हम और वह नहीं हम’, ‘चश्मा साफ कर लीजिए’ जैसे वाक्यों से फिल्म के आखिर में जज साहेब द्वारा पूरा संदेश दे दिया गया है।
समाज के हर वर्ग को बहुत धीरे से मगर बहुत गहराई से एक सीख दे दी गई। फिल्म देखने के बाद बहुत ताकत और तर्क मिलते हैं। मुसलमान को देशभक्ति का सबूत देने की कोई ज़रूरत नहीं।
हर कुतर्क का जवाब देने की ज़रूरत नहीं वरन संविधान को संभालने की व उसे मजबूत करने की बात की गई है। पूरी फिल्म का सार इसी में सिमट आता है। यह समझ में नहीं आता कि जिंदाबाद लेखक को कहूं, निदेशक को, किरदारों को जिन्होंने बहुत खूबसूरती से अपने किरदारों को निभाया।
फि़ल्म के अंत में आतंकवाद की परिभाषा को बहुत सादगी के साथ रख दिया गया। ‘राज्य या विरोधभाव को दबाने के लिए हिंसा या भयोत्पादक उपायों का अवलंबन’ इस परिभाषा में कहीं कोई धर्म की बात नहीं है। जिस की पुरजोर कोशिश बहुत वर्षों से दुनिया भर में पूंजीवादी ताकतें और सांप्रदायिक ताकते आतंकवाद को मुसलमानों के साथ जोड़कर लोगों के दिमागों में डालने को पुरजोर कोशिश कर रही हैं।
पूरी फिल्म देश में 2014 से जो गंदगी फैली है उसको बहुत बेहतरीन तरीके से साफ करने का सफल प्रयास किया है।
आरएसएस का कार्य तो उसके जन्म के साथ ही चल रहा है किंतु पिछले 4 सालों में सत्ता की शाबाशी के साथ हर जगह जिस भगवा आतंकवाद को फैलाया है उस जहर को शांत करने के लिए तो कोई गांधी जैसा व्यक्तित्व ही चाहिए।
‘अंतिम परिच्छेद’ के पहले खंड में गांधी जी के सचिव प्यारेलाल 114 वें पन्ने पर लिखते हैं कि जब गांधी जिन्ना को 1944 में मिलने गए तब भी उन के हमले चालू थे। आरएसएस के लोग जिनमे गोडसे भी था, गांधी जिन्ना वार्ता रोकने के लिए गांधी जी के वर्धा निवास के तीनों रास्तों को घेर कर बैठ गए थे। पुलिस ने कहा कि वह गंभीर शरारत करना चाहते हैं मगर बापू ने कहा ‘मैं उनके बीच अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूंगा स्वयंसेवक अपना विचार बदलने और मुझे मोटर में जाने को कहें तो दूसरी बात है।’ पुलिस ने उन लोगों को गिरफ्तार किया तो उनके पास चाकू भी मिला।
1948 में 28 जनवरी को बिरला भवन पर प्रार्थना के समय बम विस्फोट किया गया किंतु गांधी ने गृह मंत्री और प्रधानमंत्री दोनों को इस बात के लिए मना किया कि उनकी सभा में आने वाली किसी भी व्यक्ति की तलाशी डाली जाए।
व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के विद्यार्थी इन तथ्यों को नहीं जानते कि 1946 में आजादी की बातें हो रही थी। आज के बांग्लादेश में स्थित नोआखली और टिपेरा जिलों में गांधीजी हिंदू समुदाय की रक्षा के लिए गांव-गांव पैदल घूम रहे थे। एक गांव से दूसरे गांव पैदल जाते थे। उनके साथ उनके भतीजे की बेटी मनुबेन गांधी रहती थी। दोनों दादा पोती बहुत कम सोते, दिन भर लोगों से मिलते। काम करते। हिंदुओं को कहते कि गीता पढ़ो और मुसलमानों को कुरान पढऩे की ताकीद करते थे। सामूहिक प्रार्थना करते थे जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थना का अंश हैं। सकरे-घने सुपारी के पेड़ों के बीच से होकर एक से दूसरे गांव के पैदल रास्ते में शरारती लोग कांच के टुकड़े व मानव मल तक डाल देते थे। उस दौरान गांधी ने किसी भी सभा में स्वागत समारोह को स्वीकार नहीं किया। अपने इस काम को मानव मात्र की सेवा मानते थे। मंदिर में चप्पल पहन कर नही जाते इसलिए सारी यात्रा के दौरान वे नंगे पैर ही रहे। और इस तांडव को रोकने में सफलता प्राप्त की। वह हिंदू नहीं मुस्लिम घर में ठहरते थे। अपने सभी साथियों को उन्होंने अलग-अलग गांवों में बिठा दिया था। बीमार पडऩे पर राम ही मेरा रक्षक है ऐसा करके किसी डॉक्टर को भी नहीं बुलाते थे।
सामूहिक प्रार्थना में हर दिन हिंदू मुसलमानों से रघुपति राघव राजा राम ईश्वर अल्लाह तेरे नाम यह प्रार्थना करवाते थे और करते थे।
नोआखली यात्रा के दौरान एक दिन उनसे नेहरू जी मिलने आए और उन्होंने कहा बापू हमें आपकी दिल्ली में बहुत जरूरत है आप दिल्ली आइए। गांधीजी का उत्तर था मैं यहां एक गांव मेंं जो काम करूंगा वह पूूरे भारत के लिए नजीर है।
