देश के देहात में एक किस्सा सुनाया जाता है. एक पंडित के घर अमावस की रात चोर आए. पंडिताइन ने उन्हें देख लिया. उसने पंडित को जगाया. बताया कि घर में चोर घुस आए हैं. पंडित ने दबी से आंख चोर को देखा और बोला कि अभी चिल्लाना नहीं, चोर आराम से चोरी करके चलते बने. सारा गांव जान गया कि पंडित के यहां चोरी हुई है लेकिन पंडित ने चुप्पी साधे रखी. कुछ दिनों बाद पूर्णिमा की रात आई. अचानक पंडित-पंडिताइन चोर-चोर का शोर मचाने लगे. गांववाले पंडित के घर दौड़े. पंडित ने कहा-अभी थोड़े न आए हैं चोर! वे तो अमावस की रात ही चोरी कर गए थे. आज तो शोर मचाने का साइत बन रहा था.
नहीं मालूम कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह किस्सा सुना है या नहीं. साइत-संजोग को वे मानते हैं या नहीं, यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. लेकिन कभी-कभी वे इस किस्से वाले पंडित की राह जरूर पकड़ लेते हैं. सब कुछ देखने और उस पर चहुंओर शोर मचने के बाद भी चुप्पी साध लेते हैं. वे चुप होते हैं तो पंडिताइन की तर्ज पर उनके सिपहसालार भी मौन साध लेते हैं और तब तक कुछ नहीं बोलते जब तक स्थिति अनुकूल न दिखे.
दो साल पहले फारबिसगंज में पुलिस गोलीकांड में पांच अल्पसंख्यकों के मारे जाने के बाद भी नीतीश ने ऐसी ही चुप्पी साधी थी. हाल के समय में बिहार में लगातार संघ परिवार की बढ़ती गतिविधियों पर भी उनकी रहस्यमयी चुप्पी नहीं टूटी. करीब एक साल पहले रणबीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पटना की सड़कों पर मची गुंडागर्दी पर भी वे कई दिनों तक मौन ही साधे रहे थे और तीन महीने पहले पूर्णिया में आदिवासियों के मार दिए जाने पर भी वे चुप्पी धारण किए रहे. फिलहाल उनकी चर्चित चुप्पी छपरा के धर्मासती गांव में मिड डे मील कांड के बाद की है. इस हृदयविदारक घटना के बाद देश भर में शोर मचता रहा, लेकिन नीतीश कुमार ने चुप्पी नहीं तोड़ी. विरोधी कहते रह गए कि मुख्यमंत्री पटना से करीब 90 किलोमीटर दूर धर्मासती जाने की बात छोड़िए, अपने सरकारी आवास से कुछ किलोमीटर ही दूर बने पटना मेडिकल कॉलेज तक नहीं गए जहां उस गांव से आए कई बच्चों का इलाज चल रहा था.
घटना के नौवें दिन नीतीश की यह चुप्पी टूटी. उन्होंने कहा कि छपरा की यह घटना महज इत्तेफाक या हादसा नहीं बल्कि विरोधियों की सोची-समझी साजिश का परिणाम थी. यानी नौवें दिन भी उन्होंने वही बात दोहराई जो राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही घटना वाले दिन ही कह चुके थे. नीतीश के चुप्पी तोड़ने के बाद आगे की कमान उनके सिपहसालारों ने थाम ली है. जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘धर्मासती कांड विरोधियों की साजिश का हिस्सा है. राजद और भाजपा के लोग आपस में तालमेल बिठाकर सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं. बोधगया बम ब्लास्ट के बाद एक ही दिन दोनों दलों द्वारा बंदी का आह्वान कोई इत्तेफाक नहीं हो सकता.’
जदयू के कई नेता इसी तरह नीतीश के कहे को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं. लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि मुख्यमंत्री इतने दिनों तक चुप क्यों रहे. वे छपरा या पटना मेडिकल कॉलेज क्यों नहीं गए? जदयू नेताओं के पास फिलहाल इस सवाल का जवाब नहीं. कुछ कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री के पांव में मोच थी. वे चल नहीं सकते थे, सो नहीं गए. कुछ का जवाब है कि नीतीश अपने दौरे से इलाज के काम में बाधा नहीं डालना चाहते थे. आलोचकों का तर्क है कि पांव में मोच के बावजूद नीतीश कुमार अपने सरकारी आवास पर लगातार मिलने-जुलने से लेकर दूसरे काम करते रहे. मोच के तीसरे दिन वे अपने लोकप्रिय कार्यक्रम जनता दरबार में शामिल हुए. चौथे दिन कैबिनेट की बैठक में शामिल हुए. शिक्षा मंत्री पीके शाही के साथ अलग से बैठक भी की. पांचवें दिन यूनिसेफ के कंट्री डायरेक्टर लुईस जॉर्ज से भी मिले और स्वास्थ्य विभाग की समीक्षा बैठक में भी हिस्सा लिया. लेकिन धर्मासती कांड को लेकर वे न बोलने का समय निकाल सके और न ही कहीं निकलने का.
