पांच साल का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विश्लेषण दूसरे किस तरह कर रहे हैं इससे ज्यादा दिलचस्प ये जानना होगा कि खुद मनमोहन अपना आकलन कैसे करेंगे. मन के दर्पण में झांकने पर उन्हें किस तरह का अक्स नजर आएगा? क्या ये अक्स ऐसे प्रोफेसर और अर्थशास्त्र का होगा जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनकर संभावना की हर उड़ान के परे निकल गया या फिर असाधारण नम्रता वाले एक भले आदमी का जो असाधारण नम्रता वाले एक भले नेता में तब्दील हो गया? क्या ये छवि अपने मालिक के आदेश पर जीने और मरने के लिए तैयारे सक्षम सेवक की होगी या फिर चतुराईविहीन अनुयायी के आवरण में छिपे एक चतुर नेता की?
कहा जाता है कि इतिहास सबका निष्पक्ष फैसला करता है. मगर सच ये है कि इतिहास के जरिए भी घटनाओं को समझना कई बार मुश्किल हो जाता है. आखिर कौन कह सकता था कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन जाएंगे और वह भी एक गठबंधन सरकार के. और उससे भी बढ़कर ये कि वे अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा कर जाएंगे.
मनमोहन की सज्जनता और कार्यकुशलता पर दोराय नहीं हो सकती. मगर कितने भी प्रशंसनीय होने पर भी सिर्फ इन गुणों का होना ही काफी नहीं. ये तो कई दूसरे लोगों में भी मिल जाते हैं. एक अरब की आबादी के नेता में लोग इससे कहीं ज्यादा खूबियों मसलन दृष्टि, प्रेरणा, साहस, इच्छाशक्ति, कूटनीति और जनता के मन में झांकने व इतिहास की धारा को बदलने की क्षमता की उम्मीद करते हैं. योजनाओं का कार्यान्वयन अहम गुण है मगर इसके लिए भी व्यवस्था में योग्य लोग मौजूद होते हैं उदाहरण के लिए ब्यूरोक्रेट्स, अर्थशास्त्री आदि.
कुछ लोग दावा करते हैं कि मनमोहन को देखकर उनके बारे में कोई निष्कर्ष बना लेना भूल होगी. उनमें आम भारतीय नेताओं जैसी ठसक और वाकपटुता न होने का मतलब ये नहीं कि वे कमान नहीं साध सकते. बल्कि प्रशंसक तो मानते हैं कि किसी तरह का सतही दिखावा न करना ही मनमोहन को राजनीति के खेल में दूसरों से ज्यादा मंझा हुआ खिलाड़ी साबित करता है. यही वजह है कि वे आज प्रधानमंत्री हैं और वे नहीं जो इस पद के लिए धक्कामुक्की कर रहे थे.
मगर इतिहास की रोशनी में देखने पर मनमोहन के मंझे हुए राजनीतिक होने का ये तर्क लड़खड़ाने लगता है. हर बार ये साफ नजर आता है कि अपनी मर्जी से काम करने की बजाय उन्होंने वही किया जो उनसे करने को कहा गया. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री का उनका कार्यकाल इसका उदाहरण है. प्रधानमंत्री के तौर पर भी उन्होंने वही किया जो उनसे पार्टी या सीधे-सीधे कहा जाए तो सोनिया गांधी ने करने को कहा. दिशानिर्देश सोनिया के रहे और पालन करने के तरीके शायद उनके अपने. ये भी हो सकता है कि उनके विचार काफी हद तक सोनिया से मिलते थे मगर फिर उन पर अमल भी इसीलिए हुआ क्योंकि उन्हें मनमोहन के नहीं बल्कि सोनिया के विचारों के तौर पर देखा गया. बड़े फैसले आम सहमति के आधार पर लिए गए मगर अक्सर ऐसे मौकों पर सिंह मार्गदर्शन के लिए सोनिया की तरफ ताकते रहे. शायद एक तरह से ये उनके लिए फायदेमंद ही रहा. मनमोहन की विशेषज्ञता का क्षेत्र राज की बजाय अर्थनीति रहा है इसलिए हो सकता है कि जनता की नब्ज को समझने के मामले में सोनिया की छाया ने उन्हें अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान किया हो.
