केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और उसके प्रमुख घटक कांग्रेस पार्टी की बुरी गत उसके दंभ की अति के चलते हुई या उसकी मतिहीनता की वजह से. या फिर दोनों ही वजहों से. तीसरी बात ज्यादा सही लगती है क्योंकि व्यावहारिक बुद्धि कहती है कि दंभ की अधिकता अक्ल को हर लेती ही है और कम अक्ल वाले किसी को यदि केंद्र सरकार और उसकी सर्वेसर्वा कांग्रेस पार्टी जैसी शक्तियां हासिल हों तो उसमें घमंड की अति होना भी स्वाभाविक ही है.
यदि ये घमंड और बेवकूफी नहीं थी तो सरकार ने टीम अन्ना और उससे जुड़े नागरिक समाज के सदस्यों की इतनी सी बात शुरुआत में ही क्यों नहीं मानी कि सरकारी बिल के साथ जन लोकपाल बिल को भी संसद में भेज दिया जाए. फिर यदि उसे केवल अपना ही बिल भेजना था तो कम से कम उसमें शिकायतकर्ता को अपराधी से ज्यादा सजा जैसे मूर्खतापूर्ण और जनता को भड़काने वाले प्रावधान तो नहीं होने चाहिए थे. अंत में संसद, देश और खुद का बहुत सारा बहुमूल्य समय और ऊर्जा बट्टे-खाते में डालकर सरकार को कैसे और क्या-क्या करना पड़ा यह हम सभी को पता है.
सरकार ने जिस प्रकार बाबा रामदेव को शह देकर उनके तथाकथित आंदोलन को कुचला और उसके बाद भी उसका बाल बांका नहीं हुआ, शायद इससे उपजा घमंड ही था कि धीरे-धीरे कर उसने टीम अन्ना की हर चुनौती को पहले नजरअंदाज किया फिर कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी के कुतर्कों के सहारे उनसे निपटने की कोशिश की गई. अन्ना की गिरफ्तारी ने उनसे निपटने की सरकार की करेला सरीखी कोशिशों पर नीम चढ़ाने का
काम किया.
इसके बाद स्थिति बिगड़ती गई और पहले कुछ न करके अनशन के सात-आठ दिन बाद से सरकार और कांग्रेस ने जब-जब कुछ भी किया तो वह बहुत बुरी स्थितियों से खुद को बचाने के लिए करना भर लगा. वह अपनी तरफ से और जनता को ठीक लगे ऐसा करते कभी नजर नहीं आई. चाहे प्रणब मुखर्जी का मामले से जुड़ना हो या प्रधानमंत्री का देश और अन्ना हजारे को दिया आश्वासन या 27 अगस्त को संसद में बहस के बाद संसद की राय जाहिर करने का तरीका, सभी पहली नजर में ही मजबूरी में उठाए गए कदम लगे. इनके तुरंत बाद के घटनाक्रमों ने भी जैसे इसकी पुष्टि की. प्रणब मुखर्जी के साथ टीम अन्ना की बातचीत के बाद उन पर अपनी बात से मुकर जाने का आरोप लगा और प्रधानमंत्री की अन्ना को लिखी चिट्ठी से उपजी सद्भावना को राहुल गांधी के लिखित बयान की यांत्रिक एवं बौद्धिक उपदेशात्मकता ने कुंद कर दिया. आखिरी दिन संसद में चल रही बहस पर गौरव होना अभी शुरू होने को ही था कि सरकार के मुकर जाने का एक और मामला सामने आकर घंटों उसकी किरकिरी कराता रहा.
आजकल लुटियन की दिल्ली और उससे पहले दक्षिण दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में रहने वाले कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर रणनीतिकार इस बात को ही नहीं समझ पाए कि उनकी दिल्ली तो सही मायनों में दिल्ली ही नहीं है समूचा हिंदुस्तान तो क्या ही होगी. अपने सारे संसाधनों आदि के बाद भी वे जनता के गुस्से और उसमें फैली निराशा को समझना तो दूर मानने को ही तैयार नहीं थे. वे अंग्रेजी के चैनलों पर विशुद्ध वकालत वाले तरीकों से सामने वाले को चुप कराने को ही अपनी सफलता मानने की गलतफहमी पालते रहे.
कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर रणनीतिकार इस बात को ही नहीं समझ पाए कि उनकी दिल्ली तो सही मायनों में दिल्ली ही नहीं है समूचा हिंदुस्तान तो क्या ही होगीउधर अन्ना और उनके साथियों ने बकरी के शिकार के लिए शेर के शिकार वाली तैयारी और मेहनत की. उन्होंने न केवल कड़ी मेहनत और बेहतर रणनीति के बल पर जन लोकपाल को आम जनता का लक्ष्य बना दिया बल्कि अपने हर कदम की जानकारी जनता को देकर अपने हर निर्णय, जीत और निराशा को भी जनता से जोड़ दिया. पार्टी, संसद, राज्य, भाषा, जाति आदि हर बात पर मेरा-तुम्हारा करने वाली आज की राजनीति में, देश और समाज के लिए अपना सब कुछ त्यागने की इच्छा रखने वाली अन्ना की छवि सिंहासन त्याग कर राज करने वाली राजनीति के मायावी प्रभाव पर
भारी पड़ गई.
अंत में दो छवियां और बनीं और शायद एक टूटी भी. बनने वाली पहली छवि एक 74 साल के बुजुर्ग के 16 साल के युवा सरीखे उत्साह, ऊर्जा और युवाओं में मिलकर उनके जैसा हो जाने की थी. दूसरी कल तक नौजवान भारत के अगुवा कहलाने वाले युवा की ऐसी छवि थी जिसमें वह भीषण उथल-पुथल भरे 13 दिनों में सिर्फ एक बार सामने आकर वयोवृद्धों वाला बौद्धिक प्रवचन देने की कोशिश करता है.