लोकसभा चुनाव की रोशनी में उत्तराखंड के राजनीतिक भविष्य को लेकर दो मुख्य सवाल हवा में तैर रहे हैं. पहला, चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस का क्या होगा? दूसरा, चुनाव के बाद सूबे की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा? कांग्रेस की निगाहें मुख्यमंत्री हरीश रावत पर हैं. रावत दोहरे दबाव में हैं. वे ठीक ऐसे वक्त में चुनाव का सामना कर रहे हैं जब उन्हें चारधाम यात्रा शुरू होने से पहले सड़कों का निर्माण कराने का वादा भी पूरा करना है. दोनों ही चुनौतियां साथ-साथ कदमताल कर रही हैं. दो मई से चार धाम यात्रा शुरू होनी है और सात मई को सूबे में मतदान होना है. इसलिए मुख्यमंत्री को भी दोनों ही मोर्चों पर बराबर कदमताल करनी पड़ रही है. आपदा से अंदर ही अंदर सुलग रही नाराजगी कांग्रेस की बड़ी चिंता का कारण मानी जा रही है. प्रत्याशी उतारे जाने से पूर्व रावत पहले चरण का प्रचार करके लौटे हैं. वे करीब 20 से ज्यादा चुनावी सभाएं कर चुके हैं. उनके चेहरे पर पसरी चिंता बता रही है कि आपदा प्रभावित इलाकों की रिपोर्ट सही नहीं है. अपनी इस चिंता और खीझ को वे छुपा नहीं पा रहे हैं. इसीलिए उनकी नाराजगी मीडिया के लोगों पर फूट रही है. 16 अप्रैल को मुख्यमंत्री बीजापुर गेस्ट हाउस स्थित अपने अस्थायी आवास पर जब मीडियाकर्मियों से मुखातिब हुए तो उनके तेवरों से साफ जाहिर हो रहा था कि आपदाग्रस्त इलाकों की रिपोर्टिंग को लेकर वे नाखुश हैं. तीखी से तीखी बात को नरमी से और द्विअर्थी संवादों में कह जाने वाले हरीश रावत बोले, ‘डेंजर और सेंसेटिव में फर्क करना जानिए. मैं ब्लंट नहीं हूं. क्या मुझे ब्लंट होना पड़ेगा.’
मुख्यमंत्री की यह चिंता क्या वाकई चारधाम यात्रा को लेकर है? या फिर चुनाव में आपदा से उपजे हालात ने उन्हें बेचैन कर दिया है? माजरा जो भी हो, लेकिन कांग्रेस को यह भय तो सता ही रहा है कि पिछले बरस आई प्राकृतिक आपदा कहीं राजनैतिक आपदा में न बदल जाए. तमाम उपायों के बावजूद आपदा के घावों से रिसता दर्द सरकार और पार्टी दोनों का संकट बना है. ये लोक सभा चुनाव रावत के लिए अग्निपरीक्षा सरीखे हैं. सूबे की पांच लोक सभा सीटों में से दो पर उनकी प्रतिष्ठा सीधे-सीधे दांव पर लगी है. वे हरिद्वार से सांसद हैं. इस सीट पर उनकी पत्नी रेणुका रावत चुनाव लड़ रही हैं. उन्हें चुनाव में हरीश रावत का बोया काटना हैं. ये चुनाव रेणुका की हार या जीत ही नहीं केंद्रीय मंत्री और सांसद के तौर पर हरीश रावत के कामकाज का जनादेश भी होगा. उधर, अल्मोड़ा उनकी जन्म भूमि है. इस सीट पर वे चार मर्तबा सांसद रह चुके हैं. इस लिहाज से उन पर इस सीट से कांग्रेस को जिताने का भी दबाव है. अल्मोड़ा से उनके सिपहसालार और मौजूदा सांसद प्रदीप टम्टा मैदान में हैं.
हालांकि रावत कह चुके हैं कि उन पर पांचों सीटें जिताने का जिम्मा है. लेकिन हरिद्वार और अल्मोड़ा को उनके राजनीतिक भविष्य से जोड़कर देखा जा रहा है. इस बात का इल्म शायद उनको भी है. तमाम मौकों पर वह संकेत कर चुके हैं कि लोकसभा चुनाव के नतीजे सूबे का भावी भविष्य तय करेंगे. दरअसल, नतीजों की उम्मीद में ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें उत्तराखंड की कमान सौंपी है. रावत के जेहन में भी कांग्रेस के युवराज की यह हिदायत ‘नसीहत नहीं नतीजे’ हर पल तैर रही होगी. यही वजह है कि मुख्यमंत्री बनने के दिन से उन्हें दम लेने का समय नहीं है. आचार संहिता लागू होने से पहले तक वे लोक लुभावन घोषणाओं में जुटे रहे और अब उन्हें चुनावी दौरों से फुरसत नहीं मिल रही.
