चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी

 

पिछले माह की बात है. लालू प्रसाद यादव ने पटना के मौर्य होटल में संवाददाताओं को बातचीत के लिए बुलाया था. पारंपरिक तौर पर आत्ममुग्धता से भरे लालू प्रसाद बतकही में ज्यादातर अपनी ही बातों को कहने में लीन रहते हैं. वे स्कूल मास्टर की तरह बिहार सरकार के काम-काज का मूल्यांकन करके उसे 100 में से जीरो नंबर देते हैं. फिर सत्ता उखाड़ने की हुंकार भरते हैं. इसी बीच हवा में सवाल उछलता है- विशेष राज्य दर्जा अभियान पर क्या कहना चाहते हैं लालू जी?

अचानक आए इस छोटे-से सवाल पर लालू लटपटा जाते हैं. कहते हैं, ‘बढ़ियां बात है, हम भी चाहते हैं कि मिल जाए दर्जा.’ फिर थोड़ी देर रूककर कहते हैं, ‘कब तक मिलेगा यह हम नहीं जानते. बिहार के कुछ अखबार वाले ज्यादा जानते हैं, वही बताएंगे?’ इस छोटे सवाल पर ही फिर जवाब देते हैं, ‘मुझे तो यही जानकारी है कि नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल यानी एनडीसी ही इस विषय को देखती है
लेकिन नीतीश के लोग बता रहे हैं कि मंत्रिमंडलीय समूह के पास मामला चला गया है. हम अभी कुछ नहीं बता सकते हैं.’
विशेष राज्य दर्जे के सवाल-जवाब के कुछ देर बाद ही इस बतकही सभा का विसर्जन हो जाता है. उसी रोज कुछ देर बाद लालू प्रसाद दिल्ली चले जाते हैं. चार दिन बाद दिल्ली से खबर आती है कि लालू प्रसाद ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की है. उन्होंने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि 2000 में जब झारखंड का निर्माण हुआ था तो सबसे पहले उन्होंने ही बिहार के लिए विशेष सहायता पैकेज व विशेष राज्य के दर्जे की मांग की थी. लालू प्रसाद प्रधानमंत्री से यह आश्वासन भी ले लेते हैं कि यह मामला एनडीसी में जाएगा. लालू प्रसाद आनन-फानन में अचानक प्रधानमंत्री से इस मसले पर मिलने चले गए थे तो यह अकारण नहीं था. एक तो वे यह स्पष्ट करना चाहते थे कि मंत्रिमंडलीय समूह से कुछ नहीं होने वाला, मामला एनडीसी में जाएगा, तभी कुछ होगा. यानी नीतीश के लिए मंजिल अभी दूर है. इसके साथ ही लालू प्रसाद यह संदेश देना भी चाहते थे कि बिहार के लिए सबसे पहले विशेष राज्य के दर्जे की मांग उन्होंने ही की थी.

ऐसी हड़बड़ी, बेचैनी और दुविधा अकेले लालू प्रसाद की नहीं है. बिहार के अमूमन सभी राजनीतिक दल आजकल ऐसे ही दुविधा भरे दौर से गुजर रहे हैं. विपक्षी दलों के लिए ‘विशेष राज्य का दर्जा’ गले की हड्डी की तरह बन गया है, जिसे न उगलते बन रहा है, न सीधे तौर पर निगलते. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेता हों या वामपंथी भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, इस संदर्भ में सवाल आने पर कुछ भी सीधे-सीधे कहने की बजाय नीतीश की अपनाई राह पर सवाल खड़े करते हैं. दीपंकर कहते हैं, ‘2000 में झारखंड बनने के बाद बिहार को विशेष सहायता दिए जाने की मांग हमारी पार्टी ने की थी. प्रदर्शन भी हुए थे. आज भी हम बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिए जाने की मांग करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार इस मांग पर राजनीतिक तिकड़म कर रहे हैं जो सही नहीं है.’

