सीमा पर चीन की गतिविधियाँ बड़े ख़तरे का संकेत
चीन का दूसरा नाम धोख़ेबाज़ है। सीमा पर उसकी शरारतें महज़ शरारतों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनसे किसी बड़े ख़तरे की बू आ रही है। ज़्यादातर रणनीतिक जानकार इस बात पर सहमत हैं कि चीन लद्दाख़ के एक हिस्से में अपने क़ब्ज़े की साज़िश रच रहा है। चीन बहुत सोच-विचार के साथ अपनी सैन्य शक्ति को भी मज़बूत कर रहा है और भारत सीमा के संवेदनशील इलाक़ों में अपनी गतिविधियाँभी तेज़ कर रहा है। चीन की इस चाल और उससे बढ़ते ख़तरे के बारे में बता रहे हैं गोपाल मिश्रा :-
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते चीन आर्मी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) अत्याधुनिक हथियार प्रणालियों से लैस है, जिसका अन्तिम ध्येय सैन्य सन्तुलन को स्थानांतरित कर पूर्वी लद्दाख़ में लम्बे समय तक सैन्य अभियानों की अपने पक्ष में तैयारी करना है। भारत और चीन के बीच चल रही कमांडर स्तर की बातचीत से कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सकता है; क्योंकि चीन शान्ति की बात करते हुए भी सीमा क्षेत्रों में सैन्य रणनीतिक गतिविधियाँ सक्रिय रखना चाहता है।
हिमालय की ऊँचाइयों का लाभ लेने के लिए अपना पक्ष मज़बूत करने के अलावा पीएलए का एजेंडा अपने आश्रित पाकिस्तान को अपने कश्मीर एजेंडे की तरफ़ और अधिक मज़बूती से आगे बढ़ाने में सक्षम बनाने का है। उत्तरी और दक्षिणी तटों को जोडऩे के लिए पैंगोंग झील के नज़दीक एक पुल के निर्माण की हाल में सामने आयी उपग्रह छवियाँ एक बड़े राजनीतिक और रणनीतिक एजेंडे का हिस्सा प्रतीत होती हैं। इसके साथ ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में एक चोटी सहित कम-से-कम 15 स्थानों के चीनी भाषा में नये नामों की घोषणा की है।
वैसे चीन भले कुछ करे; लेकिन वह भारत से मुँह की खाएगा। भारत के सेनाध्यक्ष मनोज मुकंद नरवणे का कहना है कि यदि चीन भारत पर युद्ध थोपता है, तो उसे हार का मुँह देखना पड़ेगा। उधर 12 जनवरी को भारत और चीन के बीच 14वें दौर की सैन्य वार्ता हुई, जिसमें हॉट स्प्रिंग्स से सैनिकों को पीछे हटाने पर जोर दिया गया। नई दिल्ली में विदेश कार्यालय भारतीय स्थानों के नाम बदलने के लिए चीन की आलोचना करने में तत्पर रहा है; और यह भी आश्वासन दिया है कि पैंगोंग झील की तीन जनवरी की तस्वीरों से उन क्षेत्रों का पता चलता है, जो पिछले छ: दशकों से चीनी नियंत्रण में हैं। हालाँकि भारतीय प्रवक्ता अरिंदम बागची को यह याद दिलाना चाहिए था कि दलाई लामा की यात्रा के बाद सन् 2017 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में छ: स्थानों का नाम बदल दिया था। साल 2022 में चीन ने घोषणा क्यों दोहरायी? यह काफ़ी दिलचस्प है। इसका उत्तर शायद यह हो सकता है कि अब अक्टूबर, 2021 में बनाये गये क़ानून के तहत पीएलए को चीनी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने वालों के ख़िलाफ़ $कदम उठाने का पूरा अधिकार है। रूसी दबाव के बाद गलवान संघर्ष में भारत और चीन के बीच एक अस्थायी संघर्ष विराम हो गया था; लेकिन स्थिति अभी भी गम्भीर बनी हुई है। भारत शायद एक नये बहुपक्षीय चीनी आक्रमण के बारे में गहरे से आशंकित है, जिसमें कभी भी कहीं भी उसके ख़िलाफ़ आश्चर्यजनक तत्त्व हों। यह जून, 2020 में भारत द्वारा झेली गयी कई मौतों के साथ हुई झड़पों से कहीं अधिक विनाशकारी हो सकता है।
