छापों में कुछ ‘छिपा’ है!

मध्य प्रदेश पिछले कुछ महीनों से लगातार एक ही वजह से राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बना हुआ है. हर पखवाड़े छापे की कम-से-कम एक कार्रवाई और उसमें निचले से निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी के घर से करोड़ों रु की बरामदगी.

यह फरवरी, 2010 की घटना है जब आयकर अधिकारियों ने प्रदेश के एक प्रतिष्ठित आईएएस दंपति अरविंद जोशी और टीनू जोशी के घर छापा मारा था. जनवरी, 2011 में राज्य सरकार और प्रदेश लोकायुक्त को सौंपी अपनी रिपोर्ट में आयकर विभाग ने इन दोनों को सबसे भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारी घोषित करते हुए उनकी कुल काली कमाई 360 करोड़ रुपये बताई. उसके बाद से ही राज्य में भ्रष्टाचार उजागर करने वाले छापों का एक सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक जारी है. शुरुआत में आयकर विभाग और आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) भ्रष्टाचारियों पर छापे की मुहिम चला रहे थे. बाद में राज्य की लोकायुक्त संस्था भी इसमें शामिल हो गई और पिछले तीन महीनों के दौरान प्रदेश की लोकायुक्त पुलिस ने इंजीनियरों,  डॉक्टरों और बाबुओं से लेकर सरकारी चपरासियों तक के घरों से करोड़ों रुपये का काला धन बरामद किया है.

अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन के बाद इस तरह की खबरों को ज्यादातर लोग सिर्फ दो नजरियों से देख रहे हैं. पहला यह कि प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं और दूसरा यह कि भ्रष्टाचारियों पर सरकार कड़ाई से कार्रवाई कर रही है. लेकिन कुछ जानकारों की राय में प्रदेश सरकार की इस तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जुड़े कुछ ऐसे पहलू भी हैं जो इसकी तमाम अच्छाइयों के बाद भी इसे संदिग्ध बनाते हैं. जानकारों का मानना है कि इंदौर के सुगनी देवी जमीन घोटाले में सरकार के मंत्रियों सहित दूसरे मामलों में फंसे उच्च अधिकारियों को लोकायुक्त का संरक्षण मिला हुआ है. और वे छोटे अधिकारियों पर छापे की मुहिम से एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश कर रहे हैं.

‘दिग्विजय सिंह से लेकर वर्तमान सरकार तक का लोकायुक्त राज्य सरकार के इतना प्रभावित रहा है कि भ्रष्ट मंत्री खुद ही उसकी पहुंच से दूर हो गए’

मध्य प्रदेश में लोकायुक्त संस्था का अतीत भी यही बात जाहिर करता है कि राज्य में अब तक के लगभग सभी लोकायुक्त ईमानदारी को धता बताते हुए सरकार के प्रति झुके रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा कहते हैं, ‘यहां लोकायुक्त हमेशा ही सरकार से इतना प्रभावित रहा है कि सत्ता के गलियारों में बैठने वाले तमाम भ्रष्ट चेहरे स्वतः ही उसकी पहुंच से बाहर हो गए. दिग्विजय सिंह की सरकार के दौरान लोकायुक्त वीपी सिंह ने उनके मंत्री मुकेश नायक को हटाने की अनुशंसा की थी. लेकिन जातिगत समीकरणों की वजह से मुख्यमंत्री ने उन्हें पद से हटाने की बजाय राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बना दिया. फिर आए जस्टिस फैजुनुद्दीन. उनकी भी दिग्विजय सिंह से बहुत करीबी मित्रता थी. उन्होंने आयकर से जुड़े कुछ मामलों में सीधे-सीधे उनके मंत्रियों को क्लीन चिट भी दे दी. यहां से जो मामला खराब हुआ तो वह आगे बिगड़ता ही गया. जस्टिस नावलेकर तो अपनी नियुक्ति से ही विवादों में रहे हैं. उन्होंने अभी तक न तो अपने कार्यालय में लंबित 10 से ज्यादा नौकरशाहों से जुड़े मामलों में कार्रवाई की है और न ही सुगनीदेवी जैसे मामलों में कैलाश विजयवर्गीय जैसे भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की है.’

