चुनावों में रिकॉर्ड तोड़ ख़र्चा करते हैं राजनीतिक दल
कई लोगों का मत है कि बार-बार चुनाव कराने से महँगाई बढ़ती है। यह बात बहुत हद तक सही है। लेकिन इसके पीछे की वजह क्या है? इसके लिए राजनीतिक दलों के चुनावी ख़र्चों पर गहरी नज़र डालते हुए इसे विस्तार से समझने की ज़रूरत है। लेकिन इसका हल यह है कि इसके लिए देश की स्वायत्त संस्था भारतीय निर्वाचन आयोग, जिसे चुनाव आयोग भी कहा जाता है, ख़ुद भी पूरी ईमानदारी से काम करे और पार्टियों के अनाप-शनाप ख़र्चों पर भी अंकुश लगाए।
हाल ही में चुनाव आयोग ने बढ़ी महँगाई को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशियों के चुनावी ख़र्चों में इज़ाफ़ा किया है। इसके लिए आयोग ने बाक़ायदा एक समिति गठित की थी और उसी के सुझावों और राजनीतिक पार्टियों की माँग के आधार पर चुनावी ख़र्चे को बढ़ाया गया है। अब लोकसभा चुनावों में एक उम्मीदवार 95 लाख रुपये ख़र्च कर सकता है। पहले इस ख़र्च की सीमा 70 लाख रुपये थी। जबकि छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में इस ख़र्च सीमा को 54 लाख रुपये से बढ़ाकर 75 लाख किया गया है। वहीं विधानसभा चुनाव के लिए जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों में ख़र्च की सीमा 28 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 40 लाख रुपये और जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों की ख़र्च सीमा 20 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 28 लाख रुपये कर दिया गया है। बता दें कि इससे पहले सन् 2014 और सन् 2020 में चुनावी ख़र्चों में बढ़ोतरी की सीमा तय की गयी थी।
सवाल यह है कि क्या कोई भी प्रत्याशी इतने कम बजट में चुनाव लड़ता है? क्या चुनाव आयोग इस बात की तफ़तीश कभी करता भी है कि जो प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरते हैं, चाहे वे लोकसभा के हों या विधानसभा के, वे किस तरीक़े से पैसा बहाते हैं और किस तरीक़े से जीतने के बाद जनता को लूटते हैं? क्या चुनाव आयोग ने कभी विधायकों, सांसदों की बेनामी और बेतरतीब बढ़ी हुई सम्पत्ति पर कोई आपत्ति जतायी है? क्या चुनाव आयोग ने ऐसे प्रत्याशियों के नामांकन पत्र कभी ख़ारिज़ किये हैं, जिनके पास आय से ज़्यादा सम्पत्ति पायी गयी है और उनका आपराधिक रिकॉर्ड भी रहा है? अगर ऐसा होता, तो आज राजनीति में बाहुबलियों, दबंगों और अकूत सम्पत्ति वाले धन पशुओं का दबदबा नहीं होता। यह कोई मामूली बात नहीं है कि देश की राजनीति में अब ऐसे लोगों का क़ब्ज़ा हो चुका है, जो क़तर्इ ईमानदार नहीं हैं। आज चाहे सत्तापक्ष की बात हो या विपक्ष की, कोई इक्का-दुक्का नेता ही ऐसा होगा, जो ईमानदारी और जनसेवा की भावना से राजनीति में हो। पहले के नेताओं में कुछ हद तक यह बात थी; लेकिन अब नेता भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा पार करते जा रहे हैं। यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इस पर अंकुश लगाने को कोई तैयार नहीं है, न चुनाव आयोग, न सरकार और न कोई और संस्था।
ख़ैर, चुनाव आयोग द्वारा प्रत्याशियों के ख़र्चों की तय सीमा की पाबंदी का मखौल उड़ता देखने के लिए इन प्रत्याशियों और पार्टियों के अनाप-शनाब चुनावी ख़र्चों को देखना ज़रूरी होगा। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में सभी पार्टियों ने ख़र्चों के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए 60,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इन पार्टियों में अकेले भाजपा ने सभी पार्टियों के ख़र्च का 45 फ़ीसदी ख़र्च किया, यानी कुल 27,000 करोड़ रुपये चुनाव में उड़ाये। इसके अलावा भाजपा के समर्थक दलों ने भी इस चुनाव में मौटा ख़र्च किया। वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इस चुनाव में 820 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इससे पहले अगर 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी दौरान हुए आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और सिक्किम के विधानसभा चुनावों की बात करें, तो भाजपा ने इन चुनावों में 714 करोड़ रुपये ख़र्च किये, जबकि कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे।
