अक्सर यह होता है कि जब किसी पार्टी की सरकार बन जाती है, तो उस पार्टी के कर्ता-धर्ता चुनावी वादों को भूल जाते हैं। और जब अगले चुनाव आते हैं, तब वे फिर से नये वादे करके मैदान में उतरते हैं। जनता की भूल यह होती है कि विकास की जिस आस के चलते वह जिस पार्टी को चुनकर सत्ता में लाती है, सरकार बनते ही वह जिस तरह अपने वादे भूल जाती है, जनता भी उसी तरह उनके वादे भूल जाती है। बिहार की भी हालत कुछ ऐसी ही है। यहाँ जदयू और एनडीए गठबंधन वाली वर्तमान राज्य सरकार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उर्फ सुशासन बाबू के अनेक वादे आधे-अधूरे पड़े हैं और अब वह सब कुछ भूल-भालकर चुनावी तैयारियों में इस तरह मशगूल हो चुके हैं कि उन्हें पुराने अधूरे पड़े कार्यों को पूरा कराने की भी सुध नहीं है। वह अब जनता से फिर से नये वादे कर रहे हैं और नयी-नयी लुभावनी योजनाओं के सपने दिखाने की कोशिशें कर रहे हैं। वर्तमान सरकार में उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी को तो जैसे बिहार के विकास कार्यों से कोई मतलब ही नहीं है, अतएव वह चुपचाप राज्य की सत्ता की दूसरे नंबर की कुर्सी पर बैठे आनंद से अपना समय गुज़ारते रहे और अब वह भी चुनावी रण में व्यस्त होने लगे हैं। हालाँकि उन्हें पार्टी की जीत के लिए बहुत अधिक मेहनत-मशक्कत करने की ज़रूरत शायद नहीं है। क्योंकि भाजपा बिहार के विधानसभा चुनाव को इस बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से लड़ सकती है, जिसके वाहक अमित शाह होंगे; ऐसा अनुमान है। हालाँकि पिछले दिनों उनके बीमार होने पर इसमें संदेह जताया जा रहा था और माना जा रहा था कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी बिहार के चुनाव प्रचार की कमान सँभालेंगे। लेकिन हाल ही में सीटों के बँटवारे में अमित शाह की दखल से मालूम होता है कि बिहार में भाजपा चुनाव भले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े, पर उसके मुख्य प्रचारक अमित शाह ही हैं। वैसे अब तो उन्हें बहुत ज़्यादा दौडऩे और धूप में कई किलोमीटर की रैली करके खड़े होकर हाथ हिलाते रहने की भी ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अब केवल वर्चुअल रैली ही हो सकेगी। क्योंकि यह विश्व में महामारी के बीच पहला बड़ा चुनाव है, इसलिए इसमें पूरा अहतियात बरतने के दिशा-निर्देश चुनाव आयोग द्वारा जारी किये जा चुके हैं। इन दिशा-निर्देशों में पहला रैलियों पर रोक है। दूसरा निर्देश है कि किसी भी पार्टी के पाँच से अधिक कार्यकर्ता एक साथ घूमकर वोट नहीं माँगेंगे।
बिहार की जनता की नाराज़गी की बात करें, तो वर्तमान सरकार से राज्य के अधिकतर लोग खुश नहीं हैं। हाल ही में एक सर्वे में भी यह बात सामने आ चुकी है। सवाल यह है कि आखिर बिहार के अधिकतर लोग वर्तमान सरकार से क्यों खुश नहीं हैं? इसके कई कारण गिनाये जा सकते हैं; लेकिन प्रमुख कारण है- बिहार का विकास नहीं होना। आज भी बिहार में बाढ़ में उसी तरह गाँव-के-गाँव डूब जाते हैं, जिस तरह दशकों पहले डूब जाया करते थे। हालाँकि इसका दोष किसी एक सरकार को नहीं दिया जा सकता; लेकिन चूँकि अधिकतर सरकारें इस बात का वादा करती हैं कि बिहार में बाढ़ से अब कोई गाँव नहीं डूबेगा, इसलिए बाढ़ खत्म होने के साथ-साथ लोग भी भूल जाते हैं और सरकार भी। लेकिन इसके अलावा अगर नीतीश के मुख्यमंत्रित्वकाल के अन्य विकास के वादों पर गौर करें, तो पता चलता है कि उनकी सात निश्चय योजना भ्रष्टाचार की भेट चढ़ गयी और कुछ आधी-अधूरी रह गयी। पहले बता दें कि नीतीश कुमार की इसमें पूरी गलती