यह अब एक स्थापित तथ्य या भाग्य है कि सीमावर्ती राज्य होने के नाते अपने उत्तरी पड़ोसी देश चीन के साथ लगभग 2,500 किलोमीटर से अधिक लम्बी सीमा होने के कारण भारत को संघर्ष का सामना करना पड़ता है। जब भी यह संघर्ष होता है, इसमें किसी अन्य शक्ति का भौतिक समर्थन नहीं होता, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस का। भारतीयों की स्मृति में यह अभी भी है कि सन् 1962 के संघर्ष के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने पीएलए से अधिक संख्या में भारतीय बलों को कोई भी हवाई कवर (समर्थन) देने से इन्कार कर दिया था। भारत को महत्त्वपूर्ण हवाई समर्थन से वंचित कर दिया गया था, जो उसे अपमान को बचा सकता था। हालाँकि सन् 1967 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासन के दौरान भारतीय सेना ने नाथू ला में चीनियों को परास्त किया और चार साल बाद बांग्लादेश भारत के सक्रिय समर्थन से स्वतंत्रता हासिल कर सका। इन घटनाओं के साथ, पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीनी शरारत कुछ दशकों के लिए समाहित हो गयी। सन् 1962 के बाद के संघर्ष के वर्षों के दौरान तत्कालीन चीनी नेतृत्व की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा को चुनौती देने के लिए भारत को उच्च तकनीक वाले हथियारों से वंचित कर दिया गया था। इसके बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने पाकिस्तान को भारी आर्थिक सहायता और नवीनतम हथियार प्रणाली प्रदान की। इसने तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह फील्ड मार्शल, अयूब ख़ान को तीन साल बाद सन् 1965 में भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। सन् 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन से भारत पर हमला करने के लिए कहा था, ताकि पाकिस्तानी सेना बंगाली मुसलमानों को ख़त्म कर सके। यह अनुमान है कि अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों द्वारा समर्थित नरसंहार ने 20 मिलियन लोगों की सामूहिक हत्याएँ कीं, जिसमें 30 मिलियन युवा बंगाली मुस्लिम महिलाओं का दमन शामिल था।
बड़े संघर्ष की तैयारी करे भारत
सावधानी के साथ एक प्रतिष्ठित पूर्व भारतीय राजनयिक एल.एल. मेहरोत्रा ने इस पत्रकार से कहा कि पैंगोंग झील के हालिया घटनाक्रम और चीनी भाषा में अरुणाचल प्रदेश के 15 स्थानों का नाम बदलने पर भारतीय कूटनीति द्वारा विश्वव्यापी अभियान शुरू करके आक्रामक रूप से मु$काबला किया जाना चाहिए। चीन के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के पास वीटो की शक्ति है और जब भी वे मानते हैं कि वैश्विक शान्ति को ख़त्म है, वे इसका इस्तेमाल करते हैं। इसलिए यदि कोई स्थायी सदस्य हिंसा या संघर्ष को भड़काने में लिप्त होता है, तो उसे वीटो पावर से हटा दिया जाना चाहिए। उनका सुझाव था कि भारत को इसकी माँग करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
महरोत्रा ने पीड़ा व्यक्त की कि भारत पहले ही मैकमोहन लाइन के कार्यान्वयन पर जोर न देकर चीन को कूटनीति में बहुत जगह दे चुका है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) या नियंत्रण रेखा (एलओसी) ने वास्तव में चीन को सीमाओं पर अपनी स्थिति को बदलने के लिए अनावश्यक स्थान दिया है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि यह एक मूर्खतापूर्ण तर्क है कि नेहरू शासन ने वर्तमान शासकों की तुलना में चीन को बहुत अधिक भूमि दी थी। चीनी एजेंडा हिमालय में रणनीतिक पदों पर क़ाबिज़ रहना है।
