चुनावी चुनौतियाँ

नये साल में होने वाले विधानसभा चुनावों में होगा सभी पार्टियों का इम्तिहान

नया साल देश की राजनीति के लिहाज़ से भी बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होने जा रहा है। इस साल में कई विधानसभाओं के चुनाव होने हैं; जबकि कांग्रेस भी अगस्त-सितंबर तक अपना अध्यक्ष चुन लेगी। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के लिए ये चुनाव बहुत अहम हैं। भाजपा को हाल के महीनों में जनता से मिले तिरस्कार की भरपायी करनी है; जबकि कांग्रेस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करके अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहती है। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश है, जहाँ योगी सरकार का इम्तिहान होना है। क्षेत्रीय दल भी इन चुनावों  में अपनी ताक़त दिखाकर जीतना चाहते हैं। यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के रूख़ को समझने के लिए ये विधानसभा चुनाव बहुत अहम हैं, क्योंकि इन चुनावों से सत्ताधारी भाजपा और दूसरी पार्टियों के प्रति जनता के रूख़ का पता चलेगा। फ़िलहाल के चुनावी माहौल और भविष्य के अनुमान को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

उत्तर प्रदेश में भाजपा की मेहनत बता रही है कि उसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में चुनौतियों का अहसास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले वरिष्ठ नेता अमित शाह के देश के इस सबसे बड़े राज्य के सघन दौरे ज़ाहिर करते हैं कि दिल्ली का गेटवे माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की राह उतनी सरल नहीं है। भाजपा उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्व के एजेंडे से लेकर अपने तरकश के तमाम तीर कमान पर चढ़ा चुकी है, जबकि उसे योगी सरकार के पाँच साल के कामकाज पर भी भरोसा है। हालाँकि ज़मीनी स्थिति बताती है कि योगी सरकार के पाँच साल के कामकाज को लेकर जनता की राय बँटी हुई है। मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो इस तरह खुलकर धार्मिक आयोजनों में शामिल हो रहे हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन पर उनका पहरावा और पूजा पाठ को लेकर विरोधी टिप्पणियाँ कर रहे हैं; लेकिन भाजपा को इसकी चिन्ता नहीं है। कॉरिडोर के उद्घाटन से पहले तमाम अख़बारों के पहले पन्ने पर सरकार के विज्ञापन प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों से अटे पड़े थे। मथुरा के नारे भी उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल में भाजपा की तरफ़ से ख़ूब गूँज रहे हैं। भाजपा जानती है कि संकट में आया उत्तर प्रदेश का चुनाव उसे कैसे जीतना है? लेकिन क्या योगी सरकार के कामकाज को लेकर अपना मन बना चुकी जनता भाजपा की इस उम्मीद को पूरा करेगी? उत्तराखण्ड में भी भाजपा की राह आसान नहीं है। पंजाब में उसे काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं गोवा और मणिपुर में भी सत्ता थाली में रखे लड्डू की तरह नहीं मिलने वाली।

ओमिक्रॉन के बढ़ते खतरे के बीच अगले साल के शुरू के महीनों में उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। उसके बाद साल के आख़िर तक कुछ और राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हैं। ज़ाहिर है अगला साल देश की राजनीति में 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सबसे अहम साबित होने जा रहा है। भाजपा उत्तर प्रदेश सहित अधिकतम राज्यों में जीत के झण्डे गाडऩा चाहती है। क्योंकि उसे मालूम है कि जितने राज्य उसके हाथ से फिसलेंगे, उतनी उसकी 2024 की दिल्ली की राह मुश्किल होती जाएगी।

भाजपा इन चुनावों में सघन चुनावी प्रचार और रणनीति बुनने के बावजूद भय से भरी है। प्रधानमंत्री ने चुनाव से तीन महीने ही प्रचार शुरू कर दिया है, जबकि पार्टी के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले अमित शाह व्यक्तिगत रूप से चुनाव की तैयारियों पर नज़र रखे हुए हैं। प्रधानमंत्री साल के आख़िर तक आधा दर्जन बार चुनाव की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का दौरा कर चुके हैं, जिसके चलते इस बार वह संसद के शीत कालीन सत्र में भी अधिकतर अनुपस्थित रहे। जबकि अमित शाह दिल्ली से चुनाव से जुड़ी हर पल की ख़बर रख रहे हैं। इससे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की अहमियत समझी जा सकती है।

जहाँ तक दूसरे दलों की बात है, यह सभी चुनाव राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का भी कठिन इम्तिहान हैं। हाल के महीनों में देश में विपक्ष ने अपने स्तर पर एकजुट होने कोई गम्भीर कोशिश नहीं की है। हाँ, यह ज़रूर दिख रहा है कि विपक्ष का एक त्रिकोण बन रहा है, जिसमें एक तरफ़ कांग्रेस और उसके समर्थक दल (यूपीए) है, तो दूसरी तरफ़ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हुए क्षेत्रीय दलों को साथ जोडऩे की कवायद में दिख रही है। वामपंथी दल अभी ख़ामोश-से हैं और उनकी सक्रियता भी कमोवेश शून्य ही है।

