कोविड-19 महामारी के चलते देश भर में लॉकडाउन से परम्परागत चिकनकारी और ज़रदोजी के काम को गम्भीर तरीके से प्रभावित करते हुए ढाई लाख से अधिक कारीगरों को बेरोज़गार कर दिया है। आॢथक संकट के चलते उनकी ज़िन्दगी का गुज़ारा बेहद मुश्किल हो गया है।
व्यावसायिक गतिविधियों और बाज़ारों के बन्द होने के खिंचते जाने उनका संकट और दु:ख बढ़ते ही जा रहे हैं। दरअसल, लॉकडाउन अवधि का यह समय ऐसे कामगारों के लिए पीक सीजन माना जाता है, जिससे वे अच्छी-खासी आमदनी कर लिया करते थे। एक अनुमान के मुताबिक, इस गर्मी में करीब 2,500 करोड़ का इस उद्योग को नुकसान होगा। यूपी की राजधानी लखनऊ की चिकनकारी पारम्परिक कढ़ाई शैली है। यह लखनऊ के सबसे प्रसिद्ध प्राचीन शिल्प में से एक है, जबकि ज़रदोजी सुन्दर धातु की कढ़ाई है, जो कभी भारत में राजाओं और राजघरानों की पोशाकों को सुशोभित करती थी।
ज़रदोजी कढ़ाई के काम में सोने और चाँदी के धागों का इस्तेमाल करते हुए विस्तृत डिजाइन बनाना शामिल है। चिकनकारी एक सुई और कई प्रकार के धागों का उपयोग करके की जाने वाली पारम्परिक कढ़ाई है, जबकि ज़री-ज़रदोजी का काम सुनहरे और चमकदार सेक्विन और अन्य सजावटी सामग्री के साथ किया जाता है। चिकनकारी और ज़री-ज़रदोजी का काम जी.आई. लखनऊ की कढ़ाई पूरी दुनिया में मशहूर है। चिकनकारी एक बेहद नाज़ुक और जटिल तरीके की कढ़ाई है। शुरुआत में कढ़ाई को सफेद यार्न का उपयोग करके किया जाता था, जिसे रंगहीन मलमल पर तंज़ेब के रूप में जाना जाता है। लखनऊ के चिकनकारी काम में इस्तेमाल किये जाने वाले टाँके मूल रूप से तीन श्रेणियों के होते हैं, अर्थात् फ्लैट टाँके (कपड़े के करीब रहने वाले सूक्ष्म टाँके), उभरे हुए टाँके (ये एक दानेदार उपस्थिति देते हैं) और जाली वर्क (थ्रेड टेंशन द्वारा निॢमत, यह एक नाज़ुक जाल बना देता है)।
हालाँकि, फैशन डिजाइन और बढ़ते बाज़ार में नये प्रयोगों ने जॉर्जेट, शिफॉन, सूती और कई अन्य बेहतरीन कपड़ों पर इस अनूठी कलाकृति का निर्माण किया। मुख्य रूप से कपड़े सजाने के लिए उपयोग किए जाने वाले एक अलंकरण से भारत का चिकनकारी की कढ़ाई का काम अब कुशन कवर, तिकया कवर, टेबल कवर और लिनेन तक में विस्तार पा गया है। चिकनकारी के विश्व प्रसिद्ध कपड़े कढ़ाई हस्तशिल्प और लखनऊ ज़रदोजी हैं, जिनके ब्रांड को जीआई से मान्यता मिली है।
लखनऊ में काम करने वाले इन कारीगरों का कहना है कि वे विदेशी डिजाइनरों के लिए बॉलीवुड अभिनेत्रियों के लिए चिकनकारी और ज़रदोजी के कपड़े बनाते हैं। उन्होंने ग्लैमरस सरिस, दुपट्टे, लहँगा और सूट डिजाइन किये, जो कि दुनिया भर में मशहूर हस्तियों के लिए हैं। लेकिन जब से कोविड-19 महामारी ने दुनिया को जकड़ लिया है, तबसे विदेश से ऑर्डर आने बन्द हो गये हैं। कुछ भी पैसे का लेनदेन नहीं हो रहा है। ऐसे में उनकी जीविका और अन्य घरेलू खर्चों को चलाना असम्भव होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश कई हस्तशिल्प समूहों का घर रहा है, जिसने दशकों तक अपने हुनर को दर्शाया है। मुख्यत: लखनऊ और इससे सटे छ: ज़िलों-बाराबंकी, उन्नाव, सीतापुर, रायबरेली, हरदोई और अमेठी में प्रतिष्ठित कलाकृतियाँ बनायी जाती रही हैं, जिन्हें किसी ज़माने में नवाबों के शासित अवध क्षेत्र के रूप में जाना जाता था।चिकनकारी और ज़रदोजी हस्तशिल्प का ऐसा ही एक क्लस्टर लखनऊ और इसके आसपास के 7 ज़िले हैं। इन ज़िलों में करीब 2,50,000 कारीगर काम करते हैं और लगभग 10,00,000 लोग सीधे आपूर्ति व अन्य तरीके से इससे जुड़े हुए हैं। इसके अलावा 10,000 से अधिक सूक्ष्म और लघु उद्यम के इस क्षेत्र में ज़रदोजी उत्पादों जैसे परिधान, होम फर्निशिंग, जूते, बैग आदि के निर्माण में लगे हुए हैं। ये उत्पाद देशभर में बेचे जाने के साथ-साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में निर्यात भी किये जाते हैं। लखनऊ में चिकनकरी और ज़रदोजी का काम फिलहाल पूरी तरह से ठप है।
