नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के तौर पर छठे साल में हैं. दूसरी पारी का एक साल 26 नवंबर को पूरा हो रहा है. जिस प्रदेश के मुखिया हैं, वह 100वें साल में है. वे आजकल सेवा यात्रा पर निकले हुए हैं. बिहार के सौवें साल के आयोजन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है. नीतीश और बिहार की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है. वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखें तो फिलहाल बिहार में कोई नेता ऐसा दिखता भी नहीं जो नीतीश का विकल्प बनने की स्थिति में हो. संभव है, विपक्ष के इस बिखराव और भटकाव की वजह से नीतीश बिहार में अगली पारी भी आसानी से खेल लें. वे मृदुभाषी हैं, अपनी छवि के प्रति बेहद सचेत रहते हैं, वक्त की नजाकत को समझने में माहिर हैं, पार्टी और सरकार के बीच समन्वय की राजनीति करने की कला जानते हैं. और भी कई खासियतें हैं जो उन्हें अलग खड़ा करती हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या इन विशेषताओं और सत्ता में एकाध पारी और खेल लेने के बाद नीतीश एक ऐसे नेता के तौर पर लोकमानस में स्थापित हो जाएंगे जिसे पॉलिटीशयन की बजाय स्टेट्समैन कहते हैं. राजनेताओं के बारे में यह कहा जाता है कि वे तत्काल फायदे को ध्यान में रखकर राजनीति करते हैं और उनका ध्येय सत्ता-शासन में बने रहना होता है. स्टेट्समैन वह होता है जो कई मौकों पर नफे-नुकसान से परे जाकर दूर भविष्य के बारे में भी सोचता है. वह सत्ता के इर्द-गिर्द ही अपनी राजनीति का सारा ताना-बाना नहीं बुनता.
नीतीश कुमार को अगर उनसे पहले के शासन यानी लालू-राबड़ी के मुकाबले खड़ा करें तो वे अतुलनीय लग सकते हैं. चूंकि दोनों एक ही प्रदेश में राजनीति कर रहे हैं, इसलिए इनकी तुलना होना लाजिमी भी है. लेकिन समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के अन्य पहलुओं पर भी गौर करना होगा. नीतीश इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं. गांव की बजाय कस्बाई माहौल में उनकी परवरिश हुई. उनके पिता एक प्रतिष्ठित और सम्मानित वैद्य थे, इसलिए बचपन से ही उनमें अलग किस्म का अनुशासन रहा होगा. लालू प्रसाद अलग परिवेश से आए थे. दोनों के व्यक्तित्व में फर्क दिखता है तो यह स्वाभाविक ही है. प्रदेश की राजनीति में दोनों के छा जाने के वक्त के माहौल भी जुदा थे. इसलिए सिर्फ लालू प्रसाद से तुलना करके, नीतीश को बेहतर मान लेना एक किस्म का चलताऊ तर्क-सा लगता है.
नीतीश का आकलन इससे अलग जाकर करना होगा. नीतीश नायक हैं लेकिन क्या वे महानायकों की श्रेणी में भी आ सकेंगे, इसके लिए उनका आकलन उनको ही आधार बना कर करना होगा. यह देखना होगा कि क्या विनम्र नीतीश में जब-तब जो अहंकार हावी होता है वह उनका कभी भला करेगा! यह देखना होगा कि उनकी कथनी और करनी का फर्क क्या कभी उन्हें दृढ़निश्चयी नेता के तौर पर स्थापित करेगा. खुद की छवि साफ रखते हुए भी गलत किस्म के लोगों से छुटकारा नहीं पा सकने की विडंबना उन्हें किस श्रेणी में खड़ा करेगी, यह भी देखना होगा. नीतीश जिस लोकप्रिय राजनीति को अपनाते नजर आते हैं वह क्या उन्हें औरों से अलग नायकत्व प्रदान करेगी? नीतीश के नाम पर बिहार के लोगों के बीच लहर चलती है, नीतीश चुनावी राजनीति के महारथी भी हो जाते हैं लेकिन जो नीतीश को बनाने वाले होते हैं वे ही एक-एक कर उनका साथ छोड़ते जाते हैं तो यह भी एक सवाल बनता है कि इसकी वजह क्या है क्या नीतीश एक बेहतर टीम लीडर नहीं हैं या उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व की कसौटी अलग-अलग हैं?
यहां हम जिन बिंदुओं पर बात कर रहे हैं वे जनता के मन में हैं. अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग रूपों में नीतीश से संबंधित ऐसे सवाल चौपालों में उछलते रहते हैं. ऐसे सवालों को सामने रखने का मतलब सिर्फ आलोचना करना नहीं, बल्कि यह ध्यान भी दिलाना है कि भले ही ये सवाल मीडिया में न दिखते हों लेकिन बिहार के अलग-अलग हिस्से में उठ रहे हैं. सत्ता की राजनीति से इन सवालों का वास्ता न भी हो तो ये खुद नीतीश के महानायक बनने की राह में रोड़े की तरह जरूर मौजूद रहेंगे.
चिर दुविधा, अनवरत द्वंद्व
लालू प्रसाद के बाद अब नीतीश से भी उतने ही आत्मीय संबंध रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार पहले का एक किस्सा सुनाते हैं. एक बार नीतीश कुमार के साथ वे हेलिकॉप्टर से कहीं जा रहे थे. बात लालू पर होने लगी. नीतीश ने कहा- लालू प्रसाद को इतिहास में बड़ी जगह मिलेगी. पत्रकार ने नीतीश को कहा- इतिहास में आपको भी अहम स्थान मिलेगा. नीतीश ने दुविधा जताई कि अभी इसका ठोस आधार तो नहीं दिखता! पत्रकार ने कहा- बिहार में भाजपा को जमीन देने, उसे मजबूत आधार बनाने का मौका देने के लिए आपको सदा याद किया जाएगा. उसके बाद नीतीश पूरी यात्रा में दुविधाग्रस्त रहे. चिंतन-मनन में लगे रहे.