उत्तर प्रदेश पर नज़र

उत्तर प्रदेश में अन्य सभी दलों के मुक़ाबले भाजपा ज़्यादा सक्रिय है। उसका सबसे ज़्यादा ध्यान उत्तर प्रदेश पर है। एक तरह से भाजपा उत्तर प्रदेश को 2024 के लिहाज से जनता का मत मानकर मेहनत कर रही है। उत्तर प्रदेश को लेकर अभी तक के निजी चैनल्स के सर्वे बता रहे हैं कि वहाँ मुक़ाबला होगा और योगी सरकार के प्रति जनता में कई मसलों पर नाराज़गी है। योगी सरकार ने हाल के महीनों में अपना प्रचार तंत्र मज़बूत किया है और विज्ञापनों के ज़रिये वह अपनी उपलब्धियाँ गिनाने में जुटी है। समाजवादी पार्टी (सपा) चुनाव सर्वे में दिखाये जा रहे अपने उभार से उत्साहित है। पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव पूरी ताक़त से मैदान में डट चुके हैं और भाजपा के साम्प्रदायिक नारों का जवाब उसी तर्ज पर दे रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भी काफ़ी सक्रिय है। पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी पार्टी के अपेक्षाकृत कमज़ोर ज़मीनी आधार के बावजूद कुछ अलग तरीक़े से मेहनत कर रही हैं। जनता में कांग्रेस और प्रियंका गाँधी की ख़ूब चर्चा है। हालाँकि यह वोटों में कितनी तब्दील होगी, अभी कहना मुश्किल है। प्रियंका का ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ नारा ज़मीन पर पहुँचा दिख रहा है, और महिलाओं को पहली बार अपने महत्त्व का अहसास हुआ है। वे इसका वीडियो बना रही हैं, जिससे इसके प्रचार में मदद मिल रही है। प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश में महिलाओं का अपना वोट बैंक बनाने की दिशा में काम रही हैं, जो चुनौतीपूर्ण तो है; लेकिन यदि काम कर जाए, तो चुनाव में तुरुप का इक्का साबित हो सकता है।

दिसंबर के आख़िर में कट्टर हिन्दुत्ववादी नेता यति नरसिंहानंद का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ उग्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए दिख रहे हैं। चुनाव से ऐन पहले इस तरह की चीजों को लेकर देश में नाराज़गी के स्वर भी उठे हैं। यति के इस वीडियो को लेकर, जिसमें वह हिन्दुओं से हथियार उठाने की अपील करते दिख रहे हैं, लोग नाराज़ हैं। यह वीडियो हरिद्वार के एक सम्मेलन का है। इस मामले में वैसे उत्तराखण्ड पुलिस ने वसीम रिज़वी उर्फ़ जितेंद्र नारायण त्यागी समेत अन्य लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की है। रिज़वी वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने हाल में इस्लाम छोड़ हिन्दू धर्म अपनाने का दावा किया था। उधर नरसिम्हानंद दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में पैग़ंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी भी कर चुके हैं। दिल्ली पुलिस इस मामले में एफआईआर दर्ज कर चुकी है।

हालाँकि चुनाव से पहले इस तरह का साम्प्रदायिक माहौल बनाने की कोशिशों से कई वर्गों में नाराज़गी है। ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ क़दम उठाने की अपील देश के कई जाने-माने लोगों ने की है। भारत के पूर्व सेना प्रमुखों ने भी इसे लेकर सख़्त नाराज़ग़ी जतायी है। सेना के इन पूर्व प्रमुखों ने अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर और पंजाब के कपूरथला के एक गुरुद्वारे में गुरु ग्रन्थ साहिब के कथित अपमान के मामले में लिंचिंग की भी निंदा की है। पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल (रिटायर्ड) अरुण प्रकाश ने ट्विटर पर यति नरसिंहानंद के वीडियो को शेयर करते हुए लिखा कि ‘क्या हम साम्प्रदायिक ख़ून-खऱाबा चाहते हैं?’ सेना प्रमुख रहे जनरल वेद प्रकाश मलिक भी इससे सख़्त असहमति जता चुके हैं।

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से उसके सांसद वरुण गाँधी भी लगातार मुसीबत किये हुए हैं। वह लगातार भाजपा को निशाने पर रख रहे हैं। हाल में वरुण ने ओमिक्रॉन को लेकर उत्तर प्रदेश में लगाये रात्रि कफ्र्यू और दिन में भाजपा के बड़ी जन रैलियाँ करने और भीड़ जुटाकर शक्ति प्रदर्शन करने पर तल्ख़ टिप्पणी की थी। वरुण गाँधी ने ट्वीट करके कहा था- ‘रात में कफ्र्यू और दिन में रैलियों में लाखों लोगों को बुलाना। यह सामान्य जनमानस की समझ से परे है। उत्तर प्रदेश की सीमित स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के मद्देनज़र हमें ईमानदारी से यह तय करना पड़ेगा कि हमारी प्राथमिकता भयावह ओमिक्रॉन के प्रसार को रोकना है अथवा चुनावी शक्ति प्रदर्शन।‘

चुनावों के नारे

उत्तर प्रदेश दशकों के चुनावी नारों के लिए मशहूर रहा है। चुनाव के नारे निश्चित ही लोकतंत्र के उत्सव को रोचक बना देते हैं और कमोवेश हर राजनीतिक दल चुनावों से पहले इस तरह के नारे गढ़ता है, ताकि जनता को आकर्षित किया जा सके। इसमें सत्ता की नाकामी के ख़िलाफ़ तंज भरी भाषा से लेकर अन्य चुटकियाँ होती हैं।

