सेवानिवृत्ति से पहले दिये गये फैसले सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की इच्छा से प्रभावित होते हैं…। मेरा सुझाव है कि सेवानिवृत्ति के बाद कम-से-कम दो साल कोई भी पद नहीं दिया जाना चाहिए, अन्यथा सरकार सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है। वर्ष 2012 में भाजपा के नेता और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कहा था कि अगर ऐसा होता है, तो देश में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी साकार नहीं होगा। हालाँकि, इस तरह के तर्क रखने वालों के पास अब कोई जवाब नहीं मिल सकता है कि जब करीब छ: महीने पहले ही सेवानिवृत्त हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई को हाल ही में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया है।
वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत ए. दवे ने कहा है- ‘यह पूरी तरह से घिनौता कृत्य है और यह स्पष्ट रूप से पूर्व में किए कामों का इनाम है। इससे न्यायपालिका की आज़ादी पूरी तरह से खत्म कर दी गयी।’ आधिकारिक गजट में रंजन गोगोई के नामांकन को अधिसूचित किये जाने के बाद ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि क्या यह उनके दिये गये फैसलों का इनाम है? लोगों को न्यायाधीशों की स्वतंत्रता में विश्वास कैसे होगा? इस पर जस्टिस (सेवानिवृत्त) मदन बी. लोकुर ने भी कई सवाल उठाये? कुछ समय से ये अटकलें लगायी जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा। तो उस मायने में राज्यसभा का नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यह इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से नये से तरीके से परिभाषित करता है। तो लोगों के भरोसे का आिखरी गढ़ भी ढह गया है?
इस तरह के विवादों की पुनरावृत्ति ने तब जड़ें जमा लीं, जब केंद्र सरकार की सबसे लम्बी पारी होने वाली सत्तारूढ़ दल ने सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज फातिमा बीवी को तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया था। सेवानिवृत्त सीजेआई रंगनाथ मिश्रा राज्यसभा के अलावा अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विभिन्न अन्य अहम पदों पर नियुक्त किये जाते रहे हैं। एक पूर्व सीजेआई सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया गया और अब रिटायर्ड सीजेआई गोगोई राज्यसभा की सदस्यता ले चुके हैं। 1950 से आज तक न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद पदों से नवाज़े जाने का यह विवादास्पद मुद्दा अनसुलझा ही है।
लोगों में कहीं-न-कहीं शक तो पैदा होता ही है, जिससे इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गयी है। इस बहस पर ध्यान नहीं दिया जाता कि सीजेआई ने अपने कार्यकाल के दौरान संवेदनशील मुद्दों पर फैसलों का निपटारा किया था। 16 मार्च को केंद्र द्वारा जारी एक अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद-80 के खंड (1) के तहत राज्यसभा में रिक्त पद को भरने के लिए पूर्व सेवानिवृत्त सीजेआई को मनोनीत सदस्य के तौर पर नामित किया है। गोगोई ऐतिहासिक अयोध्या का फैसला सुनाने के बाद 17 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो गये थे। अन्य महत्त्वपूर्ण निर्णयों में भारत में समलैंगिकता का उन्मूलन, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश और निजता मौलिक अधिकार शामिल हैं।
इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि उनके फैसले गलत थे या पक्षपाती रहे। एकमात्र तथ्य यह सामने आता है कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद तत्काल उनकी नियुक्ति या पद से नवाज़े जाने से उनके किये गये फैसलों पर लोग एक राय बनाना शुरू कर देते हैं, भले ही उनकी मेरिट चाहे जो हो। जैसा कि इससे सभी वािकफ हैं कि पूर्वाग्रह के वास्तविक अस्तित्व को न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता को खत्म नहीं किया जा सकता है। पूर्वाग्रह की धारणा इस पर आधार पर बनायी गयी न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए जुदा नहीं है। न्याय के बारे में कहा जाता है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि यह भी दिखना भी चाहिए। इस संदर्भ में इसकी महत्त्व और ज़्यादा बढ़ जाता है।
एक मज़बूत और स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए ज़रूरी है कि उसके लिए निडर और मज़बूत बार ऐसोसिएशन हो, लेकिन आम धारणा है कि न्यायाधीशों की स्वतंत्रता हमारे कुछ न्यायाधीशों के कार्यकाल के आिखरी कार्यकाल में दबाव में होती है। सम्भवत: इसकी वजह सेवानिवृत्ति के बाद की सम्भावनाएँ सरकार के पक्ष की ओर इशारा करती हैं। जब कोई न्यायाधीश अपने सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी ओहदे को सरकार की ओर से स्वीकार करता है, तो उनकी स्वीकारोक्ति पर उँगलियाँ उठायी जाती हैं। एक ऐसी स्थिति जिसमें सरकारी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रुचि से प्रभावित लगता है।