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि इन डॉक्टरों, इंजीनियरों और बाबुओं की कुर्बानी अगले साल होने वाले चुनावों में शिवराज सरकार के नंबर बढ़ाने के लिए दी जा रही है और चुनाव हो जाएं तो छापों का यह सिलसिला थम जाएगा. लोकायुक्त जस्टिस नावलेकर की नियुक्ति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘सारे छापे सिर्फ अपनी छवि सुधारने के लिए डाले जा रहे हैं. वर्तमान लोकायुक्त की नियुक्ति अगस्त, 2009 में हुई थी. पिछले दो साल से वे चुपचाप बैठे थे और जैसे ही हमने इनकी नियुक्ति के खिलाफ याचिका दायर की तो अपनी छवि सुधारने के लिए वे छापे मारने लगे. चूंकि मुख्यमंत्री जी इन्हें अपने उच्च अधिकारियों और कैबिनेट मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने देंगे,  इसलिए छोटे कर्मचारियों को पकड़ कर वे खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित कर रहे हैं.’

हालांकि लोकायुक्त नावलेकर इन आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘मैं अपनी आलोचना के डर से कोई कार्रवाई नहीं करता. किसी राजनेता के खिलाफ यदि सबूत नहीं हैं तो सिर्फ शिकायत के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती.’

‘आम आदमी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उच्च स्तर पर प्रशासनिक-राजनीतिक गलियारों में क्या हो रहा  है’

प्रियंका दुबे से बातचीत में मध्य प्रदेश के लोकायुक्त पीपी नावलेकर कह रहे हैं कि सिर्फ शिकायत के आधार पर वे किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकते

आपकी नियुक्ति के बाद आयोजित पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में आपने कहा था कि आम आदमी को सिर्फ निचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से फर्क पड़ता है. क्या यही वजह है कि लोकायुक्त सिर्फ निचली श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के घरों में छापे मार रहा है ?

मेरे कहने का मतलब था कि आम आदमी नीचे के स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से वाकई बहुत परेशान होता है. उसे इस बात से ज्यादा मतलब नहीं होता कि ऊंचे प्रशासनिक और राजनीतिक गलियारों में क्या चल रहा है. बाबुओं और पटवारियों के द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से उसकी मुश्किलें बढ़ती हैं. इस लिहाज से देखें तो हालिया छापे बहुत महत्वपूर्ण हैं.
 

फिर भी प्रदेश के मुख्य सचिव सहित दस से ज्यादा शिकायतें लोकायुक्त के दफ्तर में लंबित हैं. इन मामलों पर कार्रवाई कब शुरू होगी ?

हम ऐसे ही किसी के घर जाकर कार्रवाई नहीं कर सकते. शिकायत मिलने के बाद लोकायुक्त पुलिस उस शिकायत की तहकीकात करती है और अगर शुरुआती सबूतों के आधार पर ऐसा लगता है कि व्यक्ति की आय और उसकी संपत्ति में फर्क है, तभी हम छापा मारते हैं. मैं किसी के खिलाफ सिर्फ इसलिए कार्रवाई नहीं करूंगा कि मेरी आलोचना हो रही है. और जहां तक राजनेताओं का सवाल है तो लोकायुक्त के पास उनकी जांच करने का अधिकार नहीं है. हमें तहकीकात करके रिपोर्ट वापस सरकार को सौंपनी होती है.

प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा सुनी जाती है कि सुगनीदेवी भूमि घोटाला मामले में लोकायुक्त संस्था परोक्ष रूप से भाजपा सरकार के नेताओं को संरक्षण दे रही है?

इस मामले की फाइल हमने आगे बढ़ा दी है और वह केंद्र सरकार के पास एक जरूरी मंजूरी के लिए अटकी हुई है. और वैसे भी सुगनीदेवी वगैरह तो बहुत छोटे मामले हैं. मैं एक जज हूं. मैं सिर्फ सबूतों और कानून के हिसाब से काम करूंगा. इस बात से प्रभावित होकर नहीं कि लोग क्या कह रहे हैं. लोकायुक्त पूर्ण स्वतंत्र संस्था है.

क्या आपको लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन का फर्क मध्य प्रदेश में भी पड़ा है?  क्या इसकी भूमिका हालिया छापों की संख्या बढ़ाने में भी रही है?

हां, बिलकुल. अन्ना के आंदोलन के बाद अचानक से हमारे पास आने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी. लोगों में जागरूकता बढ़ी है, इसलिए वे ज्यादा शिकायत दर्ज करवा रहे हैं. मैं एक सकारात्मक प्रेरणा तो महसूस करता ही हूं.