हालाँकि इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में साम्प्रदायिक नारे भी ख़ूब उभर रहे हैं। पुराने नारों की बात करें, तो मिले ‘मुलायम कांशीराम, हवा हो गये जय श्री राम, ‘रामलला हम आएँगे, मन्दिर वहीं बनाएँगे’, ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’, ‘जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है’, ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर’, ‘चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, न रहेगा हाथ, न रहेगा फूल’, ‘यूपी में है दम, क्योंकि जुर्म यहाँ है कम’, ‘गुंडे चढ़ गये हाथी पर, गोली मारेंगे छाती पर’, ‘ठाकुर बाभन बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-फोर’, ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारे इन दशकों में उत्तर प्रदेश चुनाव का हिस्सा रहे हैं।

इस बार के चुनाव में भी उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिजा में ख़ूब नारे गूँज रहे हैं। देखा जाए, तो 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अभी तक सपा भाजपा को टक्कर देती दिख रही है, भले कांग्रेस और बसपा टक्कर देने की तैयारी में हैं। असदुद्दीन ओवैसी बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश में सक्रिय दिख रहे हैं। इसके अलावा क्षेत्रीय क्षत्रप ओम प्रकाश राजभर, संजय निषाद और चंद्रशेखर भी चुनावी ताल ठोक चुके हैं। अखिलेश चुनाव की इस बेला में यात्राएँ निकाल रहे हैं। उनके आक्रमण के केंद्र में भाजपा है; लेकिन कांग्रेस को भी ख़ूब कोस रहे हैं।

बसपा कभी उत्तर प्रदेश चुनाव की बड़ी महारथी रही है। लेकिन इस बार अभी तक उसके सक्रियता ठंडी सी है। हो सकता है विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद मायावती सक्रिय हों। इतिहास देखें, तो सूबे में सन् 1989 में बसपा को 13, 1991 में 12, 1993 और 1996 में 67-67, जबकि 2002 में 98, 2007 में 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत से और 2012 में 80 सीटें बसपा ने जीतीं। लेकिन 2017 में पार्टी 19 सीटों पर लुढ़क गयी। मायावती 2007 के अलावा 1995, 1997 और 2002 में (कुछ समय के लिए) मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। साल 1993 में सपा और बसपा ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।

भाजपा का उभार राज्य में राम मन्दिर आन्दोलन की वजह से हुआ और 1991 के चुनाव में उसे पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद 2017 में जाकर पूर्ण बहुमत मिला भाजपा को। अब 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी का लक्ष्य इस बहुमत को दोहराना है। निश्चित ही यह पिछली बार के मुक़ाबले इस बार उतना सरल नहीं है। हालाँकि 2019 के आख़िरी महीने में सुप्रीम कोर्ट से राम मंदिर को लेकर आये फ़ैसले को भाजपा ने हमेशा अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की है। इस बार तो भाजपा मथुरा और काशी विश्वनाथ की बात चुनाव में कर रही है।

जबरदस्त दबाव में भाजपा मिशन के लिए छ: जन विश्वास यात्राएँ निकाल रही है। सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों से यह यात्रा रही निकाली जा रही है। इन यात्राओं का समापन जनवरी के पहले हफ्ते लखनऊ में बड़ी रैली से होगा, जिसमें पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिरकत करेंगे। भाजपा ने इन यात्राओं रूट योजनावद्ध तरीक़े से अवध, काशी, रुहेलखण्ड-ब्रज, पश्चिम, गोरक्ष और कानपुर-बुंदेलखण्ड क्षेत्र रखा गया है। इन यात्राओं की तैयारी के लिए जब बैठक हुई थी, तब मुख्यमंत्री योगी ने कहा था कि हम ग़रीब कल्याण योजनाओं, सुरक्षा, रोज़गार और इंफ्रास्ट्रक्चर की उपलब्धियों के साथ ही आस्था के सम्मान को लेकर उठाये गये क़दमों को लेकर जनता के बीच जाएँगे। अब सब लोग अयोध्या जाना चाहते हैं, काशी अब विश्व पटल पर नज़र आ रही है।

ज़ाहिर है इसका मक़सद विकास के साथ हिन्दुत्व का तड़का लगाना था। इन यात्राओं के लिए भाजपा ने बड़े नेताओं राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह आदि को आदि मैदान में केंद्रीय मंत्रियों को उतारा। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी यात्रा शामिल रहे। ख़ुद मुख्यंमत्री योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रियों ने यात्राओं की अगुवाई की।

उत्‍तराखण्ड की स्थिति 

साल 2021 के कुछ ही महीनों में भाजपा सरकार में तीन मुख्यमंत्री देखने वाले उत्तराखण्ड में भी नये साल में विधानसभा के चुनाव हैं। हालाँकि सूबे की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भाजपा में घमासान के चलते चुनाव से पहले राजनीतिक स्थिति दिलचप्स हो गयी है। सतारूढ़ भाजपा के मंत्री हरक सिंह ने केबिनेट की बैठक में ही इस्‍तीफा देने का ऐलान कर अपनी पार्टी भाजपा के लिए शर्मिंदगी की स्थिति बना दी। उधर पूर्व मुख्‍यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत की नाराज़गी की भी चर्चा राजनीतिक हलकों में है।

