बर्तानिया का सेब लेकर आए थे। इसके बाद 1916 में सैम्युल स्टोक्स ने अमेरिकी सेब इस इलाके मेें पहुंचाया।
1956 में जन्में राकेश सिंघा ने शुरूआती शिक्षा लॉरेंस स्कूल सनावर से ली जहंा फिल्मी सितारों के बच्चे और संजय दत्त व परीक्षित साहनी जैसे कलाकार पढ़े। मतलब यह कि यह स्कूल अमीर लोगों का स्कूल माना जाता है। इसके बाद सिंघा ने 1975 में चंडीगढ़ के सरकारी कालेज से स्नातक की डिग्री ली और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए वे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय चले गए। वहां उनकी मुलाकात कामरेड मोहर सिंह, श्याम प्रसाद, प्रेम त्यागी, एसके शर्मा और जावेद आलम जैसे कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोगों के साथ हुई। राकेश सिंघा इन से काफी प्रभावित हुए।
1979 में जब विश्वविद्यालय में 45 दिन तक छात्र व कर्मचारी आंदोलन चला तो सिंघा को लगा कि जिन मुद्दों को लेकर वह आंदोलन चला रहे हैं वे जायज़ थे। इस आंदोलन ने सिंघा को कम्युनिस्ट विचारधारा के निकट ला दिया। उस समय प्रदेश में शांता कुमार की सरकार थी। उस समय आंदोलनकारियों पर काफी जोर जबरदस्ती की जिसने विश्वविद्यालय में पहली बार चुनाव हुए और एसएफआई के श्याम प्रसाद और अजय वैद्य विजयी हुए। दो पदों के नतीजों पर अदालत ने ‘स्टे’ कर दिया था। इस कारण उन दो सीटों के परिणाम घोषित नहीं किए गए।
राकेश सिंघा ने 1984 में पहली बार शिमला से विधानसभा का चुनाव लड़ा। उन्हें तीसरा स्थान मिला पर वोटों की गिनती हजारों में पहुंच गई। इससे पूर्व कम्युनिस्ट प्रत्याशी को यहां से इतने मत नहीं मिले थे। इसके एक साल बाद 1985 में सिंघा ने समरहिल क्षेत्र से नगर निगम का चुनाव लड़ा और रिकार्ड मतों से विजय हासिल की। इस बार इन्होंने नागरिक मोर्चा के नाम से एक संस्था का गठन किया था और उसी के तहत माकपा ने दो सीटें जीती थीं। फिर 1993 में राकेश सिंघा पहली बार शिमला सीट से विधानसभा के लिए चुने गए।
राकेश सिंघा ने बताया कि पहला बड़ा किसान आंदोलन 1987 में चला। उस समय राज्य में वीरभद्र की सरकार थी। इस आंदोलन के दौरान 27 लोगों की गिरफ्तारियां हुई और पुलिस ने लाठीचार्ज किया। आंदोलनकारियों के खिलाफ धारा 307 के तहत मुकदमे दर्ज हुए जो बाद में वापिस लिए गए। 1990 में शांता कुमार की सरकार के समय भी आंदोलन हुआ। इसमें पुलिस की गोली से तीन लोग मारे गए थे।
राकेश सिंघा के लिए कम्युनिस्ट पार्टी में बने रहना आसान नहीं था। उनके घर वाले उन पर बराबर पार्टी छोडऩे का दवाब बनाते रहे, पर एक बार माक्र्सवाद के सिद्धांत को समझने और अपनाने के बाद राकेश सिंघा आज तक उसी विचारधारा से जुड़े हैं और पार्टी को आगे ले जाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।