अधिकांश लोग, जो या तो कूटनीति के संवेदनशील क्षेत्र में रहे हैं या भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान का संचालन कर रहे हैं, 2022 में तिब्बत के साथ उसकी सीमाओं पर चीनी सैन्य गतिविधियों को नये सिरे से ख़ारिज़ नहीं करते हैं। चीनी सैन्य दुस्साहस उसके एजेंडे के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। वह एशिया के साथ-साथ दुनिया भर में अपनी सैन्य श्रेष्ठता का दावा करता है। वह पहले से ही विश्व व्यापार और वित्तीय प्रणालियों में ख़ुद को आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर चुका है। कुल मिलाकर भारतीय धारणा यह है कि भारत और चीन के बीच चल रहे अनावश्यक सैन्य टकराव दुनिया में अपनी निर्विवाद सत्ता स्थापित करना एक बड़े चीनी डिजाइन का एक हिस्सा है; ख़ासकर जब 2049 में चीन कम्युनिस्ट अधिग्रहण के 100 साल का जश्न मनाएगा।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर ध्यान
भारत के राजनीतिक और सैन्य दोनों सुरक्षा प्रतिष्ठानों ने निकट भविष्य में दो एशियाई दिग्गजों के बीच सीमा गतिरोध के किसी भी स्थायी समाधान से इन्कार किया है। भारतीय प्रयासों को प्रौद्योगिकी विकास पर अधिक ध्यान देकर बढ़ाया जाना चाहिए। यह एकमत है कि पिछले तीन दशक के दौरान लगातार दुनिया भर में सरकारें क्षेत्र में चीन की कभी न ख़त्म होने वाली महत्त्वाकांक्षाओं से निपटने के लिए चौबीसों घंटे सतर्कता के साथ एक बहुआयामी भारतीय रणनीति विकसित करने में विफल रही हैं।
हाल के वर्षों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीनी पहल की तुलना में भारत पहले ही अपनी प्रौद्योगिकियों को विकसित करने का अवसर चूक चुका है। जबकि चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 फ़ीसदी विज्ञान और प्रौद्योगिकी में निवेश करता है, भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.75 फ़ीसदी ज्ञान की उच्च खोज में निर्धारित किया है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जर्मनी ने नयी प्रौद्योगिकियों के विकास में चीन के साथ काम करने का फ़ैसला किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के बाद चीन को पेटेंट होने वाले उत्पादों की सबसे बड़ी संख्या मिल रही है।
नयी रणनीतियाँ और हथियार
पिछले 10 वर्षों के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग ने पारम्परिक सैन्य योजना में सुधार किया है और इसे नागरिक-सैन्य एकीकरण के साथ सशक्त बनाया है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के क्षेत्र में नये आविष्कारों ने चीनी सेना को और मज़बूत किया है। आधुनिक फ्रिगेट और पनडुब्बियों के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार की नौसेनाओं को सशक्त बनाने के चीनी निर्णय ने भारतीय रक्षा तैयारियों की क़ीमत पर इस क्षेत्र में शक्ति सन्तुलन को अचानक बदल दिया है।
पिछले एक दशक के दौरान चीनी पहल के बारे में भारतीय मीडिया या यहाँ तक कि भारत में थिंक टैंक के सम्मेलनों में शायद ही कभी चर्चा की जाती है। सन् 2011 के बाद से रियर एडमिरल वांग यू, जो नेवल इक्विपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रमुख व्यक्ति थे; ने नौसेना के जहाज़ों को नये सॉफ्टवेयर प्लेटफॉर्म के साथ नवीनीकृत करने में मदद की है। मेजर जनरल ये झेंग, जो 2011 से सैन्य योजना का हिस्सा थे; ने नये शोध के साथ विकास में मदद की है। इसलिए भारतीय नौसेना को दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में इन घटनाओं पर ध्यान देना होगा और संघर्ष की स्थिति से कैसे निपटा जाए और ये स्थानीय शक्तियाँकैसे प्रतिक्रिया देंगी? इस पर मंथन करना चाहिए। भारत के सैन्य और नागरिक नेताओं के बीच एकमत है कि भारत को कभी भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि अगर कभी चीन के साथ कोई टकराव बड़े पैमाने पर होता है, तो विश्व शक्तियाँसंयुक्त राज्य अमेरिका और रूस, उसकी ओर से वास्तविक हस्तक्षेप करेंगे।