अभी तक की ज़मीनी स्थिति से ज़ाहिर होता है कि मुख्य मुक़ाबला भाजपा और कांग्रेस में है। भाजपा के लिए जुलाई में मुख्यमंत्री बने पुष्कर सिंह धामी को जातीय समीकरण साधने के लिए (वो राजपूत हैं) को पार्टी सामने लायी। भाजपा अभी से दावा कर रही है कि वह प्रदेश में चुनाव में 60 सीटें जीतेगी।

कांग्रेस हरीश रावत की नाराज़गी ख़त्म कर उन्हें माफ़ करने का दावा कर रही है। सम्भावना यही है कि चुनाव में वही कांग्रेस का मुख्‍यमंत्री चेहरा होंगे। अभी तक के अनुमान भाजपा के पक्ष में बहुत ज़्यादा नहीं दिखते। आम आदमी पार्टी (आप) के मैदान में आने से वोटों का बँटवारा हुआ तो कांग्रेस को इसका नुक्सान होगा। हालाँकि देखना होगा कि पार्टी कितने वोट ले पाती है। हालाँकि यह तय है कि मुक़ाबला कांग्रेस-भाजपा में ही है।

राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव (2017) में भाजपा ने 70 में से 56 सीटें जीत ली थीं। इस तरह कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके भाजपा ने सरकार सँभाली थी। अब कांग्रेस में भाजपा के कुछ नेताओं के आने से माहौल दिलचस्प बना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही भाजपा के लिए प्रचार शुरू कर चुके हैं। इस तरह भाजपा माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। चुनाव की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी जनसभाओं में विकास के कुछ वादे उत्तराखण्ड की जनता से किये हैं।

उधर कांग्रेस ने भी उत्तराखण्ड में पूरी ताक़त झोंकी हुई है। भाजपा के हाईटेक प्रचार का जवाब देने के लिए कांग्रेस ने एक मज़बूत टीम गठित की है, ताकि अपनी बात गाँव-गाँव तक पहुँचा सके। इंटरनेट मीडिया के इस्तेमाल में कांग्रेस मैदान में उतरकर आक्रामक तरीक़े से हाईटेक प्रचार में जुटी है। दरअसल कांग्रेस ने पाँच लोकसभा क्षेत्रों को जोन के रूप में बदलकर प्रदेश भर में इंटरनेट मीडिया पर प्रचार करने के लिए 400 से अधिक स्वयंसेवक नियुक्ति किये हैं। स्वयंसेवकों को सूबे के हर कोने में जाकर पार्टी और शीर्ष नेताओं की बात पहुँचाने का जिम्मा दिया गया है।

इंटरनेट मीडिया की इस जंग की कांग्रेस ने मज़बूत तैयारी करते हुए सोशल मीडिया के लिए बड़ा बजट रखा है। कांग्रेस का सोशल मीडिया सरल शब्दों में अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए फोटोग्राफर, कंटेंट राइटर से लेकर वीडियो एडिटर तक की मदद ले रहा है। कांग्रेस दूर-दराज के उन इलाकों में, जहाँ पहुँचना सम्भव नहीं, वहाँ सोशल मीडिया और इंटरनेट मीडिया के ज़रिये पहुँच रही है।

मणिपुर में अफ्सपा क़ानून बड़ा मुद्दा

मणिपुर में चुनावी पारा चढ़ रहा है। विकास की कहानियाँ नागालैंड की हिंसा के बाद अफ्सपा के बड़े विरोध के रूप में सामने आ रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह असम और नागालैंड के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर चुके हैं। नागालैंड सरकार का दावा है कि उसने राज्य से यह क़ानून हटाने के लिए एक समिति गठित कर दी है। उसकी सिफ़ारिशों के आधार पर सूबे से इस क़ानून को वापस लेने की बात सिरे चढ़ सकती है।

जहाँ तक चुनाव की बात है, 2017 में यहाँ जब विधानसभा के चुनाव हुए थे, भाजपा ने जनमत से कांग्रेस की 15 साल तक चली सत्ता छीन ली थी। मणिपुर सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों के अधिकांश मुख्यमंत्री अफ्सपा को हटाने के हक़ में सामने आये हैं। कांग्रेस ने तो मणिपुर विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आने पर अफ्सपा को बिना देरी वापस लेकर पूर्ण रूप से हटाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाने का वादा किया था।

मणिपुर कांग्रेस के अध्यक्ष का कहना है कि उसने अपनी सत्ता के दौरान सात विधानसभा क्षेत्रों से यह क़ानून हटा दिया था। उन्होंने कहा- ”अगर कांग्रेस 2022 में सत्ता में वापस आती है, तो मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में पूरे मणिपुर से अफ्सपा को पूर्ण रूप से हटाने का फ़ैसला कर लिया जाएगा।’’

जहाँ तक भाजपा की बात है, उसने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा साल के आख़िर तक चार बार मणिपुर जा चुके हैं। कई रैलियाँ की हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने भी राज्य की यात्रा की है। शाह ने कहा कि एन. बीरेन सिंह सरकार के तहत क़ानून और व्यवस्था की स्थिति, शिक्षा, बिजली और अन्य बुनियादी ढाँचों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। भाजपा मणिपुर में इनर लाइन परमिट शुरू होने को भुनाने की कोशिश में भी है। वो वोटर को याद दिला रही है कि यह मणिपुर को पार्टी का सबसे बड़ा गिफ्ट है। बता दें इनर लाइन परमिट मणिपुर में कुछ समूहों की लम्बे समय से माँग रही है। यह वो दस्तावेज है, जिसमें अन्य राज्यों के भारतीय नागरिकों को सीमित अवधि के लिए संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने की इजाजत है।