उनकी इसी तेजी ने खुद को ‘कम्फर्ट जोन’ में मान रही भाजपा को ‘एक्टिव मोड’ में ला दिया है. सूबे में नेतृत्व परिवर्तन की कवायद से पहले पार्टी पांचों सीटें अपनी जेब में मानकर चल रही थी. लेकिन अब उसे अपनी रणनीति में बदलाव करने पड़ रहे हैं. उसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव में उसने तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को उतार दिया है. गढ़वाल सीट पर मेजर जनरल(सेनि) बीसी खंडूड़ी मैदान में हैं. हरिद्वार में रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और नैनीताल से भगत सिंह कोश्यारी.
गढ़वाल खंडूड़ी की पारंपरिक सीट है. कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित होने तक भाजपा यहां जीत पक्की मानकर चल रही थी. लेकिन उसके अपने ही सिपाही और मौजूदा सांसद सतपाल महाराज ने उसे झटका दे दिया. महाराज ने पहले तो समर में उतरने से मना कर दिया था, लेकिन जब पार्टी ने दबाव बनाया तो वे भाजपा के चुनावी रथ पर सवार हो गए. महाराज के साथ आने से भाजपा का उत्साह स्वाभाविक है. गढ़वाल सीट पर महाराज का असर है. इस संसदीय क्षेत्र के 14 विधायकों में से 10 सीधे-सीधे महाराज कैंप के माने जाते हैं. इनमें एक महाराज की धर्मपत्नी अमृता रावत भी हैं. महाराज के पार्टी छोड़ने के बाद ये सभी बेशक कांग्रेस में अपनी निष्ठा जता चुके हैं, मगर जानकार मानते हैं कि चुनाव में कुछ भी हो सकता है.
उधर, महाराज की विदाई के बाद कांग्रेस कई दिनों तक किंकर्तव्यविमूढ़ रही. जब तक कांग्रेस ने इस सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारा, भाजपा खंडूड़ी की एकतरफा जीत को लेकर आश्वस्त थी. पार्टी नेता दम भरते दिखे कि वे जनरल की जीत का नहीं बल्कि जीत की ‘लीड’ का हिसाब लगा रहे हैं. मगर कांग्रेस ने अपने पत्ते खोले तो अब भाजपा में हलचल शुरू हो गई है. पूर्व सैन्य अफसर की टक्कर में कांग्रेस ने सैनिक कल्याण मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत को मैदान में उतारा है. छवि और धाक के मामले में हरक जनरल के आस-पास भी न हों, पर जोड़तोड़ की राजनीति के वे खिलाड़ी हैं. 2012 में वे रूद्रप्रयाग विधान सभा से चुनाव जीतकर इसका नमूना पेश कर चुके हैं. तब वे डोईवाला से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस की खेमेबाजी के चलते उन्हें ऐन चुनाव से पहले रूद्रप्रयाग का टिकट थमा दिया गया था. तब भी हरक चुनाव जीत गए. माना जा रहा है कि यह चुनाव हरक के लिए संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा है. जानकारों के मुताबिक उनके मन में ये कसक हमेशा रही है कि गढ़वाल में वे ठाकुर नेताओं के एक क्षत्रप के तौर पर पहचाने जाएं. महाराज के रहते ये मुमकिन नहीं था. लेकिन अब यह ‘चांस’ बन रहा है. हरक समर्थकों का मानना है कि चुनाव में अगर वे कोई करिश्मा कर गए तो क्षत्रप के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. इसीलिए वे समर में खंडूड़ी को ‘वाक ओवर’ देने के कतई मूड में नहीं हैं. उन्होंने सैन्य बहुल इस सीट पर मेजर जनरल की टक्कर में दो-दो जनरलों को अपने साथ ले लिया है. एक दौर में महाराज और खंडूड़ी के खासमखास रहे लेफ्टिनेंट जनरल टीपीएस रावत हरक के साथ खड़े हैं. दो महीने आम आदमी पार्टी में रहने के बाद वे खंडूड़ी को हराने के लिए कांग्रेस में शामिल हुए हैं. उनके साथ लेफ्टिनेंट जनरल गंभीर सिंह नेगी भी हैं जिन्हें गढ़वाल सीट पर उतारने का इरादा पार्टी ने अंतिम क्षणों में बदल दिया था. हरक ने भाजपा के तीन पूर्व विधायकों, केदार सिंह फोनिया, अनिल नौटियाल और जीएल शाह को भी अपने साथ मिला लिया है. भाजपा से निष्कासित ये तीनों नाम खंडूड़ी विरोधी खेमे के हैं.
मगर भाजपा की मानें तो यह सारी जोड़तोड़ लीड के अंतर को तो कम कर सकती है, लेकिन कांग्रेस की तयशुदा हार को नहीं बदल सकती. भाजपा प्रवक्ता प्रकाश सुमन ध्यानी कहते हैं,‘ कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद कांग्रेस है. वह पहले अपनी अंतर्कलह से ही निपट ले. उत्तराखंड का इतिहास राष्ट्रीय धारा में बहने का रहा है. समूचे राष्ट्र में मोदी लहर चल रही है. इस आंधी से कांग्रेस को कोई नहीं बचा सकता.’
