उत्तर भारत में बुंदेलखंडी ही शायद ऐसी बोली होगी जिसका लहजा और शब्द बाहरी लोगों को अभद्र और अक्खड़ लगते हों. हम चंबल में हैं. और हर बार लोगों से बातचीत में यह महसूस कर रहे हैं. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सीमाओं में फैले ये बीहड़ उतने उजाड़ नहीं हैं जितने यहां से गुजरने वाली ट्रेनों से दिखते हैं. पर यहां की जटिल भौगोलिक संरचना बीहड़ों के बीच बसे गांवों तक पहुंचना मुश्किल बना देती है. हमें मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में बसे मुरावन गांव तक जाने के लिए जंगल में लगभग 12 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. गांव में घुसते ही हम अपनी कल्पनाओं वाले चंबल में पहुंच जाते हैं.
डाकू पप्पू गुर्जर ने अपनी गैंग की दहशत फैलाने के लिए मोहर सिंह के हाथ और नाक काटकर पुलिस अधीक्षक को भिजवा दिए
पिछले साल अक्टूबर माह में पप्पू गुर्जर नाम के एक डाकू ने मुरावन गांव के मोहर सिंह के दोनों हाथ और नाक काट दिए थे. हम जब उनके घर पहुंचते हैं तो लगभग धमकी भरे अंदाज में बताया जाता है कि हम मोहर सिंह से नहीं मिल सकते. बोली का उजड्डपन और डराने वाला अंदाज अब लोगों के व्यवहार में खुलकर दिखता है. तमाम तरह की आशंकाओं के बीच गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘डकैतों ने हमारा जीना दूभर कर दिया है. जब से पप्पू गुर्जर ने मोहर के हाथ काटे हैं तब से लोग बहुत डरे हुए हैं. उसने धमकी दी है कि उसके गिरोह के सरगना राजेंद्र गट्टा के नाम का चबूतरा मुरावन में नहीं बना और दूसरी मांगें पूरी नहीं हुईं तो वह हमारे और हतेड़ी गांव के सभी लोगों को मार डालेगा.’
डकैत पप्पू गुर्जर चंबल के डाकुओं की फेहरिस्त में शामिल सबसे ताजा नाम है. वह यहां के एक दुर्दांत डाकू राजेंद्र गुर्जर उर्फ गट्टा का भाई है. गट्टा 2009-10 के दौरान मध्य प्रदेश में श्योपुर, शिवपुरी और अशोकनगर जिले के साथ-साथ राजस्थान के धौलपुर, बारां और सवाई-माधोपुर जिलों में सक्रिय इनामी डकैत था. दर्जनों हत्याओं, अपहरणों और डकैतियों के आरोपित गट्टा की उसी के गैंग के सदस्यों ने हत्या कर दी थी. जनवरी, 2011 में मुरावन गांव के पास हुए इस हत्याकांड के बाद पुलिस ने मंदिर से गट्टा की लाश बरामद की थी. इसके बाद गट्टा का भाई पप्पू इस गैंग का मुखिया बन गया. चंबल रेंज के पुलिस उपमहानिरीक्षक डीपी गुप्ता बताते हैं, ‘इस गिरोह ने एक राजस्थानी व्यापारी का अपहरण किया था. उसको छोड़ने के बाद मिली बीस लाख रुपये की रकम डाकुओं के बीच लड़ाई का कारण बन गई जिसमें गट्टा की हत्या कर दी गई.’ पप्पू गुर्जर का कहना है कि उसके भाई की लाश के पास लगभग तीन लाख रुपये, पांच तोला सोना और 159 जिंदा कारतूस थे और इस सामान को मुरावन गांव के लोगों ने चुरा लिया है.
इसी वजह से पप्पू गुर्जर ने मोहर सिंह के हाथ-नाक काटकर श्योपुर के जिला पुलिस अधीक्षक महेंद्र सिंह सिकरवार को भिजवाए थे. इसके साथ ही उसने एक पत्र भी भेजा जिसमें धमकी दी गई थी कि यदि गट्टा की लाश के पास से उठाया गया सामान वापस नहीं किया गया तो वह मुरावन और हतेड़ी गांव के सभी लोगों की हत्या कर देगा. हतेड़ी, मुरावन से करीब आठ किमी दूर स्थित एक आदिवासी गांव है जहां के लोगों से डाकू आए दिन रसद की मांग करते रहते हैं. पप्पू ने मुरावन में राजेंद्र गट्टा के नाम पर एक चबूतरा बनवाने के अलावा उसकी बरसी पर गांव में भोज करवाने की मांग भी रखी थी. इन धमकियों के चलते नवंबर, 2011 में हतेड़ी गांव में रहने वाले सहरिया आदिवासी अपना गांव, घर और खड़ी फसल छोड़कर वहां से पलायन कर गए.