हिंदू मुसलमान का फर्क न मानकर एक मानव मात्र के रूप में मनुष्य को देखते थे। 1947 के अगस्त सितंबर में कोलकाता बिहार में जब मुसलमानों का कत्लेआम होने लगा तो वे कोलकाता गए और उन्होंने दो-तीन दिन में ही शांति स्थापना की।
मनु बहन की लिखी पतली सी किताब ‘बापू मेरी मां’ में कई बातों का उल्लेख है कि गांधी जी से मिलने तत्कालीन बंगाल के मुख्यमंत्री सोहरावर्दी साहब आए और कहा कि बापू आप बंगाल चलिए गांधी जी नेेे उत्तर दिया की आप और मैं एक साथ रहेंगे। गांधी बंगाल गये और दुनिया कलकत्ते के चमत्कार को देख पाई। एक बूढ़े कृशकाय 79 वर्ष के आदमी और 16-17 साल की लड़की के पास रात को एक मुसलमान अपनी जान बचाने आता है। गांधी आताताई भीड़ के सामने खड़े हो जाते हैं। भीड़ को मजबूरन लौटना पड़ता है। गांधी अगले दिन 21 दिन के उपवास की घोषणा करते हैं। भारत की अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के शब्दों में जो काम एक पूरी बटालियन नहीं कर सकती थी वह गांधी जी के उपवास ने कर दिखाया।
प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय अजीत भट्टाचार्य जी ने लिखा हैं कि कोलकाता में गांधीजी के उपवास का यह असर था कि लोग ट्रकों में डंडों की जगह घर-घर राखियां लेकर पहुंचे और एक दूसरे से राखी बंधवा रहे थे। उस प्यार उस जज्बे की देश को ज़रूरत है। उस इंसाफ पसंद इंसान की देश को जरूरत है जिसका अपना कुछ नहीं हो। बहुत कठिन है सामने वाले की सारी नफरत को समेटते हुए उसके लिए प्यार रखना। माफ करने की ताकत और गले लगाने का जज्बा होना चाहिए।
अपने को तथाकथित हिंदू रक्षक कहलाने वाले नोआखली और टिपेरा जिलों में उस दौरान कुछ भी काम करते नजर नहीं आए। अकेले गांधी ने अपने कुछ अनुयायियों के साथ भारत के इतिहास में इंसानियत के वह स्वर्णिम पन्ने जोड़ दिए जो तालिबानी कौमों के कुकर्मों के बाद भी चमचमाते रहेंगे।
गांधी के संघर्ष की विरासत को लेकर चलने वाले बहुत कम नजर आ रहे हैं। और जो हैं वह समाज के सामने जिस तरह परिलक्षित होने चाहिए वह नहीं हो पा रहे क्योंकि आज हमला बापू के समय से बड़ा है। ज़हर फैलाने के लिए मात्र सुबह की शाखा ही नहीं वरन फेसबुक, व्हाटसअप की आभासी दुनिया भी है। जो आज के हिटलरी झुंड को झूठ को सच मे प्रदर्शित करने की ताकत दे रहा है। हिटलर के साथी ग्लोबल्स ने कहा था कि एक झूठ को सौ बार कहने से वह सच लगने लगता है। धर्मनिरपेक्ष ताकतों के पास आरएसएस जैसा संगठन नहीं जो उन्माद की बुनियाद पर खड़ा है और हिंदुत्व को भगवा आतंकवाद में बदल रहा है। इसका सामना करने के लिए सच्चाई और प्रेम की राह पर चलने वाला गांधी ही हो सकता है।
विनोबा भावे से जब पूछा गया की गांधी जी की हत्या के बाद पहले क्षण आपको कैसा लगा? उन्होंने कहा गांधी मरे नहीं मैं आंख बंद करते ही उनको सामने पा जाता हूं। शायद इसी भावना की जरूरत है वह आधा नंगा फकीर जिसने देश की हर समस्या को अपने से जोड़कर उसका हल तलाशा। उसी को देश में ढूंढे। उसका विचार अगर हमारे अंदर उतरे, तो वहीं आज की हवा में फैलते इस जहर को रोक सकता है। झूठ को रोक सकता है। गांधी ने अहिंसा का प्रतिकार किया था। नोआखाली, कोलकाता, बिहार से लेकर दिल्ली तक अकेले ही उन्होंने मौत के तांडव को परास्त किया था।
उस जादुई चमत्कार के लिए आहुति देने वाले लोगों की ही आज जरूरत है और वही एक तरीका बचता है। जब सरकारें हिंसक हो, सत्ता मधान्त हो, संविधान को जलाने वाले नजरअंदाज कर दिए जाएं और अंधेरे का घनत्व बढ़ता जाए। जब आताताई शक्तियां संगठित रूप से आंख कान बंद करके हमले कर रही हो और रक्षक आंख-कान बंद करके उन्हें हवा दे रहे हो।
तब हमें देश के अंदर और अपने अंदर गांधी को तलाश करना होगा। उस रास्ते पर आगे बढऩा होगा। अफसोस कि गांधी विचार वाले कहलाने वाले साथी लोग सड़कों पर या इस तांडव के सामने जिस तरह खड़े होकर की दिखने चाहिए वह नहीं दिख रहे है। ज़रूर वे अपनी तरफ से कुछ करते होंगे।
गांधी जी ने कहा था की ‘निराशा ने जब भी घेरा तो बार-बार इतिहास साक्षी हुआ की प्यार और सत्य की सदा विजय हुई। इस धरती पर बहुत से हत्यारे और सितमगर हुए और कभी कभार ऐसा लगा कि विजय उन्हें ही मिलेगी पर आखिर यही हुआ कि वह मिट गए।’
मुल्क की तस्वीर तभी साफ हो पाएगी जब हम अपना चश्मा साफ कर ले।