अमेरिका और भारत की निकटता
यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि मानवाधिकार के मुद्दों पर बहुत चर्चा के बावजूद, अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिम चीन के ख़िलाफ़ कभी वित्तीय प्रतिबन्ध गम्भीरता से लगाएगा। भारतीय विद्वान और रक्षा विशेषज्ञ एकमत हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को अपनी चीन नीति को ठीक करना चाहिए, वह भी बिना बयानबाज़ी या तेज़ घोषणाओं के। यह पूछा जा रहा है कि वुहान घोषणा के रूप में ज्ञात शान्ति और समृद्धि के लिए भारत और चीन के प्रस्तावित संयुक्त प्रयास अब तक क्यों नहीं चल पाए। इसका श्रेय मोदी को जाता है कि उन्होंने भारत के उत्तरी पड़ोसी देश के साथ एक स्थिर सम्बन्ध बनाने के लिए कई बार राष्ट्रपति जिनपिंग से मुलाक़ात की। वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह, क्षेत्र के कल्याण और प्रगति के लिए चीन में शामिल होना चाहते थे; लेकिन अब उसे सीमाओं की रक्षा के लिए देश के संसाधनों को फिर से तैनात करना होगा। चूँकि चीन के साथ संघर्ष बहुपक्षीय और बहुआयामी होने जा रहा है, वित्तीय औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रों को शामिल करते हुए चुनौतियों का सामना करने की रणनीति बहुत व्यापक होनी चाहिए। इस बीच राजदूत मेहरोत्रा जी. पार्थसारथी जैसे विदेशी मामलों के विशेषज्ञों के सुझाव का समर्थन नहीं करते हैं कि चीन अमेरिका के प्रति निकटता के लिए भारत से नाराज़ हो रहा है। ज़मीनी सच्चाई यह है कि बाइडेन की चीन विरोधी बयानबाज़ी के बावजूद चीन में अमेरिकी निवेश बेरोकटोक जारी है। इस प्रकार, अमेरिकी राजधानी और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के निरंतर प्रवाह से सशक्त चीन ने अंतत: विश्व व्यापार में प्रतिष्ठित महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया है और एशिया में अपना अधिकार लागू करने का इच्छुक है। चीनी रणनीति से ऐसा प्रतीत होता है कि वह सैन्य टकराव के साथ भारत को अग्रिम पंक्ति का राज्य होने के नाते लक्षित और शान्त करना चाहता है।
पूर्वी लद्दाख़ से लेकर भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तक चीन की सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश और 15 किलोमीटर चौड़ाई वाले संकीर्ण क्षेत्र, जो भारत की मुख्य भूमि को उसके पूर्वोत्तर आठ राज्यों जोड़ता है; में चीन की आक्रामक मुद्रा दर्शाती है कि उसे इनकी ज़रूरत है। एक महाशक्ति के रूप में भी सैन्य दृष्टि से अमेरिका के जगह लेने की चीन की इच्छा जगज़ाहिर है। पूर्वोत्तर राज्यों (अरुणाचल, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम) में चीनी घुसपैठ पिछले चार दशक से जारी है। वह मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और यहाँ तक कि मेघालय की गारो पहाडिय़ों में भी विद्रोहियों का समर्थन करने में कभी नहीं हिचकिचाता। भारत के मैत्रीपूर्ण प्रयासों के बावजूद चीन ने इस क्षेत्र में द$खल देना कभी नहीं छोड़ा।
चीनी खेल