इस मामले पर हुई पुलिस कार्रवाई और वर्तमान स्थिति के बारे में बात करते हुए गुप्ता कहते हैं, ‘हमने पूरे इलाके की सुरक्षा बढ़ाने के साथ-साथ मुरावन और हतेड़ी में कुछ सिपाही तैनात किए हैं. गट्टा की हत्या के बाद इस पूरी बेल्ट में पप्पू गुर्जर और कल्ली गुर्जर, दो सबसे प्रमुख गैंग सक्रिय हैं. हमारी एंटी डकॉइट (डकैत उन्मूलन) टीम इनके खिलाफ रणनीति बना रही है और जल्दी से जल्दी हम इन्हें पकड़ने की तैयारी में जुटे हैं.’
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मगर पुलिस के इन आश्वासनों के बावजूद हतेड़ी के लोगों के मन में बैठे भय को आसानी से महसूस किया जा सकता है. मुख्य सड़क मार्ग से 18 किलोमीटर दूर पालपुर-कूनो जंगलों के बीच कूनो नदी के किनारे बसे हतेड़ी में कभी सहरिया आदिवासियों के 40 परिवार रहा करते थे. अब यहां सिर्फ दस परिवार बचे हैं. गांव के मंठा आदिवासी बताते हैं, ‘ हम डकैतों से बहुत परेशान हैं. वे जब चाहे आकर आटा-चावल और रसद मांगते हैं. यहां हमें ही दो जून की रोटी मुश्किल से मिल पाती है. उन्हें कहां से देंगे. न दें तो गोली मारने पर उतारू हो जाते हैं. दे दें तो कल को पुलिस पकड़कर ले जाएगी. हम गरीबों को दोनों तरफ से गोली ही खानी है.’ गांववालों का कहना है कि पिछले साल पप्पू गुर्जर के डर से उन्हें अपनी खड़ी फसल छोड़कर गांव से भागना पड़ा था. गांव से पलायन कर चुके परिवारों के बारे में बात करते हुए बनिया आदिवासी कहते हैं, ‘ उस दिन शाम को लगभग आठ बजे पप्पू गुर्जर अपने साथियों के साथ यहां आया और मोहर सिंह के हाथ-नाक काट डाले. उसने हम लोगों से पैसे भी मांगे. हमारे पास तो कुछ है ही नहीं इसलिए जान बचाकर हम लोग यहां से भाग गए. अभी यहां आठ-दस परिवार ही वापस लौटे हैं.’
मुरावन और हतेड़ी पिछले साल इसलिए थोड़े-बहुत चर्चा में आए क्योंकि यहां हुई डाकुओ से जुड़ी कुछ घटनाएं ठीक वैसी ही थीं जैसी अतीत में हुआ करती थीं. लेकिन इनके अलावा भी यहां कई ऐसे गांव हैं जहां देश के संविधान से ज्यादा डाकुओं का कानून चलता है.
अपनी ही तरह के इस सामाजिक-भौगोलिक क्षेत्र को कुख्यात बनाने वाली वजहों में से एक सबसे महत्वपूर्ण यहां से बहने वाली चंबल नदी भी है. इंदौर के पास बसे एक शहर महू से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियां में इस नदी का उदगम स्थल है. इसके बाद राजस्थान के कुछ हिस्सों को पार करते हुए चंबल मध्य प्रदेश के भिंड-मुरैना क्षेत्रों में बहती है, फिर उत्तर प्रदेश के इटावा जिले की तरफ रुख कर लेती है. पानी के कटाव से चंबल के किनारे-किनारे मीलों तक ऊंचे-ऊंचे घुमावदार बीहडों की संरचना हुई है. ये दशकों से डाकुओं के छिपने के अभेद्य ठिकाने रहे हैं.
