16वीं शताब्दी के प्रख्यात अंग्रेजी के कवि और नाटककार विलियम शेक्सपियर ने मैकबैथ में लिखा- एपियरेंस कैन बी डिसेप्टिव यानी दिखावा भ्रामक हो सकता है। उन्होंने अपने नाटक द मर्चेंट ऑफ वेनिस में पहली बार कहा था- ऑल दैट ग्लिटर्स इज नॉट गोल्ड यानी हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। इस बात का लब्बोलुआब यह है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में उसका चेहरा देखकर उसके बारे में राय बनाना मूर्खता है।
इस विषय पर वर्षों बाद किये गये अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी व्यक्ति के चेहरे के भाव उस व्यक्ति के मन की स्थिति को नहीं बताते। चेहरा देखकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना पूरी तरह से सही नहीं हो सकता है।
16 फरवरी, 2020 को ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन की रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में कहा गया है किकिसी व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव से उसकी मनोदशा का पता लगाना सही नहीं होगा। अगर उस शख्स के बारे में सही-सही जानकारी हासिल करनी है, तो उसके काम करने के अंदाज़, बातचीत के दौरान उसके द्वारा दिये जा रहे संकेतों को समझना होगा। मसलन, हमें लगता है कि मुस्कुराहट खुशी ज़ाहिर करने की पहचान है। यदि कोई मुस्कुराता है, तो हम भी उसकी प्रतिक्रिया में मुस्कुरा देते हैं। मगर यह हमें भ्रमित करने वाला हो सकता है। जैसे हम सोचते हैं कि कोई उदास है, तो हम उस व्यक्ति को खुश करने की कोशिश करते हैं।
कुछ व्यवसायी ऐसी तकनीक अपना रहे हैं, जिससे ग्राहकों के चेहरे के हाव-भाव देखकर उनकी संतुष्टि का पता लगाया जा सके। लेकिन किसी भी शख्स के चेहरे के हाव-भाव मन की भावना के विश्वसनीय संकेत नहीं होते। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक, किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर उस पर भरोसा करना पूरी तरह से गलत होगा।
हाल ही में ‘साइंस डेली’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह विश्लेषण किया गया कि क्या हम किसी व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव से उसकी भावनाओं का पता लगा सकते हैं? इस सवाल के जवाब में ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में इलेक्ट्रिकल और कम्प्यूटर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर ऐलेक्स मार्टिनेज़ ने कहा कि आप किसी के चेहरे के हाव-भाव से उसकी भावनाओं का पता नहीं लगा सकते। मार्टिनेज़, जिन्होंने चेहरे का विश्लेषण करने वाले कम्प्यूटर एल्गोरिदम पर फोकस किया है। वाशिंगटन के सिटल में 16 फरवरी, 2020 को हुई अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की वार्षिक बैठक में उनके सहयोगियों ने तथ्य प्रस्तुत किये। इन्होंने चेहरे की मांसपेशियों की गतिविधियाँ और चेहरे के भावों की जाँच में पाया कि इन दोनों में कोई समानता नहीं है; यह आभास लगाना हमेशा ही गलत साबित हुआ है। मार्टिनेज़ का कहना है कि हर इंसान अपनी संस्कृति और संदर्भ के अभाव में अलग-अलग चेहरे के भाव बनाता है। और यह जानना ज़रूरी है कि जो हँस रहा है, ज़रूरी नहीं कि वह व्यक्ति वास्तव में खुश ही हो। यह भी ज़रूरी नहीं है कि अगर कोई शख्स कम हँस रहा है, तो वह खुश नहीं है। जब आप प्रसन्न होते हैं, तो यह अन्दर से ही अहसास करने वाली चीज़ होती है। इसे आप सडक़ पर चलते समय अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लेकर नहीं जताते; क्योंकि आप खुश हैं, तो हैं! मार्टिनेज़ ने कहा है कि यह भी सच है कि लोग सामाजिक परिस्थितियों से अपने आपको मुक्त होने पर भी खुश हाते दिखते हैं। यह स्वाभाविक रूप से कोई समस्या नही हैं कि कोई मुस्कुरा नहीं सकता। मुस्कुराहट लाना या खुशी ज़ाहिर करना तो लोगों का हक है। लेकिन कुछ कम्पनियों ने चेहरे की मांसपेशियों को और भावों को भावों को पहचानने और पढऩे के लिए तकनीक विकसित करनी शुरू कर दी है। अमेरिकन ऐसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस (एएएस) में किये गये शोध में कम्पनियो द्वारा विकसित की गयी तकनीकियों का विश्लेषण किया और इसमें बहुत सारी खामियाँ पायी गयीं।