कलात्मक हस्तशिल्प के मालिक एम.एन. लारी ने तहलका को बताया कि हस्तशिल्प उद्योग को लगभग 2500 करोड़ रुपये का अब तक भारी भरकम नुकसान हुआ है। आगे कहना मुश्किल है कि हालात कब सामान्य होंगे और वापस बाज़ार खुल पाएँगे? पिछले साल इस उद्योग ने करीब 200 करोड़ रुपये के उत्पादों का निर्यात किया। हम इस साल बेहतर करने की उम्मीद कर रहे थे। माल की आवाजाही अचानक रुक जाने से ऑनलाइन कारोबार भी ध्वस्त हो गया। मार्च से अप्रैल के बीच इस उत्पाद का पीक सीजन होता है, जिसमें गर्मियों में पहनने वाले कपड़ों की खूब माँग होती है। लेकिन सब कुछ बन्द होने से इस उद्योग को 2,500 करोड़ या उससे अधिक नुकसान हुआ है। लारी ने बताया कि सबसे ज़्यादा पीडि़त गरीब कारीगर हैं, जिनकी तादाद करीब 2.5 लाख है और उद्योग से अप्रत्यक्ष रूप से 10 लाख लोगों को रोज़गार मिलता है। वे माल की आपूर्ति और अन्य कार्यों से जुड़े होते हैं और इस कार्य का अहम हिस्सा होते हैं। उद्योग से जुड़े लोगों में टेलर, वॉशर मैन, क्लॉथ कटर और डिलीवरी बॉय के अलावा शोरूम में काम करने वाले कर्मचारी शामिल हैं। हालाँकि इस कुटीर और ग्राम उद्योग को मुख्यमंत्री द्वारा ‘एक ज़िला-एक उत्पाद’ की महत्वाकांक्षी योजना में जगह मिली, लेकिन अभी तक इस पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र में विकास की विशेष पहल नहीं देखी गयी है। जो कारीगर बेरोज़गार हो गये हैं, वे महज़ एक दिन में 150-250 रुपये की अल्प दैनिक राशि पर जीवन का गुज़ारा कर रहे थे। अकुशल और असंगठित होने की वजह से इनके शोषण की कोई आवाज़ भी नहीं उठा पाता, जिससे ये लोग तय न्यूनतम मज़दूरी से भी कम में काम करते हैं। इन कारीगरों का कहना है कि उनकी कार्यशालाएँ, जो उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत हैं; लॉकडाउन के चलते बन्द हैं। वे व्यापारियों से कर्ज़ लेकर उनके जाल में बुरी तरह फँस गये हैं। क्योंकि उन्हें ब्याज की अत्यधिक दरें चुकानी पड़ती हैं। पैसा उधार लेने के चलते उनका पूरा जीवन एक तरह से बँधुआ मज़दूर की तरह हो जाता है, जिससे मालिक उनको शोषण करते हैं। वे उन्हें डिजाइन के साथ कपड़ा और सामग्री भी देते हैं और अपने हुनर को बखूबी अंजाम देते हैं। वर्तमान में व्यापारी गहरे आॢथक संकट की चपेट में हैं, क्योंकि वे अपने थोक ऑर्डर को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में खासकर लखनऊ के ज़रदोजी और चिकनकारी कपड़ों की भारी माँग देश भर के विभिन्न हिस्सों में होती है।
बहुराष्ट्रीय फैशन ब्रांड और विदेशों में भी इसकी खास डिजाइन व सादगी लोगों को आकर्षित करती है। लखनऊ आने वाले पर्यटक स्मारक स्थलों को देखने के अलावा यहाँ के बाज़ार में ज़रदोजी और चिकनकारी के पारम्परिक काम में गहरी दिलचस्पी के साथ स्थानीय बाज़ारों का दौरा करके खरीदारी करते हैं। चिकन और ज़रदोजी सहित लगभग 100 बड़े उद्यमी और 4-5000 छोटे और मध्यम उद्यमी 80-90 फीसदी तक विदेशी पर्यटकों या निर्यात के कारोबार से जुड़े हैं। अवध (लखनऊ) की मशहूर ज़रदोजी और चिकनकारी का काम लॉकडाउन में पूरी तरह से ठहर गया है। कारीगरों से लेकर व्यापारियों तक हर कोई आॢथक संकट से जूझ रहा है। दैनिक वेतन भोगी कारीगरों ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मुफ्त राशन के अलावा भवन निर्माण श्रमिकों और अन्य मज़दूरों की तरह वित्तीय सहायता देने की माँग की है।
