चैनलों का विज्ञापनीय अत्याचार

चैनलों और विज्ञापनों के बीच चोली-दामन का साथ है. हालांकि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है, लेकिन अधिकांश दर्शकों की विज्ञापनों के प्रति अरुचि और चिढ़ किसी से छिपी नहीं है. विज्ञापनों की भरमार से वे सबसे ज्यादा तंग महसूस करते हैं. खासकर हाल के वर्षों में चैनलों ने दर्शकों पर विज्ञापनों की बमबारी इस हद तक बढ़ दी गई है कि अब कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापनों के बीच कार्यक्रम दिखता है. हालांकि दर्शकों के पास रिमोट की ताकत और चैनल बदलने का सीमित विकल्प है, लेकिन दर्शक डाल-डाल हैं तो चैनल पात-पात हैं. 

चैनलों ने दर्शकों के पास यह सीमित विकल्प भी नहीं रहने दिया है. चैनलों ने एक ही समय विज्ञापन दिखाने और विज्ञापनों के दौरान आवाज ऊंची करने से लेकर कार्यक्रमों के दौरान कभी आधी स्क्रीन, कभी पट्टी में और कभी उछलकर आनेवाले विज्ञापनों के रूप में रिमोट की काट खोज ली है. लेकिन इससे दर्शकों की खीज बढ़ती जा रही है. मजे की बात यह है कि केबल नेटवर्क रेगुलेशन कानून के मुताबिक, चैनल एक घंटे में कुल 12 मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं जिसमें उनके खुद के कार्यक्रमों/चैनल का विज्ञापन शामिल है. लेकिन शायद ही कोई चैनल इसका पालन करता हो. बड़े चैनलों पर तो एक घंटे के कार्यक्रम/समाचार में 20 से 25 मिनट तक का विज्ञापन ब्रेक रहता है और दर्शक खुद को असहाय महसूस करते हैं.   

पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम में औसतन 35 फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि इसकी सीमा 20 फीसदी है

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम (शाम 7 से 11 बजे) में औसतन 35 फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि उनकी निर्धारित सीमा 20 फीसदी है. एक साल तो विज्ञापनों का औसत 47 फीसदी तक पहुंच गया. हैरानी की बात यह है कि केबल कानून के तहत पाबंदी के बावजूद चैनलों की मनमानी पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है. नतीजा, दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी है. दर्शकों की कीमत पर चैनल कमाई करने में लगे हुए हैं. वे उसमें कोई कटौती करने को तैयार नहीं हैं. 

लेकिन दूरसंचार नियमन प्राधिकरण (ट्राई) ने एक ताजा आदेश में चैनलों पर विज्ञापनों की समयसीमा निश्चित करने और विज्ञापन प्रदर्शित करने के तरीके को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं. ट्राई के मुताबिक, चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में कुल 12 मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते और एक विज्ञापन सेशन से दूसरे के बीच कम से कम 15 मिनट (फिल्मों के मामले में 30 मिनट) का अंतराल होना चाहिए.

यही नहीं, चैनल एक घंटे में 12 मिनट के कुल विज्ञापन समय को अगले घंटों में नहीं ले जा सकते और इन 12 मिनटों में चैनलों के खुद के विज्ञापन भी शामिल होंगे. ट्राई ने कार्यक्रमों के बीच कभी आधी स्क्रीन, कभी पॉप-अप, कभी पट्टी में आने वाले विज्ञापनों के अलावा विज्ञापन के दौरान उसकी आवाज तेज करने पर भी रोक लगाने की सिफारिश की है. जैसी कि आशंका थी, ट्राई की इन सिफारिशों के खिलाफ चैनलों ने सिर आसमान पर उठा लिया है. उन्हें यह अपनी आजादी, स्वायत्तता और अधिकारों में हस्तक्षेप लग रहा है. उनका यह भी कहना है कि विज्ञापनों का नियमन ट्राई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि यह कंटेंट रेगुलेशन का मामला है. हालांकि ट्राई ने चैनलों के इन सभी तर्कों का स्पष्ट और तार्किक उत्तर दिया है लेकिन चैनलों के तीखे विरोध और सरकार के ढुलमुल रवैये को देखते हुए इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि सरकार इन सिफारिशों को लागू करने की पहल करेगी. मतलब यह कि दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी रहेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या दर्शकों का कोई अधिकार नहीं है और यह भी कि वे चैनलों की मनमानी कब तक झेलते रहेंगे.