साल 2017 में मणिपुर में भाजपा पहली बार सत्ता में आयी थी। वैसे तो चुनाव में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, भाजपा ने एनपीपी, एनपीएफ और लोक जनशक्ति पार्टी के सहयोग से सरकार बनायी थी। कांग्रेस के कई विधायक दलबदल कर चुके हैं। इसमें राज्य के पार्टी प्रमुख गोविंददास कोंथौजम भी शामिल हैं, जबकि पूर्व मंत्री और बिष्णुपुर से छ: बार के कांग्रेस विधायक गोविंददास कोंटौजम भाजपा में शामिल हो गये। हालाँकि अब भाजपा की गठबन्धन सहयोगी एनपीपी के साथ लड़ाई की जानकारियाँ बाहर आ रही हैं। कॉनराड संगमा की एनपीपी चार में से दो मंत्रियों को कैबिनेट से हटाये जाने से निराश हैं। अफ्सपा को वापस लेने की माँग करने वाले संगमा ने कहा- ”एनपीपी इस बार अकेले चुनाव में उतरेगी और मणिपुर में करीब 40 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।’’

कांग्रेस अभी भी जनता में जमी हुई है, जबकि भाजपा और नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) भी मैदान में जमे हुए हैं।

गोवा की तस्वीर नहीं साफ़

गोवा में विधानसभा चुनाव अन्य चार राज्यों के साथ ही होने हैं। वहाँ हाल के हफ्तों में ममता बनर्जी की टीएमसी अचानक काफ़ी सक्रिय हुई है। उधर भाजपा ने कहा था कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। जहाँ तक कांग्रेस की बात है उसके और गोवा फारवर्ड पार्टी के बीच चुनावी गठबन्धन हुआ है।

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 17 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा को 13, अन्य को 10 सीटें मिली थीं। विधानसभा में कुल 40 सीटें हैं और बहुमत के लिए वहाँ 21 सीटों की ज़रूरत रहती है।

हाल में टीएमसी को तब बड़ा झटका लगा था, जब इसके पाँच सदस्यों ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। इन लोगों ने टीएमसी पर लोगों को बाँटने का आरोप लगाया था। उधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी मैदान में दम ठोक रही है। उसने हाल में कहा कि वह 40 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी।

गोवा में भाजपा की सरकार है और हाल में पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने राज्य का दौरा करके कांग्रेस सहित विपक्षी दलों पर आरोप लगाया कि उन्होंने कहा की पिछली सरकारों ने सत्ता को मेवा सझकर खाने का काम किया, जबकि भाजपा जनता की सेवा में भरोसा रखती है।

उधर, कांग्रेस भी चुनाव पूरी तैयारियाँ कर रही है। पार्टी नेता राहुल गाँधी दिसंबर में राज्य का दौरा कर चुके हैं। पार्टी वापस सत्ता में लौटने के लिए आतुर है।

पंजाब में पार्टियाँ चौकन्नी

पंजाब में एक अदालत में ब्लास्ट और गुरुद्वारे में बेअदबी के मामले और दो लोगों की पीट-पीटकर हत्या के मामले चुनाव में मुद्दा बन सकते हैं। किसानों के 22 संघ भी चुनाव में कूदने को उतावले हैं। दिसंबर का महीना किसान आन्दोलन के नज़रिये से कई रंग लेकर आया। मोदी सरकार के किसानों की माँगें मानने और कुछ को लेकर वादा करने पर संयुक्त किसान मोर्चा ने भरोसा किया और एक साल से अधिक समय से चल रहे अपने आन्दोलन को स्थगित कर दिया। निश्चित ही किसान आन्दोलन और किसानों की माँगों के लिए यह बड़ी घटना थी। लेकिन इसके बाद एक और बड़ी घटना यह हुई कि किसान आन्दोलन के बड़े अगुआ रहे गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने अपनी पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया। निश्चित ही पंजाब के विधानसभा चुनाव से पहले किसानों के एक प्रभावशाली गुट के खुलेतौर पर राजनीति में आने का असर पड़ेगा। यह माना जाता है कि पंजाब के गरम स्वभाव वाले सिख युवा चढ़ूनी को पसन्द करते हैं। ऐसे में यह माना जा सकता है कि यदि चुनाव तक चढ़ूनी अपना एक राजनीतिक ढाँचा खड़ा करने में कामयाब रहे, तो निश्चित ही वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल रहेंगे। हालाँकि यह भी सच है कि चढ़ूनी पंजाब की नहीं, हरियाणा की राजनीति में ज़्यादा सक्रिय रहे हैं।

