तीन पूर्वोत्तर राज्यों में चुनाव के साथ ही राजनीतिक दल सक्रिय
नये साल की शुरुआत तीन पूर्वोत्तर राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ हुई है। इसमें दो बड़े इम्तिहान होंगे। एक भाजपा को जीत के सिलसिले को उन राज्यों में आगे बढ़ाना है, जहाँ उसके लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं।
दूसरे कांग्रेस को जो अपने नेता राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद पार्टी के मज़बूत होने का दावा कर रही है; भले यात्रा इन राज्यों में नहीं गयी थी। धीरे-धीरे देश में भाजपा और कांग्रेस के अलावा तीसरे मोर्चे की भी हल्की-सी सक्रियता दिखने लगी है, जिसके लिए फ़िलहाल तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव सक्रिय हैं। भले उन्हें टीएमसी की ममता बनर्जी और जद(यू) के नीतीश कुमार का समर्थन नहीं मिला है। हालाँकि यह भी सच है कि के.सी.आर. के साथ दिख रहे दलों का चुनाव वाली इन तीन राज्यों में कोई वजूद नहीं है और उनकी सक्रियता 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर अधिक दिखती है।
भाजपा ने जनवरी के तीसरे हफ़्ते दिल्ली में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कर चुनावी रणनीति बनाने की शुरुआत कर दी है। पार्टी ने एक और बड़ा फ़ैसला वर्तमान अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के कार्यकाल को एक साल और बढ़ाने का किया है।
सक्रिय कांग्रेस भी है, जिसने चुनाव की घोषणा के साथ ही त्रिपुरा में माकपा के साथ गठबंधन किया है। इन तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में क्षेत्रीय दलों के साथ दो बड़े दलों भाजपा और कांग्रेस की भी जंग होगी। दिलचस्प यह है कि तीनों ही राज्यों में 60-60 सीटें हैं और वहाँ अक्सर बहुमत का काँटा फँस जाता है।
तीन राज्यों में चुनाव जल्द
चुनाव आयोग के मुताबिक, त्रिपुरा में 16 फरवरी, जबकि नागालैंड और मेघालय में 27 फरवरी को मतदान होगा। त्रिपुरा में भाजपा सत्ता में है, तो नागालैंड में एनडीपीपी की नेफ्यू रियो के नेतृत्व वाली, जबकि मेघालय में एनपीपी के कोनराड संगमा की सरकार है। इन दोनों राज्यों में भाजपा सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है। नागालैंड विधानसभा का कार्यकाल 12 मार्च, मेघालय विधानसभा का 15 मार्च और त्रिपुरा विधानसभा का कार्यकाल 22 मार्च को पूरा हो जाएगा।
त्रिपुरा में भाजपा ने पहली बार सन् 2018 में सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था। तब भाजपा ने वहाँ पिछले 25 साल से सत्तारूढ़ वामपंथी सरकार को बाहर किया था। भाजपा सरकार का नेतृत्व बिप्लब देब को मिला। हालाँकि चार साल बाद 2022 में भाजपा ने देब को हटाकर मानिक साहा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया। साह पर अब कांग्रेस-माकपा गठबंधन की चुनौती का सामना करके भाजपा को दोबारा सत्ता में लाने की ज़िम्मेदारी है।
यदि त्रिपुरा का क्षेत्रीय गुणाभाग देखें, तो पश्चिम त्रिपुरा में सर्वाधिक 14 सीटें हैं और भाजपा का यह गढ़ कहा जा सकता है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में इसी इलाक़े में भाजपा ने अपने सहयोगी के साथ मिलकर सभी सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इनमें भाजपा 12 सीटों पर, जबकि दो पर सहयोगी आईपीएफटी जीती थी। उधर सिपाहीजाला में माकपा और भाजपा में मुक़ाबला तो हुआ था; लेकिन माकपा ने नौ में से पाँच सीटें जीतकर अपना दबदबा बनाया था। भाजपा ने भी वहाँ तीन, जबकि आईपीएफटी ने एक सीट जीती थी।
त्रिपुरा का तीसरा इलाक़ा गोमती है, जहाँ सात सीटें हैं। इनमें पाँच भाजपा ने जीत ली थीं, जबकि दक्षिण त्रिपुरा की सात में से तीन सीटें उसके हिस्से आयी थीं। धलाई क्षेत्र में भाजपा छ: में से पाँच पर क़ब्ज़ा करने में सफल रही, जिससे वह राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। सिर्फ़ उत्तरी हिस्से उनाकोटी में भाजपा और माकपा ने बराबर सीटें जीती थीं; लेकिन इससे माकपा भाजपा को पहली बार राज्य में सत्ता में आने से नहीं रोक पायी।