जदयू नौटंकी कर रहा है, हमने 2000 में ही केंद्र सरकार से विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की थी-लालू प्रसाद यादव, अध्यक्ष, राजद

सिर्फ दीपंकर ही नहीं, बिहार की राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी यह जानते हैं कि नीतीश कुमार ने विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करके एक ऐसी सधी हुई राजनीतिक चाल चली है जिसमें सभी दल फंस गए हैं. इस खेल में चित्त और पट्ट दोनों नीतीश कुमार अपने ही पक्ष में करने की कसरत में लगे हुए हैं. अगर केंद्र ने ऐसी कोई मांग मान ली तो जाहिर तौर पर नीतीश इसका श्रेय लेकर नायक बनना चाहेंगे. और यदि मांग नहीं मानी जाती है तो आने वाले कल में नीतीश को जब अपने किए-धरे का हिसाब-किताब देना होगा तो उनके पास एक बड़ा तुर्रा और तर्क यह होगा कि केंद्र ने हमारी मांग ही नहीं मानी तो हम क्या करते! यह आने वाला कल अगले लोकसभा चुनाव का समय होगा और राज्य के विधानसभा चुनाव का भी.

मगर दोनों चुनावों के होने में तो अभी काफी समय है तो फिर राजनीतिक तैयारी अभी से ही क्यों? लेकिन इसे बेमौसमी बरसात भी नहीं कहा जा सकता. यह अनुमान पहले से भी लगाया जाता रहा है और अब ज्यादा साफ भी होता जा रहा है कि लोकसभा चुनाव आते-आते बिहार में राजनीतिक स्थितियां उलट-पलट हो सकती हैं. इसकी एक झलक अभी दिखी भी. गुजरात में नरेंद्र मोदी के सद्भावना उपवास से बिहार के राजनीतिक गलियारे में तुरंत तपिश फैल गई. नीतीश कुमार ने तो सिर्फ हाथ जोड़कर या यह कहकर पल्ला झाड़ा कि पहले भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए आधिकारिक नाम तो तय हो, तब कुछ कहा जाएगा. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने देश में भुखमरी की स्थिति बनाम नरेंद्र मोदी के उपवास पर बात की. लेकिन जदयू प्रवक्ता सह राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी ने साफ-साफ कहा कि नरेंद्र मोदी गुजरात की पांच करोड़ जनता के साथ न्याय नहीं कर पा रहे तो देश की सवा सौ करोड़ जनता के साथ क्या न्याय करेंगे. शिवानंद ने यह भी कह दिया कि गुजरात में भय और दहशत का माहौल है.

जाहिर-सी बात है कि शिवानंद इतनी बातें ऐसे ही नहीं बोल गए. यह साफ है कि केंद्रीय स्तर पर एक मजबूत नेता की तलाश में भटक रही भाजपा की ओर से यदि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को घोषित किया गया तो नीतीश के सामने बड़ी चुनौती होगी. राजनीतिक कारणों से नरेंद्र मोदी के नाम से ही चिढ़ जाने वाले नीतीश को तब भाजपा का साथ छोड़ना होगा. ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी के तरकश में कुछ तीर ऐसे होने ही चाहिए जिन्हें मैदान में उतरते वक्त चलाया जा सके. माना जा रहा है कि तब यह विशेष राज्य दर्जा वाला तीर भी मजबूती से चलाया जा सकता है. इसीलिए नीतीश कुमार व उनकी पार्टी जदयू ने बड़ी चतुराई से राज्य स्थापना दिवस के मौके पर जोर-शोर से शुरू हुए विशेष राज्य दर्जा अभियान को सरकारी या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अभियान की बजाय जदयू का अभियान बना दिया. इसे लेकर हस्ताक्षर अभियान भी चला और कथित तौर पर सवा करोड़ लोगों के हस्ताक्षर समेटकर जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह दिल्ली भी गए. अब एक बार फिर से जब नवंबर में नीतीश कुमार प्रदेश की यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे हैं तो उसमें भी विशेष राज्य के दर्जे पर जनता से संवाद एक अहम मसला होगा. यह संकेत है कि भविष्य की तैयारी जारी है.