70 के दशक में सबसे कुख्यात रहे डाकू मलखान सिंह कहते हैं कि चंबल में आज असल बागी होते तो इतनी अराजकता नहीं होती’…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘पुलिस और नेता नहीं चाहते कि बागी खत्म हों’
पिछले कुछ समय की बात करें तो मध्य प्रदेश में डाकुओं का प्रभाव बुंदेलखंडी इलाकों, रीवा-सतना-छतरपुर से बढ़कर गुना-अशोकनगर तक फैल गया है. पांच महीने पहले ही सतना के जंगलों में हुई पुलिस मुठभेड़ में सुंदर पटेल उर्फ रगिया डाकू मारा गया था जिसका खौफ इन सभी इलाकों में था. इसके पहले इन इलाकों से छिटपुट डकैतियों की खबरें ही आती थीं. रगिया ही ठोकिया के बाद कुख्यात डकैत ददुआ के गैंग को चला और बढ़ा रहा था. आजकल उसकी जगह सुदेश कुमार उर्फ बालखड़िया ने ले ली है. इस गैंग में शामिल पीलवन उर्फ मदारी गौंड और छुग्गी पटेल को काफी दुर्दांत डाकू माना जाता है.
चंबल घाटी और उससे लगे इलाके की सबसे दुखती रग यह है कि यहां डाकुओं की सक्रियता और उनके भय को आम ग्रामीणों के बीच तो हमेशा देखा जा सकता है लेकिन उनकी चर्चा – मीडिया में या राजनीतिक स्तर पर – तब ही होती है जब पुलिस मुठभेड़ में कोई बड़ा डाकू मारा जाए, आत्मसमर्पण कर दे या फिर कोई बड़ी वारदात को अंजाम दे दे.
हाल-फिलहाल यहां पुलिस मुठभेड़ और वारदातों का सिलसिला तो काफी बढ़ा है लेकिन डाकुओें के आत्मसमर्पण की घटनाएं वैसे नहीं होती जैसा चंबल का इतिहास रहा है. नब्बे के दशक से साल दर साल मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश पुलिस मुठभेडों में डाकुओं को मारती रही है. पिछले एक दशक में पुलिस ने यहां जगजीवन परिहार, निर्भय गुर्जर, गड़रिया बंधुओं जैसे कई दुर्दांत डाकुओं को मुठभेडों में मारा है लेकिन उसके बाद भी यहां डाकुओं और उनके गिरोहों की कभी कमी नहीं रही. इस बीच जो हुआ वह यह कि चंबल की धरती ने अपने यहां पैदा होने वाले अपराधी सरगनाओं को ‘स्वाभिमानी बागी’ से ‘स्वार्थी डाकू’ और ‘स्वार्थी डाकू’ से ‘सस्ते शहरी उठाईगीरों’ में तब्दील होते देखा. अन्याय और शोषण के खिलाफ बंदूक उठाने वाले चंबल के तथाकथित बागियों की छवि और यहां की सामाजिक स्थितियों ने अपराध पर नैतिकता का ऐसा मुलम्मा चढ़ाया कि यह पूरा क्षेत्र डाकुओं की उर्वरा भूमि सरीखा बन गया.
अस्सी के दशक के डाकुओं और 2012 के डकैतों की कार्यप्रणाली और तकनीक में बड़े परिवर्तन आए हैं. चंबल रेंज के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक रहते हुए डकैतों से लगभग 25 मुठभेड़ करने वाले संजय राणा इस पूरे दुष्चक्र पर बात करते हुए कहते हैं, ‘ चंबल में डाकुओं के लगातार पैदा होने के पीछे मीडिया की बड़ी भूमिका रही है. मीडिया ने इनको बागी और अन्याय के खिलाफ लड़ने वाला रॉबिनहुड बनाकर मामला बहुत बिगाड़ दिया. इसमें कोइ शक नहीं कि 60 -70 के दशक के कुछ डाकू ऐसे थे जिन्होंने अपने जीवन में अत्याचार झेले पर ऐसे लोग बहुत कम हैं. ज्यादातर मामलों में डाकुओं ने मीडिया द्वारा गढ़ी गयी अपनी रॉबिनहुड वाली छवि का इस्तेमाल आसानी से धन कमाने के लिए किया. इस तरह धीरे-धीरे डकैती एक ऐसे व्यवसाय में तब्दील हो गई जिसमें निवेश सिर्फ एक बंदूक का था. पहले ये लोग ‘पकड़’ से फिरौती वसूलते थे. अब सीधे-सीधे शहरी ठगों और गुंडों की तरह व्यवहार करने लगे हैं. नए लड़कों को यह आसानी से पैसा कमाने, शराब पीने, गांव से लड़कियां उठवा लेने, अपनी जाति का हीरो बन जाने और मीडिया में गरीबों के मसीहा के तौर पर मशहूर हो जानेवाला पेशा लगने लगा. इसलिए बड़ी संख्या में नौजवान लड़के डाकू बनते रहे.’