किसान आन्दोलन की सारी लड़ाई चढ़ूनी ने हरियाणा में ही लड़ी और वह रहने वाले भी हरियाणा के कुरुक्षेत्र के ही हैं। वैसे इतिहास में चढ़ूनी आम आदमी पार्टी के नज़दीक रहे हैं और अभी भी माना जाता है कि उनके पार्टी बनाने में आम आदमी पार्टी की दिलचस्पी हो सकती है। अभी तक कांग्रेस, आप, अकाली दल, पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा मैदान में थे। अब चढ़ूनी की पार्टी संयुक्त संघर्ष पार्टी की मैदान में आडटी है। अमरिंदर सिंह के अपनी पार्टी बनाने के बाद चढ़ूनी पंजाब की राजनीति के नये स्टार हैं। देखना है कि वह ख़ुद को कितना जमा पाते हैं। उनके लिए यह चुनौती बड़ी है और उन्हें चुनाव से पहले राजनीतिक ढाँचा खड़ा करना होगा, जो 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में उतना आसान भी नहीं होगा। अब सवाल यह है कि क्या चढ़ूनी पंजाब की राजनीति में किसानों के नाम पर बड़ा ध्रुवीकरण कर पाएँगे? एक सीमा तक युवाओं को साथ जोडऩे में भले वह सफल हों; लेकिन चुनाव में जीतने के लिए बहुत चीजों की दरकार उन्हें रहेगी। नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की लड़ाई लडऩे में सहयोग करने वाली पंजाब में कई ताक़तें रही हैं। राजनीतिक दलों की ही बात करें, तो कांग्रेस सबसे ज़्यादा खुले तौर पर किसानों के साथ रही। उसने किसान आन्दोलन के शुरू से ही ज़मीन पर समर्थन किया और भाजपा का मुखर विरोध कृषि क़ानूनों को लेकर किया।

आम आदमी पार्टी, जो पंजाब में चुनाव के लिए अभी से पूरी ताक़त झोंक रही है; ने भी किसानों के आन्दोलन का समर्थन किया। अकाली दल को लेकर ज़रूर यह आरोप लगता रहा है कि उसने बहुत देरी से तीन कृषि बिलों का विरोध किया, जबकि हरसिमरत कौर के रूप में अकाली दल सीधे मंत्रिमंडल में शामिल था। शुरू में कई ऐसे बयान आये, जिसमें अकाली दल अध्यक्ष और पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने कृषि बिलों का लोकसभा समर्थन किया था।

जहाँ तक पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की बात है, तो कांग्रेस सरकार के नाते उन्होंने किसान आन्दोलन का समर्थन किया। चूँकि यह कांग्रेस की घोषित लाइन थी, उन्हें समर्थन करना ही था। हालाँकि जैसे ही कांग्रेस से उनके रिश्ते तल्ख़ हुए और मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा। इसके बाद तो अमरिंदर सिंह सीधे मोदी सरकार और भाजपा के पाले में खड़े दिखे। उन्होंने कहा कि केंद्र तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले ले, तो वह भाजपा को समर्थन देने को तैयार हैं। अब जबकि केंद्र सरकार ने तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया है और कैप्टन ने इसका सारा श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया है, उससे कम-से-कम कैप्टन अमरिंदर सिंह तो इसका चुनावी लाभ लेने से वंचित रह गये। पंजाब में किसान आन्दोलन के कारण सबसे ज़्यादा नुक़सान का खतरा भाजपा ही झेल रही है। आज भी पंजाब में यदि किसी राजनीतिक पार्टी के नेता या कार्यकर्ता किसानों से सीधे समर्थन माँगने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, तो वे भाजपा के ही लोग हैं। भाजपा के नेता तो तीन कृषि क़ानून वापस लेने के अपनी ही केंद्र सरकार के फ़ैसले के बावजूद यह मानकर चल रहे हैं कि जनता से उसे ज़्यादा समर्थन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक आम आदमी पार्टी (आप) की बात है, उसे भरोसा है कि उसे किसानों का विरोध तो किसी भी सूरत में नहीं झेलना पड़ेगा। कांग्रेस की तरह आप भी किसान आन्दोलन के साथ दिखती रही है। लेकिन अब किसान नेता चढ़ूनी के अपनी ही राजनीतिक पार्टी बना लेने से कांग्रेस और आप दोनों के खेमे इस बात से परेशान हैं कि किसान वोट बाँट सकते हैं। यहाँ यह बता देना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि गुरनाम सिंह चढ़ूनी 40 किसान संगठनों वाले संयुक्त किसान मोर्चा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और किसान आन्दोलन के दौरान हरियाणा में अपने किसान संगठन हरियाणा भारतीय किसान यूनियन के ज़रिये काफ़ी सक्रिय रहे। चढ़ूनी की राजनीति चढ़ूनी ने जब अपनी राजनीतिक पार्टी संयुक्त संघर्ष पार्टी का ऐलान किया, तो उन्होंने कहा कि राजनीति में वह स्वच्छ और ईमानदार लोगों को आगे लाने के मक़सद से आये हैं और जनता की सेवा करना चाहते हैं। वैसे चढ़ूनी ख़ुद पंजाब विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे, न उनकी किसी राजनीतिक दल से गठबन्धन को लेकर कोई बात हुई है। हालाँकि चढ़ूनी ने यह ज़रूर कहा है कि उनकी पार्टी प्रदेश की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जो फ़िलहाल तो सम्भव नहीं दिखता।