हितों का टकराव
न्यायाधीशों का पद स्वीकार करना निश्चित रूप से हितों के टकराव की स्थिति पैदा करता है। यह न्यायिक स्वतंत्रता में लोगों के भरोसे को कमज़ोर करता है। हाल ही के मास्टर ऑफ रोस्टर केस में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि जनता का विश्वास न्यायपालिका की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इस दौरान कहा गया था कि लोगों का भरोसा ज़्यादा मायने रखता है, जिस पर न्यायिक समीक्षा की समीक्षा और फैसलों का असर दिखता है। विश्वसनीयता अगर जनता के दिमाग में संशय पैदा कर दे तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस जे चेलमेश्वर ने इस मामले में खुलकर बात करते हुए मोर्चा सँभाला था। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति से पहले ही, सार्वजनिक बयान में कहा था कि वे सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी पद को स्वीकार नहीं करेंगे और वे अपने स्टैंड पर कायम हैं। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसेफ ने भी इसी तरह का बयान दिया।
शिष्टाचार के कारक
हाल ही में रिटायर हुए तीन जजों की सरकार की ओर से पदों से नवाज़े जाने को लेकर इसके औचित्य पर फिर से बहस शुरू हो गयी है। 6 जुलाई को न्यायमूर्ति ए.के. गोयल को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अपनी सेवानिवृत्ति के उसी दिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल को उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के कुछ ही हफ्तों बाद मई के अंतिम सप्ताह के दौरान राष्ट्रीय उपभोक्ता निवारण आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति एंटनी डोमिनिक को केरल सरकार द्वारा राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, जो मई के अंतिम सप्ताह में केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए। तीन न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के थोड़े समय के भीतर हुई इन नियुक्तियों ने लोगों के मन में सवाल पैदा कर दिये। सेवानिवृत्ति के बाद तत्काल नियुक्ति को लेकर शिष्टाचार के सिद्धांत को तो नहीं अपनाया जाता, भले ही इस बारे में पहले ही से क्यों न फैसला कर लिया गया हो।
न्यायमूर्ति बी. केमल पाशा, जो इस साल की शुरुआत में केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए और अपने विदाई भाषण में इस पर बढिय़ा भाषण दिया था। उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद पद स्वीकारने के लिए सरकार से उम्मीद करते हैं, इसलिए वे सरकार से कम उसे उसा साल ऐसा फैसला नहीं सुनाते हैं, जिससे सरकार किसी भी तरह से उनसे नाराज़ लगे। यह एक आम शिकायत है कि इस तरह के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद किसी ऑफर की उम्मीद करके सरकार से नाराज़गी को आमंत्रित करने की हिम्मत नहीं करते हैं। उन्होंने जस्टिस एसएच कपाडिय़ा के बयान को भी पढ़ा। जस्टिस कपाडिय़ा और न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने कहा था कि किसी भी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद कम-से-कम तीन साल की अवधि के कोई भी वेतनभोगी पद स्वीकार नहीं करना चाहिए।
सभी पूर्व सीजेआई कपाडिय़ा, लोढ़ा और ठाकुर के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कूलिंग ऑफ अवधि के सम्बन्ध में सुझाव प्रासंगिक हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने कहा था कि वह सेवानिवृत्ति के बाद दो साल की अवधि तक कोई भी लाभ का पद नहीं लेंगे। स्वतंत्र भारत का पहला लॉ कमीशन एम.सी. सेतलवाड की अध्यक्षता में बना, इसमें सिफारिश की गयी थी कि उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी नौकरी को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
इस तरह के न्यायाधीशों को यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिए सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका आचरण बेहद मायने रखता है। संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद 148 या 319 के तहत ऐसा प्रावधान शामिल किया जा सकता है। संसद द्वारा सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को दो साल के लिए कोई भी नियुक्ति लेने से रोकने के लिए एक विशेष कानून भी पारित किया जा सकता है।
चौंकाने वाले आँकड़े
कानूनी थिंक टैंक, विधी सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार, 100 से अधिक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों में से 70 ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, सशस्त्र बल, अधिकरण, भारतीय विधि आयोग आदि संगठनों में इस तरह के पद स्वीकारे हैं। इनमें से हो सकता है कि कुछ पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति ज़रूरी हो।