यह बात बहुत पुरानी हो चली है. नीतीश तब बिहार के मुखिया नहीं थे. वे राजनीतिक आधार की तलाश में वाम दलों का साथ लेने के बाद भाजपा से जुड़ चुके थे. बाद में भाजपा के साथ केंद्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण पारी खेली. अब तो उनका और उनकी पार्टी का भाजपा के साथ चलने, बनने, निभने का लंबा अनुभव हो चला है. लेकिन इतनी लंबी सहयात्रा के बावजूद इस रिश्ते को लेकर नीतीश जब-तब दुविधा में पड़े रहने वाले नेता दिखते हैं. नीतीश के पुराने साथी पूर्व विधानपार्षद प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘जिसे आप दुविधा समझते हैं, वह उनकी नियति है.’ मणी अब उनके आलोचक हैं. इनकी आलोचना से परे नीतीश अगर खुद गौर करें तो कई बार उनका खुद का व्यवहार उन्हें दुविधाग्रस्त नेता के रूप में कटघरे में खड़ा करेगा. इसे पहली से लेकर दूसरी पारी तक में देखा जा सकता है. भाजपा से रिश्तों से परे अन्य मसलों पर भी.
नीतीश की एक चूक वर्षों बाद भी उनके व्यक्तित्व, कृतित्व व नेतृत्व पर सवाल खड़ा करती रहेगी
फारबिसगंज-भजनपुर कांड पर नीतीश दुविधा में ही दिखे. दुविधा को स्वाभाविक साबित करने के लिए वे एकबारगी बच्चों-से जिद्दी बन गए. संभव है, नीतीश की दुविधा को संतुष्टि मिल गई हो लेकिन यह एक चूक वर्षों बाद भी उनके व्यक्तित्व, कृतित्व व नेतृत्व पर सवाल खड़ा करेगी. आखिर उन्होंने फारबिसगंज जाने की जरूरत क्यों नहीं समझी? भजनपुर में पांच लोगों को मार दिए जाने का मामला चाहे पुलिस ऐक्शन का रहा हो या जरूरत के अनुसार की गई जरूरी कार्रवाई या नीतीश के ही अनुसार यह संयोग ही हो कि मारे गए सभी अल्पसंख्यक समुदाय के थे. मगर जिस तरह से पुलिस ने नृशंस व्यवहार किया, उस हालत में मुख्यमंत्री से स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे वहां पहुंचेंगे, खुलकर बोलेंगे. दिखावे के लिए ही सही, राहुल, लालू, रामविलास समेत कई नेता वहां पहुंचे. मगर नीतीश नहीं गए. एक न्यायिक जांच आयोग का गठन उन्होंने किया, लेकिन वह भी चार माह तक गति की बजाय दुर्गति में रहा. इस बात को बल मिला कि नीतीश भाजपा के दबाव की वजह से वहां नहीं गये! इसके तार भी जुड़े. जिस कंपनी को लेकर पुलिस फायरिंग की वहां घटना हुई, उसमें भाजपा के एक विधान पार्षद के बेटे की सहभागिता है. लोग कहते हैं कि भाजपा के एक बड़े नेता के दबाव में नीतीश दुविधाग्रस्त और इतने जिद्दी बने कि उन्होंने इस घटना से मुंह मोड़ने का फैसला कर लिया.
प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘नीतीश के रेलमंत्रित्व काल में ही गुजरात का गोधराकांड हुआ था. नीतीश तब गोधरा भी नहीं गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने तो खुलकर इतना कह दिया था कि नरेंद्र मोदी ने राजधर्म का निर्वाह नहीं किया. लेकिन नीतीश तब भी कुछ नहीं बोले थे. उन्होंने बाद में कहा था कि गोधरा नहीं जाना बड़ी भूल थी.’ मणी को विरोधी मानकर फिर उनकी बातों को खारिज किया जा सकता है लेकिन नीतीश उस गोधरा की ऐतिहासिक भूल को फारबिसगंज जाकर सुधार सकते थे. मगर दुविधाग्रस्त नीतीश एक बार फिर चूक गए. वे नरेंद्र मोदी का नाम सुनकर ही खफा हो जाते हैं. मोदी भाजपा के एक बड़े नेता है. भाजपा मोदी की अनदेखी नहीं कर सकती. नीतीश नरेंद्र मोदी को बिहार से दूर रखकर, उनके नाम से भड़ककर सुविधा और सत्ता की राजनीति तो कर सकते हैं लेकिन क्या दृढ़निश्चयी और सिद्धांतवादी नेता के तौर पर भी स्थापित हो सकते हैं? हां या ना के बीच का रास्ता अवसरवादी होता है. क्या सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम से भड़कने से व्यक्तित्व व कृतित्व पर चस्पा हो गए फारबिसगंज या गोधरा के सवाल हट पाएंगे?
संभव है नीतीश से अभी ये सवाल न पूछे जाएं लेकिन सिर्फ पूछे जाने वाले सवाल ही बड़े व दूरगामी प्रभाव डालने वाले नहीं होते, अंतर्मन के सवालों से भी धारणाओं का निर्माण होता है. इसका अहसास शायद नीतीश को हालिया दिनों में सिताबदियारा के बाद छपरा पहुंचने पर हुआ होगा, जहां वे लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा को हरी झंडी दिखाने पहुंचे थे. भाजपा नेताओं से अपने दल के इकलौते सदस्य के तौर पर घिरे नीतीश बच्चों की तरह सफाई देते रहे कि वे उस आडवाणी को विदा करने आए हैं जो भ्रष्टाचार से लड़ने निकले हैं. लेकिन आडवाणी मंच से कहते रहे कि रामरथ यात्रा उनके राजनीतिक जीवन की अहम यात्रा थी और आज उन्हें गर्व हो रहा है कि दो दशक पहले जिस आडवाणी की रामरथ यात्रा को बिहार के एक मुख्यमंत्री ने रोका था, आज वहीं का दूसरा मुख्यमंत्री उसी रामरथ यात्रा पर गर्व करने वाले आडवाणी को विदा करने आया है. नीतीश पसीने-पसीने थे. परेशान दिख रहे थे लेकिन वहां दुविधा की गुंजाइश नहीं थी. वे मंच पर थे, सुनना मजबूरी थी. धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक मोर्चे पर आडवाणी जाने-अनजाने लालू प्रसाद को मजबूत कर रहे थे, नीतीश की दुविधा पर सुविधाजनक तरीके से.