उस चुनाव में भले भाजपा बहुत मज़बूत होकर उभरी थी; लेकिन समय के साथ वहाँ उसके ताक़तवर क़िले में दरारें आती दिखी हैं। सियासी उथल-पुथल ने भाजपा की चिन्ता बढ़ायी है। भाजपा ने जब उसे सत्ता में लाने वाले बिप्लब कुमार देब को हटाया, तो उसके बाद कई बड़े नेता पार्टी से अलग हो गये। इनमें हंगशा कुमार शामिल हैं, जो पिछले साल अगस्त में अपने आदिवासी समर्थकों के साथ टिपरा मोथा में चले गये। आदिवासी अधिकार पार्टी भाजपा विरोधी राजनीतिक मोर्चा बना रही है। त्रिपुरा में सबसे बड़ी राजनीतिक घटना जनवरी में माकपा और कांग्रेस के बीच हुआ चुनावी गठबंधन है। दोनों दल एक-दूसरे के घोर विरोधी रहे हैं; लेकिन भाजपा की ताक़त कमज़ोर करने के लिए साथ आ गये हैं। निश्चित ही इससे दोनों की ताक़त बढ़ी है और भाजपा के लिए चुनौती बनेंगे।
राज्य में ग्रेटर टिपरालैंड का मुद्दा भी काफ़ी गर्म रहा है। हाल में त्रिपुरा के राजनीतिक दल इंडिजनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के प्रमुख देबबर्मा ने अलग राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की माँग के लिए समर्थकों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देने की बात कही थी। देबबर्मा एनईडीई के संयोजक हिमंत बिस्वा सरमा के साथ बैठक कर चुके हैं। इसमें देबबर्मा ने ग्रेटर टिपरालैंड की माँग से कोई भी समझौता करने से इनकार किया था।
अभी तक पूर्वोत्तर में भाजपा की रणनीति सँभाल रहे किरण रिजिजू, जो मोदी सरकार में गृह राज्यमंत्री और अरुणाचल प्रदेश से हैं; के अलावा असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को भाजपा नेतृत्व ने काफ़ी सक्रिय किया है। पार्टी ने उन्हें एनईडीए का संयोजक बनाया है। भाजपा ने त्रिपुरा के लिए नेताओं की अलग टीम बनायी है, जबकि मेघालय में पार्टी ने अकेले लडऩे का फ़ैसला किया है। दिल्ली में रणनीति को लेकर हाल में हिमंत बैठक कर चुके हैं। हिमंत हाल के महीनों में भाजपा नेतृत्व के बीच अपना क़द ऊँचा करने में सफल रहे हैं, जिसका विशेष कारण यह भी है कि वह कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ बहुत तीखे बयान देते रहे हैं, जिनमें एक यह भी था कि राहुल गाँधी की सूरत आजकल ईराक के दिवंगत तानाशाह सद्दाम हुसैन से कई थी, जिसकी विपक्ष ने काफ़ी आलोचना की थी। सरमा लगातार भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और अमित शाह को फीडबैक देते हैं, जो ख़ुद भी चुनावी राज्यों का दौरा कर रहे हैं। सरमा के मुताबिक, एनडीए के हिस्से के रूप में भाजपा और एनडीपीपी ने नागालैंड चुनाव के लिए सीटों को अन्तिम रूप दे दिया है। एनडीपीपी 40 सीटों, जबकि भाजपा 20 सीटों पर लड़ेगी। अमित शाह के साथ साथ भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा नागालैंड का दौरा कर चुके हैं। उसी दौरान एनडीपीपी के साथ 20:40 के वोट शेयर के साथ चुनावी मैदान में उतरने की बात हुई थी। नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की एनडीपीपी पार्टी भाजपा के साथ कैसा प्रदर्शन करेगी, यह तो नतीजों से पता चलेगा।
साल 2018 के चुनाव से पहले नागालैंड में सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) दो-फाड़ हो गयी थी। एक गुट (बाग़ी) ने नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) बना ली। वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री रहे नेफ्यू रियो बाग़ी गुट के साथ गये जिससे वह मज़बूत हो गया। चुनाव से पहले एनपीएफ ने वहाँ भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया और भाजपा-एनडीपीपी मिलकर चुनाव में उतरे। एनडीपीपी को 17 और भाजपा को 12 सीटें मिलीं। सत्ता में नेफ्यू को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद बड़े घटनाक्रम में नेफ्यू रियो के मुख्यमंत्री बनने के बाद 27 सीट जीतने वाली एनपीएफ के ज़्यादातर विधायक एनडीओपीपी में दलबदल कर गये, जिससे सरकारी पक्ष की संख्या 42 हो गयी। एनपीएफ के पास महज़ चार विधायक बचे। लिहाज़ा उसने भी सत्तारूढ़ गठबंधन को समर्थन दे दिया। अब जो सरकार वहाँ हैं, उसके 60 में 60 विधायक सत्ता में हैं। देश में किसी राज्य में ऐसा नहीं है। इस बार देखना है कि एनपीएफ का क्या रोल रहता है? क्योंकि वह सूबे की सबसे बड़ी पार्टी रही है। उसके नेता कुझोलुजो निएनु ने हाल में कहा था कि एनपीएफ अपने दम पर चुनाव लडऩे में सक्षम है।
