कार्ल मार्क्स ने लिखा था – धर्म जनता की अफीम होता है। भाजपा ने धर्म की इस अफीम को अपनी राजनीति के लिए खूब इस्तेमाल किया है। तो क्या भाजपा अब देश को ”उग्र राष्ट्रवाद” की अफीम खिलाकर चुनाव की अपनी वैतरणी पार करने की तैयारी में है? ”मोदी है तो मुमकिन है” की टैगलाइन के साथ भाजपा केंद्रीकृत नेतृत्व की अवधारणा के साथ चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है क्योंकि शायद उसे लगता है कि विकास की जिस टैगलाइन के साथ वह २०१४ में बहुमत के साथ सत्ता में आई थी, वह विकास उसे इस बार चुनाव की उताल लहरों के पार नहीं ले जा पायेगा।
भले अति राष्ट्रवाद दुधारी तलवार की तरह है जो भाजपा और देश दोनों को चोटिल कर सकता है, लेकिन भाजपा इसकी तैयारी कर चुकी है। धर्म की राजनीति करके भाजपा सत्ता की सीढ़ियां तो खूब चढ़ी, लेकिन पहला बहुमत उसे २०१४ में शुद्ध रूप से विकास (उस चुनाव के समय इसे गुजरात मॉडल का नाम दिया गया था) के लिए वोट मांगने पर मिला। विकास माने रोजगार, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी, किसानों का बेहतर जीवन और युवा उम्मीदों को ऐसी उड़ान का वादा कि वे खुद को नई और आलोकिक दुनिया में खड़ा देख सकें।
यह बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि पीएम मोदी और उनके नेतृत्व वाली एनडीए सरकार धरातल पर देश की जनता को इस आलोकिक संसार की दहलीज तक भी पहुंचा पाई या नहीं। लाल किले से पीएम ने जिस ”नया भारत” की परिकल्पना भारतीय जनमानस के सामने रखी, क्या सचमुच वैसा ”नया भारत” हमारे सामने है?
इस नए भारत में विकास को क्यों ”उग्र राष्ट्रवाद” ने निगल लिया, इसका जवाब खोजना होगा। शायद भाजपा या उसके नेता इसका जवाब न भी दें। क्योंकि देते हैं तो उनसे यह सवाल ज़रूर पूछा जाएगा कि क्या देश ने विकास की वह अंतिम सीढ़ी चढ़ ली जो इसके बाद विकास के नाम पर करने के लिए कुछ और नहीं रह गया? यह भी कि क्या विकास की भी कोइ अंतिम सीढी होती है? यह भी कि क्या इस देश में अब कोइ भूखा नहीं रह गया? हर गाँव तक बिजली-पानी-सड़क पहुँच गयी? कोइ किसान अब आत्महत्या नहीं कर रहा? हर बच्चे को शिक्षा मिल रही है? राह चलती मां-बहन-बेटी-बहु की आबरू सुरक्षित है? और यह भी कि क्या यह मुद्दे राष्ट्रवाद नहीं हैं ?
सुना है भाजपा हाल की आतंकियों पर की कार्रवाई और भारत-पाक तनाव को ”चुनाव थीम” बनाना चाहती है। चर्चा है कि जाने-माने गीतकार-लेखक प्रसून जोशी उसके लिए ”चुनाव के गीत” लिखेंगे जिनमें ”मोदी है तो मुमकिन है” को आधार बनाकर आतंकवाद के खिलाफ पीएम मोदी को एक ”रॉबिनहुड” की तरह पेश किया जाएगा।
शायद इन गीतों में ”विकास और अच्छे दिन” की गाथा भी हो। लेकिन बहादुर रॉबिनहुड का एक और भी चेहरा इतिहास में माना जाता है जिसमें वह अमीरों से लूट करके गरीबों को बांटता था। आजके जमाने में इसे हम समाज की समानता के आर्थिक-सामाजिक रूप में देखें तो सवाल है कि क्या भाजपा पिछले पांच साल में ऐसी समानता समाज में बनाने में सफल हो पाई है?