जदयू के विधानपार्षद देवेशचंद्र ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार धर्मासती कांड से बेहद दुखी थे और परेशान भी लेकिन वे जांच रिपोर्ट आने के पहले कुछ नहीं बोलना चाहते थे, इसलिए चुप रहे.’ नीतीश कुमार या उनकी जगह कोई भी मुख्यमंत्री होता तो इतने बड़े हादसे से दुखी तो जरूर होता, लेकिन जानकारों के मुताबिक इसके पीछे एक दूसरी बात भी है. मुख्यमंत्री के सामने हाल में इतनी तेजी से एक के बाद एक लगातार चुनौतियां पैदा हो रही हैं कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इस पर कैसे प्रतिक्रिया की जाए. बीते जून के पहले पखवाड़े जब भाजपा और जदयू के बीच अलगाव की प्रक्रिया चल रही थी तो बिहार के जमुई इलाके में नक्सलियों ने दिन-दहाड़े एक ट्रेन को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग की और तीन लोगों की हत्या करने के साथ-साथ रेलवे पुलिस बल के जवानों से हथियार लूट लिए. उसके कुछ दिनों बाद ही पश्चिम चंपारण के बगहा में पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें छह थारू आदिवासियों की मौत हो गई. भाजपा ताजा-ताजा विपक्ष में गई थी, लालू प्रसाद सक्रिय थे ही, यह गोलीकांड भी नीतीश के लिए परेशानी का सबब बना. उन्होंने जांच का आदेश देकर मौन साध लिया. कुछ ही दिन बीते थे कि बोधगया बम ब्लास्ट की घटना हो गई.
इस पर चाहकर भी नीतीश न तो मौन साध सकते थे, न टालू रवैया अपना सकते थे. उन्हें आनन-फानन में सुबह ही बोधगया निकलना पड़ा. लेकिन मामला शांत नहीं हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय गृह मंत्री सुशील शिंदे, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली बोधगया पहुंचकर मुद्दे की गरमी बढ़ाते रहे. कुछ दिनों पहले तक जो शिंदे नीतीश कुमार के लिए कसीदे पढ़कर गए थे वे बोधगया से राज्य सरकार को निकम्मा बता कर निकल लिए. ये सब परेशानियां एक-एक कर इतनी तेजी से आती रहीं कि नीतीश को सोचने का वक्त तक नहीं मिला. और ऊपर से मिड डे मील हादसे ने तो बिहार की पूरे देश में किरकिरी कर दी. राज्य सरकार बैकफुट पर आ गई. उसी दरमियान औरंगाबाद में माओवादियों ने पांच हत्याएं करके अलग परेशानी खड़ी कर दी. जदयू के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘किस-किस मामले को संभालते नीतीश कुमार. किस-किस पर बोलते!’
बात सही है. पिछले साढ़े सात साल के राज-काज चलाने के अनुभव में एक साथ नीतीश कुमार इतनी परेशानियों से कभी घिरे भी नहीं थे. और बात इतने पर खत्म भी तो नहीं होती. इन सभी घटनाओं के बीच ही कांग्रेस ने पड़ोसी राज्य झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ सरकार बनाने के लिए बने गठबंधन में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को खासी तवज्जो देकर नीतीश को अलग से मायूसी का संदेश दे दिया.
तिस पर परेशानियां घर के भीतर भी हैं. आम तौर पर नीतीश के संकटमोचक बनकर उभरने वाले और भाजपा से अलगाव करवाने में दिन-रात बोल-बोलकर माहौल तैयार करवाने वाले राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी भी इस पूरे मामले में अलग रहकर लगभग चुप्पी ही साधे रहे. दूसरों की बात कौन कहे, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी मिड डे मील मसले पर या समानांतर रूप से हुई कई घटनाओं पर नीतीश के बचाव में बयान देते नजर नहीं आए. सूत्र बता रहे हैं कि जदयू में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. यही वजह है कि भाजपा से अलगाव के बाद डेढ़ माह से भी ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद नीतीश कुमार चाहकर भी मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहे. पार्टी के अंदर एक चिंगारी है जो कभी भी आग का रूप ले सकती है. सूत्र बताते हैं कि जदयू के 20 में से करीब एक दर्जन सांसद ऐसे हैं जो भाजपा से अलगाव की वजह से नाखुश हैं. वे अपनी सीट भाजपा के सहयोग के बगैर निकाल पाएंगे इसे लेकर आश्वस्त नहीं. उधर, बताया जा रहा है कि भाजपा से अलगाव के बाद शरद यादव अलग नाराज चल रहे हैं, क्योंकि अब राष्ट्रीय अध्यक्ष होते हुए भी पार्टी में उनकी हैसियत शो-पीस की हो गई है. जब तक राजग के संयोजक थे तब तक सक्रियता और कुछ बोलने की वजह भी बनी रहती थी. अब वे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष भर हैं और पार्टी के विधायक और सांसद नीतीश कुमार का कहा मानते हैं. शरद को सुनने वालों की संख्या कम है. आगे क्या होगा, अभी से कहना जल्दबाजी है लेकिन फिलहाल यह साफ दिख रहा है कि मुश्किल में चल रहे नीतीश कुमार बाहरी और आंतरिक, दोनों किस्म की परेशानियों में घिरकर अकेले-से पड़ गए हैं.
लेकिन जानकारों के मुताबिक नीतीश के घिरते जाने या अकेले और अलग-थलग पड़ जाने का मतलब यह भी नहीं कि इसमें लालू प्रसाद को संजीवनी मिलने या भाजपा के मजबूत होने के संकेत हैं. प्रदेश में भाजपा खुद बगावत का दंश झेल रही है और डेढ़ माह में सरकार के राज-काज और उपलब्धियों पर सवाल उठाकर खुद को हास्यास्पद बनाने में लगी हुई है. और रही बात लालू प्रसाद की तो वे चारा घोटाले के आखिरी फैसले में जेल जाने से बचने के लिए आरजू-मिन्नत और भक्ति-भाव के साथ बिहार छोड़कर उत्तर प्रदेश में विंध्याचल के आस-पास बाबाओं से आशीर्वाद लेने में मशगूल हैं. l
साफ दिख रहा है कि मुश्किल में चल रहे नीतीश कुमार बाहरी और आंतरिक, दोनों किस्म की परेशानियों में घिरकर अकेले-से पड़ गए हैं