आरंभ में नीतीश ने अलग होने की उम्मीद भी जगाई लेकिन बाद में वे लगातार समर्पण की मुद्रा में आते गए
नीतीश फारबिसगंज जैसे सवाल या भाजपा से रिश्ते पर ही दुविधा में नहीं दिखते. पहली पारी में उन्होंने बंदोपाध्याय समिति बनाते समय कहा था कि भूमि सुधार के बगैर बिहार का कभी भला नहीं होगा. समग्र विकास भी नहीं होगा. बंदोपाध्याय ने रिपोर्ट सौंपी. उसके कुछ हिस्से सार्वजनिक हुए. फिर चुनाव आ गया. दूसरी पारी के लिए चुनाव परिणाम वाले दिन भूमि सुधार के सवाल पर नीतीश का जवाब मिला – यह सवाल पुराना हो चुका है. नीतीश उसे लागू करने, ना करने की दुविधा में फंसे, अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह सके तो सवाल को पुराना बता दिया. क्या उन्हें नहीं पता कि समाधान के बगैर कोई सवाल पुराना नहीं होता? कुछ ऐसी ही हालत समान शिक्षा प्रणाली के लिए मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में कमेटी बनाने व रिपोर्ट आने के बाद हुई. रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. महादलित आयोग के बाद सवर्ण आयोग गठित करने का फैसला नीतीश का ही रहा. बाद में सवर्ण आयोग एक दफ्तर तक के लिए तरसता रहा. उसके अध्यक्ष को खोजना दिल्ली से पटना पैदल आने-जाने के बराबर हुआ. सवर्ण आयोग बनाने की आलोचना हुई तो नीतीश फिर दुविधा में फंसे, उसकी कोई खबर ही नहीं ली.
संभव है, ऐसे आयोग वगैरह बनाते समय नीतीश के मन में दुविधा की बजाय भविष्य के सवाल-खयाल रहते हों लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाते वक्त शायद राजनीति व सत्ता की अड़चनें सामने आ जाती हैं. लेकिन यह भी तो सच है कि इतिहास के सुनहरे पन्नों में कुछ पंक्तियां उन्हीं के लिए सुरक्षित रहती हैं जो अतीत की जकड़न तोड़, दूरदृष्टा की तरह बहुत आगे की सोचते हैं. दृढ़निश्चयी होते हैं. वरना सुविधा और दुविधा के साथ तो देश भर में 30 मुख्यमंत्री अभी भी अपना काम चला ही रहे हैं.
मजबूती के लिए मजबूरी का वास्ता
बुजुर्ग हो चले बाबू विनोदानंद सिंह पुराने समाजवादी नेता हैं. विधायक रहे हैं. समाजवादियों के बीच उनका बड़ा सम्मान है. नीतीश उन्हें ‘भाई साहब’ कहते हैं. विनोदा बाबू के दिल में भी नीतीश के लिए स्नेह और प्यार है. वे नीतीश के प्रशंसक हैं. बतकही में वे एक पुराना किस्सा सुनाते हैं. नीतीश जब केंद्रीय मंत्री थे तो विनोदा बाबू किसी दोस्त के साथ उनसे मिलने गए. नीतीश ने बहुत सम्मान दिया. फिर बातों-बातों में एक बात कही, ‘भाई साहब, आपलोग तो हवा के साथ कभी चलते ही नहीं, अगर हवा के अनुसार चलते तो कहां से कहां पहुंच गए होते…!’
दरौंदा चुनाव के वक्त जब विनोदा बाबू ने यह किस्सा सुनाया तब सवाल उठा कि क्या नीतीश स्वभावतः ही हवा के साथ चलने वाले रहे हैं! दरौंदा विधानसभा उपचुनाव में अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह की जीत के बाद तसवीरों में नीतीश के चेहरे पर बिखरी खुशी इसका आभास करा रही थी. अजय सिंह की क्या छवि है, इस पर अलग से चर्चा की जरूरत नहीं. न ही यह किसी से छिपा हुआ है कि कविता की शादी अजय के साथ फटाफट करवाकर कैसे उन्हें विधानसभा तक पहुंचाया गया. कविता की जीत चाहे जिस वजह से हुई हो, लोकतंत्र के इस राजनीतिक प्रहसन के सूत्रधार के रूप में नीतीश को याद किया ही जाएगा.
सत्ता की राजनीति में नीतीश फिलहाल अपार बहुमत के साथ हैं. अभी चुनाव भी काफी दूर है तो एक-एक सीट के लिए मर-मिटने जैसी हालत भी नहीं है. नीतीश बिहार में बदलाव और सुशासन के प्रतीक हैं. खुद के भरोसे भी वे विधायकी में किसी को जीत दिलवा सकते थे! ऐसे में अजय सिंह-कविता सिंह के प्रयोग से वे बचते तो एक साथ राजनीति के अपराधीकरण और परिवारवाद को परोक्ष संरक्षण दिए जाने का जो ठप्पा उन पर लग रहा है वह और मजबूत न होता. मगर नीतीश ऐसा नहीं कर सके. अब यदि चौपाली सभा से लेकर राजनीतिक गलियारे में जब कोई कहेगा कि नीतीश के लिए सत्ता ही महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा है, तो उसे ऐसा करने से कैसे रोका जा सकता है. बिना किसी राजनीतिक अनुभव वाली एक राबड़ी को अचानक राजनीति में थोपकर लालू प्रसाद लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रहसन के ऐतिहासिक पात्र बने. मगर तब जमाना और था. क्या लंबे समय तक एक और राबड़ी के प्रयोग का श्रेय नीतीश को नहीं दिया जाएगा?
