डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की पैरोल फिर सुर्ख़ियों में रही। डेरा प्रमुख दुष्कर्म और हत्या के जुर्म में 20 साल की सज़ा काटने के लिए हरियाणा के ज़िला रोहतक की सुनारिया जेल में था। पैरोल किसी भी बंदी का अधिकार नहीं कि वह उसे क़ानूनन हासिल कर सके; लेकिन जेल मैन्यूअल में इसका प्रावधान है और राज्य सरकार इसकी आड़ में सुविधा दे रही है। जेल मंत्री रणजीत सिंह कहते हैं कि जेल मैन्यूअल में क़ैदी के लिए पैरोल का प्रावधान है। जघन्य अपराधी यह सुविधा लेते रहे हैं और मीडिया में इसकी चर्चा भी नहीं होती। चूँकि डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के लाखों अनुयायी हैं, इसलिए वह चर्चा में आ जाते हैं।
सवाल पैरोल से ज़्यादा उसके समय पर उठते हैं, और यह लाजिमी भी है। यह निंदनीय है और इसके लिए राज्य सरकार की आलोचना होना स्वाभाविक भी है। राम रहीम की तीन पैरोल का समय चुनाव का रहा है। इसे संयोग नहीं, बल्कि डेरा समर्थकों के एकमुश्त वोट हासिल करना कहा जाएगा।
पंजाब के मालवा क्षेत्र, हरियाणा के सिरसा, हिसार, फ़तेहाबाद, कुरुक्षेत्र, कैथल और पंचकूला ज़िलों के अलावा हिमाचल के कुछ हिस्से में डेरा सच्चा सौदा के लाखों अनुयायी हैं और डेरा प्रमुख के अपरोक्ष इशारे पर वे मतदान करते रहे हैं। समर्थक मतदाता दर्ज़नों सीटों पर नतीजों में उलटफेर कर सकते हैं। अब प्रभाव पहले जैसा तो नहीं; लेकिन असरकारक अब भी है। हालाँकि कभी किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के पक्ष में मतदान करने की डेरे की ओर से कभी घोषणा नहीं हुई; लेकिन समर्थकों के लिए वहाँ से इशारा ही काफ़ी होता है।
राम रहीम की पैरोल के तीन मौक़े ऐसे आये, जब उस अवधि में चुनाव हुए। पहला उदाहरण, वर्ष 2021 में 7 फरवरी से 27 फरवरी तक राम रहीम को फरलो मिली। फरवरी की इसी समय अवधि के दौरान पंजाब में विधानसभा चुनाव तय थे। फरलो की समय सीमा पर हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार की आलोचना हुई; लेकिन जेल मैन्यूअल का हवाला देकर इसे सामान्य बताया गया। जून 2022 में राम रहीम को 30 दिन की पैरोल मिली, उसी समय अवधि के दौरान हरियाणा में स्थानीय निकाय चुनाव तय थे।
तीसरी बार 14 अक्टूबर, 2022 को 40 दिन की पैरोल मिली, तो राज्य में पंचायत और आदमपुर उप चुनाव तय हैं। मतलब स्पष्ट है कि हरियाणा सरकार डेरा प्रमुख पर मेहरबान है; लेकिन यह परम्परा समाज में ग़लत सन्देश देती है। जघन्य अपराध के दोषियों को पैरोल इतनी आसानी से नहीं मिलतीं, जितनी कि डेरा प्रमुख को मिल रही हैं। जेल मैन्यूअल के मुताबिक, पैरोल सज़ायाफ़्ता क़ैदी को वर्ष में 90 दिन तक मिल सकती है। जितने दिन क़ैदी पैरोल पर रहेगा, उतने दिन बाद में उसकी सज़ा में जुड़ जाएँगे। पैरोल सज़ा अवधि में किसी तरह की छूट नहीं है, बावजूद इसके डेरा प्रमुख बार-बार पैरोल क्यों ले रहे हैं?