रिपोर्ट में पाया गया है कि अध्ययन किये गये में से पाया गया कि 56 फीसदी की नियुक्ति कानून के तहत संरचनात्मक समस्या को लागू करते के लिए ज़रूरी थी। यह देखने के लिए एक और विडंबनापूर्ण तथ्य यह है कि ऐसी नियुक्तियाँ कैसे सांविधिक प्रावधानों की पवित्रता को बनाये रखने में अपनी उत्पादकता साबित करती हैं, जिसके तहत वे अपनी नियुक्ति प्राप्त करते हैं। उनके पैरिसिडल दृष्टिकोण के इस चौंकाने वाले पहलू पर अलग से विस्तार में बताया जा सकता है।
1950 के बाद से भारत के 44 मुख्य न्यायाधीश हुए हैं, जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों को स्वीकार किया है। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के चार महीने पहले भी कमीशन पर नियुक्त किया गया है। उदाहरण के लिए, जस्टिस दलवीर भंडारी 30 सितंबर, 2012 को सेवानिवृत्त होने वाले थे। लेकिन हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में चुने जाने के कुछ महीने पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसी तरह 18 सितंबर, 2011 को न्यायमूर्ति मुकुंदक शर्मा के सेवानिवृत्त होने के चार महीने पहले, उन्हें वंसधारा जल विवाद न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए मंज़ूरी दे दी गयी थी।
पहचान स्थापित करना
कुछ समय पहले (सेवानिवृत्त) न्यायमूर्ति ए. सेल्वम का ट्रैक्टर से एक खेत की जुताई करते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। 62 साल की उम्र में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद ए. सेल्वम ने कृषि को आगे बढ़ाने के लिए शिवगंगा ज़िले के तिरुप्पत्तुर तालुका में अपने मूल निवास पुलंकुरिची पहुँचे और खेतीबाड़ी से जुड़े। वह एक कृषि परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो लगभग 100 वर्षों से फसलें उगा रहे हैं और सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने इसे अपनाया। अप्रैल, 2018 में सेवानिवृत्त हुए पूर्व न्यायाधीश अब पुलनकुरी में अपने पाँच एकड़ की पैतृक ज़मीन पर कृषि कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कृषि से मुझे सच्ची खुशी मिलती है। मैं यहाँ अपनी ज़मीन पर खेती कर रहा हूँ और अच्छी फसल उगा रहा हूँ। प्रकृति के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है।
तंत्र की ज़रूरत
इसी दौरान यह सुनिश्चित करना कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के अनुभव और अंतर्दृष्टि पर धन बर्बाद किया जाना कहना भी आदर्श स्थिति नहीं है। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की क्षमता का सदुपयोग करने के लिए एक तंत्र होना चाहिए। वर्तमान में अधिकांश वैधानिक आयोगों और न्यायाधिकरणों को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की अध्यक्षता की आवश्यकता होती है। संविधान न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद का कार्यभार लेने से रोकता नहीं है।
संविधान का अनुच्छेद-124 कहता है कि कोई भी व्यक्ति, जिसने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदभार सँभाला है; वह किसी भी अदालत में या भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी अधिकार के समक्ष याचना नहीं करेगा। तब अनुच्छेद-220 में उच्च न्यायालय के जज सर्वोच्च न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों को छोड़कर किसी भी प्राधिकरण के समक्ष दलील पेश कर न्याय दिलाते हैं। हालाँकि, ऐसे सुझाव दिये गये हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यूनतम कूलिंग-ऑफ अवधि होनी चाहिए और हितों के टकराव को रोकने के लिए एक नयी नियुक्ति होनी चाहिए। ये पद आमतौर पर संवैधानिक या अर्ध-न्यायिक निकाय के होते हैं; जिनके कानून ज़्यादातर ऐसे जनादेश नहीं देते हैं कि केवल सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही उन पर कब्ज़ा कर सकते हैं।
पारम्परिक मुकदमों, जिनके लिए अदालतें बनायी गयी हैं; की अनदेखी की जा रही है। अधिकांश न्यायाधीशों को ऐसे मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं है और इसका नतीजा यह है कि इन मामलों में गरीब और आम लोगों को निर्दयता से खारिज कर दिया जाता है। प्रस्ताव में कहा गया कि अदालतों का प्रमुख समय मीडिया-लोकप्रिय मामलों पर बर्बाद होता है, जिसके पास हमारे देश के 99 फीसदी नागरिकों की कोई चिन्ता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अधिकांश न्यायाधीश ज़मीनी वास्तविकताओं और सामाजिक मुद्दों पर जनता की राय से बहुत दूर हैं। सभी प्रकार के निर्धारित सामाजिक और धार्मिक मूल्यों और मानदंडों के खिलाफ कानून बनाये जा रहे हैं। आदेश भी पारित किये जा रहे हैं। इस पर गम्भीर बहस की आवश्यकता है?
( लेखक पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं।)