तीन मई को भारतीय सिनेमा अपने सौवें बरस में दाखिल हो जाएगा. हिंदी के कथा संसार की उम्र भी लगभग इसके बराबर है- शायद कुछ बरस ज्यादा, लेकिन दोनों समकालीन कहे जा सकते हैं. हिंदी की पहली आधुनिक कहानी कहलाने की होड़ जिन रचनाओं में दिखती है, उनमें से एक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ पर फिल्म भी बनी. कायदे से हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच एक पुल यह कहानी भी बनाती है. 1960 में बिमल राय प्रोडक्शंस के बैनर तले बनी इस फिल्म का निर्देशन मणि भट्टाचार्य ने किया था और इसमें सुनील दत्त और नंदा जैसे कलाकारों ने मुख्य भूमिकाएं अदा की थीं.
अनायास यह खयाल आता है कि साठ के दशक में कई दूसरी महत्वपूर्ण रचनाओं पर भी फिल्में बनीं. हिंदी की किसी साहित्यिक कृति पर बनी इस दौर की सबसे कामयाब फिल्म ‘तीसरी कसम’ रही, जो फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी थी. फिल्म का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया था. हालांकि उसके पहले 1963 में प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ पर फिल्में बनीं. बाद में सत्यजित रे ने प्रेमचंद की ही ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सदगति’ पर फिल्में बनाईं.
हालांकि 1934 में जब प्रेमचंद खुद मुंबई- तब के बंबई- पहुंचकर फिल्मी दुनिया में काम करना चाहते थे तो इतने कामयाब नहीं हुए. वैसे फिल्मी दुनिया में उनका संक्षिप्त प्रवास बताता है कि उनके व्यावसायिक लेखन में भी उनकी अपनी प्रतिबद्धताएं नजर आती रहीं. 1934 में वे मुंबई पहुंचे और उन्होंने अजंता सिनेटोन में 8,000 रुपये सालाना वेतन पर बतौर पटकथा लेखक की नौकरी शुरू की. उन्होंने ‘मज़दूर’ फिल्म की कहानी लिखी जिसका निर्देशन मोहन भवनानी ने किया था. फिल्म के केंद्र में मजदूरों की बदहाली थी और एक प्रभावशाली व्यवसायी ने मुंबई में फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ स्टे ले लिया. फिल्म लाहौर और दिल्ली में प्रदर्शित हुई, लेकिन जब इसने मज़दूरों को मिल मालिकों के खिलाफ आंदोलन के लिए प्रेरित करना शुरू किया तो इन शहरों में भी इस पर पाबंदी लग गई. फिल्म में प्रेमचंद ने भी मजदूर नेता की छोटी सी भूमिका अदा की थी. बहरहाल, उस दुनिया में प्रेमचंद का दिल नहीं लगा और हिमांशु राय के समझाने के बावजूद वे बंबई से लौट आए.
हिंदी की जिन दूसरी कृतियों को फिल्मी दुनिया ने कुछ अहमियत दी, उनमें भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ रहा. पाप और पुण्य की अवधारणा पर लिखे गए इस उपन्यास पर दो बार फिल्में बनीं- पहली बार 1941 में और दूसरी बार 1964 में. दोनों बार केदार शर्मा ने ये फिल्में बनाईं. दूसरी बार बनी ‘चित्रलेखा’ का एक गीत काफी चर्चित भी हुआ- ‘संसार से भागे फिरते हो’.
यह सत्तर का दशक है जब हिंदी सिनेमा हिंदी साहित्य का हाथ थामने की कुछ कोशिश करता है. फिल्म लेखक दिनेश श्रीनेत तो मानते हैं कि हिंदी में नई कहानी और नया सिनेमा दोनों साथ-साथ चले. बेशक, इसके कई प्रमाण दिखते भी हैं. 1969 में मणि कौल ने मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर जो फिल्म बनाई, उससे हिंदी में नए सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है. इस फिल्म को बेहतरीन फिल्म का फिल्मफेयर समीक्षक सम्मान भी मिला. दो साल बाद मणि कौल ने मोहन राकेश के ही नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर भी फिल्म बनाई और 1974 में विजयदान देथा की कहानी दुविधा पर. हिंदी साहित्य से मणि कौल का रिश्ता और दूर तक जाता है. मुक्तिबोध की कहानी ‘सतह से उठता आदमी’ पर भी उन्होंने अपनी तरह की एक अलग सी फिल्म बना डाली.
