चुनाव नहीं, तो प्रलोभन नहीं

राजनीति हिंसा और प्रलोभन से शून्य नहीं होती है। यह एक ऐसा पेशा है, जिसमें स्वार्थ के अलावा न कोई किसी स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। बल्कि स्वार्थ नहीं सध रहा हो, तो नेता जनता से भी सरोकार नहीं रखते। जनता को प्रलोभन नहीं देते। यही हाल मौज़ूदा समय में दिल्ली की सियासत में देखने को मिल रहा है। बताते चलें कि पाँच साल के अंतराल में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव सम्पन्न होते रहे हैं। इसी अन्तराल के क्रम में सन् 2017 के बाद सन् 2022 के अप्रैल महीने तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव सम्पन्न हो जाने चाहिए थे। लेकिन किसी भी हाल में सत्ता की भूखी एक बड़ी पार्टी ने सियासी दाँव चलकर चुनाव टलवा दिये।

दरअसल जनवरी, 2022 से ही दिल्ली में पोस्टर वार चल रहा था। चुनाव की तैयारी इस क़दर चरम पर थी कि पूरी दिल्ली में पोस्टर ही पोस्टर लगी दीवारें दिख रही थीं। सियासी दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे थे। कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के सम्भावित प्रत्याशियों ने चुनाव प्रचार तक शुरू कर दिया था। लेकिन जैसे ही चुनावों के टलने की बात सामने आयी, पोस्टर वार और प्रचार समाप्त हो गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मनोज त्यागी का कहना है कि मौज़ूदा समय में राजनीति का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है। दरअसल नेताओं के मन में यह धारणा स्थायी तौर पर बैठती जा रही है कि चुनाव पैसे के दम पर झूठा प्रचार-प्रसार करके, लोगों को लुभावने आश्वासन देकर जीता जा सकता है। ऐसे में अब नेता चुनाव के समय ही अपना प्रचार-प्रसार करते हैं। चुनाव नहीं, तो जनता से उनका सरोकार न के बराबर होता है। नेताओं को लगता है कि जब चुनाव आएँगे और टिकट मिलेगा, तभी वे जनता से सम्पर्क कर लेंगे। अन्यथा क्या लेना-देना। जहाँ तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव की बात है, तो वो टले हैं। अब आने वाले समय में 272 नहीं, बल्कि 250 सीटों पर चुनाव होना हैं। नये सिरे से परिसीमन होगा। परिसीमन में कौन-सी सीट महिला होगी? कौन-सी सीट आरक्षित होगी? किसी को पता नहीं है। सीट ही तय नहीं है, तो क्या करना है?

राजनीति विश्लेषक व चुनावी रणनीतिकार सुनील मिश्रा का कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक दल की राजनीतिक कार्यशैली अलग-अलग होती है। मौज़ूदा समय में पूरा चुनाव प्रबंधन पर आधारित होता है। ऐसे में ज़्यादातर राजनीतिक दल चुनाव के समय माहौल देखकर राजनीति करते हैं। लेकिन वे इसे मुद्दाविहीन मानकर कामचलाऊ राजनीति करते हैं। यही वजह है कि दिल्ली में नगर निगम के चुनाव टाले जाने के बाद पार्टियों के नेता दिल्ली में विकास की बात नहीं कर रहे हैं। इतना ज़रूर है कि सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए वे दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में हो रही हिंसा पर राजनीति कर रहे हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि उन्होंने तमाम छोटे चुनाव से लेकर विधानसभा का चुनाव तक लड़ा है। चुनाव में पराजय मिली है। लेकिन वह अनुभव से कहते हैं कि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसमें प्रत्यक्ष तौर पर विरोध करने वालों का कोई स्थान नहीं है। इसलिए अब झूठे आश्वासन और प्रलोभन की राजनीति हो रही है।

दिल्ली नगर निगम के चुनाव न होने के वजह से दिल्ली सहित पूरे देश में मौज़ूदा राजनीतिक माहौल पर नेता पोस्टर वार करने से बच रहे हैं। दरअसल नेता बिना चुनाव के चुनावी माहौल बनाने से बचते हैं। क्योंकि अब नेताओं में राजनीतिक विचारधारा का अभाव है। यही वजह है कि आज टिकट पाने के लिए नेता किसी भी दल से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। अगर उन्हें उनकी पसंदीदा पार्टी में टिकट नहीं मिलता, तो वे दूसरी पार्टी में जाने में देरी और परहेज़ नहीं करते।