साफ है कि इन चुनाव को भाजपा मोदी लहर पर केंद्रित कर देना चाहती है. मगर मोदी लहर के असर को कांग्रेस मानने को तैयार नहीं. मुख्यमंत्री हरीश रावत कहते हैं,‘उत्तराखंड में सिर्फ विकास की लहर है. जनता तरक्की चाहती है. सुनियोजित तरीके से जनता का ध्यान मुद्दों से हटाकर व्यक्ति विशेष पर केंद्रित करने की नाकाम कोशिश हो रही है.’
दो चिर प्रतिद्वंदी दलों के बीच सिमटी इस चुनावी जंग में तीसरे विकल्प के तौर पर आम आदमी पार्टी, यूकेडी व वामपंथियों का साझा मोर्चा अपनी-अपनी सामर्थ्य के हिसाब से मैदान में है. मगर उनसे दिल्ली सरीखे करिश्मे की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में है और हर सीट पर दोनों दलों की अलग-अलग चुनौतियां हैं. नेतृत्व परिवर्तन के बाद विजय बहुगुणा और हरीश रावत की भूमिकाएं बदल जाने के बाद इसका असर टिहरी सीट पर पड़ सकता है. जहां खड़े होकर रावत कभी बहुगुणा पर निशाने साधते थे, वहां आज बहुगुणा हैं. रावत चाहते थे कि टिहरी सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा चुनाव लड़ें, लेकिन बहुगुणा ने पत्नी की बीमारी का बहाना बना दिया. वे अपने बेटे साकेत के लिए टिकट के जुगाड़ में लगे रहे. बेटे का टिकट फाइनल होने के बाद बहुगुणा देहरादून में डेरा डाल चुके हैं. उपचुनाव में हार के बाद साकेत टिहरी सीट पर खासे सक्रिय रहे हैं, लेकिन सत्ता से पिता की विदाई के बाद उनके लिए टिहरी का समर आसान नहीं रह गया है जहां भाजपा ने शाही परिवार की माला राज्यलक्ष्मी शाह को फिर से मैदान में उतारा है.
तीर्थनगरी हरिद्वार में मुख्यमंत्री की पत्नी रेणुका और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के मैदान में होने से हरिद्वार हॉट सीट बन गई है. निशंक अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं. वे कहते हैं,‘मैंने क्षेत्र में काम किया है. मुस्लिम समुदाय में भी मुझे समर्थन मिल रहा है. मेरे पक्ष में लहर नहीं जुनून है.’
मगर हरिद्वार के चुनावी समीकरण काफी उलझे हुए हैं. इस सीट पर मुस्लिम व दलित वोटों की तादाद 35 फीसदी से भी अधिक है. इस वोट बैंक पर बसपा की नजर है. बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी हाजी इस्लाम को उतारा है. बसपा जितना बेहतर प्रदर्शन करेगी, उसका सियासी नुकसान कांग्रेस को होगा. यही वजह है कि कांग्रेस का भी पूरा फोकस इसी वोट बैंक पर है. निशंक के लिए सबसे बड़ी चुनौती भितरघात को ‘मैनेज’ करने की भी है. उनकी घेराबंदी के लिए कांग्रेस त्रिपाठी अयोग की जांच रिपोर्ट का जिन्न बोतल से बाहर निकाल सकती है. मुख्यमंत्री इसका संकेत कर चुके हैं. फिलहाल पार्टी में बहुचर्चित महाकुंभ और स्टर्डिया घोटाले का ब्रहमास्त्र छोड़ने के सियासी नफे-नुकसान को लेकर मंथन चल रहा है.
नैनीताल और अल्मोड़ा (सुरक्षित) में भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही माना जा रहा है. नैनीताल में कांग्रेस ने दो बार के सांसद केसी सिंह बाबा पर फिर से दांव खेला है. भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी उनके सामने हैं. अल्मोड़ा में भाजपा के अजय टम्टा और निवर्तमान सांसद प्रदीप टम्टा के बीच मुकाबला है. सारे क्षत्रपों के मैदान में होने से युद्ध में अकेले पड़े टम्टा मोदी लहर के सहारे चुनावी वैतरणी पार कर लेना चाहते हैं.
भाजपा की निगाह लोक सभा चुनाव के बाद के हालात पर भी लगी है. ये चुनाव सूबे में राजनीतिक आपदा की आहट भी दे रहे हैं. जानकारों का मानना है कि दिल्ली में तख्ता पलटा तो उसकी आंच उत्तराखंड पर आएगी. सहयोगियों के समर्थन पर टिकी रावत सरकार की यही सबसे बड़ी बेचैनी है.