01 जनवरी, 2022 की सुबह जब सूरज एक नयी उम्मीद की शुरुआत कर रहा था, तब एक अचंभित करने वाली शान्त धुन्ध भी थी। नये साल की पूर्व संध्या पिछले वर्षों में आशाओं और वादों को बढ़ाने के लिए धूमधाम वाली संध्या हुआ करती थी। हालाँकि पिछले दो वर्ष कोरोना महामारी के घातक दौर के चलते चुनौतियों भरे रहे हैं। इसके बावजूद दो देशों- भारत और चीन के सैनिकों का एक बड़ा समूह नये साल का स्वागत करने के लिए एक-दूसरे को बधाई देता है, वह भी ब$र्फ से ढकी हिमालय पर्वतमाला के बीच; जहाँ शिविरों में साँस लेने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है। इन कठिन इलाक़ों में ऑक्सीजन कम हो जाती है, जहाँ हमारे सैनिक चौबीसों घंटे निगरानी रखते हैं। हालाँकि उन्होंने चीनी सैनिकों को मिठाई के साथ बधाई देने के लिए अपने नये साल की भावना को बरक़रार रखा। कुछ समय के लिए यह भूल गये कि जून, 2020 में ही, उनके बीच झड़प हुई थीं, जिसके नतीजे में दोनों पक्षों का भारी नु$कसान हुआ था। यह वही जगह गलवान घाटी थी, जहाँ सेनाएँ पिछले 20 महीनों से एक-दूसरे के सामने डटी हैं। लेकिन $खुशियों का यह आदान-प्रदान अल्पकालिक था। कई लोग तब आश्चर्यचकित रह गये, विशेष रूप से वह लोग, जिन्होंने केवल कुछ घंटे पहले ही मिठाइयों का आदान-प्रदान किया था; क्योंकि उन्हें उनके वरिष्ठों ने सूचित किया कि चीनियों ने एक अपनी भाषा में कई चीनी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर अपना झण्डा साझा किया है, जिसमें उन्होंने दवा किया है कि जिस क्षेत्र पर वे क़ब्ज़ा करना चाहते थे, उस पर क़ब्ज़ा कर लिया है। भारतीय पक्ष ने भी इस दुष्प्रचार का मु$काबला करने के लिए तुरन्त तिरंगा साझा किया।
चीनी युद्ध खेल, वेई अपने आश्चर्यजनक तत्त्व के साथ शतरंज से अलग है। चीन की इन चालों से भारतीय वा$िक$फ हैं। इसलिए भारत में कुछ लोग आश्चर्यचकित थे, जब इस उत्तेजक कार्रवाई के बीच एक चीनी अंग्रेजी दैनिक ‘ग्लोबल टाइम्सÓ ने चीनी भाषा में अरुणाचल प्रदेश की चोटी सहित 15 स्थानों का नाम बदलकर एक लेख प्रकाशित किया। चीन के नागरिक मामलों के मंत्रालय के हवाले से दैनिक ने यह भी घोषणा की कि पहली जनवरी, 2022 से चीन नये नामों को लागू करेगा। यह अक्टूबर, 2021 में बने क़ानून के प्रावधानों के तहत किया जा रहा है। इस प्रकार वर्ष 2022 एक और टकराव की आशंका के साथ शुरू हुआ है, जो दो एशियाई देशों की सेनाओं के बीच बहुत बड़े टकराव में बदल सकता है। भारतीय नीति निर्माता, साउथ ब्लॉक (केंद्र सरकार के तीन प्रमुख पदाधिकारियों के कार्यालय, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के कार्यालय इस भवन में स्थित हैं) और विभिन्न थिंक टैंक, जो विभिन्न भारतीय कूटनीति में आँकड़े रखते हैं; सेना के पूर्व शीर्ष अधिकारी और प्रतिष्ठित शिक्षाविद्् आशंकाओं से भरे हैं। गलवान अनुभव की पुनरावृत्ति के उनके डर से वास्तव में इंकार नहीं किया जा सकता है। उनकी प्रारम्भिक प्रतिक्रिया यह है कि भारत को एक और टकराव के लिए तैयार रहना चाहिए; लेकिन समय और स्थान चीन द्वारा तय किया जाएगा।
इस बीच यह आम सहमति है कि चीन के साथ सन् 1962 के युद्ध में भारत की पराजय के लिए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोष देने के बजाय यह उचित समय है कि नरेंद्र मोदी को यह महसूस करना चाहिए कि भारत को मैकमोहन रेखा से सहमत नहीं होना चाहिए, जैसा सन् 1914 में 24-25 मार्च को दिल्ली में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच तय हुआ था। यह शिमला सम्मेलन की अनुवर्ती था, जिसमें पहले भी चीन ने भाग लिया था, जो दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश दक्षिणी तिब्बत है, इसलिए इसे चीनी नियंत्रण में होना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि चीन पहले ही तिब्बती राष्ट्रवाद को और कमजोर करने के लिए बड़े तिब्बत को विभाजित कर चुका है।