अभी उनके किसी सम्भावित गठबन्धन की कोई चर्चा नहीं; लेकिन हैरानी नहीं होगी, यदि कांग्रेस या आप में से किसी एक के साथ उनका तालमेल बन जाए। भाजपा के साथ उनके जाने की सबसे कम सम्भावना दिखती है। हालाँकि यह बहुत दिलचस्प है कि राजनीति के कई जानकार यह जानते हुए कि चढ़ूनी के आने से सबसे ज़्यादा नुक़सान कांग्रेस और आप का होगा। क्योंकि उनके राजनीति में आने को भाजपा की राजनीति के हिसाब से मुफीद मानते हैं। चढ़ूनी युवाओं के अलावा पंजाब की जत्थेवंदियों में काफ़ी पैठ रखते हैं। हालाँकि इससे उनकी नवगठित पार्टी पंजाब में चुनाव जीत सकती है, यह सोचना फ़िलहाल तो अतिशयोक्ति ही होगी। देखना दिलचस्प होगा कि क्या वह किसी दल से चुनावी गठबन्धन करते हैं या नहीं। चढ़ूनी का मक़सद राजनीति में मज़बूत होकर ख़ुद को किसी बड़े किसान नेता के तौर पर उभारना है। वैसे भी हाल के किसान आन्दोलन में उनका बड़ा रोल रहा है और हरियाणा में उन्होंने अपने संगठन के ज़रिये जिस तरह किसान आन्दोलन को धार दी, उससे वह एक मज़बूत किसान नेता के रूप में स्थापित हुए हैं। चढ़ूनी ने राजनीतिक पार्टी बनाने का फ़ैसला अचानक ही नहीं किया है। उनके इस क़दम की चर्चा बहुत पहले शुरू हो गयी थी। पंजाब के किसानों ने ही मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का सबसे ज़्यादा विरोध किया था। जो बड़ा किसान आन्दोलन इस विरोध खड़ा हुआ, उसमें गुरनाम सिंह चढ़ूनी अहम अगुआ की भूमिका में थे। ऐसे में यह तो दिख ही रहा था कि आने वाले समय में पंजाब की चुनावी जंग में वह भी भूमिका निभाएँगे।

यह बिल्कुल सही है कि किसान आन्दोलन और पंजाब कांग्रेस के भीतर चल रही उठापटक ने प्रदेश की सियासत को उलझा कर रख दिया है। कांग्रेस हाल के महीनों में एक बार फिर पंजाब में सरकार दोहराती दिख रही थी। दूसरे दल उसके आसपास भी नहीं थे। लेकिन उसके बाद घटनाओं ने ऐसी पलटी मारी कि आँकड़े अब काफ़ी बदलती दिख रही हैं। चुनाव तक कांग्रेस ख़ुद को कितना सँभाल पाती है, यह देखने वाली बात होगी। ऐसा नहीं कि चढ़ूनी पहले चुनावी जंग में नहीं कूदे हैं। वह बतौर निर्दलीय प्रत्याशी हरियाणा विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। हालाँकि उस समय उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। यही नहीं सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी बलविंदर कौर भी आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर चुकी हैं। पति की तरह उन्हें भी हार का कड़वा स्वाद चखना पड़ा था। चढ़ूनी ने भले पंजाब में अपनी पार्टी बनाने का ऐलान किया; लेकिन उनके पास अभी तक पंजाब का छ: महीने पुराना स्थायी पता नहीं है। चुनाव आयोग के नियम कहते हैं कि जिस राज्य में कोई व्यक्ति विधानसभा का चुनाव लडऩा चाहता है, उस राज्य का उसके पास कम-से-कम छ: महीने पुराना स्थायी पता होना ज़रूरी है। शायद यही कारण है कि उन्होंने ख़ुद चुनाव लडऩे से इन्कार किया है।

चढ़ूनी का इतिहास देखें, तो वह राजनीति में दिलचस्पी रखते रहे हैं और आम आदमी पार्टी के राजनीति में उभरने के बाद उसके नज़दीक रहे हैं। याद रहे सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में तो आम आदमी पार्टी ने चढ़ूनी को पार्टी का टिकट तक देने के पेशकश की थी। लेकिन उस समय एक मुकदमे में उलझे होने के कारण चढ़ूनी चुनाव नहीं लड़ पाये थे और पार्टी ने उनकी पत्नी को टिकट दिया था। ऐसे में यह कयास लग रहे हैं कि राजनीति में पार्टी बनाकर उनका आना आम आदमी पार्टी को लाभ पहुँचाने के इरादे से हुआ है। किसान नेताओं पर नज़र पंजाब में चढ़ूनी सहित किसान आन्दोलन के दूसरे नेताओं पर अब राजनीतिक दलों की नज़र है। विधानसभा चुनाव से पहले चर्चा है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भारतीय किसान यूनियन के प्रधान बलबीर सिंह राजेवाल को अपने समर्थन में लाने की कोशिश में है। राजेवाल को किसी समय अकाली दल के करीब माना जाता था। फ़िलहाल आम आदमी पार्टी की भी उन पर नज़र है। शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के साथ सम्बन्ध तोडऩे के बाद बसपा से गठबन्धन कर लिया था। अकाली दल को पिंड (गाँवों) की पार्टी माना जाता है। वर्तमान में वह किसानों के गढ़ में खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने के लिए तरस रही है; जबकि किसानों का उसे कभी समर्थन रहा था।