व्यापारियों को उम्मीद है कि कोरोना वायरस के कारण चल रहे संकट से उबरने में एक या दो साल का समय लग सकता है। अधिकांश व्यापारियों की शिकायत है कि माल और सेवा कर (जीएसटी) और कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन ने अपना व्यवसाय लगभग समाप्त कर दिया है। निर्माता व्यवसाय के अनिश्चित भविष्य के बारे में चिंतित हैं। एयरपोर्ट से लेकर पुराने शहर की तंग गलियों तक लगभग सभी बड़े और छोटे शोरूम लखनऊ की चमक को फीका कर दिया है। चिकन कपड़ा व्यापारी अजय खन्ना कहते हैं कि हम देश के आॢथक विकास की गिरती प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए गहरे अवसाद की ओर बढ़ रहे हैं। खन्ना ने कहा कि यह संकट 5-6 महीने के लिए जारी रहेगा। खरीदारी के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों सहित न तो ग्राहक आएँगे और न ही हम निर्यात के ऑर्डर की उम्मीद करेंगे। यहाँ तक कि अन्य राज्यों के बड़े व्यापारियों ने बाज़ार की अस्थिर स्थिति के कारण निर्माताओं का पैसा रोक लिया है। खन्ना ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन और उतार-चढ़ाव के कारण हमें निर्यात में भी नुकसान हुआ।
लखनऊ चौक बाज़ार के एक अन्य व्यवसायी सुनील खन्ना ने कहा कि लगभग 90 फीसदी चिकनकारी का काम लखनऊ व आसपास के विभिन्न ज़िलों व गाँवों में रहने वाली महिलाओं द्वारा किया जाता है। नये श्रमिकों को 150 रुपये मिलते हैं और अनुभवी कारीगरों को पारिश्रमिक के रूप में अधिकतम 300 रुपये रोज़ाना मिलते हैं। बाज़ार में बेहद उतार-चढ़ाव के कारण कारीगरों को मज़दूरी के भुगतान में देरी हुई है, जो हमारे नियंत्रण से बाहर हो चुकी है।
चिकन कला आउटलेट के चिकन निर्माता मुकेश रस्तोगी बेहद निराश हैं। वह कहते हैं कि अब अपने व्यवसाय में गिरावट को रिकवर करने में एक या दो साल लग सकते हैं।
सन् 2000 से ज़रदोजी शिल्प पेशे में लगे कारीगर आसिफ अली मुज़फ्फर कहते हैं कि लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में ज़रदोजी कारीगरों की संख्या में हो सकती है, लेकिन उनमें से ज़्यादातर बाज़ार में तालाबन्दी और मंदी के कारण आॢथक संकट का सामना कर रहे हैं। हालाँकि वस्त्र मंत्रालय (हस्तशिल्प) ने प्रचार योजनाओं के लाभ के लिए 15000 से अधिक कारीगरों को पंजीकृत किया था, लेकिन उनमें से किसी को ऐसे संकट के दौरान भी वित्तीय सहायता नहीं मिली।
मुज़फ्फर कहते हैं कि राज्य सरकार लगभग 35 लाख दैनिक मज़दूरों और ई-रिक्शा चालकों को वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है और ज़रदोजी कारीगरों के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। संकट के समय में कामगारों में भेदभाव किया गया? सरकार कम-से-कम उन मान्यता प्राप्त कारीगरों की आॢथक रूप से मदद कर सकती है, जो केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय के साथ मिलकर काम करते हैं। मुज़फ्फर ने तहलका को बताया कि उन्होंने इस बाबत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कई पत्र भी लिखे।
कारीगरों के कठिन संघर्ष के बारे में एक और सहकर्मी परवेज़ ने अपनी सामान्य चिन्ताओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी हमें अपना काम फिर से शुरू करने के लिए बड़ी आॢथक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। अब पुराने तैयार माल के स्टॉक ने इस उत्पादन के लिए भारी मात्रा में अवैतनिक मज़दूरी के साथ क्लस्टर कार्यशालाओं में ढेर जमा कर दिया है। जब तक चिकन निर्माताओं से हमारे पहले के वेतन बकाया का भुगतान हो जाता, तब तक हमारे लिए कोई भी नया काम शुरू करना बेहद मुश्किल होगा। यह अचानक लॉकडाउन की घोषणा के चलते ऐसा हुआ, जिससे हज़ारों ज़रदोजी कारीगर अपना वेतन पाने से वंचित रह गये हैं।