शिखर सम्मेलन के दौरान भी चालबाज़ियाँ
सन् 2014 और 2015 के दौरान भारत उत्साहपूर्वक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनके सहयोगियों की क्रमश: अहमदाबाद और नई दिल्ली में मेजबानी कर रहा था। लेकिन उच्चतम स्तर पर इन बैठकों के दौरान पीएलए ने चुमार गाँव के नये भारतीय क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने में संकोच नहीं किया। लद्दाख़ त्सो मोरीरी झील के दक्षिण में नदी के तट पर परंग नदी और डेमचोक अपने दावों को और मज़बूत करने के लिए उसने ऐसा किया।
भारतीय सैन्य सूत्रों से पता चलता है कि भारत में जिनपिंग के आगमन से कुछ दिन पहले 1,000 से अधिक मंडलों को स्थानांतरित कर दिया गया था। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि चुमार (चुमुर) सीमा एक अन्तरराष्ट्रीय सीमा थी, जो कभी विवाद में नहीं थी। हालाँकि बिंदु 4925 से बिंदु 5318 के बीच सीधा सम्बन्ध रखने की अपनी चालों में चीन ने इसके एक विवादित क्षेत्र होना का दावा किया है, ताकि उस पर क़ब्ज़ा कर सके।
यहाँ दो सवाल उठते हैं। पहला, क्यों नरेंद्र मोदी मैकमोहन लाइन के आधार पर भारतीय दावों पर जोर देने के प्रति अनिच्छुक हैं? और दूसरा, क्या शी जिनपिंग पर वास्तव में उनकी इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि वह वास्तव में भारत के साथ शान्ति चाहते हैं? जिनपिंग देश के सैन्य आयोग के प्रमुख भी हैं, यह विश्वास नहीं किया जा सकता है कि पीएलए उनकी मं•ाूरी के बिना भारतीय इलाक़ों पर हमला कर सकता है। इस प्रकार पीएलए पुराने चीनी युद्ध के खेल में लिप्त है।
चीन का आतंकवादियों को समर्थन
नरेंद्र मोदी और जिनपिंग के बीच चीन के वुहान में अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के दौरान अप्रैल, 2018 में एक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये गये थे। इसमें आतंकवाद का संयुक्त रूप से विरोध करने पर सहमति व्यक्त की गयी थी, जो वैश्विक शान्ति के लिए ख़त्म है। लेकिन चीन ने अगले आठ महीनों के भीतर पाकिस्तानी आतंकवादियों और आतंकी संगठनों का समर्थन किया। फरवरी, 2019 में उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अन्य चार स्थायी सदस्यों यूके, फ्रांस, रूस और यूएसए के पाकिस्तान स्थित आतंकवादी अजहर मसूद, जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन करने से इन्कार कर दिया था। सन् 2008 में मुम्बई में 26/11 के आतंकवादी हमले के यह लोग आरोपी थे।
पुतिन की शान्ति-पहल
पिछले दो साल मानव जाति के लिए काफ़ी दर्दनाक थे, ख़ासकर भारत के लिए। जब दुनिया कोरोना की मौत का सामना कर रही थी, भारत को पूर्वी लद्दाख़ में गलवान घाटी से सिक्किम तक की सीमाओं पर चीनी घुसपैठ का सामना करना पड़ा। झड़पें 5 मई, 2020 को हुईं, जो बड़े पैमाने पर टकराव में भड़क सकती थीं। हालाँकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के समय पर हस्तक्षेप के कारण सबसे $खराब स्थिति टल गयी। उन्होंने सुनिश्चित किया कि दो एशियाई दिग्गजों के बीच सन् 1962 के युद्ध की पुनरावृत्ति नहीं हो। कुछ किलोमीटर की प्रतीकात्मक वापसी को छोड़कर चीनी 2020 से पहले की स्थिति में नहीं लौटे हैं। भारत को उम्मीद थी कि जनवरी में कोर कमांडर स्तर पर फिर से शुरू होने वाली बातचीत कुछ समय के लिए तनाव कम कर सकती है; लेकिन स्थायी शान्ति मायावी बनी हुई है। हाल की उपग्रह छवियों से पहले ही लद्दाख़ सीमा पर चीनी सेना के और अधिक $िकलेबंदी का पता चला है। इसके साथ भारतीय स्थानों और अरुणाचल प्रदेश की चोटियों का चीनी भाषा में नामकरण किया जाता है। ये नये चीनी मुद्राएँ नये साल पर सीमा पर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच मिठाइयों के आदान-प्रदान के एक सप्ताह के भीतर हो रही हैं। इस उत्सव के मूड के बीच गलवान घाटी में चीनी झण्डा फहराया गया। भारत की ओर से तिरंगा फहराकर इसका तुरन्त विरोध किया गया।