अब अगर लोकसभा की 543 सीटों के हिसाब से 2019 में केवल भाजपा के 27,000 करोड़ रुपये ख़र्च के हिसाब से इस ख़र्च में उसके सहयोगी दलों को भी शामिल करके भी देखें, तो उसके प्रत्येक प्रत्याशी के ख़र्च का औसतन 49.72 करोड़ रुपये से ज़्यादा आता है। यानी उस साल चुनाव आयोग की 70 लाख ख़र्च अनुमति से 49.02 करोड़ रुपये ज़्यादा, जबकि चुनाव आयोग द्वारा पिछले चुनाव में ख़र्च की अनुमति के हिसाब से भाजपा और उसके सहयोगी दलों को महज़ 380 करोड़ रुपये तक ही ख़र्च करने थे। यानी भाजपा और उसके सहयोगी दलों के 543 प्रत्याशियों के ख़र्च से कहीं ज़्यादा आठ प्रत्याशियों ने ही ख़र्च कर डाला। यह तब है, जब भाजपा के सहयोगी दलों के ख़र्च को इसमें नहीं जोड़ा गया है। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्येक प्रत्याशी का ख़र्च क़रीब डेढ़ करोड़ रुपये आया था, जो कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च सीमा से दोगुने से ऊपर था। जबकि इसमें ख़र्च की कम सीमा वाले राज्यों को नहीं जोड़ा है, उस हिसाब से देखेंगे, तो प्रत्याशियों के ख़र्च में और बढ़ोतरी हो जाएगी।
ख़ास बात यह है कि यह वो ख़र्च है, जो भाजपा और कांग्रेस ने क़ुबूल किया है। जबकि सच्चाई यह है कि चुनावों में जो ख़र्च पार्टियाँ दिखाती हैं, उससे कहीं ज़्यादा वो ख़र्च करती हैं। इससे अलग और ग़ौर करने वाली बात यह है कि देश के 2019 के लोकसभा चुनाव दुनिया के सबसे महँगे चुनाव थे। सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश की आर्थिक हालत अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन से कहीं ख़राब है, उसके बावजूद उन देशों के चुनावी ख़र्च से भी कई गुना ज़्यादा ख़र्च करके भारतीय राजनीतिक पार्टियाँ आख़िर देश की जनता की जेब पर अतिरिक्त भार क्यों डाल रही हैं? क्या इस पर चुनाव आयोग और सरकार को ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है?
मेरा मानना है कि अगर चुनाव आयोग भी इस मामले पर आँखें बन्द करे बैठा है, तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस पर तत्काल दख़ल देने की ज़रूरत है, अन्यथा इन नेताओं की ऐशपरस्ती और अनाप-शनाप चुनावी ख़र्चे के चलते लोगों का जीवन यूँ ही महँगाई, बेरोज़गारी, मोटे कर (टैक्स) और काम ज़्यादा, वेतन कम की उलझनों में उलझा रहेगा और देश में ग़रीबी भी बढ़ती रहेगी तथा ग़रीबों की संख्या भी। इसी तरह अगर उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें, तो उस साल सभी पार्टियों ने क़रीब 5,500 करोड़ रुपये ख़र्च किये। कहा जाता है कि इनमें से तक़रीबन 1,000 करोड़ रुपये नोट के बदले वोट पर ख़र्च किये गये। यह चुनाव भी देश के 2017 तक के सभी विधानसभा चुनावों से महँगा था।
सवाल यह है कि राजनीतिक दलों के पास इतना मोटा पैसा कहाँ से आता है? पहले यह माना जाता था कि पार्टी फंड से राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं और पहले इसे उजागर भी करना होता था। लेकिन अब यह हिसाब भी पार्टियाँ नहीं देतीं। भाजपा की अगर बात करें, तो उसने तो अपने तमाम हिसाबों को उजागर करना कब से बन्द कर रखा है।