विरोधियों की मीन-मेख और टिप्पणी की बजाय खुद नीतीश के खासमखास और उनके ही दल के शिवानंद तिवारी भी उनके इस प्रयोग पर नहीं बोल पाते. वे तर्क देते हैं कि परिवारवाद कांग्रेस की देन है. शिवानंद तिवारी जैसे नेता कांग्रेस की दुहाई देकर कुतर्क गढ़ते हैं. मगर इसके जरिए वे खुद को ही तसल्ली दे सकते हैं.
यह सच है कि लालू प्रसाद या उनके पहले के बहुतेरे नेताओं की तुलना में नीतीश कुछ हद तक अलग छवि रखते हैं. इनके सत्ता में आने के बाद भी इनके निकटवर्ती या दूर-दराज के रिश्तेदार राजनीतिबाज नहीं बने. नीतीश के बड़े भाई सतीश बाबू आज भी मुख्यमंत्री के भाई होने के प्रभाव का इस्तेमाल नहीं करते. अन्य रिश्तेदारों की तो बात ही दूर, नीतीश के बेटे भी इस सब से दूर नजर आते हैं. इससे वर्षों बाद बिहार की राजनीति में एक संभावना जगी थी कि थोथे और खोखले परिवारवाद का खात्मा करने में नीतीश ही सक्षम होंगे.
बिहार में धीरे-धीरे यह बात घर कर रही है कि सबकुछ सिर्फ फीलगुड जैसा दिखता है तो उसमें मीडिया की भूमिका ज्यादा है
आरंभ में नीतीश ने इसे लेकर उम्मीद भी जगाई लेकिन बाद में लगातार समर्पण की मुद्रा में आते गए. उनके समर्थक इसे मजबूरी बताते रहे. खुद की मजबूती के लिए दूसरे नेता भी इसी तरह मजबूरी का वास्ता देते थे. लेकिन नीतीश खुद सोचें कि क्यों नहीं उन्हें भी इस कसौटी पर एक ऐसे सत्तापरस्त नेता के रूप में याद किया जाए जिसने मजबूती के लिए मजबूरी को ढाल बनाया. व्यक्तिगत तौर पर अपनी छवि बचाए-बनाए रखने की बात हो तो सिर्फ नीतीश ही क्यों, बिहार में कई और नेता भी पहले हुए, जो बेदाग रहे और अपने परिजनों को जीते-जी राजनीति से दूर रखा.
नीतीश ने आरंभ में जब धाकड़ नेता जगदीश शर्मा की पत्नी का टिकट काटा तो यह कदम सुर्खियों का बादशाह बना. बाद के दिनों में जगदीश शर्मा के बेटे राहुल को नीतीश ने ही टिकट दिया. महेंद्र सहनी के बेटे अनिल सहनी को राज्यसभा भेजकर, मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट देकर, अश्वमेघ देवी, मीना सिंह, कौशल्या देवी आदि को चुनावी राजनीति में मुकाम दिलाकर नीतीश ने अपने को ‘औरों’ की श्रेणी में ही शामिल कर लिया.
बात परिवारवाद से निकलकर राजनीति में अपराध के परोक्ष संरक्षण तक भी पहुंचती है. स्पीडी ट्रायल के जरिए अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने की प्रक्रिया से नीतीश को वाहवाही तो मिली लेकिन अनंत सिंह, तसलीमुद्दीन, उनके बेटे सरफराज, सुनील पांडेय के भाई हुलास पांडेय आदि के साथ कई नामचीन बाहुबलियों की पत्नियों को राजनीतिक संरक्षण देना नीतीश कुमार को मजबूती के लिए मजबूरी के रास्ते को अपनाने वाला नेता बना देता है.
मीडिया को नाथने की कोशिश
जहानाबाद के एक गांव सचई में जाना हुआ था. सनातन नामक एक व्यक्ति से बातचीत हो रही थी. पत्रकारिता से आजीविका चलाता हूं, जानने के बाद सनातन ने एक सवाल सामने रखा. ‘वेदव्यास जब महाभारत की रचना कर रहे थे और विष्णु के अवतार कृष्ण को मानव रूप में महानायक के तौर पर स्थापित कर रहे थे, तो भी उन्होंने कृष्ण का सिर्फ यशोगान नहीं किया. कृष्ण की जो कमियां थीं, उनकी नीतियों-रणनीतियों में जो चूक थी, उन्हें भी सामने रखा.’ सनातन पूछते हैं, ‘इधर के वर्षों में अधिकांश जगहों पर लिखे-पढ़े को देख-समझकर ऐसा लगता है कि नीतीश इस भारत की धरा पर एक ऐसे नायक के रूप में अवतरित हुए हैं जिनमें कहीं, कभी, कोई मीन-मेख नहीं निकाली जा सकती. ना ही छह वर्षों के शासन में इनसे कभी कोई एक चूक हुई.’ सनातन कहते हैं, ‘आनेवाले कल में जब भावी पीढ़ी नीतीश के बारे में जानना चाहेगी तो उसे यही मालूम होगा कि बिहार में नीतीश नाम का एक ऐसा नेता हुआ था जिसने गलती से भी एक बार गलती नहीं की. क्या भावी पीढ़ी पौराणिक, ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के बाद सहज ही यह मानेगी कि धरा पर आकर, शासन में रहकर यथार्थ में ऐसा नायक होना संभव है?’