एक ग़ैर-राजनयिक अधिनियम
लद्दाख़ में नये आक्रामक रु$ख से कुछ ह$फ्ते पहले, कई भारतीय क़ानून निर्माताओं को चीनी दूतावास से तिब्बती स्वतंत्रता का समर्थन करने वाली किसी भी बैठक में भाग लेने से परहेज़ करने के लिए एक सन्देश मिला था। 22 दिसंबर, 2021 को, तिब्बत के लिए ऑल पार्टी फोरम की बैठक में कई प्रमुख भारतीय राजनेताओं ने भाग लिया। इनमें केंद्रीय राज्य मंत्री चंद्रशेखर, कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता जयराम रमेश, मनीष तिवारी, भाजपा की मेनका गाँधी और इसके संयोजक बीजू जनता दल के सुजीत कुमार शामिल थे। निर्वासन में तिब्बती संसद के अध्यक्ष खेंपो सोनम तेनफेल ने तिब्बत का प्रतिनिधित्व किया।
नई दिल्ली में चीनी दूतावास के राजनीतिक सलाहकार, झोउ योंगशेंग ने भारतीय सांसदों को एक सन्देश में कहा है कि अगर तिब्बत स्वतंत्र है तो इस कारण का समर्थन करने से बचें। इस को भारतीय पक्ष से तीखी आलोचना मिली है। यह बताया जा रहा है कि निर्वासित तिब्बती सरकार चीन के भीतर स्वायत्तता की माँग कर रही है। तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी नेतृत्व के बीच कई गोपनीय बैठकें हुई हैं। एक देश के भीतर दो प्रणालियों के होने का फार्मूला, जिसे हॉन्गकॉन्ग में लागू किया गया था, बीजिंग में कम्युनिस्ट शासन और तिब्बती नेतृत्व के बीच छ: दशकों के गतिरोध को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता था। हालाँकि हॉन्गकॉन्ग में स्वायत्तता की समाप्ति के साथ तिब्बती मुद्दे के समाधान की सम्भावनाओं को अब ख़ारिज़ कर दिया गया है। चीनी उकसावे का पता कोरोना महामारी के चल रहे दौर के तीसरे वर्ष में अपनाये जा रहे नये आक्रामक रु$ख से लगाया जा सकता है।
चीन की नयी मुद्रा
ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की राजनीतिक राय के दायरे ने विचारधाराओं के बावजूद सांसदों के साथ-साथ भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान का संचालन करने वालों को भी चकित कर दिया है। जनरल (सेवानिवृत्त) वी.के. तिवारी, जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं; का मानना है कि भारत को अपने अप्रत्याशित उत्तरी पड़ोसी के साथ रहना सीखना होगा। वह भारत में बेहतर तोपों और तोप$खाने के निर्माण की सराहना करते हैं; लेकिन भारत और चीन के बीच तकनीकी अन्तर हर गुज़रते दिन के साथ व्यापक होता जा रहा है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि चीन की मित्रता हमारे प्रमुख रणनीतिक निर्णयों को प्रभावित नहीं करनी चाहिए। नीति निर्माताओं के लिए यह कार्य प्रत्येक बीतते दिन के साथ और अधिक कठिन और जटिल होता जा रहा है। चूँकि भारत एक अग्रिम पंक्ति का राज्य है, इसलिए उसे चीन के अंतहीन आक्रामक रुख़ और जुझारू रवैये का सामना करना पड़ता है। उसे किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहने की स्थिति में रहना पड़ता है। चीन को $खुश करने के लिए, अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों ने पहले ही तिब्बत के लोगों को असहाय छोड़ दिया है। हालाँकि यह मुद्दा 2020 में पश्चिमी मीडिया में सुर्खियां में आया, जब चीन ने अचानक हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता समाप्त कर दी और आश्वासनों को ख़ारिज़ कर दिया।