पंजाब की किसान राजनीति के बड़े चेहरे देखें, तो इनमें दर्शन पाल, बलवीर सिंह राजेवाल, जोगिंदर सिंह उगराहां खास हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि केंद्र के किसानों के मुद्दों के आगे झुकने से इस वर्ग को ताक़त मिली है। किसान और खेती पंजाब में एक बृहद राजनीतिक असर रखने वाला क्षेत्र हैं। पंजाब का सारा आर्थिक आधार खेती रहा है। सूबे में 75 से 78 फीसदी लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़े हैं। ज़ाहिर है अब इस बार का चुनाव किसान और खेती के मुद्दे के रूप में बदल रहा है। इनमें खेतों में काम करने वाले लाखों मजदूर भी हैं।

यह तो प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े लोगों की बात है। यदि अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों, क्षेत्रों और वर्गों की बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि इसमें गाँवों से लेकर शहरों तक आबादी शामिल है। इनमें आढ़ती और खाद-कीटनाशक के व्यापारी शामिल हैं। इसके अलावा ट्रांसपोर्ट उद्योग भी है, जिसका बड़ा तबका पंजाब में है। ट्रेडर्स भी हैं और एजेंसियाँ भी और शहर से लेकर गाँव के दुकानदार भी। अच्छी फ़सल किसान को बाजार में खरीदारी का अवसर देती है और ज़ाहिर है इससे कई छोटे कारोबार चलते हैं। इन सभी वर्गों से जुड़े लोग सीधे तौर पर सूबे राजनीति को प्रभावित करते हैं।

यही कारण है कि किसान और खेती चुनाव में नज़रअंदाज नहीं किये जा सकते। ऐसे में किसान आन्दोलन ने किसानों को पंजाब की राजनीति में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक कर दिया है। यही कारण है कि आन्दोलन से जुड़े रहे संयुक्त किसान मोर्चा के बड़े चेहरों पर पंजाब के राजनीतिक दल नज़रें गढ़ाये बैठे हैं। मक़सद एक ही है- चुनाव में उनकी किसान में पैठ का फ़ायदा उठाना। भाजपा से दूरी भाजपा से किसान अभी भी नाराज़ हैं, इसका असर इस बात से स्पष्ट होता है कि भाजपा से गठबन्धन की ख़बरों के बाद शिरोमणि अकालीदल (संयुक्त) में बाकायदा फूट पड़ गयी। पार्टी के नेता रणजीत सिंह ने भाजपा के साथ सीटों के तालमेल का खुले रूप से विरोध किया है। यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा ने विधानसभा चुनाव के लिए शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) को अपने गठबन्धन का हिस्सा बनाने के संकेत दिये थे। शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के अधिकतर नेता जिस तरह भाजपा के साथ गठबन्धन के ख़िलाफ़ हैं, उससे निश्चित ही अमरिंदर-भाजपा गठबन्धन को झटका लगेगा। यह दिलचस्प है कि अमरिंदर सिंह के कुछ साथी नेता भाजपा के साथ गठबन्धन को लेकर आशंकित रहे हैं। हालाँकि अमरिंदर सिंह को लगता रहा है कि भाजपा के साथ जाना ही बेहतर रहेगा।

शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के नेता और पूर्व सांसद रणजीत सिंह का कहना है- ‘भाजपा के साथ किसी भी तरह के गठबन्धन के व्यक्तिगत रूप से मैं सख़्त ख़िलाफ़ हूँ। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता इस बारे में साफ राय ज़ाहिर कर रहे हैं। पंजाब में भाजपा का जबरदस्त विरोध है। लिहाज़ा सभी इस बात को जानते हैं कि भाजपा के साथ जाना बहुत नुक़सानदेह साबित होगा। ‘रणजीत सिंह साफ कर चुके हैं कि पार्टी का भाजपा के साथ गठबन्धन होता है, तो वह पार्टी का हिस्सा नहीं रहेंगे। पार्टी यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 91 उम्मीदवारों के नाम घोषित कर चुकी थी। कुल मिलाकर पंजाब विधानसभा चुनाव में किसान एक बड़ा मु्द्दा बनने जा रहा है। यह देखना होगा कि अगले दो महीने में राज्य की राजनीति क्या रंग लाती है? कांग्रेस सरकार में काफ़ी उठा-पटक से अटकलें लगायी जा रही कि विधानसभा चुनाव के बाद लटकी हुई विधानसभा भी आ सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो सभी राजनीतिक दल सरकार की कोशिशें करेंगे, ऐसे में हो सकता है कि कुछ अबूझ गठबन्धन बनें।

 

“बड़े राजनीतिक दल पूँजीवादियों के फ़ायदे वाली नीतियाँ बनाते हैं और ग़रीबों को नज़रअंदाज़ करते हैं। ऐसी राजनीति के कारण ही पूँजीवादियों का देश पर कब्ज़ा होता जा रहा है। इस कारण आम आदमी की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। देश को लूटने वाले ऐसे लोगों को बाहर निकालने की ज़रूरत है। हमारी पार्टी की पहचान धर्मनिरपेक्ष रहेगी और यह समाज के सभी वर्गों के कल्याण के लिए काम करेगी। हमारा मानना है कि कृषि क्षेत्रों में बड़े बदलावों की ज़रूरत है, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिल सके। साथ ही ऐसी फ़सलों की पैदावार की ज़रूरत है, जिनकी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में माँग हो।’’

गुरनाम सिंह चढ़ूनी

संयोजक, संयुक्त संघर्ष पार्टी