झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा इन दिनों मीडिया से मुखातिब होते हैं तो हंसते-मुस्कुराते हुए पिछले छह महीने में सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं की बात करते हैं. साल 2012 को बिटिया वर्ष घोषित करने और लड़कियों के लिए तमाम तरह की योजनाएं शुरू किए जाने की बात विस्तार से बताते हैं. बात पुरानी हो जाने के बावजूद पंचायत चुनाव और राष्ट्रीय खेल करा लेने जैसी चीजों को सरकार के गौरवबोध से जोड़कर बयां करते हैं. लेकिन जैसे ही सवाल झारखंड में जमीन को लेकर फंस रहे पेंच पर किया जाता है तो वे झल्ला उठते हैं. जब माओवादी घटनाओं में अचानक हुई वृद्धि पर बात की जाती है तो वे केंद्र सरकार को कोसने लगते हैं.
केंद्र को कोसने की जायज वजह हो सकती है, लेकिन इधर-उधर की बातें करके सवालों को बदल देने की कोशिश में लगे मुंडा को शायद अपने जवाबों से खुद भी राहत नहीं मिलती होगी. दरअसल अंदर ही अंदर वे एक चक्रव्यूह में घिरते जा रहे हैं. चक्रव्यूह भी ऐसा कि भले ही वह सरकार को फौरन जकड़कर खत्म न कर दे लेकिन आने वाले दिनों में बार-बार परेशान तो करेगा ही. पिछली जुलाई में बाबूलाल मरांडी द्वारा जमशेदपुर में राजनीतिक मात खाने और कई बार अपने ही दलों के नेताओं द्वारा विरोध का सामना करने की बातों को छोड़ भी दें तो हाल के दिनों में अतिक्रमण, जमीन के सवाल और बढ़ती माओवादी घटनाओं ने मुंडा की मुश्किलों को बढ़ाने का काम किया है.
सबसे नया उदाहरण सीएनटी (छोटा नागपुर टेनैंसी) एेक्ट का है. उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को यह एेक्ट लागू करने का निर्देश देने के बाद यह मुद्दा इन दिनों राज्य भर में गरमाया हुआ है. हर राजनीतिक दल इस पर बयानबाजी कर रहा है. लेकिन सरकार इस मामले में ऐसे घिर गई है कि उससे न कुछ उगलते बन रहा है न निगलते. इस कानून में प्रावधान है कि अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति की जमीन अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही खरीद सकता है और यही प्रावधान अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के मामले में भी लागू होता है. अदालती आदेश के बाद झारखंड में बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद-बिक्री फिलहाल रुक गई है. ऐसा होने के बाद गैरआदिवासी विशेषकर बाहर से आकर बसे लोग और बड़े रियल एस्टेट कारोबारी लगातार सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं.
सीएनटी एेक्ट में अगर जरा भी छेड़छाड़ की सिर्फ बात भी हुई तो जाहिर-सी बात है कि आदिवासी वोट के गड़बड़ाने का खतरा बढ़ जाएगा. और यदि स्थिति यथावत बनाए रखने की बात हुई तो बाहरी वोटों का गणित गड़बड़ा सकता है. इसी पेंच और द्वंद्व में फंसी सरकार कुछ भी खुलकर बोल नहीं पा रही. जानकार बताते हैं कि सरकार के दो प्रमुख दलों आजसू और झामुमो को तो शायद मौन साध लेने से ज्यादा नुकसान न भी हो लेकिन भाजपा को हर हाल में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. दरअसल गैर आदिवासी वोटर ही भाजपा का बड़ा आधार हैं लेकिन संघ और इसके सहयोगी संगठनों की सक्रियता से आदिवासी वोटों पर भी भाजपा की ठीकठाक पकड़ मानी जाती है.