चीन ने 50 साल की अवधि के लिए अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने का वादा किया था। $करीब 156 साल के ब्रिटिश शासन के बाद पहली जुलाई, 1997 को इसे चीन को वापस कर दिया गया था। इससे पहले चीन और ब्रिटेन द्वारा सन् 1984 में एक संयुक्त बयान जारी किया गया था कि चीन एक देश में दो प्रणालियों के सिद्धांत के तहत हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता को बरक़रार रखेगा। चीन की निंदा करने वाले कुछ बयानों को छोड़कर पश्चिमी शक्तियाँ चीन के ख़िलाफ़ कोई भी ठोस फ़ैसला लेने में हिचकिचा रही हैं। अमेरिकियों ने चीन को हॉन्गकॉन्ग डॉलर को प्रिंट करना जारी रखने की अनुमति दी है, जिसे यूएसडी जैसी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
चीन की पैठ
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, पुतिन के साथ अपने शिखर सम्मेलन के दौरान यूक्रेन के मुद्दे पर कठिन मुद्रा अपनाते हैं; लेकिन वह चीन को ताइवान पर बलपूर्वक क़ब्ज़ा करने से रोकते हुए किसी भी कठोर शब्दों का उपयोग करने से परहेज़ करते हैं। साउथ ब्लॉक में आकलन यह है कि आने वाले महीनों में चीनी परदे के पीछे ताइवान पर दुनिया भर में दबाव बढ़ेगा। निकारागुआ द्वारा हाल ही में ताइवान के दूतावास को बन्द करने का निर्णय चीनी मिशन द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना एक ऐसा उदाहरण है।
इसके दो कारण हो सकते हैं; पहला यह कि पिछले दो दशक के दौरान अमेरिकी व्यवस्थाओं में चीन की पैठ इतनी गहरी हो गयी है कि अमेरिकी प्रशासन ख़ुद को चीन से निपटने में असहाय पाता है। दूसरा, अमेरिकी रूस को चीन से कहीं ज़्यादा बड़ा ख़त्म मानते हैं। इसलिए ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जापान और भारत में शामिल बहुचर्चित क्वैड भी एक ग़ैर-स्टार्टर गठबन्धन प्रतीत होता है। इस बीच ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस सहित अधिकांश अमेरिकी सहयोगी चीनी प्रायोजित मुक्त व्यापार समझौते क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी ) में शामिल हो गये हैं। यह चीन को एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में अपना आर्थिक वर्चस्व स्थापित करने में सक्षम करेगा। भारत आरसीईपी में शामिल नहीं हुआ है; लेकिन द्विपक्षीय व्यापार 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है।
चीन से आयात बढ़ा
हिमालय पर चीन-भारत गतिरोध के बाद बहिष्कार के आह्वान के साथ-साथ आत्म निर्भरता की बयानबाज़ी के बावजूद चीन से आयात में वृद्धि देखी जा रही है। सन् 2014-15 के दौरान जब भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन) सत्ता में आया, तो चीन से आयात 42.33 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जबकि भारत का निर्यात 12.26 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। अप्रैल-दिसंबर 2021 की अवधि के दौरान चीनी आयात पहले ही 85 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया था और चीन को भारतीय निर्यात, वह भी कम मूल्य वाले कच्चे माल का, केवल 12.26 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। हालाँकि चीन से बड़े पैमाने पर आयात के बावजूद, इसने सीमाओं पर और साथ ही संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न मंचों पर भारत के ख़िलाफ़ अपने आक्रामक रुख़ को जारी रखा है।