सनातन यहीं अपनी बात खत्म करते हैं. नीतीश यहीं कुछ देर सोच सकते हैं. यह हर कोई जानता, मानता है कि कुछ मायनों में नीतीश बेहतर काम कर रहे हैं. संभावनाओं से भरे हुए नेता हैं. उनके नेतृत्व से जनता के बीच उम्मीद जगी थी जो आज भी कायम है. इस उम्मीद की परिणति पिछले चुनाव में अपार बहुमत के रूप में दिखी. सिर्फ स्थानीय जनता ही नहीं, देश-दुनिया के जाने-माने बौद्धिकों का एक बड़ा तबका भी यह मानता है. रामचंद्र गुहा, अमर्त्य सेन, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, आरके पचौरी, बिल गेट्स जैसे लोग सार्वजनिक मंचों से यह कहते रहे हैं.
इतना सब कुछ पा लेने के बाद क्या नीतीश को अति आत्मप्रचार से बचने की जरूरत नहीं? थोड़ा बचने से क्या उनकी स्थिति और ज्यादा मजबूत नहीं होगी?लेकिन वे मीडिया को साधने के साथ शायद नाथने में भी भरोसा रखते हैं. उनके कार्यकाल में जिस तरह मीडिया पर विज्ञापन मद में अंधाधुंध पानी की तरह पैसा बहा, उससे नीतीश कई बार खुद प्रहसन के पात्र बनते हैं. आंकड़ों की तह में जाए बगैर ही अगर सीधे-सीधे बात करें तो लालू-राबड़ी की तुलना में नीतीश के कार्यकाल में विज्ञापन पर हुआ खर्च लगभग 700 प्रतिशत बढ़ा. छवि निर्माण का यह अर्थशास्त्र नीतीश के दिमाग की उपज न हो तो इससे सावधान रहना चाहिए. इससे किरकिरी ही हो रही है.
आज बिहार समेत देश के अलग-अलग हिस्से में धीरे-धीरे यह बात घर कर रही है कि बिहार में यदि सब कुछ सिर्फ फीलगुड-फीलगुड जैसा दिखता है तो उसमें मीडिया की भूमिका ज्यादा है, जो बड़ी से बड़ी खबरों को या तो निगल जाता है या उन्हें पेश करने की रस्मअदायगी भर करता है.
सरकारी योजनाओं को प्रचारित करने के लिए प्रचारतंत्र को मजबूत करने की बात तो एक हद तक समझ में आती है लेकिन उसका विस्तार निचले स्तर तक छिछले रूप में पहुंचता है. नीतीश भले ही अरविंद केजरीवाल पर निशाना साध यह कहें कि उन्हें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं लेकिन वे भूल जाते हैं कि यदि किसी निजी संस्थान द्वारा अवसरवादी सम्मान के रूप में भी उन्हें कोई सर्टिफिकेट दिया जाता है तो उसका ढिंढोरा सूचना एवं जनसंपर्क विभाग हर शहर में होर्डिंग आदि लगाकर पीटता है. यह बेहद अटपटा-सा लगता है. राजधानी पटना में कई बार अचानक से अधिकतर होर्डिंगों पर रातों-रात छाने को आतुर नेता नीतीश गान की इबारतें चस्पा कर देते हैं. उसकी हद यह होती है कि जब उनकी माता जी का निधन होता है तो इसे भी छुटभैये नेता एक अवसर मान पटना में होर्डिंग लगा देते हैं- ‘धन्य हो मां, जिसने नीतीश जैसे लाल को जन्म दिया..’
संभव है, नीतीश को इन सभी बातों की जानकारी न हो लेकिन लोग यह नहीं जानते कि यह सब उनके जाने बगैर कुछ खुराफाती मगज वाले चाटुकार करते रहते हैं. संदेश यही जाता है कि नीतीश प्रचार के गोयबल्सी तंत्रों के सहारे भी जनमानस में सदा-सदा के लिए बसना चाहते हैं!मीडिया फ्रेंडली नीतीश को समझना होगा कि आज मीडिया खुद अपनी साख और विश्वसनीयता बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है और वह किसी की छवि का स्थायी निर्माण करके उसे सत्ता दिलवाने की क्षमता नहीं रखता. वरना कोई कारण नहीं कि तमिलनाडु में करीब 70 प्रतिशत मीडिया को नियंत्रित करने वाले करुणानिधि परिवार चुनाव में बुरी तरह परास्त हो जाता. बिहार में तो वैसे ही मीडिया की साख इन दिनों भंवरजाल में है. मड़वन एस्बेस्टस कंपनी के खिलाफ आंदोलन के बाद एक रैली मीडियावालों के खिलाफ भी तरह-तरह के बैनरों के साथ निकली थी. वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘हमलोग तो अब अपने आयोजन में मीडिया को बुलाते ही नहीं हैं और उसके बगैर हमारे आंदोलन पर कोई अंतर या असर नहीं पड़ता.’ सिन्हा की बातों को छोड़ भी दें तो नीतीश तो जानते ही होंगे कि उनके राजनीतिक गुरु जयप्रकाश नारायण बगैर किसी मीडियाई करिश्मे के महानायक बने थे. सदा-सदा के लिए.