तीसरे पूर्वोत्तर मेघालय में भाजपा अकेले मैदान में उतर रही है। पिछले चुनाव में कांग्रेस वहाँ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। बहुमत से दूर रहने के कारण वह सरकार नहीं बना पायी, जिसके बाद भाजपा ने नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के साथ गठबंधन कर लिया और सरकार बना ली। वैसे चुनाव में दोनों एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़े थे। ज़्यादा सीटें होने के कारण एनपीपी के कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बने। इस बार चुनाव से पहले राज्य में राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है, क्योंकि वहाँ गठबंधन सहयोगियों एनपीपी और भाजपा में जंग चली हुई है। एनपीपी भाजपा से स$ख्त नाराज़ है; क्योंकि उसके दो विधायक हाल में पार्टी छोडक़र भाजपा में चले गये हैं। अब दोनों सहयोगी अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे। भाजपा नेतृत्व ने हाल के महीनों में पार्टी संगठन को राज्य में मज़बूत किया है। एक अन्य घटना चक्र में चुनाव की घोषणा से ऐन पहले पाँच विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्ती$फा दे दिया था। ये सभी नेता यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीएफ) में शामिल हो गये हैं।
मेघालय में भी 60 विधानसभा सीटें हैं। सन् 2018 में यहाँ 59 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को 21 सीटें सीटों पर जीत हासिल हुई है। एनपीपी दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी, जिसके खाते में 19 सीटें थीं। भाजपा को महज़ दो सीटें मिली थीं, जबकि यूडीपी को छ: सीटें। राज्य में कांग्रेस के अलावा तृणामूल कांग्रेस (टीएमसी) की भी मज़बूत ज़मीन है। क्षेत्रीय दलों में नेशनल पीपुल्स पार्टी, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, गारो नेशनल काउंसिल, खुन हैन्नीवट्रेप राष्ट्रीय जागृति आन्दोलन, नार्थ ईस्ट सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, मेघालय डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे दल हैं। भाजपा यहाँ ख़ुद को और मज़बूत करने की कोशिश कर रही है। भाजपा ने पिछली बार कांग्रेस के सरकार न बना पाने के कारण नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ गठबंधन कर सरकार बनायी थी। कांग्रेस के लिए वहाँ चुनौती बनी हुई है। उसके कई विधायक हाल के महीनों में ममता बनर्जी की टीएमसी में शामिल हो चुके हैं। टीएमसी कितना ज़ोर मार पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपने विरोधियों के लिए मैदान खुला छोड़ देगी।
यह दिलचस्प ही है कि पूर्वोत्तर राज्यों में आज जो भी मुख्यमंत्री हैं, वह सभी कांग्रेस में ही रहे हैं। सात में से पूर्वोत्तर के पाँच राज्यों के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (असम), माणिक साहा (त्रिपुरा), एन. बीरेन सिंह (मणिपुर), पेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), नेफियू रियो (नागालैंड) कांग्रेस के पूर्व नेता हैं। अब यह सभी नेता भाजपा के नेतृत्व में हैं। कांग्रेस के विधायकों के एनपीपी और टीएमसी में जाने से उसकी स्थिति कमज़ोर हुई है, क्योंकि चुनाव में जाते हुए उसके पास सिर्फ़ दो विधायक ही हैं। दिलचस्प यह है कि पार्टी इस बार अकेले मैदान में उतर रही है।
सक्रिय रहेंगे राहुल गाँधी