विशेषज्ञ ने बताया कि कुछ कम्पनियाँ यहाँ तक दावा करती हैं कि वो यह पता लगाने में सक्षम हैं कि फलाँ शख्स अपराध का दोषी है या नहीं। कोई बच्चा कक्षा मे ध्यान देता है या नहीं। कोई ग्राहक संतुष्ट है या नहीं? मार्टिनेज़ के मुताबिक, हमारे अध्ययन के हिसाब से ये सभी दावे पूरी तरह से बकवास हैं, ऐसी कोई भी चीज़ नहीं जो इस तरह के कारकों को निर्धारित कर सके, बल्कि ऐसा करना खिलवाड़ करने जैसा है।
मार्टिनेज़ ने कहा कि किसी व्यक्ति की भावना और इरादे, झूठ बोलने या चेहरे के जो भाव हैं, वो वास्तव में सही हैं या नहीं कहना सही नहीं होगा। उदाहरण के लिए, किसी कक्षा में शिक्षक जो मानता है कि बच्चा ध्यान नहीं दे रहा; शिक्षक की बात पर ध्यान नहीं देता; तो बच्चे के मुस्कुराये और शिक्षक की बातों पर सिर हिलाकर हाँ कहे, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह सब समझ गया है। बल्कि सब बाकी ऐसा कर रहे हैं, तो वह भी उनके साथ में शामिल हो जाता है। लेकिन अगर महज़ चेहरे के भाव के हिसाब से टीचर उस बच्चे को बाहर निकाल देता है, तो ज़रूरी नहीं है कि वह सही ही हो।
चेहरे के भाव और भावनाओं के सभी तथ्यों का विश्लेषण करने के लिए नॉर्थ-ईस्टर्न यूनिवर्सिटी, कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और विस्कॉनसिन विश्वविधालय के की शोध टीम और वैज्ञानिक शामिल हुए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भावनाओं को सही ढंग से पहचानने में अधिक समय लगता है। उदाहरण के लिए चेहरे के रंग से क्लू में मदद मिल सकती है। मार्टिनेज़ का कहना है कि चेहरे के रंग से सामने वाले शख्स के मन की स्थिति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। शोध में पाया कि जब हम भावनाओं का अनुभव करते हैं, तो हमारे दिमाग से पेप्टाइड्स निकलते हैं। इन्हीं पेपटाइड्स के साथ ही हमारे चेहरे का रंग बदलता है, जिनसे मन की भावनाएँ उजागर होती हैं। ज़्यादातर हार्मोन, जो खून के प्रवाह और खून की संरचना को बदलते हैं, उनसे यह पता चलता है कि हमारे शरीर के हाव-भाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मार्टिनेज़ ने अध्ययन में प्रतिभागियों को एक आदमी के चेहरे की आधी तस्वीर दिखायी, जिसमें उस व्यक्ति का चेहरा खिलता हुआ लाल और मुँह खुला हुआ था। जब दूसरे लोगों ने इस व्यक्ति की तस्वीर देखी, तो उन्हें लगा कि वह व्यक्ति किसी बात पर गुस्सा हो रहा है और चिल्ला रहा है। लेकिन जब उस व्यक्ति की पूरी तस्वीर दिखायी गयी, तब उन सभी लोगों ने पाया कि वह व्यक्ति एक फुटबॉल का खिलाड़ी है और वह अपना गोल करने की खुशी का जश्न मना रहा है। मार्टिनेज़ ने बताया वह आदमी खुश था; लेकिन उसके चेहरे को अलग कर देने से वह गुस्से में नज़र आ रहा था, जो कि गलत साबित हुआ। इसके साथ ही सांस्कृतिक मुद्दों पर राय भी मायने रखती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में सरेराह किसी के सामने मुस्कुरा देना। हम सभी के साथ दोस्ताना होने का प्रयास करते हैं, लेकिन कहीं दूसरी जगह की संस्कृति में इसका मतलब कुछ और भी हो सकता है। कहीं-कहीं किसी को भी राह चलते मुस्कुराकर पेश आने से आपके लिए खतरे का सबब भी बन सकता है। इसके लिए ऐसी जगह पहुँच जाएँ जैसे कि अमेरिका में सुपरमार्केट, जहाँ पर हर शख्स के साथ मुस्कुराने का मतलब यह माना जाएगा कि आपने पी रखी है। मार्टिनेज़ ने कहा कि शोध समूह के निष्कर्षो से यह संकेत मिलता है कि मैनेजर, प्रोफेसर और क्रिमिनल जस्टिस एक्सपर्ट को महज़ चेहरे के भावों से ही मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, बल्कि अन्य विकल्प अपनाकर भी उसके बारे में जानने के प्रयास किये जाने चाहिए।