लोकप्रियता की राजनीति
नीतीश अपनी छठी राजनीतिक यात्रा के रूप में विकास यात्रा पर हैं. यात्रा के दौरान खुद ही बीडीओ, दारोगा आदि की भूमिका में आ रहे हैं. गरीब के घर जाकर भूंजा भी फांक रहे हैं. इस यात्रा में नीतीश की चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर सबरी के बेर खाने वाले राम तक से तुलना की जा रही है. जब-तब नीतीश की ऐसी तुलना होती रहती है. नीतीश भी जब-तब ऐसे आयोजन करते रहते हैं. ऐसे आयोजनों को महज राजनीतिक नाटक कहकर खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि जनविमुख राजनीति के दौर में ऐसे आयोजन भी कई बार सुकून दे सकते हैं. महज आलोचना करने वाले भी ऐसा ही कोई राजनीतिक नाटक करने के बाद नीतीश की आलोचना करें तो उसका महत्व भी होगा. लेकिन दूसरों की आलोचना और नुक्ताचीनी से परे ऐसी वाहवाही से उपजी सुखद अनुभूति के बीच नीतीश खुद थोड़ी देर रुककर आकलन करें तब शायद उन्हें अहसास हो कि महज लोकप्रियता की राजनीति की उम्र कम होती है.
लालू प्रसाद भी अपने आरंभ के दिनों में जब-तब, जहां-तहां पहुंचकर खटिया पर बैठते-लेटते थे. घोंघा-सतुआ खाते थे. राहुल गांधी भी दो-तीन साल पहले ऐसे ही कुछ यात्रापरक अभियानों के जरिए लोकप्रियता में परवान चढ़े थे.जहां-तहां, खाते-सोते रहते थे. अब उनकी यात्राओं का निहितार्थ-फलितार्थ सबको पता है.इन यात्राओं से इतर भी नीतीश कुमार एक अणे मार्ग में नियमित तौर पर लगने वाले जनता के दरबार में घंटों पसीने-पसीने होकर बैठे रहते हैं, लोगों की फरियाद सुनते हैं तो बहुतों को लगता है कि एक मुख्यमंत्री इतनी देर बैठता तो है. एसी के बगैर रहता तो है. नीतीश दरबार में धैर्य से लोगों की बातें सुनते हैं. लेकिन उसकी सीमा छोटी होती है. एक हद के बाद सेचुरेशन की स्थिति बनती है. जब फरियादी चार-चार बार दरबार में जाने के बाद भी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं पाता या फरियाद सुनाने के एवज में एक अणे मार्ग में ही अधिकारियों की धौंस का सामना करता है तो वह टूट जाता है. नीतीश दरबार के फल को जानने की कोशिश नहीं करते. उनके पास दूर-दराज से किसी तरह पहुंचने वाले लोगों के आवेदन पर अधिकारी गंभीरता से कार्रवाई कर भी रहे हैं या नहीं, यदि नीतीश बीच-बीच में इसकी भी खबर लेते तो ज्यादातर यात्राओं की जरूरत ही नहीं पड़ती. तब शायद आरटीआई से सूचना मांगने पर नीतीश के जनता दरबार में जाने के बाद भी लंबित मामलों की सूची इतनी लंबी नहीं होती
जब फरियादी चार-चार बार दरबार में जाने के बाद भी समस्याओं का समाधान नहीं पाता तो वह टूट जाता है
यात्राओं में भी नीतीश बीडीओ, दारोगा बनने के साथ ही समाज के बनाव-बिगड़ाव-बिखराव का भी अध्ययन करते तो कई बार रात में उन्हें नींद नहीं आती. उनके ही कार्यकाल में शराब का ठेका पंचायत तक पहुंचा. द्वारे-द्वारे पहुंचे दारू के प्रभाव से समाज में आए बदलाव को भी जानने की कोशिश करते तो बहुत हद तक संभव है वे दारू से मिलने वाले राजस्व के विकल्प के लिए दूसरे स्रोत पर भी सोचते. यह संभव है, नीतीश के प्रयास से बिहार भविष्य में चमक जाए लेकिन चमके बिहार में दारू के जरिए दलाली के बाद कलाली और बवाली फौज के रूप में सामने होंगे. उनके लिए विकास के क्या मायने होंगे?
नीतीश अब अपनी यात्रा में वंचितों के घर पहुंच रहे हैं. यह अच्छा है, लेकिन कुछ माह से इंसेफलाइटिस ने जिन इलाकों में कहर बरपाया हुआ है वहां का भी एकाध दौरा अगर कर लिया होता तो उस दौरे का महत्व इन यात्राओं से कहीं ज्यादा होता. इंसेफलाइटिस से मरने वाले अधिकांश बच्चे महादलित और अतिपिछड़ा समुदाय से ही थे. अपने ही शहर नालंदा में नाई महिला पर दबंग जाति के अत्याचार और व्यभिचार के समय नीतीश बिहारशरीफ जाकर, घंटों रुके. तब अगर चंद फर्लांग की दूरी पर अस्पताल में भर्ती उस नाई महिला से भी वे मिल लिए होते तो उसका संदेशा पूरे बिहार के अतिपिछड़ों के बीच जाता.
नीतीश के आलोचक भी कई मामलों में उनके कायल हैं, पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रभाकर सिन्हा कहते हैं, ‘पिछली सरकार की तुलना में नीतीश बेहतर कोशिश करते हुए दिखते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं. नीतीश कुमार के शासन काल में आप कम से कम मीन-मेख निकालने की स्थिति में तो हैं. यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, यह नहीं हो रहा है, यह गलत हो रहा है. पिछले राज में तो ‘होने’ जैसा प्रचलन ही ठहर-सा गया था. नीतीश के सत्ता में दुबारा से बने रहने की बड़ी वजह भी वही है. बावजूद इसके नीतीश कुमार की जो दरबारी पद्धति है वह शासन की अवधारणा को ही झुठलाती है. दरबार की परंपरा हमेशा से ही राजा से जुड़ी रही है. राजतंत्र में राजा ही सब कुछ होता था, न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सबकी ताकत उसके हाथों में होती थी. वह दरबार में कुछ भी फैसले ले सकता था. राजतंत्र के खात्मे के साथ ही इस दरबारी पद्धति का भी खात्मा हो गया. क्या ऐसा संभव है कि नीतीश कुमार विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका से जुड़े किसी भी मसले पर अपने दरबार में या कथित तौर पर जनता के दरबार में फैसले ले लें?’ प्रभाकर सिन्हा आगे कहते हैं, ‘यह संभव नहीं है. अधिकतर आबादी का फैसला अधिकारी ही करेगा. निपटारा कोर्ट-कचहरी, अधिकारियों के यहां ही होगा. पाई-पाई जोड़कर किसी तरह पटना पहुंचने वाले गरीबों को अपने ही यहां शासन का फल मिले, उनकी समस्याएं वहीं सुलझें, नीतीश इसके लिए कोशिश करेंगे तो उससे सुशासन का सिस्टम स्थायी भाव में विकसित होगा वरना खुद को खपाते रहने और उससे निकले परिणामों की सीमा बहुत छोटी होती है.’