[box]जब मीडिया सहित हर कोई पाकिस्तान के खून का प्यासा हो रहा था तो प्रधानमंत्री संतुलित रहे. उनकी प्रतिक्रिया में किसी अपरिपक्व देश के गुस्से की बजाय एक महान राष्ट्र की दूरदर्शिता दिखी[/box]
पांच साल के कार्यकाल के बाद अगर मनमोहन का मूल्यांकन किया जाए तो शायद उन्हें एक विशुद्ध नौकरशाह के तौर पर देखा जाएगा जो सिर झुकाए अपना काम करता रहा और अपने लिए तय दायरे से बाहर कभी भी नहीं गया, जिसने कभी किसी के साथ पंगा नहीं लिया और जो हमेशा दिशानिर्देशों का इंतजार करता रहा. एक ऐसा शख्स जिसका सम्मान उसके व्यक्तित्व की नहीं बल्कि उसके पद की वजह से ज्यादा हुआ और जो शायद प्रधानमंत्री न होता तो 100 करोड़ क्या 100 लोगों का भी नेता नहीं हो सकता था.
मनमोहन सिंह के कार्यकाल को कॉरपोरेट जगत और अमीरों के राज के रूप में देखा जाएगा जिसमें आम आदमी का जिक्र दो बार हुआ. पहली बार तब जब सभी पूर्वानुमानों को धता बताते हुए यूपीए सत्ता में आया और उसने अति कृतज्ञता जताते हुए आम आदमी का राग अलापा. और दूसरी बार पिछले नौ महीनों के दौरान, जब उसे ये अहसास हुआ कि अब वापस उसी परेशान मतदाता की देहरी पर जाना है. इसके अलावा प्रधानमंत्री के कार्यकाल का ज्यादातर हिस्सा इस देश के अमीरों को समर्पित रहा. वे अक्सर व्यापारिक घरानों और मीडिया हाउसों के उन आयोजनों में दिखते रहे जिनका कोई खास मकसद नहीं होता था. पैसे की बोली बोलने वालों से मिलने के लिए हमेशा उनके पास वक्त रहा जबकि जनता की भाषा बोलने वालों को जंतर-मंतर पर धरना देकर या 10 जनपथ के आगे लाइन लगाकर संतोष करना पड़ा.
अमीर वर्ग के लिए उनका ये झुकाव अजीब था. ऐसा लगा जैसे उन्होंने उस अहम सबक पर ध्यान नहीं दिया जो भारत के हर नेता को कंठस्थ होना चाहिए. वह सबक ये है कि अपनी हर बात और काम से भारत के प्रधानमंत्री को देश के गरीबों और वंचितों का प्रतिनिधि लगना चाहिए. ये एक ऐसा नियम है जिसका कम से कम तब तक अनिवार्य रूप से पालन होना ही चाहिए जब तक हमारे देश में हर बच्चे को पर्याप्त शिक्षा और भोजन न मिलने लगे या जब तक कुल गरीबों का आंकड़ा गिरकर एक करोड़ तक न आ जाए. रिकार्ड के लिए बता दें आज ये आंकड़ा पचास करोड़ के करीब है.