यह शायद 1972 का साल था, जब कुमार शाहनी ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘मायादर्पण’ पर इसी नाम से फिल्म बनाकर ठीक वही पुरस्कार जीता जो ‘उसकी रोटी’ पर मणि कौल जीत चुके थे. मणि कौल और कुमार शाहनी के अलावा बासु चटर्जी वे तीसरे निर्देशक हैं जो नई कहानी से जुड़े लेखकों की कृतियों पर फिल्म बनाते नजर आते हैं. उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर इसी शीर्षक से और मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ नाम से फिल्में बनाईं.
वैसे फिल्मी दुनिया में किसी हिंदी लेखक का जो सबसे कामयाब हस्तक्षेप रहा, वह नई कहानी की त्रयी के तीसरे हस्ताक्षर कमलेश्वर की तरफ से दिखता है. उन्होंने समांतर सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा दोनों में बराबर अधिकार के साथ काम किया- एक तरफ ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘अमानुष’, ‘छोटी सी बात’ जैसी फिल्में लिखीं तो दूसरी तरफ ‘राम बलराम’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘साजन की सहेली’ और ‘सौतन’ जैसी कारोबारी और सितारों से सजी फिल्में भी. मनोहर श्याम जोशी ने भी ‘पापा कहते हैं’, ‘अपु राजा’, ‘भ्रष्टाचार’ जैसी कुछ फिल्मों की पटकथाएं या संवाद लिखे. बरसों बाद श्याम बेनेगल ने धर्मवीर भारती की किताब ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर इसी नाम से एक यादगार फिल्म बनाई. वैसे 80 के दशक में ही केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर ‘नदिया के पार’ के नाम से एक सफल फिल्म भी बनी. सदी के इस पहले दशक में विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ पर ही शाहरुख खान ने ‘पहेली’ के नाम से एक कारोबारी फिल्म बनाई जो खूब चली भी.
दो-तीन साल पहले उदय प्रकाश के उपन्यास ‘मोहनदास’ पर बनी फिल्म इस सिलसिले की बस आखिरी कड़ी की तरह दिखाई पड़ती है. हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य का साथ इससे आगे नहीं जाता. अंततः ये सारे लेखक साहित्य की दुनिया में लौट आते हैं. फिल्मी दुनिया से मायूसी या मोहभंग के बाद लौटने वाले लेखकों में हमारे वरिष्ठ उपन्यासकार अमृतलाल नागर भी दिखाई पड़ते हैं. सवाल है, आखिर हिंदी के ये बड़े लेखक फिल्मों में कामयाब क्यों नहीं हो पाए? एक जवाब तो साफ है – लेखन एक स्वतंत्र और एकांतिक विधा है जिसमें आप अपनी मर्जी से, अपनी प्रतिबद्धता और संवेदना के हिसाब से काम करते हैं, जबकि सिनेमा मूलतः एक कारोबार है जिसमें लेखक बहुत सारी दूसरी विधाओं के बीच तालमेल बिठाकर चलता है, यही नहीं कई बार उसमें व्यावसायिक समझौते भी करने पड़ते हैं. दूसरी बात, कहानी या उपन्यास लेखन के मुकाबले फिल्म लेखन कहीं ज्यादा जटिल विधा है जो एक तरह का पेशेवर प्रशिक्षण भी मांगती है.