नहीं है। दरअसल प्रशासनिक और ग्राम पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचर इस हद तक हावी है कि अगर किसी योजना का पैसा ऊपर से रिलीज कर भी दिया जाता है, तो नीचे ज़रूरतमंद तक मदद आते-आते उस पैसे का बंदरबाँट हो जाता है। इसके कई उदाहरण हैं। इससे पहले यह जानना ज़रूरी है कि बिहार सरकार की सात निश्चय योजना क्या थी? इस योजना में सात कार्यों को पूरा करने का वादा था। इसमें नल-जल योजना थी, जिसके अंतर्गत हर घर में नल लगाने का नीतीश कुमार की मिली-जुली सरकार का वादा था। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहती है। समस्तीपुर के रहने वाले दीपेश कुमार बताते हैं कि नल गरीबों के यहाँ नहीं लगे, अमीरों के यहाँ लग गये। गरीबों को थोड़ा-बहुत पैसा देकर टाल दिया गया। वहीं कई लोगों को अभी भी नल लगने का इंतज़ार है। इसी तरह अररिया में तो नल-जल योजना ज़ीरो पर है। यहाँ कोई नल ही नहीं लगा, ऐसा वहाँ के एक निवासी ने बताया। सात निश्चय योजना के ही अंतर्गत मुख्यमंत्री सडक़ योजना भी थी, जिसकी हकीकत तब खुल गयी, जब उद्घाटन होने के कुछ ही दिन बाद एक पुल ढह गया। बिहार के विपक्षी दलों के लोगों की बात अगर न भी मानें, तो भी जनता में जाकर इस बात का साफ पता चलता है कि नीतीश सरकार में बनने वाली कई सडक़ों की तो शुरुआत भी नहीं हो सकी है और पाँच साल बीत गये। इसके अलावा जननी योजना, कबीर अंत्येष्टि योजना भी इसी में हैं, जिनमें पहली में महिलाओं के माँ बनने के दौरान उन्हें सरकारी सुविधाएँ मुहैया कराये जाने के वादे को पलीता लगता दिखा। वहीं कबीर अंत्येष्टि योजना उन लोगों के लिए थी, जिनके मरने पर उनके परिवार की अंतिम संस्कार की सामथ्र्य नहीं है; लेकिन बहुत-से गरीबों के मरने पर उनके परिजनों को इसका लाभ नहीं मिला। इसी तरह हमारा गाँव हमारी योजना भी ठंडे बस्ते में पड़ी है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बिहार के लाखों घरों में अभी तक शौचालय नहीं बने हैं। सबसे मज़े की बात तो यह है कि बहुत-से घरों में शौचालय पहले से थे। उन्होंने अधिकारियों-कर्मचारियों से साठ-गांठ करके रिश्वत देकर शौचालय का पैसा ले लिया। अररिया के एक व्यक्ति ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि मिलीभगत और भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से एक ही शौचालय के अलग-अलग एंगल से फोटो खींचकर जमा करके तीन-तीन परिवारों ने पैसे लिये हैं। ज़रूरतमंदों को 8,000 रुपये मिलने पर सौदा तय होता है और उसके नाम पर पैसा लिया जाता है। वहीं कई लोगों ने दो-दो शौचालय भी बनवा लिये हैं और किसी-किसी को कुछ भी नहीं मिल सका है। यही हाल प्रधानमंत्री आवास योजना का है। अररिया के इस व्यक्ति ने बताया कि यहाँ जिनके पास ठीक-ठाक ज़मीन है, अच्छा मकान है, उन्हें भी मकान का पैसा दिलाया गया है और जो वाकई गरीब हैं, जिनके पास न ज़मीन है और न मकान, उन्हें कुछ नहीं मिल सका है।
इस बार नीतीश ने वादा किया है कि जिन लोगों को पहले इंदिरा आवास अलॉट हो चुके हैं और उनका कार्य अधूरा पड़ा है, उनको पूरा करवाने के लिए 50-50 हजार रुपये दिये जाएँगे। मुख्यमंत्री ने कहा है कि 1 अप्रैल, 2010 के पहले इंदिरा आवास योजना के उन लाभार्थियों को जिनका आवास अधूरा रह गया है, राज्य सरकार 50-50 हजार रुपये देगी; ताकि आवास का निर्माण पूरा हो सके। इसके साथ-साथ मुख्यमंत्री ने कुछ कार्यों में तेज़ी लाने की भी बात कही है। सवाल यह है कि अब जब चुनाव में एक महीना भी नहीं बचा है, इतने कम समय में कितना काम हो सकेगा? किसे लाभ मिलेगा और किसे नहीं?