भाजपा चुनाव से पहले ”युद्ध का उन्माद” पैदा करके २०१४ के जीत से पहले किये वादों और उन्हें पूरा न कर पाने के लांछन और चुनाव में उसके नुक्सान से भी बचना चाहती है। एक तरह से भाजपा इन मुद्दों को चुनाव में परदे के पीछे धकेल देना चाहती है। भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि ”उग्र राष्ट्रवाद” विशाल मुद्दे की तरह सामने कर देना ”विकास के मुद्दे” के मुकाबले जीत की ज्यादा ”गारंटी” देता है।
पुलवामा से पहले भाजपा चुनाव के कड़े मुकाबले में झूलती दिख रही थी। यहाँ तक कि एक अमेरिकन थिंक टैंक तक ने उसकी सीटें १८० के आसपास आने का अनुमान लगाया था। भाजपा ने १० प्रतिशत अगड़ा आरक्षण, बजट के जरिये इनकम टैक्स की स्लैब ५ लाख करने जैसे मध्यवर्ग को जीतने और किसानों के खाते में पैसे डालने वाले उपाए भी किये ताकि चुनाव में इसका लाभ मिल सके। लेकिन माना जाता है इसके बावजूद हवा भाजपा के पक्ष में आती नहीं दिख रही थी।
इसके बाद कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि देश में अचानक माहौल बदला। पहले पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों की शहादत हुई। इसके बाद भारतीय वायुसेना की पाक क्षेत्र में जाकर ”एयर स्ट्राइक” हुई और फिर पाकिस्तान के जहाज हमारे हिस्से में घुसे। सीमा पर उबाल आया।
बस इसी दौरान पीएम मोदी की भाषा बदली और भाजपा का एजेंडा भी। विपक्ष ने आरोप लगाया कि भाजपा सैनिकों की शहादत को चुनाव में भुनाने के लिए इस्तेमाल कर रही है। भाजपा ने इस आरोप को जवानों की शहादत के खिलाफ बता दिया। अब भाजपा खुलकर मैदान में है।
जितना विपक्ष भाजपा पर आरोप लगा रहा है भाजपा नेता इसे सेना और शहादत के खिलाफ बता रहे हैं। भाजपा को लगता है कि उसे चुनाव जिता सकने वाला मुद्दा मिल गया है। विपक्ष खासकर कांग्रेस पर ”देश के साथ गद्दारी करने” और ”पाकिस्तान से मिले होने” का आरोप लगाकर पीएम अपने कमोवेश हर भाषण में यह भी दावा कर रहे हैं कि ”देश को बचा सकने वाला ऐसा पराक्रम” सिर्फ उनके होने से संभव हुआ है। उनकी टैग लाइन है – ”मोदी है तो मुमकिन है”।
भाजपा और खुद मोदी अपने भाषणों में लोगों के बीच इस भय को पैदा कर रहे हैं कि कांग्रेस आई तो वह देश को नहीं बचा पाएगी इसके लिए उनका (मोदी) दुबारा सत्ता में आना बहुत ज़रूरी है। अब कांग्रेस नेता लाख कहें कि बहुत विपरीत परिस्थितियों और अमेरिका के बहुत कड़े विरोध के बावजूद इंदिरा गांधी ने १९७१ में पाकिस्तान से पूरा युद्ध करके और बांग्लादेश बनवाकर देश की सबसे बड़ी जंग जीती थी, भाजपा को लगता है कि आजकी पीढ़ी ४८ साल पहले के उस युद्ध के मुकाबले वर्तमान की ”सर्जिकल स्ट्राइक” को स्मरण रखकर उसे वोट देगी।
सीमा पर तनाव और उसके बाद की घटनाओं को भाजपा ”उग्र राष्ट्रवाद” के रूप में उभरने देना चाहती है। पीएम मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और सभी पार्टी नेता इस ”उग्र राष्ट्रवाद” को हवा दे रहे हैं। अगला चुनाव भाजपा के लिए युद्ध जैसा है। राजनीति अचानक युद्ध के रूप में बदल गयी है। भाजपा किसी भी सूरत में यह चुनाव जीतना चाहती है।
चुनाव हारने की स्थिति में भाजपा के सामने गंभीर खतरे खड़े होने का भय है। इनमें सबसे बड़ा है ब्रांड मोदी का करिश्मा ख़त्म होने का। भाजपा ने इन पांच सालों में सबकुछ मोदी के आसपास समेट दिया है। उनके भाजपा को चुनाव न जिता सकने के मायने होंगे एक और मोदी की तलाश में जुट जाना। दूसरे भाजपा के बहुत नेता मानते हैं कि गैर भाजपा सरकार (या कांग्रेस सरकार) आई तो पिछले पांच साल के कुछ लेखे-जोखे, जिनमें राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद भी शामिल है, पर वह भाजपा की मिट्टी पलीत करवा सकती है।