दूसरी ओर मसले के अभाव से गुजर रहे विपक्षी नेताओं को सीएनटी का बवाल उठने के बाद बैठे-बिठाए एक बना-बनाया मसला मिल गया है. इसे वे हर हाल में भुनाने की फिराक में लगे भी हुए हैं. राजधानी रांची से मांडर क्षेत्र के विधायक बंधु तिर्की कहते हैं, ‘सीएनटी 1908 में बना हुआ कानून है. इसके जरिए तब ही आदिवासी हित की बात सोची गई थी. अब यदि इस कानून में संशोधन हुआ तो आदिवासियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा.’ तिर्की की बातों को आगे बढ़ाते हुए भाकपा माले विधायक विनोद सिंह कहते हैं, ‘जब अतिक्रमण हटाओ के नाम पर लोगों के घर उजाड़े जा रहे थे तो सरकार कह रही थी कि वह कोर्ट के आदेश का पालन कर रही है. तो सीएनटी एेक्ट में भी करे.’ सिंह का आरोप है कि यह सब सिर्फ बड़े भूमाफियाओं, नेताओं और कॉरपोरेट घरानों की चाल है और इसी वजह से डिप्टी सीएम भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं.
अतिक्रमण हटाओ अभियान से विस्थापित होने वाले वर्ग का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूप से भाजपा का वोट बैंक रहा है
झारखंड के अधिकांश नेताओं ने भी सीएनटी एेक्ट का उल्लंघन करके जमीनें खरीदी हैं और इसलिए वे मौन साधे हुए हैं. और दूसरा पक्ष यह कि जो चिल्ला रहे हैं उनमें से भी कइयों ने इस कानून की धज्जियां उड़ाई हैं. सीएनटी का पेंच यहां हर कोई समझता है. बंधु तिर्की भी जानते हैं कि इस कानून की आड़ में कई आदिवासी नेताओं और अधिकारियों ने भी कोई कम बड़े खेल नहीं किए हैं और आगे करने की मंशा भी रखते हैं. लेकिन सवाल अब राजनीति से जुड़ गया है तो हर कोई अपने तरीके से इस पर रोटी सेंकने की कोशिश कर रहा है.
हालांकि अर्जुन मुंडा की ओर से सरकार का बचाव करते हुए मुख्यमंत्री के संसदीय सलाहकार अयोध्यानाथ मिश्र कहते हैं कि सीएनटी एेक्ट कोई मुद्दा ही नहीं है. भाजपा प्रवक्ता दिनेशानंद गोस्वामी कहते हैं कि बीच का कोई रास्ता निकाल लिया जाएगा और इसके लिए सभी दलों से राय-मशविरा किया जाएगा.
अयोध्यानाथ मिश्र मुख्यमंत्री के साथ रहते हैं, इसलिए उनका ऐसा कहना लाजमी है. लेकिन यह सच है कि इस मामले को लेकर आने वाले दिनों में राजनीति के नफा-नुकसान का समीकरण बनाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं. इसमें भाजपा और विशेषकर अर्जुन मुंडा के लिए मुश्किलें ज्यादा बड़ी होंगी. इसलिए कि विपक्षी नेता तो फिर भी अपना धर्म निभाते हुए अर्जुन के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोलने की कोशिश करते हैं लेकिन भाजपा के अंदर ही उनका विरोध करने वाले नेताओं की एक छोटी फौज सक्रिय है जो मौके-बेमौके सामने आकर उनकी घेराबंदी करने की कोशिश करती है. इस फौज की सक्रियता कुछ माह पहले अतिक्रमण के सवाल के दौरान देखी गई थी. तब भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा और विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह जैसे नेता खुलकर अर्जुन मुंडा की मुखालफत करने मैदान में आ गए थे. हाल में जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी देशव्यापी यात्रा के दौरान झारखंड की राजधानी रांची पहुंचे थे तब भी वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री रघुवर दास के बारे में खबरें आई थीं कि वे अर्जुन मुंडा सरकार की रपट अखबारों के पुलिंदे के रूप में एयरपोर्ट पर ही आडवाणी को देने की कोशिश में लगे थे.
