हाल ही में सम्पन्न टोक्यो पैरालंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन की चर्चा केवल इस देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हो रही है। दिव्यांग खिलाडिय़ों ने उम्मीद की रेखा लाँघकर देशवासियों के सामने अपने असीम जज़्बे का परिचय देकर अपनी भावी उपलब्धियों की ओर भी इशारा कर दिया है। इस बार भारतीय पैरालंपिक दल 54 खिलाडिय़ों का था और आकलन में उन्हें अधिकतम 15 पदक का दावेदार माना गया था; लेकिन इस दल ने 19 पदक जीतकर इतिहास रच दिया है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों ने 5 स्वर्ण, 8 रजत और 6 कास्य पदक जीतकर सबको चौंका दिया।
ग़ौरतलब है कि पैरालंपिक में पहली बार पाँच स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया है। अवनि लेखरा, सुमित अतिल, मनीष नरवाल, प्रमोद भगत, कृष्णा नगर ने स्वर्ण पदक हासिल किये, तो भावनाबेन, निषाद कुमार, देवेंद्र झाझरिया, योगेश, प्रवीण कुमार, सिंहराज, सुहास यथिराज और मरियप्पन ने रजत पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया। इसके अलावा सुंदर सिंह गुर्जर, अवनि लेखड़ा, शरद कुमार, हरवंदिर सिंह, मनोज सरकार और सिंहराज अधाना ने कास्य पदक जीतकर महज़ अपना नाम ही पदक तालिका में दर्ज नहीं कराया, बल्कि देश को भी इन सब पर नाज़ है। अवनि लखेड़ा और सिंहराज अधाना ने दो-दो पदक जीते हैं। सुहास यथिराज पहले आईएएस हैं, जिन्होंने पैरालंपिक में न केवल हिस्सा लिया, बल्कि रजत पदक भी जीता। वह एक प्रेरणास्रोत के रूप में उभरे हैं। जैसा कि पैरालंपिक नाम से ही स्पष्ट है कि ये खेल दिव्यांग लोगों के लिए हैं। पैरालंपिक की स्थापना सन् 1960 में की गयी थी और इसे शुरू करने के पीछे एक मक़सद दुनिया भर के लोगों में ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने, उनमें छिपी योग्यता, कौशल को निखारने, बराबरी का सम्मान देने वाली भावना को विकसित करने के बाबत जागरूकता फैलाना भी है।
अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का अनुमान है कि विश्व की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी विकलांग है और ऐसे खेलों की मंशा समाज को विकलांगता के लिए ज़रूरी संरचना, संसाधन और सामाजिक समावेश के लिए प्रोत्साहित करने की है। मंशा नेक है। लेकिन इसके साथ सवाल भी अनेक है। अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का मानना है कि दुनिया की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी दिव्यांग, नि:शक्त है; यानी इस दुनिया में क़रीब एक अरब ऐसे लोग हैं और ग़ौर करने वाला तथ्य यह है कि ऐसे अधिकांश लोग विकासशील देशों में है।
सेहत दुरुस्त करने की ज़रूरत
विकासशील देशों की आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं हुई है और इस आबादी की शारीरिक सेहत व मानसिक सेहत को दुरुस्त रखने के लिए पैसा और दृढ़ शक्ति दोनों की ज़रूरत होती है। सामाजिक नज़रिया बदलने के लिए कई प्रयास करने होते हैं और उसके लिए फंड चाहिए होता है। सामाजिक, आर्थिक समावेश के ठोस नतीजे पाने के लिए समग्र दृष्टिकोण की दरकार होती है। टोक्यो पैरालंपिक में चीन शीर्ष स्थान पर रहा और उसके बाद ब्रिटेन, रूस और अमेरिका है।
यूक्रेन 98 पदक जीतकर पाँचवें स्थान पर है और इस ग़रीब देश की इन उपलब्धियों ने सबको हैरत में डालने के साथ ही यह सन्देश भी दिया है कि जहाँ चाह, वहाँ राह। यूक्रेन को यूरोप का ग़रीब देश माना जाता है और संयुक्त राष्ट्र ने इस देश को दिव्यांग लोगों के रहने के लिए मुश्किल जगह बताया है। यूक्रेन में दिव्यांग एथलीट के लिए विशेष सेंटर और खेल स्कूल हैं। नीति बदलकर सामान्य खिलाडिय़ों व पैरालंपिक खिलाडिय़ों की इनाम राशि बराबर कर दी है।
बदलना होगा नज़रिया
यूँ तो हर साल 3 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। इसे हर साल मनाने के पीछे मक़सद शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के प्रति समाज के नज़रिये में बदलाव लाना है और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। सन् 1992 से इसे पूरी दुनिया में मनाने की शुरुआत हुई। हर साल इस दिन दिव्यांगों के विकास, उनके कल्याण क लिए योजनाओं, समाज में उन्हें बराबरी के मौक़े मुहैया कराने पर विचार-विमर्श किया जाता है। हर साल दुनिया के तमाम देशों में इस दिन उनकी स्थिति में सुधार लाने, उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। हर साल अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का एक थीम तय किया जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस 2020 का विषय था- बेहतर पुनर्निमाण: कोविड-19 के बाद की दुनिया में विकलांग लोगों के लिए समावेशी, सुलभ और अनुकूल माहौल हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस थीम का समर्थन किया और कोविड-19 महामारी के दौरान दिव्यांग व्यक्तियों की ज़रूरत पर बल दिया है। दरअसल अभी भी समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा विकलांगता को कलंक के तौर पर ही देखता है और उनसे दूरी बनाये रखता है। हमें इस नज़रिये को बदलना होगा। सम्भवत: इसीलिए विकलांग व्यक्तियों के लिए समाज में नियम और नियामकों का ठीक तरह से लागू करने के लिए दिव्यांगों के लिए आयोजित अंतर्राष्ट्रीय दिवस के उत्सव को एक प्रभावशाली प्रसंग की ज़रूरत होती है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि इस दिवस का एक अहम उद्देश्य दिव्यांग लोगों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की मुख्यधारा में शामिल करना है।
