उत्तराखंड के ही नहीं बल्कि देश के विकास पुरुष हमारे बीच नहीं रहे। भले ही वह हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके द्वारा किये गये कार्यों को उत्तराखंड में याद किया जाएगा। नारायण दत्त तिवारी संयुक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। साथ ही केंद्र में कई ऐसे प्रमुख मंत्रालयों के मंत्री भी रहे जो विकास से सीधे जुड़े थे। उद्योग, और वित्त मंत्रालयों में वे खाली रस्मी मंत्री ही नहीं थे, उन्होंने उन मंत्रालयों में रह कर बखूबी उनके कार्यों को निपुणता से निभाया भी। भले ही उन पर व्यक्तिगत आरोप लगे हों, पर वे सार्वजनिेक जीवन में अपनी कार्यशैली से उत्कृष्ट पदों का कार्यभार बेहतरीन तरीके से निभाते रहे।
एक उद्योग विहीन राज्य उत्तराखंड के वे मुख्यमंत्री रहे। उद्योग खोलने के लिए जो प्रयोग उन्होंने किए वह यदि निरंतर उस गति से चलते तो उत्तराखंड आज उद्योगों में श्रेष्ठता लिए होता। सिडकुल की प्रदेश में स्थापना कर नारायण दत्त्त तिवारी ने एक अच्छी शुरुआत की, पर उनके उत्तराधिकारियों ने उनको वो गति नहीं दी, जिसकी उद्योगों को ज़रूरत थी। मेरा आशय यहां पर उत्तराखंड की कृषि की ओर ध्यान खींचना है, जिसमें तिवारी कोई ऐसा विशेष मील का पत्थर स्थापित नहीं कर पाये, जिसकी प्रदेश को बहुत जरूरत थी। पूरा प्रदेश पहले से ही कृषि आधारित रहा है। भले ही पर्वतीय इलाका अपने वर्ष भर की ज़रूरतों को पूरी नहीं कर पा रहा था। उस पर नारायण दत्त तिवारी का ध्यान था, पर उसको वह गति नहीं मिल पाई, मेरी उनसे काफी व्यक्तिगत मुलाकातें रहीं, जिसमें वे कृषि को उन्नत करने के लिए प्रयासरत रहते थे। उत्तराखंड की दुर्दशा में जो पलायन चल रहा है, उसका मुख्य कारण भी खेती को मुनासिब तव्वजो न देने का रहा है। उद्यान के क्षेत्र में कुछ काम तो हुआ, लेकिन यह अभी सीमित है। मेरा आशय यहां पर नारायण दत्त तिवारी के प्रयासों पर है। कुछ लोगों ने उनकी आलोचनाएं भी कि वे उत्तराखंड बनाने के विरोधी थे, यदि ऐसा होता तो तब वे मुख्यमंत्री नहीं बनते, कांग्रेस ने प्रदेश को विकास की दिशा देने के लिए ही मुख्यमंत्री का पद उन्हें सौंपा था, उनकी उस विस्तृत दृष्टि का फायदा हर क्षेत्र में नहीं मिल पाया जिसकी प्रदेश को ज़रूरत थी। देश का कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर तरह तरह के प्रयोग खेती को उन्नत करने के लिए कर रहा है। ल्ेाकिन असली मुद्दा उत्तराखंड के पलायन को रोकने का है। इस पर जो काम होना था, वह हो नहीं पाया।
आज पूरा पर्वतीय प्रदेश पलायन के कारण उजाड़ होता जा रहा है। इस पर आपातकालीन कार्य करने के लिए खेतों को छोटे छोटे टुकड़ों से मुक्त करके चकबंदी पर कानून बनाने की ज़रूरत है। परिवार बढ़ रहे हैं और बंट रहे हैं, उसी अनुपात में खेत भी बंट कर टुकड़े-टुकड़े होते जा रहे हैं। इनको और टुकड़ों से बचा कर सही खेती करने लायक बनाने की ज़रूरत है।
उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय भले ही अच्छी दिखती हो, लेकिन हकीकत यह है कि खेती पर निर्भर रहने वाले किसानों की हालात खराब होती जा रही है। प्रति व्यक्ति फसल से आय का हाल यह है कि पिछले पांच सालों में इसमें मात्र 400 रुपये का ही इज़ाफा हुआ है। प्रदेश में खेती पर कई संकट मंडरा रहे हैं। चिंताजनक यह है कि करीब दस लाख किसानों का योगदान प्रदेश की आय में न के बराबर है। अर्थ एवं संख्या निदेशालय ने फसल से आय के आधार पर किसानों की आय का आकलन किया तो बेहद निराशाजनक स्थिति सामने आई। फसल के आधार पर किसानों की प्रति व्यक्ति आय 2011-12 में मात्र 6451 रुपये थी। 2015-16 में फसल के आधार पर प्रति व्यक्ति आय 6886 रुपये आंकी गई और प्रति व्यक्ति आय 154818 रुपये पाई गई।
ऐसे हालात में उत्तराखंड राज्य को पूर्ण आत्म निर्भर बनाने के लिए नारायण दत्त तिवारी जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है। उनकी विकास में समग्र दृष्टि थी। हालांकि कृषि उनसे कैसे चूकी इस पर शायद उनके पास समय कम रहा हो।