राहुल गाँधी भारत जोड़ो यात्रा के बाद चुप होकर नहीं बैठने वाले। भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस ने अपना अगला कार्यक्रम घोषित कर दिया है। दूसरे अभियान में कांग्रेस ने हाथ से हाथ जोड़ो यात्रा का ऐलान कर दिया है। पार्टी ने इसके लिए बाक़ायदा दिल्ली में ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान का लोगो और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ एक चार्जशीट जारी की है।
कांग्रेस प्रव$क्ता जयराम रमेश ने कहा- ‘हाथ से हाथ जोड़ो अभियान भारत जोड़ो अभियान का दूसरा चरण है। भारत जोड़ो अभियान में विचारधारा के आधार पर राहुल गाँधी ने मुद्दे उठाये। उसका चुनाव से लेना-देना नहीं था। हाथ से हाथ जोड़ो अभियान में हमारा निशाना मोदी सरकार की विफलताएँ हैं, ये 100 फ़ीसदी राजनीतिक अभियान होगा। कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल के मुताबिक, भारत जोड़ो यात्रा के ऐतिहासिक कार्यक्रम के 130 दिनों में कांग्रेस को देश की जनता से पर्याप्त इनपुट मिला।
उन्होंने कहा- ‘पैदल चलते हुए लाखों लोगों ने राहुल गाँधी से बात की। हम उनके दर्द को समझ सकते हैं, जो वह मोदी सरकार के कुशासन के कारण झेल रहे हैं।’
घोषणा के मुताबिक, कांग्रेस का ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान 26 जनवरी से शुरू हो गया। पार्टी नेताओं भारत जोड़ो यात्रा का संदेश आम लोगों तक पहुँचाने के लिए ये घर-घर अभियान चलाया जाएगा। उनके मुताबिक, ज़रूरत पडऩे पर संबंधित प्रदेश कांग्रेस समितियाँ भी भाजपा या अन्य राज्य सरकारों के ख़िलाफ़ चार्जशीट जारी करेंगी। इसके बाद भी कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा बड़ा चरण शुरू करने की तैयारी कर रही है, जो देश के कई हिस्सों से गुज़रेगी। ज़ाहिर है कांग्रेस ने ठान लिया है कि अगले चुनाव में किसी भी तरह अपनी वापसी करनी है।
क्या तीसरा मोर्चा बनेगा?
अभी तक ठंडे पड़े तीसरे मोर्चे में भी जान आने लगी है। शुरुआती कोशिश है; लेकिन शुरुआत हुई है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के प्रमुख के चंद्रशेखर राव (के.सी.आर.) आंध्र प्रदेश की सीमा से लगते ने राज्य के सीमावर्ती खम्मम में जनवरी के तीसरे हफ़्ते रैली की। ख़ास बात यह रही कि इसमें उन दलों के बड़े नेता भी शामिल हुए, जिन्होंने अपने इलाक़ों में आने पर राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा से दूरी बनायी थी। इनमें प्रमुख नाम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव का माना जा सकता है। लेकिन भले के.सी.आर. ने अपनी पार्टी का नाम राज्य से राष्ट्रीय कर लिया हो, उनकी राह आसान नहीं। उनकी महत्त्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है, यह तभी ज़ाहिर हो गया था जब कुछ महीने पहले उन्होंने अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति की जगह भारत राष्ट्र समिति रख लिया था। दरअसल राव तेलंगाना के अलावा पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में भी अपनी पार्टी की उपस्थिति बढ़ाना चाहते हैं। उनका लक्ष्य राष्ट्रीय शक्ति के रूप में उभरने का है। इसलिए उन्होंने रैली के लिए आंध्र प्रदेश की सीमा से लगते खम्मम को चुना।
दरअसल खम्मम बहुत पहले वामपंथियों का गढ़ था। धीरे-धीरे वामपंथी वहाँ से निपट गये तो यह कांग्रेस का मज़बूत क़िला बन गया। दिलचस्प यह है कि राव की इस रैली में वामपंथी दलों के नेता भी शामिल हुए। जब वृहद आंध्र प्रदेश का अस्तित्व था, तब राव ही राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरा थे। लेकिन आंध्र प्रदेश से जब तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया गया, तब राव ने कांग्रेस छोडक़र अपनी पार्टी टीआरएस बना ली। कांग्रेस अब दोनों राज्यों में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