असहमति से परहेज
अन्ना हजारे के आंदोलन को नैतिक व मौखिक समर्थन देने वाले नेताओं में नीतीश आरंभ से ही आगे की पंक्ति में रहे. अन्ना ने बिना बिहार आए दिल्ली से नीतीश व उनके विकास के मॉडल की जमकर प्रशंसा की. नीतीश कुमार प्रकारांतर से अन्ना आंदोलन के पक्ष में बयान देते रहे. जब अन्ना का आंदोलन परवान चढ़ा, एक तबके के बीच भ्रष्टाचार बड़ा मसला बन गया. ऐसे में नीतीश ने उसके निवारण के एकाध प्रयोग भी कर डाले. खूब तारीफ हुई. नीतीश अन्ना के इतने फैन हुए कि ‘राइट टू रिकॉल’ पर भी खुले मन से अपने विचार रखे. लालकृष्ण आडवाणी से अलग राह पकड़कर अन्ना की इस मंशा का समर्थन किया. सब कुछ ठीक-ठाक ही चलता रहा, लेकिन जैसे ही टीम अन्ना के अरविंद केजरीवाल ने बिहार के लोकायुक्त के संदर्भ में एक छोटी टिप्पणी भर की, नीतीश झल्ला गए. उन्होंने टीम अन्ना को हद में रहने के अलावा अन्य कई किस्म की नसीहतें दे डाली. नीतीश बिना झल्लाए भी यही बात कह सकते थे लेकिन जो नीतीश को जानते हैं उन्हें अच्छे से पता है कि बाकी सारी चीजों पर तो नीतीश सुन भी सकते हैं लेकिन असहमति और आलोचना से उन्हें सख्त परहेज है. हो सकता है केजरीवाल विवाद एक संयोग रहा हो लेकिन अतीत की परछाइयां भी ऐसी ही गवाही देती हैं.
नीतीश के प्रमुख सहयोगी रहे पूर्व विधान पार्षद डॉ शंभू शरण श्रीवास्तव, जो अब भाकपा में हैं, कहते हैं कि ‘मैं नीतीश की व्यक्तिगत आलोचना कभी सार्वजनिक तौर पर नहीं करूंगा लेकिन यह तो उनसे पूछा ही जा सकता है कि उनके दल में पिछले कई साल से संसदीय बोर्ड का पुनर्गठन क्यों नहीं हुआ?’ श्रीवास्तव कहते हैं, ‘आंतरिक लोकतंत्र और आपसी सहमति में भरोसा न रखने के बावजूद छोटे से छोटे दलों में भी यह व्यवस्था रहती है लेकिन जदयू में यह परंपरा ताक पर रख दी गई है.’ श्रीवास्तव के अनुसार वजह यह है कि टिकट बंटवारे के समय कोई असहमति का स्वर उठाने वाला न आ जाए इसलिए जदयू में आंतरिक लोकतंत्र के इस मजबूत आधार को ध्वस्त किया गया. श्रीवास्तव भी अब उनके विरोधियों के खेमे में हैं, इसलिए उनके सवाल विरोधी के सवाल हो सकते हैं लेकिन नीतीश खुद सोचें कि एक के बाद एक अगर नीतीश को बनानेवाले उनका साथ छोड़ते ही गए तो उसके पीछे कोई ठोस वजह तो रही होगी.उपेंद्र कुशवाहा, प्रेम कुमार मणी, ललन सिंह, पीके सिन्हा, डॉ शंभू शरण श्रीवास्तव और बीच के दिनों में शिवानंद तिवारी आदि के साथ छोड़ जाने की अफवाहों को अगर अनदेखा भी कर दें तो दिग्विजय सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस वाला सवाल बना रहेगा. फर्नांडिस नीतीश कुमार को बनाने-बढ़ाने वाले नेताओं में से रहे, लेकिन चूंकि वे कई बिंदुओं पर नीतीश से असहमति रखते थे और उसे जताते भी थे, इसलिए उन्हें धीरे-धीरे किनारे किया गया. धाकड़ फर्नांडिस की हालत यह हुई कि वे 2009 में टिकट के लिए गिड़गिड़ाते नजर आए और अंत में सार्वजनिक तौर पर कह भी दिया कि नीतीश अहंकारी हैं. डैमेज कंट्रोल के लिए फर्नांडिस को राज्यसभा भेजने की रस्मअदायगी करनी पड़ी थी.
दिग्विजय सिंह भी असहमति के स्वर को उठाते थे, तो उन्हें भी दरकिनार किया गया. हालांकि उन्होंने नीतीश से अलग होकर भी अपनी ताकत दिखाई और बाद में नीतीश ने दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह को बिना मांगे समर्थन भी दिया. लेकिन पुतुल सिंह को समर्थन देने या नहीं देने का फैसला अलग है, असहमति का साहस दिखाने वाले को दरकिनार करना, नीतीश के व्यक्तित्व के लिए ज्यादा घातक होगा.