सवाल यह है कि सन् 1980 से अस्तित्त्व में आयी भाजपा महज़ चार दशक में इतना पैसा कहाँ से पा गयी? जिसके चलते वह हर चुनाव में पानी की तरह पैसा बहा रही है और उसने देश भर में हज़ारों आलीशान कार्यालय बना लिये। जबकि वहीं दूसरी तरफ़ देश के आर्थिक हालात बुरी तरह ख़राब होती जा रहे हैं और भुखमरी, महँगाई, बेरोज़गारी व ग़रीबी लगातार बढ़ती जा रही है। यह सवाल कांग्रेस से भी पूछना उतना ही ज़रूरी है, जितना भाजपा से। क्योंकि कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है। लेकिन भाजपा ने जिस तरह से पैसों का दुरुपयोग शुरू किया है, इससे पहले किसी भी पार्टी ने नहीं किया। यहाँ तक कि अटल बिहारी बाजपेयी के दौर में ख़ुद भाजपा ने इस तरह से जनता के पैसे को चुनावों में नहीं बहाया।
हालाँकि यह भी एक सच है कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च की सीमा को हर पार्टी ने हर चुनाव में पार किया है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर कभी अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की। यही वजह है कि अब सभी पार्टियाँ निरंकुश हो गयी हैं और चुनावों में अनाप-शनाप ख़र्च करती हैं, जिनमें चुनावी ख़र्च की इस दौड़ में सत्ताधारी भाजपा सबसे आगे दिखायी पड़ रही है। जहाँ एक ओर चुनावी ख़र्च की सीमा को बढ़ाये जाने के बाद ज़्यादातर राजनीतिक दलों ने सहमति जतायी है, वहीं तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर असहमति जतायी है। चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाने पर उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग का यह फ़ैसला साफ़तौर पर भ्रष्टाचार और काले धन को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होगा। यह फ़ैसला हैरान कर देने वाला है; इसलिए मैं चुनाव आयोग के इस फ़ैसले की निंदा करता हूँ। ज़ाहिर है कि जिस समय चुनावों को धन-बल से मुक्त करने की माँग ख़ूब हो रही है, उस समय चुनावी ख़र्च सीमा बढ़ाया जाना वाक़र्इ हैरत में डालने वाला है। क्योंकि चुनावी ख़र्च की सीमा बढऩे से कम बजट वाली पार्टियों को मुश्किल का सामना कर पड़ सकता है। दरअसल चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाये जाने वालों की दलील है कि राजनीतिक दल समय-समय पर यह कहते रहे हैं कि चुनावी ख़र्च की अब तक जो सीमा तय है, वह व्यावहारिक नहीं है। प्रत्याशियों पर तय सीमा से ज़्यादा ख़र्च करने और पैसे बाँटने के आरोप भी लगते रहे हैं। लिहाज़ा यदि चुनावी ख़र्च सीमा को बढ़ा दिया जाएगा, तो उम्मीदवारों को अपने हलफ़नामे में झूठ नहीं बोलना पड़ेगा।
फ़िलहाल चुनाव में इस साल होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों की भारतीय निर्वाचन आयोग ने तारीख़ तय कर दी है। इसी के साथ आगामी चुनाव वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में आचार संहिता लागू हो गयी है। सभी राज्यों में 10 फरवरी से लेकर 7 मार्च तक सात चरणों में मतदान होगा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव की मतगणना 10 मार्च को होगी। कोरोना से बचाव के लिए ज़रूरी दिशा-निर्देशों के बीच मतदान होगा और चुनावी प्रक्रिया में लगे सभी अधिकारी व कर्मचारियों को कोरोना टीके लगे होने चाहिए और मास्क लगा होना चाहिए।
मतदान केंद्रों पर सैनिटाइजर, मास्क जैसी सुविधाएँ उपलब्ध होंगी और मतदाता केंद्रों की संख्या भी बढ़ायी जाएगी, ताकि भीड़ एक ही मतदान केंद्र पर ज़्यादा न जुटे। यह सब तो ठीक है, लेकिन क्या चुनाव आयोग पार्टियों द्वारा पैसा ख़र्च करके मतदान बूथों के आसपास बेतरतीब भीड़ जुटाने पर भी अंकुश लगाएगा? राजनीतिक जानकार कहते हैं कि चुनाव आयोग अब उसी के पक्ष में काम करता है, जिसके हाथ में सत्ता होती है। यही वजह है कि वह पार्टियों के मोटे ख़र्च और तमाम दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने पर भी आँखें बन्द किये रहता है। क्योंकि अगर वह विपक्षी दलों पर अंकुश लगाएगा, तो उसे सत्ता पक्ष में जो पार्टी होगी, उस पर भी अंकुश लगाना पड़ेगा। इसीलिए वह किसी पर भी अंकुश नहीं लगाता।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)