हालांकि इस विशुद्ध नौकरशाह ने इस देश की असल बीमारियों को दूर करने के मकसद से भी कुछ काम किए मगर तभी जब हाईकमान ने ऐसा करने के लिए कहा. सूचना के अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना इसके उदाहरण हैं. मगर ज्यादातर मौकों पर वे खुद को एक ऐसे नेता के रूप में पेश करने में विफल रहे जो मुश्किलों से जूझ रहे देश के लोगों में उम्मीद पैदा कर सके. नक्सल समस्या पर उनके बयान बुरे सुझाव का नतीजा दिखे, गुजरात पर उनकी खामोशी भयावह रही और किसानों को आत्महत्या करने से रोकने के उनके उपाय बेअसर साबित हुए. और सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरण को बचाने के मुद्दे पर तो उनका कार्यकाल शायद विपरीत प्रभावकारी रहा. जनता बनाम पूंजीपतियों की हर लड़ाई में वे जनता के साथ खड़े नहीं दिखे.हां, एक मुद्दे पर उन्होंने जरूर दृढ़ता दिखाई मगर इसने उनकी साख बढ़ाने के बजाय उनकी प्राथमिकताओं और जुड़ाव पर नए सवाल खड़े कर दिए. परमाणु करार के फायदे और नुकसान क्या होंगे ये तो सही मायनों में आने वाला वक्त ही बता सकता है मगर फिलहाल तो इस करार ने मनमोहन की विश्वबैंक और अमेरिका समर्थक छवि को बिल्कुल पक्का कर दिया है.
एक मुद्दा ऐसा भी रहा जिस पर उन्होंने राजनेता जैसे धैर्य का परिचय दिया और इसका श्रेय हमेशा उन्हें दिया जाएगा. पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई में हुए हमले के बाद जब मीडिया सहित हर कोई पाकिस्तान के खून का प्यासा हो रहा था तो प्रधानमंत्री संतुलित रहे. उनकी प्रतिक्रिया में किसी अपरिपक्व देश के गुस्से की बजाय एक महान राष्ट्र की दूरदर्शिता दिखी.
यही शांतचित्तता उनकी स्थायी विरासत का एक भाग हो सकती है. उन्होंने कोई आवरण नहीं ओढ़ा और जैसे थे वैसे ही बने रहे. इस तरह उन्होंने शीर्षस्तर पर राजनीति के ओछेपन का स्तर कम किया. इसके लिए हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए कि अगर उन्होंने सार्वजनिक आचरण के गिरते मानदंडों को अगर उठाया नहीं तो और गिराया भी नहीं.
विडंबना ये है कि इतिहास आखिरकार उनके बारे में फैसला इस आधार पर नहीं करेगा कि वे क्या थे और उन्होंने क्या किया. ये फैसला इस आधार पर होगा कि उनके जाने के बाद क्या परिदृश्य बनता है. अगर हिंदू दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत होकर सत्ता में वापसी करती हैं तो उन्हें ऐसे नेता के तौर पर देखा जाएगा जिसने तूफान को रोकने के लिए पर्याप्त कोशिश नहीं की. उधर, राहुल गांधी अगर कांग्रेस में नई जान फूंकने में कामयाब हो गए तो मनमोहन को नेहरू-गांधी खानदान की कहानी में उस फुटनोट के तौर पर देखा जाएगा जिसने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सत्ता हस्तांतरण को सुगम बनाया. लेकिन यदि इसके बाद देश और भी ज्यादा अवसरवादी गठबंधनों, संकीर्ण राजनीति और प्रशासकीय अराजकता के दौर में धंसता है तो उन्हें समझदार और संतुलित नेताओं के दौर के आखिरी व्यक्तित्व के रूप में याद किया जाएगा.
एक बार फिर से वही सवाल. अपने मन के आइने में झांकने पर मनमोहन को किस तरह का अक्स नजर आएगा? शायद उन्हें एक ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति का प्रतिविंब दिखेगा जिसने ऐतिहासिक संयोग से मिले हर मौके पर अपनी नम्रता और कृतज्ञता बनाए रखी, जो महान नहीं तो सही मायनों में असाधारण तो रहा ही और जिसमें साहस से ज्यादा सज्जनता और इच्छाशक्ति से ज्यादा इच्छापालन की भावना रही. देखा जाए तो उनका प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा. जैसे हालात थे उनमें मनमोहन इतना ही कर सकते थे.
तरुण तेजपाल