सन् 2018 की बात करें, तो साझे खम्मम ज़िले में 10 सीटों में से राव की टीआरएस को सिर्फ़ एक सीट विधानसभा चुनाव में मिली थी। वहाँ कांग्रेस छ: सीटें जीतने में सफल रही थी; लेकिन उसके यह विधायक और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के वहाँ से जीते दो विधायक टीआरएस (अब बीआरएस) में शामिल हो गये। अब राव यहाँ अपना अपना जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। दिलचस्प यह है कि तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एन. चंद्रबाबू नायडू ने भी दिसंबर के दूसरे पखवाड़े में वहाँ दो रैलियाँ की थीं। नायडू ख़ुद को ताक़तवर करने के लिए तेलंगाना में प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। उन्होंने जनता से अपनी पार्टी के लिए समर्थन माँगा था। एक समय नायडू अविभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि अन्य दलों को साथ जुटाकर राव ने नायडू को जवाब देने की कोशिश भी की है।
खम्मम आजकल इसलिए भी चर्चा में है, क्योंकि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और वाईएसआरसी अध्यक्ष वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी की बहन वाई.एस. शर्मिला खम्मम के पालेयर हलक़े से विधानसभा चुनाव लडऩे का ऐलान कर चुकी हैं। तीसरे मोर्चे के लिए राव की पहली बड़ी कोशिश खम्मम की रैली को माना जा सकता है। राव अपनी रैली में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, केरल के मुख्यमंत्री और माकपा नेता पिनराई विजयन, सपा नेता व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता डी. राजा को बुलाने में सफल रहे। उधर कभी कांग्रेस के साथ कर्नाटक की सत्ता में सहयोगी रहे जनता दल (सेक्युलर) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी की पार्टी की तरफ़ से राव को कहा गया कर्नाटक में ‘पंचरत्न रथ यात्रा’ के चलते उनके नेता रैली में शामिल नहीं हो पाये।
आंध्र और तेलंगाना की राजनीति को समझने वाले जानकारों का मानना है कि राव वास्तव में भाजपा की बढ़ती ताक़त से मुक़ाबला करने के लिए राज्य के लोगों के बीच अपनी छवि राष्ट्रीय नेता की बनाना चाहते हैं। गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा लगातार तेलंगाना के दौरे कर रहे हैं और पार्टी को उम्मीद है कि वह वहाँ अपना आधार बनाने में सफल होगी। राव के लिए वैसे अपनी पार्टी के भीतर उभरे मतभेद और गुटबाज़ी से भी परेशानी है। हाल में खम्मम इलाक़े के ताक़तवर नेता श्रीनिवास रेड्डी की भाजपा में जाने की जबरदस्त चर्चा रही है। वह 10 जनवरी को दिल्ली में भाजपा दिग्गज अमित शाह से मिले थे। रेड्डी सांसद रह चुके हैं और जनता में उनकी अच्छी पैठ है। कहा जा सकता है कि भाजपा गहन रणनीति अपनाकर चल रही है। हालाँकि राव देश के बड़े नेताओं में से एक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी नेता ममता बनर्जी को अपने मंच पर नहीं ला पाये। ममता बनर्जी ख़ुद विपक्ष की धुरी बनने की दिशा में काम करती रही हैं। लिहाज़ा उनके साथ नहीं आने से राव को झटका लगा है। वैसे राव ने इस रैली में कांग्रेस को नहीं बुलाया था, जिससे ज़ाहिर होता है कि वह गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन बनाना चाहते हैं।
शरद पवार जैसा दिग्गज भी राव से दूर रहा, जबकि कश्मीर के नेता $फारूक़ अब्दुल्ला, जो अक्सर विपक्ष की सभी रैलियों में नज़र आते हैं, भी नहीं पहुँचे। हाँ, वह राहुल गाँधी की यात्रा में ज़रूर शामिल हुए और उनकी जमकर तारीफ़ भी की। राव कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के घटक दलों के नेताओं को भी साथ लाने में नाकाम रहे। वामपंथी नेता, जो केरल में राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा के 10 दिन तक रहने के कारण उनसे नाराज़ चल रहे हैं, ज़रूर राव के साथ मंच पर दिखे। केरल में माकपा की सरकार है और वह वहाँ भारत जोड़ो यात्रा के इतने दिन रहने से वह कांग्रेस से $ख$फा रही है। उसके नेताओं ने कांग्रेस की इसके लिए आलोचना भी की थी और कहा था कि उन्हें भाजपा से लडऩा चाहिए, न कि वामपंथियों और दूसरे सम विचारों वाले दलों से।