अंजुमन ज़र्दोजन (ज़रदोजी कारीगरों का संगठन) ने ज़ोर देकर कहा कि सरकार ने अपने पेशे में बहुत कुशल होने के बावजूद संकटकालीन अन्य मज़दूरों की तुलना में कारीगरों की दुर्दशा की अनदेखी की है। संगठन के सचिव, जियो आगा उर्फ नूर ने तहलका को बताया कि ज़रदोजी व्यवसाय पहले ही जीएसटी का खामियाजा भुगत रहा था। अब अप्रत्याशित लॉकडाउन ने हमारी कमर ही तोड़ दी है। केंद्र और राज्य सरकारों ने हमारी मदद नहीं की, तो ज़रदोजी की कला जीवित नहीं रह पायेगी और हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती है। इस कुटीर उद्योग की प्रकृति के बारे में जियो आगा बताते हैं कि ज़रदोजी का काम छोटे कमरों में किया जाता है, न कि बड़े कारखानों या कार्यशालाओं में। इसलिए इसकी ग्लैमरस चमक शोरूम में देखी जाती है, लेकिन कोई भी वास्तव में कारीगरों की बुनी कलाकृति को नहीं देखता है। जबसे तालाबन्दी शुरू हुई, मास्टर कारीगरों ने प्रति सप्ताह 2,400 से 2,500 रुपये तमाम परेशानियों के बीच कमाये। उन्होंने कहा कि राजधानी लखनऊ में ऐसी हज़ारों कार्यशालाएँ बन्द हैं और लाखों कारीगर बेरोज़गार हो गये हैं।
कपड़ा मंत्रालय में पंजीकृत चिकन कारीगर, समर फातिमा ने कहा कि फिलहाल मैं अपने घर का खर्चा उधारी खाता से चला रही हूँ। क्योंकि लॉकडाउन के कारण निर्माता को तैयार माल नहीं भेज सकी और मेरे पारिश्रमिक का भुगतान भी नहीं हो सका। यह समय (मार्च से मई) हमारे लिए सबसे व्यस्त हुआ करता था, जब हमें पानी पीने की फुरसत तक नहीं होती थी। लेकिन अब लॉकडाउन के कारण आमदनी तकरीबन बन्द हो गयी है। रेशमा ने भी ऐसी ही कहानी बयाँ की। वह घर पर ही चिकनकारी का काम करती हैं। रेशमा ने बताया कि अब काम की कोई कमी नहीं थी और पैसे भी समय पर मिल रहे थे। लेकिन लॉकडाउन के बाद से काम और आमदनी बन्द हो गयी है। यहाँ तक कि बकाया राशि की वसूली भी नहीं हो सकी है। मैं 10-12 साल के तजुर्बे के साथ एक बेहतरीन कारीगर हूँ। तालाबन्दी के दौरान हमारी बचत में कमी आयी और आगे कोई काम नहीं हुआ, तो वह भी बन्द हो गयी। ऐसा आफत वाला समय मैंने पहले कभी नहीं देखा। मैं एक नहीं, बल्कि तीन निर्माताओं के साथ काम करती हूँ। इससे पहले अगर एक जगह पर कोई काम नहीं होता था, तो दूसरी जगह से मिल जाता था, जिससे गुज़ारा हो जाता था। लेकिन इस बार उम्मीद टूटती-सी नज़र आ रही है कि मैं कैसे अपने तीन बच्चों को पाल सकूँगी। चिकनकरी और ज़रदोजी के काम की चमचमाती दुनिया के पीछे इस अँधेरे पक्ष से बहुत-से लोग पूरी तरह अनजान हैं, जहाँ इन कारीगरों के सुगमता और सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए उचित न्यूनतम मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई विधायी खाका तक नहीं है। इन कारीगरों के दिल से सच्चाई का खौफ खत्म हो गया है, जिन्होंने व्यापार के बड़े खिलाडिय़ों के हाथों वस्तुत: अपने जीवन और आज़ादी को गिरवी रखा है, जो पर्याप्त मज़दूरी का भुगतान भी नहीं करते और उनके श्रम का शोषण करते हैं। कपड़ा मंत्रालय के पास पंजीकृत कारीगरों का एक डाटाबेस है, लेकिन उसने भी आॢथक और सामाजिक सुरक्षा के साथ उन्हें सम्मानजनक जीवन प्रदान करने वाले विधायी ढाँँचे को लागू करने के लिए कुछ नहीं किया।