लघु उद्योग लगाने में हो रही देरी
विदित हो कि मौज़ूदा सरकार ने नव प्रवर्तन योजना के तहत राज्य के 38 ज़िलों में 189 लघु उद्योग लगाने को कहा था। चुनाव सिर पर आ गये, लेकिन यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी। हालाँकि सरकार ने इसका खाका खींच रखा है और लघु उद्योग की इस योजना को लेकर तमाम बड़ी-बड़ी बातें, बड़े-बड़े वादे भी कर डाले या कहें कि काम की तलाश में दूसरे राज्यों में जाने वाले लोगों को एक प्रकार का सपना दिखा दिया। वैसे नीतीश कुमार की गठबंधन वाली सरकार की पिछले दिनों की रिपोर्ट देखें, तो उसमें साफ कहा गया है कि बिहार के हर ज़िले में छोटे उद्योग खोले जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। इन्हें ज़िला औद्योगिक नव प्रवर्तन योजना के तहत खोला जा रहा है। इसके लिए सरकार ने सभी ज़िलों को 50-50 लाख रुपये दिये थे। पिछले दिनों सामने आयी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, सभी 38 ज़िलों में अभी तक 189 छोटे उद्योग चिह्नित हो चुके हैं। बेगूसराय और कैमूर में तो चार जगह काम शुरू होने का दावा भी उद्योग विभाग ने किया था। लेकिन अगर ज़मीनी हकीकत यानी लोगों से पता किया जाए, तो पता चलता है कि कुछेक जगह उद्योग लगने की बात हुई थी; हो सकता है कि कुछ जगह काम भी शुरू हुआ हो, पर उनमें अधिकतर जगह काम अधूरे पड़े हैं और कई जगहों पर तो कोई भी काम नहीं हो सका है। हालाँकि फिलहाल सरकार इस योजना पर चुप्पी साधे हुए है। सरकार ने पिछले दिनों यह भी दावा किया था कि इस योजना के तहत हर ज़िला पदाधिकारी को सूक्ष्म इकाइयाँ स्थापित कराने को 50 लाख की नव प्रवर्तन निधि दी गयी है। इसके लिए ज़िला स्तर पर प्रवासी श्रमिकों या कुशल कारीगरों के समूह भी बनाये गये थे। बताया जा रहा है कि लघु उद्योग योजना के तहत सिलाई केंद्र, पेपर ब्लॉक उपकरण, हस्तकरघा बुनाई केंद्र, बढ़ईगीरी केंद्र, मशरूम प्रसंस्करण केंद्र, शहद निर्माण, बेकरी, स्टील फर्नीचर, खेल का सामान, जैकेट और बैग निर्माण, बांस उत्पादों पर आधारित उद्योग, लाउंड्री, लकड़ी का फर्नीचर, रेडीमेड गारमेंट, पेवर ब्लॉक, ज़री का कार्य, एम्ब्राइडरी, अचार बनाना, हैंडीक्रॉफ्ट, बनाना फाइबर (केले का रेशा निकालना), फुटवियर, पीवीसी बोर्ड, अगरबत्ती निर्माण आदि उद्योग खोले जाने हैं। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि अगर बिहार में इतनी संख्या में लघु उद्योग खोले गये, तो वहाँ के लाखों लोगों को रोज़गार मिलेगा।