पीएम अपनी जनसभाओं में ”मैं देश नहीं मिटने दूंगा” जैसी कवितामयी भाषा गढ़ने लगे हैं। उनकी यह ”रार” भले चुनाव को लक्ष्य करके हो, पार्टी के नेताओं और उनके समर्थकों को खूब भाने लगी है। वे चुनाव तक इस गति को बनाये रख सकेंगे या नहीं, अभी कहना मुश्किल है। साल १९९९ में कारगिल की विजय गाथा भी भाजपा को चुनाव में लाभ नहीं दे पाई थी। चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी को 182 सीटें ही मिलीं। यह 1998 लोकसभा चुनावों के सीट संख्या के बराबर थी। हाँ, उसके वोट प्रतिशत में 1.84 फीसदी की वृद्धि जरूर हुई।
हाल की तमाम घटनाओं के बीच एक और पक्ष भी है। जनता का एक बड़ा वर्ग आतंकवाद के खिलाफ मजबूत ऐक्शन तो चाहता है लेकिन वह युद्ध का समर्थन भी नहीं करता। देश आर्थिक रूप से जहाँ हैं, बेरोजगारी की जो हालत है उसमें एक युद्ध के मायने होंगे देश को ५० साल पीछे धकेल देना। हज़ारों-हज़ार लोगों को मौत के मुंह में झोंक देना और बेरोजगारी की एक बहुत गहरी खाई खोद देना।
बहुत लोग यह भी सवाल करते हैं कि पुलवामा जैसी त्रासद घटना सुरक्षा तंत्र की नाकामी का भी सबूत है। भाजपा इस नाकामी को स्वीकार नहीं करती। वह घटनाओं को अपने पक्ष में भुनाने के लिए राष्ट्रवाद को ढाल बना लेती है ताकि सुरक्षा की नाकामियां और कश्मीर की बिगड़ी हालत लोगों की नजर से ओझल रहे। आखिर सूचना होने के बावजूद ४० जवानों की बेशकीमती जिंदगियां गँवा देना सरकार की नाकामी तो है ही।
कारगिल भी सरकार और सुरक्षा की ऐसी ही चूक का नतीजा था। लोगों ने इसे उसी रूप में समझा भी था इसलिए इसके बाद हुए चुनाव में भाजपा १८४ की १८४ सीटों पर ही अटकी रही थी। करगिल युद्ध के बाद के चुनाव में उत्तर प्रदेश में तो भाजपा का प्रतिशत 9 फीसदी घट गया गया था। साल 1998 के चुनाव में भाजपा को 57 लोकसभा सीटें मिली थीं लेकिन कारगिल के बाद के चुनाव में यह घटकर 29 रह गईं।
बहुत लोग मानते हैं कि पुलवामा भी सरकार की सुरक्षा की नाकामी का नतीजा था। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बालाकोट की एयर स्ट्राइक के टारगेट को लेकर जैसे प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं, वह भी भाजपा को बिचलित करते रहे हैं। इसके अलावा इस तनाव से सीमा पर लाखों लोग प्रभावित हुए हैं। उनकी खेती चौपट हो गयी है और स्कूल-अस्पताल बंद हो गए हैं। उन्हें रिफ्यूजी कैम्पों में रहना पड़ रहा है।
सीमा पर रहने वाले यह लोग कभी भी सीमा पर तनाव के हक़ में नहीं रहते। उन्होंने पिछले सालों में बहुत कुछ खोया है। गरजती गोलियां इन लोगों को सिर्फ जख्म देती हैं। अखनूर सेक्टर के पलांवाला के अशोक कहते हैं – ”जो नेता युद्ध-युद्ध करते रहते हैं उन्हें अपने बच्चों को सेना में भेजना चाहिए तब पता चलेगा युद्ध क्या होता है। या फिर कुछ महीने के लिए हमारे पास सीमा के गाँवों में छोड़ देना चाहिए ताकि वे जान सकें गोली किस चिड़िया का नाम है।”
अब चुनाव को ज्यादा वक्त नहीं है। देखना है भाजपा की उग्र राष्ट्रवाद को भुनाने की इस कोशिश का उसे क्या सच में फायदा मिल पाता है। क्या भाजपा और इसके चुनाव रणनीतिकारों ने देश की जनता की नब्ज को सही पकड़ा है या वो कोइ बड़ी भूल कर बैठे हैं। इसका पता नतीजे आने पर ही चलेगा। देश की जनता पहले भी चुनाव गणितज्ञों को अपने फैसलों से चौंका चुकी है। क्या इस बार भी किसी के चौंकने की बारी है ?