जदयू के एक वरिष्ठ नेता, जो राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘सत्ताधारी दल हैं तो राजनीति करने के लिए कुछ तो विषय चाहिए न! इस अभियान को हमारे पक्ष में करना जरूरी था, नहीं तो फिर कार्यकर्ता इधर-उधर हो जाएंगे और राजनीति करने में मुश्किल होगी.’राजनीति के पेंच और पैंतरेबाजी के बीच सबके अपने-अपने तर्क हैं लेकिन क्या विशेष राज्य के दर्जे पर राजनीति की जितनी लंबी पारी खेलने की तैयारी में नीतीश लगे हैं, वह इतनी आसानी से वे खेल सकेंगे? सबसे पहली बात तो यही कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने के जो मानदंड तय हैं, उनके अनुसार बिहार को यह दर्जा मिलना ही मुश्किल होगा. हालांकि योजना आयोग की सिफारिश पर इस मांग पर अंतरमंत्रालयी समूह का गठन कर दिया गया है और 15 दिसंबर के पहले इसकी रिपोर्ट आने की बात भी कही जा रही है. जदयू प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘यह हमारे अभियान का असर है कि हम पहली सीढ़ी पार कर गए हैं.’ दूसरी ओर राज्य के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे एक-एक कर सभी मानदंडों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा देने का मामला एनडीसी में जाता है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एनडीसी में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री सदस्य होते हैं. जिस दिन एनडीसी में बिहार का मामला जाएगा, उस दिन उड़ीसा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ सभी बिहार से ज्यादा मजबूत तर्कों के साथ अपने-अपने राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग करेंगे, तब क्या केंद्र सरकार ऐसा कर पाएगी!

नीतीश कुमार चाहते तो वर्ष 2002 में ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिल गया होता-रामविलास पासवान, अध्यक्ष, एलजेपी

अगर तकनीकी पेंच को फिलहाल छोड़ भी दें तो नीतीश के सामने एक सवाल यह भी होगा कि आज वे जिस मांग को एक अभियान की तरह चला रहे हैं, जिसे वे और उनके संगी-साथी बिहार के विकास के लिए संजीवनी की तरह एकमात्र प्रारणरक्षक औषधि बता रहे हैं, वह तब उतना ही जरूरी क्यों नहीं था, जब नीतीश कुमार खुद केंद्र में थे. 2000 में जब बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बना था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि बिहार के अधिकांश प्राकृतिक संसाधन झारखंड में जा रहे हैं और उसके सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा होगा. नीतीश के सामने यह एक बड़ा सवाल है, जो राजनीति के अखाड़े में परेशानी का सबब बनेगा. लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान कहते हैं कि पहले नीतीश बताए कि 1998 से 2004 के बीच लोकसभा में बिहार से एनडीए के 34 सांसद थे. उस समय दो-दो बार बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके केंद्र को भेजा गया था कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाए. नीतीश कुमार को इस मांग के लिए बनी समिति का संयोजक भी बनाया गया था. लेकिन उन्होंने उस वक्त इस पर एक बार भी चर्चा क्यों नहीं की?

यह सवाल अकेले रामविलास पासवान या लालू प्रसाद का नहीं है, नीतीश के विशेष राज्य दर्जा अभियान के सामने कई लोग यही सवाल रख रहे हैं. नीतीश की ओर से इसका जवाब इतनी आसानी से दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि तब भाजपा के कुछ नेताओं के तरह-तरह के बयान भी आए थे. तब बिहार भाजपा के एक बड़े नेता का कहना था कि बिहार में जंगलराज है इसलिए यहां कोई पैकेज देने की जरूरत नहीं है न ही विशेष दर्जा दिए जाने की क्योंकि इससे लूटतंत्र का साम्राज्य और बढ़ जाएगा. बकौल अर्थशास्त्री शशिभूषण, भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने तो यहां तक कहा था कि बिहार और बिहारियों ने हमेशा ही झारखंड और झारखंडियों का शोषण किया है इसलिए बिहार को कोई अतिरिक्त सहायता नहीं मिलनी चाहिए. तब भी नीतीश कुमार भाजपा के साथ केंद्र में राज कर रहे थे, अब भी उसी भाजपा के साथ राज्य में शासन चला रहे हैं.