नीतीश कुमार खुद याद करें. एक बार जनता के दरबार के बाद जब वे प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित हुए थे और एक अखबार के पत्रकार ने सिर्फ इतना पूछा था कि असंतोष बढ़ रहा है, जगह-जगह आंदोलन चल रहे हैं तो उन्होंने क्या जवाब दिया था. नीतीश का कहना था कि जाकर आप भी आंदोलन में शामिल हो जाइए. लगे हाथ उस अखबार को पर्चा-पोस्टर तक भी कह डाला था. नीतीश के लिए वह घटना छोटी होगी, लेकिन न्यू मीडिया के जमाने में इंटरनेटी पत्रकारिता के जरिए वह बात दूर-दूर तक पहुंची.
निंदक को भी नियरे रखना, व्यक्तित्व निर्माण में कितना सहायक होता है, क्या यह नीतीश नहीं जानते ?
असहमति को भी सम्मान देना और निंदक को भी नियरे रखना व्यक्तित्व निर्माण में कितना सहायक होता है, क्या यह नीतीश नहीं जानते? लोहिया और नेहरू प्रसंग को तो जानते ही होंगे. दोनों में कभी राजनीतिक तौर पर नहीं बनी. दोनों के रास्ते अलग रहे. लोहिया सदैव नेहरू की आलोचना करते रहे, लेकिन नेहरू अपनी किताब सबसे पहले लोहिया को ही पढ़ने के लिए भेजते थे और कहते थे कि तुम जो कहोगे, वही सही आकलन होगा, बाकी तो सब स्तुतिगान करते रहते हैं. नेहरू-लोहिया का कद सदा-सदा के लिए बड़ा दिखता है तो ऐसी छोटी-छोटी वजहों से भी…
…और अंत में सुविधा का मौन
नीतीश कुमार जब बोलते हैं तो यहां तक बोल जाते हैं कि आजादी के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कदम उन्होंने उठाए हैं, वैसा किसी नेता ने नहीं किया और न ही किसी सरकार ने. जब चुप्पी साधते हैं तो नरसिंह राव की तरह मौनी बाबा बन जाते हैं या टालमटोल कर कट जाना चाहते हैं. जब नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय पर बोलना था तो वे खूब बोले, लेकिन इस ड्रीम प्रोजेक्ट में जरा- सा पेंच फंसा और एपीजे अब्दुल कलाम के अलग हो जाने की खबर सार्वजनिक हुई तो चुप्पी साध ली और यह कहकर टाल गए कि यह मामला केंद्र सरकार का है, केंद्र सरकार ही जाने. वे चाणक्य, चंद्रगुप्त, आर्यभट्ट आदि नामों से शुरू हुए संस्थानों के पक्ष में तो खुलकर बोलते हैं लेकिन पटना विश्वविद्यालय, पटना कॉलेज, पटना साइंस कॉलेज, पटना आर्ट कॉलेज जैसे बिहार के प्रतिष्ठित व अहम संस्थानों की खस्ताहाली पर बोलने का जिम्मा दूसरे पर सौंप देते हैं. उपेंद्र कुशवाहा, प्रेम कुमार मणी, ललन सिंह जैसे नेता चाहे लाख खिलाफत वाले बयान देते रहें, नीतीश मौन साधे रहते हैं, जवाब नहीं देते लेकिन जो कार्रवाई होनी होती है वह हो जाती है. लखीसराय में जब चार पुलिसवाले माओवादियों द्वारा अपहृत होते हैं, तब भी नीतीश कुछ दिनों तक मौन साधे रहते हैं जब मामला पटरी पर आ जाता है, तभी बोलते हैं. विशेष राज्य दर्जा अभियान चलाते हैं तो नीतीश खूब बोलते हैं, केंद्र को निशाने पर लेते हैं, इसे ही बिहार को पटरी पर ला देने के लिए संजीवनी की तरह बताते हैं लेकिन इस पर कभी चर्चा नहीं करते कि जब वे खुद केंद्र में थे और बिहार-झारखंड का बंटवारा हो रहा था तब क्यों नहीं इसी तरह, इस मांग को लेकर सक्रिय दिखे थे. नीतीश बेगुसराय के सिमरिया में हो रहे अर्धकुंभ पर भी मौन साधे रहते हैं, उनकी ओर से किशोर कुणाल जैसे लोग बोलते रहते हैं, प्रवीण तोगडि़या जैसे लोग सिमरिया में हिंदुत्व का पाठ पढ़ाकर चले भी जाते हैं, नीतीश मौनव्रत्त में ही रहते हैं. नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ आग उगलते हैं, लेकिन बियाडा और कैग रिपोर्ट से उजागर गड़बड़झाले पर मौन साधते हैं या खुलकर कुछ नहीं बोलना चाहते. एक समय में गोधरा पर मौन साध गए थे, अब अपने बिहार के फारबिसगंज पर भी लगभग मौन साधे रहे. जिस दिन बाबा रामदेव पर दिल्ली पुलिस ने रात को धावा बोला था उस दिन नीतीश ने इस मसले पर तो केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी पर जमकर निशाना साधा मगर मीडियाकर्मियों द्वारा फारबिसगंज के बारे में पूछने पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
नीतीश कुमार सुविधानुसार मौन की राजनीति करते रहते हैं. नरसिंह राव भी मौन ही साधते थे, बाद में उनकी कितनी फजीहत हुई और कांग्रेस उनसे अब कैसे पीछा छुड़ाती हुई दिखती है, यह नीतीश भी जानते होंगे. मनमोहन भी मौनमोहन बनते रहते हैं तो उनकी कितनी आलोचना होती है, यह भी नीतीश जानते हैं. नीतीश विनम्र हैं, कम बोलते हैं, मृदुभाषी हैं यह उनकी खासियत तो है लेकिन सुविधानुसार मौन साध लेना उन्हें उधेड़बुन में रहने वाले और जरूरी मुद्दों से कन्नी काटने नेता के रूप में भी स्थापित कर रहा है.