बहरहाल, जमीन के इस नए सवाल में अतिक्रमण का मसला फिलहाल भले ही ठंडा पड़ता हुआ दिख रहा हो लेकिन माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में, विशेषकर चुनावी राजनीति के वक्त यह भी भाजपा का खेल बनाने-बिगाड़ने में एक उत्प्रेरक की भूमिका में मौजूद रहेगा. इसलिए कि कुछ माह पहले जिन्हें भी अतिक्रमण हटाओ अभियान के कारण विस्थापित होना पड़ा है उनमें से अधिकांश अब भी मुश्किलों में दिन गुजार रहे हैं. अतिक्रमण से विस्थापित होने वाले वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भाजपा का वोट बैंक ही रहा है. वरिष्ठ पत्रकार विजय भास्कर कहते हैं, ‘झारखंड में आज भी गैरआदिवासियों की तादाद ज्यादा है और इनके वोटों पर ही सरकार बनती-बिगड़ती है. कांग्रेस और भाजपा दोनों राजनीतिक दलों का वोट बैंक गैरआदिवासी लोग हैं और अतिक्रमण के मुद्दे पर सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग भी यही हैं. इसलिए ये अपनी भूमिका तो निभाएंगे और दिखाएंगे ही.’
इन दोनों मसलों पर घिरने के बाद अर्जुन मुंडा के सामने हालिया मुश्किलें राज्य की बिगड़ती कानून-व्यवस्था ने खड़ी की हैं. दो बड़ी माओवादी घटनाओं ने राज्य सरकार की किरकिरी करवाई है. रही-सही कोर-कसर अधिकारी पूरी करते रहते हैं. हाल ही में सुरक्षा सलाहकार डीएन गौतम ने यह कहकर इस्तीफे की पेशकश की कि राज्य में सरकारी अफसर बेलगाम हो गए हैं जिनसे वे तंग हैं. डीएन गौतम बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे हैं और चर्चित आईपीएस अधिकारी भी इसलिए उनके बयान को सिर्फ सुरक्षा सलाहकार की टिप्पणी भर नहीं माना गया. सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा. मानना पड़ा कि अधिकारी ऐसे ही हो गए हैं. गौतम कहते हैं, ‘मुश्किल यह है कि यहां हर अधिकारी के सिर पर किसी न किसी नेता का हाथ है जिसके बल पर अधिकारी इतना इतराते फिरते हैं.’
इसके अलावा नक्सल समस्या तो है ही. पिछले दिनों इस पर केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को भेजा गया एक पत्र काफी सुर्खियों में रहा. इसमें कहा गया था कि झारखंड में नक्सल विरोधी अभियान के नाम पर कुछ नहीं हो रहा है. इसके बाद केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश रांची आए और राज्य के राजनीतिक नेतृत्व को कोसते हुए बयान दे गए कि झारखंड के 24 में से 17 जिलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार है.
यानी मुसीबत कई मोर्चों पर है. जानकार मानते हैं कि सरकार के लिए मुश्किलों का जो पहाड़ खड़ा होता जा रहा है उससे जूझने की बारी आएगी तो यह काम बहुत हद तक अर्जुन मुंडा को अकेले ही करना होगा. माना जा रहा है कि सरकार में साझेदार बने दोनों दल आजसू और झामुमो जो फिलहाल मौन की राजनीति कर रहे हैं, आगे सारा दोष मुंडा के मत्थे मढेंगे.
हालांकि पिछले 11 साल के दौरान झारखंड में अर्जुन मुंडा की छवि एक ऐसे नेता की भी बनी है जिसे ऐसी परिस्थितियों से निपटने की कला आती है. शायद इसीलिए जानकार मानकर चल रहे हैं कि मुश्किलों के इस चक्रव्यूह से निकलने के लिए वे जल्द ही कोई ऐसी चाल चल सकते हैं जिसके बाद विरोधियों को कोई जवाब देते न बने. फिलहाल तो वे घिरते दिख रहे हैं.