देखा जाए, तो राव भाजपा विरोध कर रहे हैं; लेकिन वह कांग्रेस को भी मज़बूत नहीं देखना चाहते। लोकसभा चुनाव से पहले तेलंगाना में इस साल के आख़िर में विधानसभा चुनाव हैं और अभी तक तो वहाँ कांग्रेस ही बीआरएस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है। भाजपा यहाँ अपना क़द बढ़ाने की कोशिश में, जबकि असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमएम का भी मुस्लिम वोट बैंक यहाँ है।
बेशक रैली में शामिल चार बड़े नेताओं की राजनीति भले भाजपा विरोधी हो; लेकिन इन सभी दलों की ज़मीन वास्तव में कांग्रेस की ही ज़मीन है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी से लेकर दिल्ली-पंजाब में आम आदमी पार्टी कांग्रेस के वोट बैंक से ही ताक़तवर हुए हैं। यही नहीं केरल में भी सत्तारूढ़ लेफ्ट की असली प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही है। साफ़ है कि भाजपा का विरोध करते हुए भी यह सभी दल वास्तव में कांग्रेस से $खौफ़ कहते हैं और उन्हें लगता है कि कांग्रेस के आने से उन्हें ही नुक़सान होगा।
नीतीश का राग
क्या नीतीश कुमार गुपचुप कुछ राजनीति पका रहे हैं? नीतीश तेलंगाना के नेता के.सी.आर. की रैली में नहीं गये। वह बोले कि बुलाया भी जाता, तो नहीं जाता। भाजपा के ख़िलाफ़ वह लगातार बोल रहे हैं। बची कांग्रेस जो बिहार में उनके नेतृत्व वाली साझा सरकार में शामिल है। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ को बताया कि नीतीश कुमार ज़मीन से जुड़े नेता हैं और कांग्रेस आने वाले चुनावों में उनसे घनिष्ठ सहयोग की उम्मीद कर रही है। बहुत चर्चा है कि नीतीश बिहार की राजनीति में मज़बूत बने रहने के लिए कांग्रेस का साथ चाहते हैं। कुछ नेता तो यह भी मानते हैं कि भविष्य में नीतीश कांग्रेस के साथ पार्टी का विलय कर सकते हैं या कांग्रेस के लिए बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
नीतीश तेलंगाना में विपक्ष (राव के तीसरे मोर्चे) की रैली को लेकर कहते हैं कि उनकी तो सिर्फ़ यही इच्छा है और इसका ख़ुद से कोई लेना-देना नहीं है। ब$कौल नीतीश- ‘मैं कहता रहता हूँ, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। मेरा केवल एक ही सपना है- विपक्षी नेताओं को एकजुट होकर आगे बढ़ते हुए देखना। इससे देश को लाभ होगा।’ लेकिन नीतीश ने जो महत्त्वपूर्ण बात की वह यह थी कि उन्हें के.सी.आर. (चंद्रशेखर राव) की रैली के बारे में पता नहीं था। उन्होंने इसे लेकर यह कहा- ‘मैं किसी और काम में व्यस्त था, जिन्हें उनकी पार्टी की रैली में आमंत्रित किया गया था, वह गये होंगे।’ काफ़ी दिलचस्प बात है कि कुछ महीने राव ख़ासतौर पर बिहार आये थे और नीतीश के साथ एक रैली की थी। नीतीश को लेकर बहुत कहा जाता रहा है कि वह प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखते हैं। उनकी पार्टी के नेता इसे लेकर बार-बार बयान देते रहे हैं कि नीतीश विपक्ष में सर्वमान्य नेता की हैसियत रखते हैं। हालाँकि अब नीतीश ख़ुद को इस दौड़ में नहीं बताते। ऐसे में नीतीश का रोल अगले चुनाव से पहले निश्चित ही महत्त्वपूर्ण होगा।
नड्डा की अध्यक्षता बरक़रार
भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अटकलों को $खत्म करते हुए अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल कम-से-कम 18 महीने के लिए आगे बढ़ा दिया। ऐसा नहीं होता, तो 20 जनवरी को भाजपा को नया अध्यक्ष चुनना पड़ता। अब सम्भावना है कि नड्डा जून 2024 तक पार्टी के मुखिया रहेंगे और अगला लोकसभा चुनाव और उससे पहले 10 विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में होंगे। नड्डा से पहले अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण, के. जना कृष्णमूर्ति, एम. वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अमित शाह जैसे दिग्गज भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं।