गुजरात की बम्पर जीत ने भाजपा की हिमाचल और दिल्ली में हार ढक दी । साल 2022 देश की राजनीति में काफ़ी कुछ अलग रहा। चुनाव की बात करें, तो साल के जाते-जाते भाजपा ने मोदी की लोकप्रियता के बूते गुजरात में बम्पर जीत हासिल की; लेकिन इन्हीं मोदी की लोकप्रियता दिल्ली के नगर निगम और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में काम नहीं कर पायी और भाजपा को सत्ता गँवानी पड़ी। इसके अलावा दिसंबर में ही अलग-अलग राज्यों में छ: विधानसभा और एक लोकसभा सीट के उप चुनाव में भी भाजपा को दो ही विधानसभा सीटें मिलीं। भाजपा ने भले इन हारों को गुजरात की बम्पर जीत से ढकने की कोशिश की हो; लेकिन सत्य यह है कि 2024 के लोकसभा चुनाव उसके लिए सन् 2019 जैसे सरल नहीं होंगे। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
क्या गुजरात विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ जीत भाजपा को 2024 में होने वाले आम चुनाव में जीत की गारंटी देती है? शायद नहीं। गुजरात में भाजपा की जीत शुद्ध रूप से मोदी के प्रति राज्य की जनता का समर्थन, ठीक-ठाक स्तर पर भाजपा के बड़े नेताओं की तरफ़ से किया गया धार्मिक ध्रुवीकरण, ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी का अपने लिए सहानुभूति जुटाना जैसे कारकों का नतीजा है। प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा ने हिमाचल के विधानसभा चुनाव में भी अपना चेहरा बनाया था; लेकिन वहाँ कांग्रेस बहुमत से जीती। ऐसा ही हाल दिल्ली के नगर निगम चुनाव में रहा, जहाँ मोदी के चेहरे के बावजूद लोगों ने अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर ज़्यादा भरोसा किया।
उत्तर भारत में भाजपा को 2024 की मंज़िल पाने से पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के रास्ते से गुज़रना है, जबकि दक्षिण के कर्नाटक में भी कांग्रेस उसे मज़बूत चुनौती दे सकती है। इन सभी राज्यों में आम आदमी पार्टी की ज़्यादा सम्भावना नहीं है। लिहाज़ा कांग्रेस के वोट बँटने का ख़तरा भी कम रहेगा; भले कर्नाटक में उसे जनता दल(एस) से चुनौती रहेगी।
गुजरात का जनादेश:
कुल सीटें- 182
भाजपा 156
कांग्रेस 17
आप 05
सपा 01
अन्य 03
आप बनाम कांग्रेस
गुजरात में बड़ी जीत ने निश्चित ही भाजपा ख़ेमे में जोश भर दिया है, जहाँ सन् 2017 के चुनाव में उसे कांग्रेस ने ख़ूब पानी पिलाया था। इस बार कांग्रेस ने चुनाव को ऐसे लिया, मानो उसे यह जीतना ही न हो। ऊपर से आम आदमी पार्टी (आप) ने 12.9 फ़ीसदी वोट (मत) लेकर कांग्रेस को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, आप कांग्रेस के हिस्से के कुछ लाख नहीं क़रीब 35 लाख (क़रीब 12 फ़ीसदी) वोट अपने पाले में ले गयी। राज्य की कुल 182 सीटों में से 35 सीटों पर आप ने कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल दिया। पांच सीटें आप ने जीतीं भी। लिहाज़ा कांग्रेस को इन 40 सीटों पर आप ने सीधा नुक़सान पहुँचाया।
गुजरात में कांग्रेस को सन् 1990 के बाद पहली बार सबसे कम वोट मिले हैं। यहाँ तक कि सन् 1990 की आडवाणी की रथ यात्रा वाली राम लहार में भी कांग्रेस ने 31 फ़ीसदी वोट हासिल किये थे। इस बार कांग्रेस का वोट प्रतिशत 27.3 तक आ गया और हाथ में सीटें रह गयीं महज़ 17 ही। पंजाब में कुछ इस तरह ही आप ने अपना सत्ता का रास्ता बनाया था। यदि कांग्रेस अब भी सक्रियता, संगठन और प्रदेश नेतृत्व पर फोकस नहीं करती है, तो आप उसका आधार खा सकती है। हाँ, इसके लिए आप को भी ज़मीन पर काम रहना होगा; क्योंकि ग्रामीण इलाक़ों में अभी भी कांग्रेस को लोग मानते हैं।
आपने सन् 2017 में भी गुजरात चुनाव लड़ा था। तब उसे 29,000 से कुछ ही ज़्यादा वोट मिले थे। लेकिन इस बार उसके कुल वोटों की संख्या 41 लाख पार कर गयी। यदि कांग्रेस की बात करें, तो उसे इस बार 86.83 लाख वोट मिले, जबकि सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने 1.24 करोड़ वोट हासिल किये थे। इनमें से उसके ज़्यादातर वोट आप के खाते में गये।
कांग्रेस चुनाव में कितनी गम्भीर थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिन राहुल गाँधी ने 2017 के चुनाव में गुजरात विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए 30 जनसभाएँ की थीं। लेकिन इस बार राहुल सिर्फ़ एक दिन दो रैलियाँ करने पहुँचे। उनके विपरीत प्रधानमंत्री मोदी ने 31 जनसभाएँ कीं और केजरीवाल ने 19 रैलियाँ कीं। दोनों ने रोड शो अलग से किये। तब कांग्रेस को 41 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे और इस बार 27 फ़ीसदी।
इसमें कोई शक नहीं कि पार्टी अध्यक्ष न होने के बावजूद राहुल गाँधी ही जनता में कांग्रेस का असली चेहरा हैं। उनका न आना कांग्रेस को भारी पड़ा, बेशक इसके अलग कारण थे। मल्लिकार्जुन खडग़े ऐसा नेता नहीं, जो कांग्रेस को वोट दिला सकें। वह राहुल गाँधी की तरह देशव्यापी छवि वाले नेता नहीं। न वह राहुल जैसे भाग-दौड़ कर सकते हैं। दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी ऊर्जा से भरे रहते हैं। गुजरात चुनाव से निपटते ही अहमदाबाद से आकर शाम को दिल्ली में वे भाजपा की बैठक में पहुँच गये। कांग्रेस ने ख़ुद को 2024 के लोकसभा चुनाव पर फोकस कर दिया है और राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ उसी का हिस्सा है। पार्टी के दक्षिण से एक सांसद ने कहा- ‘राहुल कांग्रेस की उम्मीद हैं, इसमें कोई दो-राय नहीं। जनता उनसे प्यार करती है, यह भारत जोड़ो यात्रा से साबित हो गया है। दक्षिण में इस यात्रा ने कांग्रेस की ज़मीन को मज़बूत किया है और पार्टी कार्यकर्ता बहुत सक्रिय हो गया है। लेकिन मेरे विचार में राहुल जी को गुजरात और हिमाचल दोनों जगह चुनाव प्रचार में जाना चाहिए था। यात्रा का समय चुनाव से क्लैश नहीं करना चाहिए था।’
भाजपा का ध्रुवीकरण
भाजपा गुजरात को किसी भी सूरत में जीतना चाहती थी। यह चुनाव उसके दो बड़े नेताओं- प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह के चुनाव प्रचार में बयानों और ध्रुवीकरण की खुली कोशिशों से साफ़ ज़ाहिर हो गया था। इसकी तैयारी भाजपा ने तब कर दी, जब पार्टी की सरकार ने बिलकिस बानो रेप मामले के दोषियों को छोड़ दिया। इसके बाद गृह मंत्री अमित शाह ने खुलकर बयान दिया- ‘2002 के दोषियों को ऐसी सज़ा दी गयी कि वे दोबारा सिर नहीं उठा सके।’
धार्मिक आधार पर वोटों ध्रुवीकरण की यह बहुत बड़ी कोशिश थी। भाजपा सरकार ने चुनाव से ऐन पहले बिलकिस बानो रेप मामले के दोषियों को जब रिहा किया, उसके महज़ ढाई महीने बाद ही प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए। नतीजा देखिये कि बिलकिस बानो के दोषियों को रिहा करने वाली सरकारी समिति के सदस्य सी.के. राउलजी ने भाजपा के टिकट पर गोधरा से बम्पर 35,000 वोटों से जीत हासिल की। यह एक ऐसी सीट है, जहाँ मुस्लिम भी बड़ी संख्या में हैं। राउलजी को भाजपा ने टिकट दिया, जिससे इलाक़े में हिन्दू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो गया। इसका असर गोधरा से बाहर भी पड़ा। पंचमहल ज़िले में गोधरा समेत कुल पाँच विधानसभा सीटें हैं और सभी पर भाजपा की जीत हुई।
दिलचस्प यह भी है कि सन् 2007 और सन् 2012 में राउलजी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में जीते थे। उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों वोट मिले थे। इस बार भाजपा ने उन्हें साथ लिया और ध्रुवीकरण के सहारे बम्पर वोट हासिल कर लिये। इसके अलावा भाजपा ने नारोदा पाटिया नरसंहार के दोषी मनोज कुकरानी की बेटी पायल कुकरानी को टिकट दिया। फरवरी, 2002 के इन दंगों में 97 मुसलमानों की जान गयी थी और 32 लोगों को कोर्ट ने दोषी ठहराया था, जिनमें कुकरानी शामिल हैं। पायल ने यह चुनाव 83,000 के वोटों के बड़े अन्तर से जीता। ध्रुवीकरण का एक और बड़ा उदाहरण अहमदाबाद में एलिसब्रिज की सीट है, जहाँ भाजपा ने अमित पोपटलाल शाह को मैदान में उतारा। पूर्व मेयर पोपटलाल को टिकट देने के लिए दो बार से लगातार चुनाव जीत रहे विधायक का टिकट काट दिया। याद रहे इन्हीं पोपटलाल का नाम हीरेन पांड्या हत्याकांड में बहुत चर्चा में रहा था। यह माना जाता है कि अहमदाबाद एलिसब्रिज सीट से चुनाव लडऩे वाले पांड्या भाजपा में नरेंद्र मोदी के मुखर विरोधी थे। इन्हीं पांड्या की हत्या मामले में पोपट लाल शाह का नाम आया था। भाजपा ने उन्हें अहमदाबाद से मैदान में उतारा, जिसका असर इस ज़िले की 21 सीटों पर पड़ा। इनमें से भाजपा ने 19 जीत लीं।
भाजपा को फ़ायदा या नुक़सान?
बेशक गुजरात, हिमाचल (दोनों विधानसभा) और दिल्ली (एमसीडी) के इन तीन चुनावों में जनता ने भाजपा, कांग्रेस और आप सभी को कुछ-न-कुछ दिया है; लेकिन जनता में भाजपा अपनी बम्पर जीत को भुनाने में सबसे आगे रही है। गुजरात की जीत के बाद शाम को ही भाजपा के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- ‘यह बड़ी जीत ज़ाहिर करती है कि देश की जनता भाजपा को चाहती है और उसको भरपूर प्यार दिया।’
वास्तव में यह प्यार गुजरात से बाहर हिमाचल और दिल्ली में भाजपा को नहीं मिला। लेकिन सच यह है कि यह मोदी के शब्दों की चतुराई भर थी। गुजरात के साथ ही हुए दो चुनावों में भाजपा को हार मिली, जिसे वो बहुत चतुराई से गोल कर गये। हिमाचल में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में बहुत हासिल कर बता दिया कि भाजपा को हराया जा सकता है। वहाँ भाजपा ने मोदी का चेहरे सामने रखकर ही चुनाव लड़ा था। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने हिमाचल जैसे छोटे राज्य में चार दौरे किये और 10 के क़रीब चुनाव जनसभाएँ कीं। प्रदेश का होने के कारण भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा तो काफ़ी समय तक हिमाचल में रहे। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भी हिमाचल के ही हैं।
गुजरात की बात करें, तो मोदी और शाह ने एक बार फिर साबित किया कि अपने गृह राज्य में उनकी बेहतरीन पकड़ है। वे जनता की नब्ज़ पहचानते हैं और संकट में चुनाव कैसे जीता जा सकता है, इसका प्रबंधन भी करना जानते हैं। गुजरात की 182 सीटों में से भाजपा की 156 सीटों पर जीत कोई छोटी जीत नहीं है। भाजपा का एजेंडा सर्वविदित है। वह उसे छिपाती नहीं है। गृह मंत्री अमित शाह ने बिना किसी लाग लपेट के सन् 2002 के दंगों पर टिप्पणी की। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में जो कहना था, कहा।
इस चुनाव में सबसे ज़्यादा नुक़सान निश्चित ही कांग्रेस का हुआ है। सबको पता था कि आम आदमी पार्टी गुजरात में सरकार तो नहीं ही बना पाएगी, दूसरे नंबर पर भी नहीं रहेगी। लेकिन इसके बावजूद उसका प्रचार ऐसा था, मानों सरकार बनाने जा रही हो। चुनाव से पहले केजरीवाल ने तो मीडिया के सामने एक पर्ची पर सीटें तक लिख दी थीं। अब चुनाव बाद का दृश्य देखिए। केजरीवाल ने एक बार भी चुनाव में तीसरे नंबर पर रहने का मलाल ज़ाहिर नहीं किया, बल्कि इस बात पर ख़ुशी ज़ाहिर की कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बन गयी। दरअसल केजरीवाल को भी पता था कि वह जीत नहीं सकती। उनकी रणनीति ही छ: फ़ीसदी से ज़्यादा वोट लेने की थी, ताकि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल सके। आप इसमें सफल रही।
गुजरात की जीत को भाजपा और उनका थिंक टैंक 2024 के आम चुनाव के लिए भुनाना चाहता है। लेकिन पार्टी को भी पता है कि गुजरात से बाहर हिमाचल और देश की राजधानी के निगम चुनाव में उसे मात मिली है। दक्षिण में राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा ने भाजपा के विस्तार की योजनाओं को धक्का दिया है। उसे अब वहाँ पहले से कहीं ज़्यादा मेहनत करनी होगी। दूसरा कारण यह भी है कि गुजरात का जनादेश दक्षिण राज्यों में कोई असर नहीं डालता। उत्तर भारत कांग्रेस की कमज़ोर कड़ी है। हालाँकि यदि वह अगले साल के विधानसभा चुनाव में हिमाचल के बाद राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में कुछ कमाल कर पाती है, तो भाजपा के लिए 2024 में गम्भीर चुनौती पेश कर सकती है।
गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लिए वोट माँगे और उन्हें मिले; लेकिन ऐसा हिमाचल में नहीं हुआ। लिहाज़ा भाजपा सिर्फ़ गुजरात के बम्पर जीत के भरोसे बहुत आश्वस्त नहीं हो सकती। हिमाचल और एमसीडी के चुनाव में उनके ब्रांड नाम पर वोट नहीं पड़े। हो सकता है कि लोकसभा के चुनाव में जनता अलग तरीक़े से सोचे। क्योंकि उसके सामने मोदी का कोई स्पष्ट राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प नहीं है। राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं है। राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के अलावा टीएमसी, डीएमके जैसे क्षेत्रीय दल वहाँ काफ़ी मज़बूत हैं।
भूपेंद्र पटेल फिर बने मुख्यमंत्री
गुजरात में एक बार फिर भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री बन गये। प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की उपस्थिति में 12 दिसंबर को उन्होंने राज्यपाल आचार्य देवव्रत से पद की शपथ ली। पाटीदार आन्दोलन को ख़त्म करने में भूपेंद्र पटेल ने बड़ी भूमिका निभायी थी। उनके दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने से ज़ाहिर हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह उनके नेतृत्व से ख़ुश हैं। भूपेश को तब मुख्यमंत्री बनाया गया था, जब कुछ महीने पहले भाजपा ने गुजरात की पूरी सरकार ही बदल दी थी। कहा जाता है कि ऐसा एंटी-इंकम्बेंसी से बचने के लिए किया गया। गुजरात मोदी-शाह का गृह राज्य है; लिहाज़ा वहाँ मुख्यमंत्री का कामकाज हमेशा परीक्षा के पैमाने पर रहता है।
हिमाचल में कांग्रेस की जबरदस्त वापसी
यह बहुत दिलचस्प बात है कि प्रियंका गाँधी का कांग्रेस राजनीति में हिमाचल से कोई सीधा नाता नहीं। वह पार्टी महासचिव के नाते उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं। हाँ, उनका शिमला के छराबड़ा में घर ज़रूर है। लेकिन प्रियंका ने इस बार हिमाचल चुनाव की कमान जिस तरीक़े से सँभाली, उसने सबको हैरान कर दिया। कांग्रेस की प्रदेश में सत्ता में वापसी का श्रेय कुछ हद तक प्रियंका को दिया जा सकता है। कांग्रेस नेताओं के मुताबिक, अग्निवीर योजना का विरोध और पुरानी पेंशन के वादे को सबसे ऊपर रखने का सुझाव प्रियंका गाँधी का ही था। शिमला के अपने घर में बैठकर उन्होंने चुनाव की रणनीति बुनी और लगातार नेताओं का फीडबैक लिया। काफ़ी नेताओं ने ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार किया कि प्रियंका काफ़ी तेज़ तर्रार रणनीतिकार हैं और आक्रामक भी हैं।
हिमाचल का चुनाव जीतकर कांग्रेस ने यह सन्देश दिया है कि जनता के सही मुद्दों के साथ चुनाव लड़ा जाए, तो भाजपा को हराया जा सकता है। भाजपा भले गुजरात के नतीजे में हिमाचल की अपनी हार छिपा लेना चाहती हो, सच यह है कि वहाँ प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को सामने रखकर चुनाव लडऩे के बावजूद उसे कांग्रेस से हार मिली है। भाजपा अब वोट शेयर प्रतिशत की आड़ ले रही है; लेकिन उसके और कांग्रेस में 14 सीटों का अन्तर है। अपने ज़िले में 10 में से आठ सीटें भाजपा को जिताने के बावजूद जयराम ठाकुर भाजपा के लिए कमज़ोर कड़ी साबित हुए।
भाजपा ने दिग्गज नेता और दो बार मुख्यमंत्री रहे प्रेम कुमार धूमल को एकदम किनारे कर दिया, और यह चीज़ उसे बहुत भारी पड़ी। भाजपा के ही भीतर कई बड़े नेताओं का मानना था कि यदि धूमल को हमीरपुर हलक़े से मैदान में उतारा गया होता, तो भाजपा की झोली में कुछ और सीटें आतीं और कांग्रेस के लिए चुनाव फँस जाता। धूमल से हुई ज्यादती से राजपूत वोट बड़े पैमाने पर कांग्रेस के साथ गया। यही नहीं, ऊपरी हिमाचल में, जहाँ धूमल का ख़ासा प्रभाव था; में भाजपा को सीटों के लाले पड़ गये। शिमला, सिरमौर, सोलन में भाजपा की बुरी गत हुई और प्रदेश के सबसे बड़े ज़िले कांगड़ा में उसे 15 में चार ही सीटें मिलीं। इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी ने हिमाचल में चार दौरे किये और 10 के क़रीब जनसभाओं को सम्बोधित किया। लेकिन इसके बावजूद भाजपा जीत नहीं पायी। आम आदमी पार्टी (आप) को तो जनता ने सिरे से ही ख़ारिज कर दिया और उसके खाते में बमुश्किल कुछ हज़ार ही वोट आये।
आँकड़ों का खेल
भाजपा हारने के बाद कांग्रेस और उसके वोट शेयर में सिर्फ़ एक फ़ीसदी का ही अन्तर होने का ढिंढोरा तो पीट रही है; लेकिन यह नहीं बता रही कि सन् 2017 के मुक़ाबले में उसे जनता ने 6.3 फ़ीसदी वोट कम दिये। सन् 2017 के चुनाव में भाजपा को 44 सीटों के साथ 49.2 वोट मिले थे। अब 42.9 फ़ीसदी वोट मिले हैं। अर्थात् पिछली बार से 19 सीटें कम मिली और 6.3 फ़ीसदी वोट कम।
उधर कांग्रेस को सन् 2017 में 42.1 फ़ीसदी वोट मिले थे और सीटें 21 मिली थीं। इस बार उसे सीटें मिली हैं 40 और उसका वोट शेयर 43.9 फ़ीसदी रहा। अर्थात् पिछली बार से 1.8 फ़ीसदी ज़्यादा मत मिले और सीटें 19 ज़्यादा। निर्दलीय दोनों बार 3-3 ही जीते। हिमाचल के चुनाव में कांगड़ा ज़िला हमेशा निर्णायक साबित होता रहा है और इस बार 15 में से 10 सीटें कांग्रेस को मिली हैं। पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का नाम चुनाव में ख़ूब भुनाया और आख़िर में उनकी फोटो के साथ एक पोस्टर भी जारी किया, जिसमें लिखा था- ‘मुझे भूल न जाना’। इसके मुक़ाबले भाजपा का नारा था- ‘रिवाज़ बदलेंगे।’ जनता को कांग्रेस का नारा ज़्यादा भाया, क्योंकि वीरभद्र सिंह का क़द इतना बड़ा था कि लोग उनके नाम से ही वोट देते थे। भाजपा ने सन् 2012 में मिशन रिपीट का नारा दिया था; लेकिन तब भी उसे कामयाबी नहीं मिली थी।
कांग्रेस ने जनता की नब्ज़ को समझते हुए वादे किये, जिनमें सबसे लुभावना था- ‘पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) लागू करना।’ हिमाचल में कॉरपोरेट (निजी क्षेत्र) नाममात्र का ही है और सरकारी कर्मचारी चुनाव में बहुत प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। कांग्रेस ने कहा कि उसकी सरकार आयी, तो पहली ही केबिनेट बैठक में इसे पास कर दिया जाएगा। उसका इसे लाभ मिला। इस चुनाव में कांग्रेस ने कांगड़ा, शिमला, सोलन, ऊना, हमीरपुर, और किनौर में लगभग एकतरफ़ा जीत हासिल की। दिवंगत वीरभद्र सिंह के गढ़ शिमला में कांग्रेस ने आठ में से सात सीटें जीत लीं। कांगड़ा में 15 में 10, धूमल के गढ़ हमीरपुर में पाँच में चार (एक कांग्रेस का बा$गी), सोलन में चार में चार, ऊना में चार में तीन, किन्नौर और लाहुल स्पीति में सभी एक-एक सीटों पर जीत हासिल की।
यहाँ दिलचस्प यह है कि कांग्रेस में जो मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे, उनके ज़िलों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा। जैसे शिमला में प्रतिभा सिंह, हमीरपुर में सुखविंदर सुक्खू, ऊना में मुकेश अग्निहोत्री, कांगड़ा में चौधरी चंद्र कुमार और सोलन में कर्नल (सेवानिवृत्त) धनी राम शांडिल मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे।
यदि आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के कारण भाजपा का गढ़ रहा हमीरपुर संसदीय क्षेत्र, जिसमें 17 सीटें हैं, जिन पर कभी भाजपा का दबदबा था। इस बार इन 17 सीटों में महज़ पाँच ही सीटें भाजपा को मिलीं। यहाँ दिलचस्प यह है कि धूमल के पुत्र और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के गृह क्षेत्र इसी लोकसभा सीट के तहत आते हैं। साफ़ है कि धूमल की लोकप्रियता का मुक़ाबला, न तो उनके बेटे अनुराग ठाकुर कर पाये हैं: न ही जे.पी. नड्डा।
धूमल न सिर्फ़ दो बार मुख्यमंत्री बने, दो बार लोकसभा के लिए भी चुने गये, जिसमें एक बार सर्वश्रेष्ठ सांसद का ख़िताब भी उन्हें मिला था। ज़ाहिर है धूमल की सक्रिय राजनीति का सूर्य अब अस्त हो गया है। पार्टी के कुछ और नेता, जिनमें रमेश ध्वाला भी शामिल हैं; अब शायद ही टिकट हासिल कर सकें। धूमल को लेकर यह ज़रूर कहा जाता है कि पार्टी उनकी सेवाओं को देखते हुए राज्यपाल बना सकती है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि धूमल हमेशा पार्टी के लिए वफ़ादार रहे और जब भी उन्हें चुनाव लडऩे को कहा गया, उन्होंने लोकसभा से लेकर विधानसभा तक पार्टी को जीत दिलायी।
पद की लड़ाई
कांग्रेस ने अच्छी-ख़ासी सीटों से चुनाव तो जीत लिया; लेकिन इसके बाद मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए पार्टी की ख़ासी छीछालेदर नेताओं ने करवा दी। एक मौक़े पर प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के समर्थक दिल्ली से भेजे गये आब्जर्वर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कार पर ही चढ़ गये। सुखविंदर सिंह सुक्खू, जो प्रतिभा की ही तरह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, 9 दिसंबर को शिमला में आलाकमान के दूतों की बुलायी बैठक में तय वक़्त से कई घंटे बाद पहुँचे। अपने समर्थक विधायकों को भी उन्होंने रोके रखा।
यह सब दबाव बनाने के लिए था, जिससे ऑब्जर्वर ख़फ़ा भी हुए। पार्टी दफ़्तर के बाहर इन दोनों के समर्थकों ने हंगामा अलग से किया। एक मौक़े पर प्रतिभा और सुक्खू समर्थक नारे लगाते हुए आपस में ही धक्का-मुक्की तक करने लगे। इन दोनों नेताओं के विपरीत पद के बड़े दावेदार मुकेश अग्निहोत्री शान्त रहे और टीवी चैनलों के सामने कोई दावा भी नहीं किया। अन्य दावेदारों हर्षवर्धन सिंह चौहान, चौधरी चंद्र कुमार, धनी राम शांडिल आदि ने भी कोई हंगामा नहीं किया।
सुक्खू अपने समर्थकों के कन्धे पर बैठकर कांग्रेस भवन पहुँचे, तो प्रतिभा के बेटे विक्रमादित्य सिंह के समर्थक भी उन्हें कन्धे पर बैठाकर ‘शेर आया, शेर आया’ के नारे लगाते हुए दफ़्तर पहुँचे। ‘शेर आया’ का यही नारा वह प्रतिभा सिंह के पति और विक्रमादित्य सिंह के पिता दिवंगत वीरभद्र सिंह के लिए भी लगाया करते थे। इस सारे हंगामे का यह असर हुआ कि 9 दिसंबर को कांग्रेस की बैठक कई घंटे बाद रात 9:00 बजे शुरू हो पायी। इससे आब्जर्वर भी ख़ासे नाराज़ दिखे। चुने विधायकों का फीडबैक लेने आये ऑब्जर्व प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ल, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा बेचैन दिखे।
शायद वह इस बात से हैरान थे कि क़ीमती जीत के बावजूद कुर्सी के लिए पार्टी नेता नेतृत्व की फ़ज़ीहत करवा रहे हैं। कांग्रेस में यह लड़ाई नयी नहीं थी, क्योंकि जनवरी, 2019 में जब सुखविंदर सिंह सुक्खू की जगह कुलदीप राठौर को आलाकमान ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया था, तब भी उनकी ताजपोशी के वक़्त पार्टी दफ़्तर में हिंसक प्रदर्शन हुआ था। सुक्खू और वीरभद्र सिंह समर्थकों में लात-घूँसे और कुर्सियाँ चली थीं। यहाँ तक की एक कार्यकर्ता इतना घायल हो गया कि उसे अस्पताल ले जाने की नौबत आ गयी थी।
विपक्ष की रणनीति
इन दो राज्यों के चुनावों के बाद विपक्षी दलों को अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी और तेज़ी से उस पर काम करना होगा, क्योंकि कुछ ही महीने के बाद 2024 का लोकसभा चुनाव उनके सिर पर आकर खड़ा हो जाएगा। आज की तारीख़ में कांग्रेस सक्रिय दिखने लगी है। भारत जोड़ो यात्रा से उसने काफ़ी कुछ हासिल किया है। इसमें सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि जिन जिन राज्यों से यात्रा गुज़री है, वहाँ कांग्रेस का कार्यकर्ता सक्रिय हो गया है। उसे उम्मीद बँधी है कि पार्टी कमाल कर सकती है। दक्षिण राज्यों के बाद राहुल गाँधी की यात्रा में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान में लोग बड़ी संख्या में जुड़ते दिखे हैं। राहुल गाँधी की यात्रा में शामिल हुईं हिमाचल कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘सच कहूँ, तो राहुल जी के प्रति जनता का प्यार देखकर मैं हैरान थी। लोग उन्हें देखने और सुनने के लिए उताबले थे, क्योंकि वह सिर्फ़ जान मुद्दों पर बात करते हैं। वह सरल हैं और कोई भी उनसे मिल सकता है। अपनी सहज बातों से वह किसी भी उम्र और लिंग के व्यक्ति को प्रभावित करते हैं।’
टीएमसी की नेता ममता बनर्जी हाल के महीनों में विपक्षी एकता के प्रति काफ़ी सक्रिय दिखी हैं। हालाँकि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के बाद उनकी सक्रियता घटी है। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि उनकी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा नहीं है। देश के कई क्षेत्रीय दलों के नेताओं से उनके व्यक्तिगत रिश्ते हैं और वह उन्हें समर्थन दे सकते हैं। कांग्रेस फ़िलहाल अपना जनाधार बढ़ानी की कोशिश में है। दक्षिण में उसने इसकी शुरुआत की है। यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर भारत में यात्रा के दौरान उनसे जुड़ रही जनता क्या वोट भी कांग्रेस को देती है।
सुक्खू बने मुख्यमंत्री, मुकेश उप मुख्यमंत्री
पिता सरकारी बस के चालक रहे और कॉलेज में पढ़ते हुए दूध बेचा। यही सुखविंदर सिंह सुक्खू अब मुख्यमंत्री बन गये हैं। राहुल गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, चुनाव रणनीति में बड़ी भूमिका निभाने वाली पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी की
उपस्थिति में 11 दिसंबर को सुक्खू ने उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री के साथ राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर से पद की शपथ ली। मुकेश का 20 साल पहले पत्रकार के रूप में दिल्ली में कांग्रेस की बीट करते हुए बड़े नेताओं से जो सम्बन्ध बना, वह उन्हें इस बार मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल कर गया। अफ़सरशाही पर मज़बूत पकड़ रखने वाले मुकेश इस सरकार में सबसे दबंग चेहरा होंगे, जबकि सुक्खू भी ज़मीन से यहाँ तक पहुँचे हैं और उनके सामने वित्तीय प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती होगी।
दिल्ली नगर निगम में ‘आप’
निगम चुनाव में जीत से बढ़ा केजरीवाल का रुतबा, मगर दिल्ली अभी दूर
दिल्ली में सफ़ाई से लेकर गलियों-सडक़ों तक का ज़िम्मा अब अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) पर है। नगर निगम चुनाव में भाजपा का 15 साल का शासन ख़त्म हुआ और केजरीवाल की पार्टी अब डबल इंजन के साथ दिल्ली के शासन में आ गयी है। विधानसभा में आप और नगर निगम में भी आप। ज़ाहिर है नगर निगम में आकर अब आप को जनता के काम करने होंगे, नहीं तो इसका नुक़सान उसे अगले विधानसभा चुनाव में झेलना पड़ सकता है, क्योंकि डबल इंजन की सरकार के साथ उस पर डबल ज़िम्मेदारी आ गयी है। उसे नगर निगम का भ्रष्टाचार ख़त्म करना होगा और उसकी मशीनरी को सक्रिय करना होगा।
नहीं भूलना चाहिए कि जनता ने निगम चुनाव में उन इलाक़ों में आप को भी वोट नहीं दिया, जहाँ उसके नेताओं पर शराब मामले में आरोप लगे या उन्हें जेल हुई है। आप को कचरे के पहाड़ से लेकर दिल्ली के गली-कूचों में सफ़ाई के साथ उसे वह सभी वादे पूरे करने होंगे, जो उसने निगम चुनाव में किये हैं। अब दिल्ली में साफ़ पानी और हवा और निर्वाध बिजली केजरीवाल की बड़ी ज़िम्मेदारी बन गयी है।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि आप के नेता के रूप में केजरीवाल वैसे ही भरोसेमंद नेता की तरह उभरे हैं, जैसे भाजपा में मोदी हैं। लेकिन यह साफ़ है कि आम आदमी पार्टी का लक्ष्य अब राष्ट्रीय फलक पर झंडा फहराना है। यह राह काफ़ी मुश्किल ज़रूर है, क्योंकि आप के पास देश के अधिकतर राज्य नहीं है और कई राज्यों में तो उसका वजूद तक नहीं है। यह कहा जा सकता है, दिल्ली जीतकर भी केजरीवाल के लिए दिल्ली अभी दूर है।
लेकिन एक सच यह भी है कि गुजरात में 12 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट लेकर आप अब राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने में भी सफल रही है। राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए आप को गुजरात या हिमाचल में छ: फ़ीसदी से ज़्यादा वोट लेने की ज़रूरत थी, और गुजरात में उसने 12.9 फ़ीसदी वोट लेकर यह दर्जा पा लिया। हिमाचल में आप के हाथ ज़रूर बड़ी निराशा लगी। इससे पहले आप के पास दिल्ली, पंजाब और गोवा में 6 फ़ीसदी वोट शेयर था। लिहाज़ा उसने चार राज्यों में छ: फ़ीसदी वोट होने की शर्त पूरी कर ली।
यह सच है कि केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाएँ हैं और उनकी पार्टी के नेता अकसर उन्हें कांग्रेस का विकल्प बताते हैं। जहाँ तक दिल्ली नगर निगम चुनाव की बात है, जिस तरह भाजपा ने इस चुनाव में नरेंद्र मोदी को एक ब्रांड के रूप में सामने रखकर चुनाव लड़ा, उसी तरह आप ने केजरीवाल को सामने रखा। हालाँकि दिलचस्प यह है कि केजरीवाल भले कांग्रेस का विकल्प बताते हों, वह ज़्यादा भाजपा की लाइन पर चलते दिखते हैं। गुजरात का चुनाव इसका सुबूत है, जहाँ केजरीवाल ने मुस्लिम वोट की जगह हिन्दू वोट पर फोकस रखा।
भाजपा की तरह आप भी व्यक्ति केंद्रित राजनीति की राह पर है और उसकी राजनीति के केंद्र में केजरीवाल हैं। दिल्ली नगर निगम चुनाव में भाजपा ने यह रिस्क लिया कि इस चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा आगे किया। लेकिन जनता ने मोदी के नाम के बावजूद भाजपा को जीत की देहरी से दूर रखा और दिल्ली सरकार पर क़ाबिज़ आप को अवसर देने का $फैसला किया।
दिल्ली नगर निगम चुनाव में यह पहली बार है, जब आम आदमी पार्टी ने भाजपा को किसी भी स्तर के चुनाव में हराया है। अभी तक आप ने सिर्फ़ कांग्रेस के ख़िलाफ़ लडक़र चुनाव जीते थे। दिल्ली से लेकर पंजाब तक उसने कांग्रेस को ही हराया। इस लिहाज़ से देखें, तो आप के लिए यह यह एक नयी शुरुआत है। आप ने अब अपने नेता अरविन्द केजरीवाल को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने करने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने इसे लेकर कहा- ‘हम तो बहुत छोटी पार्टी हैं। दिल्ली नगर निगम में भाजपा को हमने हरा दिया। भाजपा हमेशा कहती थी कि आप ने केवल कांग्रेस को हराया है। आज अरविंद केजरीवाल ने उन्हें जवाब दे दिया है।’
आम आदमी पार्टी को यह ख़याल रखना होगा कि उसकी छवि पर भ्रष्टाचार के दा$ग न लगें। निगम चुनाव में जिन इलाक़ों में आप के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप थे, वहाँ उसे जनता ने समर्थन नहीं दिया है। वहाँ भाजपा के लोग जीते हैं।
यह चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा सबक़ है कि बिना मैदान पर सक्रियता दिखाये चुनाव नहीं जीते जा सकते। ‘तहलका’ ने चुनाव के दौरान पाया कि बड़े नेता तो दूर, ख़ुद कांग्रेस के उम्मीदवार तक कई जगह जनता तक नहीं पहुँचे। कांग्रेस ने दिल्ली की राजनीति में जिंदा रहना है, तो उसे नयी शरुआत करनी होगी और जनता तक पहुँचना होगा, थाली में रखकर सत्ता की कल्पना करती रहेगी, तो कुछ भी हाथ नहीं आएगा।
निगम चुनाव में आप ने ‘केजरीवाल की सरकार, केजरीवाल का नगरसेवक’ का नारा दिया था। भाजपा ने अपना पसंदीदा मोदी के डबल इंजन का। लेकिन जनता ने सरकार के साथ जाना बेहतर समझा और इसका एक बड़ा कारण भाजपा के 15 साल के निगम राज से लोगों की नाराज़गी होना था। हालाँकि आप की जीत से केजरीवाल की चुनौती बढ़ेगी; क्योंकि निगम में नाकामी की क़ीमत उन्हें आने वाले विधानसभा चुनाव में झेलनी पड़ सकती है।
केजरीवाल को अब सरकार की योजनाओं के साथ-साथ निगम की बड़ी योजनाओं के लिए भी केंद्र सरकार से सहयोग लेना होगा। टकराव की राजनीति उनके लिए दि$क्क़त पैदा कर सकती है, क्योंकि दिल्ली के उप राज्यपाल के $फैसलों पर केंद्र की छाप रहती है। हाल के वर्षों में कई योजनों को लेकर केजरीवाल और उप राज्यपाल आमने-सामने खड़े दिखे हैं। यह आरोप हमेशा लगते रहे हैं कि केंद्र की भाजपा सरकार दिल्ली में उप राज्यपाल के ज़रिये मनमानी करती है।
वादे पूरे करने की चुनौती
केजरीवाल की सबसे बड़ी चुनौती दिल्ली को सुन्दर बनाने का उनका वादा है। देश की राजधानी होते हुए भी दिल्ली गंदगी के मामले में बड़ा उदाहरण है। ख़ाली प्लॉट कूड़े से भरे रहते हैं। लोगों को सफ़ाई की संस्कृति के प्रति जागरूक करना होगा। कूड़े के तीनों पहाड़ ख़त्म करने का वादा छोटा-वादा नहीं है। कूड़े का उपयोग बेहतर चीज़ के लिए करने की योजना बनानी होगी। नया लैंडफिल साइट नहीं बनने देना, कूड़े से निजात के लिए लंदन, पेरिस और टोक्यो से विशेषज्ञ बुलाने का वादा अच्छा है और केजरीवाल ऐसा कर पाये, तो दिल्ली की सूरत बदलने की क्षमता उनमें है। निगम को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना भी बड़ी चुनौती है। लोगों के काम बिना देरी और बिना पैसे हो सकें, यह बड़ी उपलब्धि होगी। नये भवनों और मकानों के नक्शों की प्रक्रिया को सरल करना और नक्शे पास करने की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन करना बड़ा परिवर्तन होगा। दिल्ली में पार्किंग बसी समस्या है, इसका स्थायी और व्यवहारिक समाधान निकालना होगा। सडक़ों पर घूमने वाले पशुओं से मुक्ति दिलाना, निगम की टूटी सडक़ों और गलियों को ठीक करना, निगम के तहत स्कूलों, अस्पतालों और डिस्पेंसरी को शानदार बनाना, सभी पार्कों को सुन्दर बनाना और पूरी दिल्ली को सुन्दर और साफ़-सुथरे पार्कों की नगरी बनाना लुभावना वादे हैं, पर इनके लिए काम करना होगा। और यह सब पाँच साल के भीतर करना होगा। कच्चे कर्मचारियों को पक्का करना, हर महीने की 7 तारीख़ से पहले कर्मचारियों के खाते में तन$ख्वाह डालना, लाइसेंस लेने की प्रक्रिया सरल और ऑनलाइन करना, कन्वर्जन और पार्किंग फीस के अलावा इंस्पेक्टर-राज ख़त्म करना भी वादों में शामिल है। इसके अलावा रेहड़ी-पटरी वालों के लिए वेंडिंग जोन बनाना, उन्हें लाइसेंस देना और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना भी केजरीवाल और आप की तरफ़ से किये गये अन्य वादे हैं।
“दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे निगेटिव पार्टी (भाजपा) को हराकर दिल्ली की जनता ने कट्टर ईमानदार और काम करने वाली आम आदमी पार्टी को जिताया है। हम उनका भरोसा टूटने नहीं देंगे। यह महज़ जीत नहीं है, बल्कि हम पर बड़ी ज़िम्मेदारी है।’’
अरविन्द केजरीवाल
मुख्यमंत्री, दिल्ली