बिहार विशेष राज्य दर्जा अभियान के पक्ष में नीतीश कुमार द्वारा समर्थित स्टडी पेपर तैयार करने वाले और उनके प्रमुख रणनीतिकारों में शामिल रहे एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता कहते हैं कि इस बात को अब कहने से क्या फायदा कि तब नीतीश ने क्यों समर्थन नहीं दिया था, और अब क्यों ऐसा कर रहे हैं. शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘हो सकता है तब केंद्र में नीतीश उतने सशक्त ढंग से अपनी बात रखने की स्थिति में नहीं रहे हों और यह भी तो सत्य है कि नीतीश के पहले बिहार में गवर्नेंस या शासन नाम की कोई चीज कभी रही ही नहीं. अब जब सब कुछ पटरी पर आ रहा है तो राज्य हित में सभी दलों को साथ देना चाहिए.’

नीतीश के बचाव में शैबाल गुप्ता एक ऐसा तर्क दे रहे हैं जिसे सटीक जवाब तो नहीं ही माना जा सकता. बिहार नव निर्माण मंच के मदन पूछते हैं कि राजनीतिक एका को तोड़ने का काम कौन कर रहा है? क्यों नीतीश कुमार की पार्टी विशेष राज्य के दर्जे पर अकेले हस्ताक्षर अभियान चलाकर दिल्ली अकेले ही चली गई? क्यों नहीं दिल्ली में दबाव बनाने के लिए जदयू ने सभी दलों को इस अभियान में शामिल किया?

ऐसे कई तर्क-वितर्क चल रहे हैं और इन सबके बीच बिहार विशेष राज्य दर्जा अभियान को नीतीश परवान चढ़ाने के लिए हर मौके का इस्तेमाल कर रहे हैं. नीतीश कुमार इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं. जाहिर-सी बात है कि विज्ञान की चेतना से भी लैस होंगे लेकिन जब बारी आती है तो भावनाओं के दोहन की राजनीति करते हुए वे यह भी कह जाते हैं कि केंद्र अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देगा तो उसे आह लगेगी. फिर जब सावन में श्रावणी मेला का उद्घाटन करने सुल्तानगंज जाते हैं तो कहते हैं कि सभी मिलकर दुआ कीजिए कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिले. इंजीनियर नीतीश के मुंह से आह जैसे शब्द अटपटे लगते हैं. लेकिन राजनीति में कुछ अटपटा नहीं होता.

सरकारी अभियान की तरह शुरू हुए विशेष दर्जा अभियान को जदयू का बना दिए जाने पर तो भाजपा के नेता अभी कुछ खुलकर नहीं बोल रहे लेकिन वे इसके पक्ष में काफी आक्रामक हैं. खुद राज्य के  उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं, ‘बिहार के साथ नाइंसाफी कब तक होती रहेगी. विशेष राज्य का दर्जा, विशेष आर्थिक पैकेज व कोल लिंकेज की मांग की कब तक अनदेखी होती रहेगी. केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल के लिए राहत का पिटारा खोलते हुए उसे 21,614 करोड़ रुपये की विशेष वित्तीय सहायता देने की घोषणा की है. 3,068 करोड़ रुपये के राज्य के योजना आकार में केंद्र सरकार की 30 फीसदी की जगह पर 41.45 फीसदी की हिस्सेदारी बंगाल को मिलेगी. तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन वाली पश्चिम बंगाल सरकार को केंद्र जो देना हो दे लेकिन पिछले छह साल से बिहार की मांग को क्यों अनसुना किया जा रहा है?’