दिव्यांगों का करना होगा सम्मान
संयुक्त राष्ट्र ने दिव्यांग लोगों की दुर्दशा के मद्देनज़र सन् 2006 में दिव्यांग लोगों के अधिकारों पर एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि पारित की, जिस पर दुनिया के 160 देशों ने अभिपुष्टि की है। इस सूची में भारत भी शामिल है। भारत जो कि आबादी में विश्व में दूसरे नंबर पर है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांगों की संख्या 2.68 करोड़ है, इसमें से 69 फ़ीसदी दिव्यांग आबादी गाँवों में और 38 फ़ीसदी शहरों में बसती है। सन् 2001 जनगणना के मुताबिक, तब यह आबादी 2.1 करोड़ थी। सन् 2001 से सन् 2011 यानी इन 10 वर्षों में दिव्यांग लोगों की संख्या बढ़ गयी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर, 2015 की मन की बात कार्यक्रम में विकलांग को दिव्यांग का नाम दिया और अब भारत में दिव्यांग शब्द का ही अधिकतर प्रयोग किया जाता है। प्रधानमंत्री का दिव्यांग शब्द देने का मक़सद ऐसे लोगों को सम्मान देना, उनके भीतर के हुनर को बाहर निकालना और ऐसे लोगों को कमतर नहीं समझने से ही है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों का दिव्य प्रदर्शन इसकी यादगार मिसाल है। बहरहाल देश में दिव्यांगों को सशक्त बनाने के लिए क़ानून भी हैं। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 में विकलांगता की परिभाषा में बदलाव लाते हुए इसे और व्यापक बनाया गया है। दरअसल इस अधिनियम में विकलांगता को एक विकसित व गतिशील अवधारणा के आधार पर परिभाषित किया गया है और अपंगता की मौज़ूदा प्रकारों को सात से बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। इस अधिनियम में शिक्षा व सरकारी नौकरियों में दिव्यांगों के लिए तीन फ़ीसदी आरक्षण को बढ़ाकर चार फ़ीसदी कर दिया गया है। इस अधिनियम में सरकारी वित्त पोषित शैक्षिक संस्थानों और सरकार के द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थानों को दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा मुहैया करानी होगी। दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए योजनाओं व कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने हेतु सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत सन् 2012 में एक नये विभाग की स्थापना की गयी।
परिवहन प्रणाली भी सुगम नहीं
15 दिसंबर, 2015 को दिव्यांग लोगों के लिए सुगम्य भारत अभियान की शुरुआत की गयी। इस अभियान का मक़सद दिव्यांगजनों के लिए एक सक्षम व बाधारहित वातावरण तैयार करना है। ग़ौरतलब है कि इस अभियान के तहत मौज़ूदा वातावरण में सुगमता निश्चित करने, परिवहन प्रणाली में सुगमता तथा ज्ञान के माध्यम से दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने जैसे तीन प्रमुख उद्देश्यों पर ज़ोर है। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली दिव्यांगों के लिए कितनी सुगम है? इस बात का जवाब क्या सरकार के पास है? सरकार के मंत्री व आला अधिकारी बेशक गोल-मोल जवाब दे दें, मगर वास्तविकता सबके सामने है। मेट्रो में इनके लिए सुविधाएँ हैं; लेकिन सवाल यह है कि मेट्रो देश के कितने शहरों में चलती है। सामान्य रेलगाडिय़ों में इनके लिए क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बसों में भी क्या सुविधाएँ दी जाती हैं, सब जानते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में लो फ्लोर बसें चलती हैं; लेकिन उसमें व्हील चेयर इस्तेमाल करने वाला दिव्यांग व्हील चेयर के साथ नहीं चढ़ सकते। वहीं यूरोप और अन्य विकसित देशों में बसों को ऐसे बनाया गया है कि दिव्यांग व्हील चेयर के साथ बस में चढ़ सकते हैं।
बेहतर प्रयासों की दरकार
केंद्र की मौज़ूदा सरकार का कौशल विकास पर बहुत ही ज़ोर है। लिहाज़ा दिव्यांगजनों के कौशल प्रशिक्षण के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना की शुरुआत की गयी और इसका उद्देश्य 2022 तक 25 लाख दिव्यांगों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना है। लक्ष्य बड़े हैं; लेकिन बड़ों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए फंड, प्रतिबद्धता, कड़ी मेहनत की दरकार है और इस सन्दर्भ में भारत को और अधिक गम्भीर नज़रिये के साथ दुनिया के सामने आना होगा। निश्चित तौर पर टोक्यो पैरालंपिक में देश को 19 पदक मिलना एक विशेष उपलब्धि है और इस उपलब्धि ने देश की 2.68 करोड़ दिव्यांग आबादी की ओर ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अभी भी देश के दिव्यांगों के लिए बहुत-से अभाव हैं, जिन्हें तत्काल पूरा करने की ज़रूरत है। उम्मीद है कि सरकार, समाज व अन्य संगठन मिलकर इनके लिए हर दृष्टि से समावेशी माहौल बनाने की दिशा में काम करेंगे।