लेकिन चाहे फिल्म लिखनी हो या उपन्यास लिखना हो- विधा तो वह शब्दों की है और उसमें कई रचनात्मक लोग भी लगे हुए हैं जिन्होंने बहुत अच्छा काम किया है. फिर क्या हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच की दूरी का कुछ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है जहां तक मैं देख पाता हूं. दरअसल जिसे हम हिंदी सिनेमा कहते हैं, एक तरह से उसकी शुरुआत उर्दू सिनेमा के रूप में हुई. ज्यादातर पटकथा-लेखक या गीतकार उर्दू की पृष्ठभूमि से आए या फिर हिंदी-उर्दू दोनों की साझा विरासत से. हिंदी के मुकाबले उर्दू लेखकों सआदत हसन मंटो, कृष्णचंदर, राजेंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रजा, इस्मत चुगतई, गुलजार, जावेद अख्तर की आवाजाही सिनेमा की दुनिया में ज्यादा रही. इसी तरह गीतकारों में शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, जांनिसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी आदि मूलतः उर्दू की पृष्ठभूमि से आए लोग रहे. हालांकि यह फिल्मी दुनिया ही याद दिलाती है कि इन लेखकों के संदर्भ में हिंदी और उर्दू का फर्क देखना बेमानी है- आखिरकार ये एक ही जुबान के नुमाइंदे हैं. बेशक इनके समांतर पंडित प्रदीप और भरत व्यास जैसे कुछ गीतकारों ने तत्समनिष्ठ हिंदी में कई सफल गीत लिखे, लेकिन अंततः हिंदी सिनेमा जिस पूरी पृष्ठभूमि से आता दिखाई पड़ता है, वह नाच-गानों से भरी वाजिद अली शाह के दरबार में चलने वाली इंदर सभा से बनती है, बाद के दौर में पारसी थिएटर के नाटकों से जुड़ती है और अंततः उस परंपरा से, जिसका नाम उर्दू है.
बेशक, आजादी के बाद जब मुल्क बंटते हैं तो सिनेमा भी बंटता है, कलाकार-लेखक सब सरहद के इधर-उधर दिखते हैं. धीरे-धीरे एक नई पीढ़ी सामने आती है जो हिंदी के कथा संसार में अपनी कहानियां खोजती है. लेकिन हकीकत यह है कि यह संसार उसकी बहुत मदद नहीं करता.
उर्दू में किस्सागोई की जो लोकप्रिय परंपरा रही, हिंदी का साहित्य उसके मुकाबले कहीं ज्यादा भारी-भरकम किस्म के यथार्थ का वाहक बना रहा. शायद यह हिंदी साहित्य पर सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति का दबाव भी रहा जिसने उसे फिल्मों के अपेक्षया रोमांटिक संसार से दूर रखा. अब यह बात बहसतलब है कि इस प्रवृत्ति ने हिंदी साहित्य का भला किया है या बुरा. सच्चाई सिर्फ इतनी है कि आज का हिंदी लेखक एक बेचेहरा शख्स है जिसे उसका समाज ठीक से पहचानता नहीं. इसमें शक नहीं कि हिंदी की गरीब बहन उर्दू इस मामले में अपने गद्य और पद्य दोनों में- अपने अफसानों में भी और अपनी शायरी में भी हिंदी के मुकाबले अपने समाज के कहीं ज्यादा करीब है.
बहरहाल, हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य में बन रहा रिश्ता अब लगभग टूटा हुआ दिखता था. फिल्मों में आई नई पीढ़ी हिंदी साहित्य से कोसों दूर है और उसकी प्रेरणाएं या तो पश्चिम के सिनेमा से आती हैं या फिर अंग्रेजी के साहित्य से. विशाल भारद्वाज ‘मैकबेथ’ और ‘ऑथेलो’ के अनूठे देसी संस्करण तैयार कर सकते हैं या रस्किन बॉन्ड की कृतियों पर ‘ब्लू अंब्रेला’ या ‘सात खून माफ’ जैसी फिल्में बनाते हैं. विधु विनोद चोपड़ा चेतन भगत के औसत से उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट समथिंग’ पर ‘3 इडियट्स’ जैसी शानदार फिल्म बना डालते हैं. मगर यह विडंबना ही है कि जिस दौर में हिंदी सिनेमा अपने शिल्प में ज्यादा यथार्थ-सजग और सूक्ष्म हो रहा है उस दौर में वह अपने समय की समर्थ हिंदी कहानियों से कटा हुआ है. चाहें तो इसके लिए कुछ हद तक उस हिंदी लेखक को भी जिम्मेदार ठहरा सकते हैं जो सामाजिक यथार्थ के अपने घिसे-पिटे खोल में रहकर लिख रहा है और अपनी विधा का ऐसा पुनराविष्कार करने की कोशिश तक नहीं कर रहा जिसमें वह फिल्म जैसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय माध्यम को कुछ प्रीतिकर और पौष्टिक दे सके.