यह सुविधा वे अपना मर्ज़ी से ले रहे हैं या उन्हें इसके लिए तैयार किया जाता है। इसमें जबरदस्ती की बात नहीं है, क़ैदी की कहीं-न-कहीं सहमति होती ही है। हर क़ैदी पैरोल चाहता है; लेकिन जघन्य अपराध श्रेणी के दोषियों को सम्बन्धित गृह विभाग बड़ी मुश्किल से इसकी मंज़ूरी देता है। डेरा प्रमुख भी इसी श्रेणी में आते हैं। जेल से बाहर उनके लिए जेड प्लस सुरक्षा का प्रावधान है। इसे लेकर बहुत तामझाम करने पड़ते हैं।
डेरा प्रमुख के ख़िलाफ़ पंचकूला की विशेष सीबीआई अदालत में इसी उनका पक्ष वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये सुना जाता रहा है। क़ानून व्यवस्था का मुद्दा तो वही है, अब भी लाखों अनुयायी हैं उनके। इसके बावजूद यह मुद्दा गौण हो गया है। क़ानून व्यवस्था का मुद्दा उनकी पैरोल में कमोबेश कभी ज़्यादा आड़े नहीं आया। सरकारें चाहें तो सब प्रबन्ध कर लेती हैं, बशर्ते वह उनके अनुकूल हो।
पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी (एसजीपीसी) और कई सिख संगठन पैरोल का जबरदस्त विरोध करते रहे हैं। उनकी राय में सज़ा पूरी कर चुके सिख क़ैदियों की रिहाई के बारे में कुछ नहीं किया जा रहा, जबकि जघन्य अपराध के दोषी डेरा प्रमुख को बराबर पैरोल या फरलो पर जेल से कुछ समय के लिए आज़ादी दी जा रही है। एसजीपीसी प्रधान हरजिंदर सिंह धामी की राय में हरियाणा सरकार डेरा प्रमुख पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान है।
सब इसकी वजह भी जानते हैं; लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि डेरा प्रमुख पर गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और मोड़ मंडी (पंजाब) बम धमाके की साज़िश के आरोप हैं। डेरा प्रमुख के जेल से बाहर आने के बाद पंजाब में इसके विस्तार की बातें होने लगती है, जिससे राज्य की शान्ति भंग होने की आशंका है।
डेरा प्रमुख 40 दिनों की पैरोल अवधि के दौरान उत्तर प्रदेश के ज़िला बाग़पत के बरनावा के डेरे पर रहेंगे। वह ऑनलाइन प्रवचन कर रहे हैं, लोग उनसे जुड़ रहे हैं। वह इशारों की इशारों में संकेत दे रहे हैं। ऐसे ही ही एक ऑनलाइन प्रवचन में उनका यह कहना कि ज़िम्मेदार जैसा आपको कहेंगे, उनके अनुसार आप लोगों को चलना है। इसे हरियाणा के आदमपुर विधानसभा उप चुनाव और पंचायत चुनाव से जोडक़र देखा जा रहा है। किसी पार्टी विशेष को ऐसे इशारों के आधार पर कितनी सफलता मिलती है? यह तो नतीजों से स्पष्ट होगा।
लेकिन इससे फ़ायदा ही होगा नुक़सान नहीं। इस डेरे की परम्परा रही है कि मतदान से कुछ समय पहले संकेत जाता है और किसी को कुछ भनक नहीं लगती और एकमुश्त मतदान होता है। पंजाब में कभी कांग्रेस इसका बख़ूबी इस्तेमाल कर चुकी है। पंजाब और हरियाणा में ज़्यादातर राष्ट्रीय पार्टियों के नेता डेरा प्रमुख से दुष्कर्म के आरोप में सज़ा मिलने से दण्डवत् होकर आशीर्वाद लेते रहे हैं। तब तक लगभग ठीक था; लेकिन अब स्थितियाँ बदल चुकी हैं। अब वह दुष्कर्म और हत्या के दोषी साबित हो चुके हैं। अब खुले में सत्संग नहीं होगा, तो फिर आशीर्वाद के लिए ऑनलाइन की सुविधा है। कुछ नेता इसका लाभ उठा रहे हैं और इसके लिए आलोचना भी झेल रहे हैं।