अब तक के केंद्र के रवैये से यह साफ है कि निकट भविष्य में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलेगा. 19 अगस्त को संसद में जदयू सांसद प्रो. रंजन प्रसाद यादव ने निजी विधेयक के जरिए बिहार को 30 हजार करोड़ रुपये का विशेष पैकेज देने की मांग की तो केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमो नारायण मीणा ने एक झटके में इसे खारिज कर दिया. उनका कहना था कि बिहार को उसकी जरूरतों के अनुसार पहले ही सहायता मुहैया कराई जा रही है इसलिए विशेष पैकेज देने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. मीणा ने उसी समय बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के सवाल पर भी अपना रुख स्पष्ट करते हुए कह दिया कि ऐसा केवल दुर्गम क्षेत्र, आबादी के कम घनत्व और आदिवासी बहुल राज्य के लिए ही किए जाने का प्रावधान है. कांग्रेस की ओर से कहा जा रहा है कि बिहार को विशेष सहायता दिए जाने के लिए अंतरमंत्रालय समूह विचार कर रहा है लेकिन अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में जमीन तलाश रही कांग्रेस अभी हड़बड़ी या दबाव में कुछ विशेष नहीं करेगी. जब लोकसभा चुनाव का समय निकट आएगा तो कुछ घोषणाएं की जाएंगी और उस घोषणा की राजनीतिक फसल काटने की कोशिश की जाएगी.

हम बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के खिलाफ नहीं हैं. बस इस मसले पर राजनीति न हो-शकील अहमद , कांग्रेस प्रवक्ता

कांग्रेस क्या करेगी, यह केंद्र में बैठे दिग्गज तय करेंगे. बिहार में फिलहाल अलग-अलग रास्ते चलकर अपनी संभावनाएं तलाश रहे विपक्षी दल बिहार विशेष राज्य दर्जे पर खुद फंसे हुए हैं. इसलिए इस मसले पर जो भी बड़े सवाल हैं वे मद्धम स्वर में सुनाई पड़ रहे हैं. नीतीश जानते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ यह समस्या है कि पावर व पार्टी, एक-दूसरे से अन्योन्यश्रित तरीके से जुड़े होते हैं. जब तक पावर है, तब तक पार्टी है. इसलिए वे लंबी चाल चल रहे हैं ताकि पावर व पार्टी, दोनों बने रहंगे.

हालांकि यह सोचना और इसे अमलीजामा पहनाना भी इतना आसान नहीं. बिहार में हो रहे बदलावों पर पैनी नजर रखने वाले भागलपुर के सामाजिक कार्यकर्ता और रंगकर्मी उदय कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार ने समान शिक्षा आयोग और भूमि सुधार आयोग का गठन किया. तब नीतीश कुमार ने कॉमन स्कूल सिस्टम की स्थापना और भूमि सुधार को बिहार के विकास के लिए जरूरी बताया था. लेकिन इन ठोस उपायों को बीच में ही छोड़ कर वे अब विकसित बिहार के लिए विशेष राज्य दर्जे की जबरदस्त पैरवी कर रहे हैं. बिहार के विकास के लिए समय-समय पर नये-नये नुस्खे सुझाना यह बताता है कि बिहार की खुशहाली के लिए गंभीर प्रयास करने की बजाय तरह-तरह के वोट बटोरु टोटके करने में ही उनकी ज्यादा दिलचस्पी है.’ उदय की ही बातों को आगे बढ़ाते हुए अर्थशास्त्री नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि यह एप्रोच ही गलत है क्योंकि एक समय सीमा के बाद विशेष राज्य दर्जा का जादू भी नहीं चलेगा. जनता विकास चाहती है. वह कैसे होगा, यह सरकार और मुख्यमंत्री जाने.’