हरियाणा विधानसभा के उपाध्यक्ष और नलवा से भाजपा विधायक रणबीर सिंह गंगवा भी हैं। विधानसभा चुनाव में उनकी जीत में डेरा समर्थकों की क्या भूमिका रही है, वह अब सार्वजनिक हो चुकी है। सन्त या महात्मा का अनुयायी होना कोई ग़लत नहीं; लेकिन विधानसभा उपाध्यक्ष होने के नाते यह उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है। विधानसभा उपा्ध्यक्ष ही नहीं करनाल की मेयर रेणु बाला, सीनियर डिप्टी मेयर राजेश और डिप्टी मेयर नवीन कुमार, हिसार मेयर की पत्नी भी डेरा प्रमुख के ऑनलाइन प्रवचन से जुड़ चुके हैं। इसकी वजह राजनीतिक न बता सामाजिक कार्यों में डेरे की भूमिका बतायी जाती है। रक्तदान, सामूहिक विवाह, स्वच्छता अभियान और भी कई में डेरे की भूमिका रही है।
सिरसा में तो डेरा सच्चा सौदा का प्रमुख मुख्यालय है ही, क़रीब पाँच ज़िलों में डेरा समर्थकों की अच्छी-ख़ासी तादाद अब भी है। दुष्कर्म और हत्या मामले में दोषी साबित होने के बाद डेरा प्रमुख की आमजन में धूमिल हुई। डेरे का वह रुतबा अब नहीं रह गया है; लेकिन समर्थकों में फिर से जोश भर रहा है और यही डेरा प्रमुख की सोच भी है।
किसी को जेल से कुछ समय के लिए आज़ादी चाहिए और किसी को अपरोक्ष तौर पर समर्थन। कह सकते हैं कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसे में स्थितियाँ अनुकूल ही साबित होती है। पैरोल चूँकि वर्ष में ज़्यादा-से-ज़्यादा 90 दिन (लगभग तीन माह) के प्रावधान के तहत भविष्य में यह दरवाज़ा खुला ही रहेगा। हरियाणा, पंजाब या हिमाचल में किसी भी राजनीतिक दल के नेता की आधिकारिक प्रतिक्रिया आलोचना के तौर पर सामने नहीं आएगी। सवाल वही पैरोल से ज़्यादा उसके समय का कि आख़िर चुनाव से पहले ही पैरोल की नीति अमल में क्यों आती है?
पैरोल भी, फरलो भी
जघन्य अपराध श्रेणी में दोषी को पैरोल बहुत मुश्किल से दी जाती है। कई मामलों में ऐसे बहुत-से दोषियों को सज़ा पूरी होने तक एक बार भी यह सुविधा नहीं मिल पाती है। जब सबन्धित राज्य सरकार से यह सुविधा नहीं मिलती, तो न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है। न्यायालय पैरोल का आदेश दे सकता है या इनकार भी कर सकता है। चाहे तो कस्टडी रिमांड भी दे सकता है। जिसमें कुछ घंटों के लिए पुलिस की मौज़ूदगी में क़ैदी अपनी भूमिका अदा कर सकता है। फरलो क़ैदी के अधिकार में आता है। यह सुविधा पाँच साल से ज़्यादा सज़ा पाने वालों के लिए है। यह अवधि एक साल में अधिकतम एक माह की होती है। इसकी प्रक्रिया पैरोल से जटिल है। डेरा प्रमुख इस सुविधा को हासिल कर चुके हैं।