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चंबल के डाकुओं में दिलचस्पी रखने वाले लोगों में से ज्यादातर के लिए इनका इतिहास मान सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी व हाल के कुछ चर्चित डाकुओं तक ही सीमित होता हैै. लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक चंबल में लूटमार की प्रवृत्तियां सैकडों साल पहले से मौजूद रही हैं. डाकुओं पर कई लोकप्रिय उपन्यास और कहानियां लिखने वाले स्थानीय लेखक मनमोहन कुमार तमन्ना बताते हैं, ‘ यहां के रहस्यमयी बीहड़ सदियों से गोरिल्ला युद्धों के सबसे उपयुक्त स्थान रहे हैं. हर्षवर्धन के काल में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्येन सांग को वर्तमान धौलपुर के आसपाल लूट लिया गया था. पृथ्वीराज चौहान ने भी दिल्ली में हारने के बाद चंबल में ही रहकर बागी का जीवन बिताया था.’
चंबल में घूमते हुए मुगलकाल से जुड़ी एक मशहूर किवदंती भी सुनने को मिलती है. कहा जाता है कि एक यात्रा के दौरान नूराबाद के आसपास मुगल बादशाह अकबर के काफिले के 40 घोड़े चुरा लिए गए थे. जब सेना के कुछ लोग इन्हें नहीं ढूंढ़ पाए तो अकबर ने उन्हें फांसी लगवा दी. आज भी यहां के स्थानीय लोग गर्व से बताते हैं कि वे घोड़े गुर्जरों ने चुराए थे इसलिए अकबर के सैनिक उन्हें नहीं ढूढ़ पाए.
भारत में अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में गुर्जर और जाटों के साथ एक नई जाति पिंडारी के डकैतों ने चंबल को अपना ठिकाना बनाया था. कैंब्रिज युनिवर्सिटी से प्रकाशित अपने शोधपत्र – ए नोट ऑन डकॉइट्स ऑफ इंडिया, में लेखक जॉर्ज फ्लोरिस लिखते हैं कि 1920 के आसपास सक्रिय हुआ डोंगर-बटूरी गैंग चंबल का पहला व्यवस्थित गैंग था. वे लिखते हैं, ‘ शुरुआती दौर में डाकू जंगल से गुजर रहे ऊंटों और घोडों के काफिलों को लूट लिया करते थे. चंबल में 1940 के आसपास वह दौर भी आया जब कई राजा डाकू बने और इनमें ठाकुर मानसिंह का नाम सबसे पहले आता है.’
गुलाम भारत से लेकर सन 1960 तक सक्रिय रही चंबल के डाकुओं की इस पहली पीढ़ी में डाकू मान सिंह, तहसीलदार सिंह, सूबेदार सिंह, लुक्का डाकू, सुल्ताना डाकू, पन्ना और पुतली बाई जैसे बड़े नाम शामिल हैं. इनमें से कई बड़े डकैतों ने 1960 में विनोबा भावे के शांति अभियान के चलते आत्मसमर्पण किया था और बाकी पुलिस मुठभेडों में मारे गए. वैसे 1920 में माधोराव सिंधिया ( ग्वालियर से लोकसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के परदादा) द्वारा करवाए गए 97 डकैतों के आत्मसमर्पण को चंबल के इतिहास का पहला आधिकारिक आत्मसमर्पण माना जाता है .पर 1960 में शुरू हुई विनोबा भावे की प्रसिद्ध शांति पहल स्वतंत्र भारत का पहला बड़ा डकैत आत्मसमर्पण अभियान था. इसके बाद 1985 तक मलखान सिंह, माधो-मोहर, माखन-चिड्डा, बाबा मुस्तकीन, फूलन देवी-विक्रम मल्लाह, श्रीराम-लालाराम और ददुआ जैसे दुर्दांत डाकुओं ने चंबलघाटी पर राज किया.
चंबल के इतिहास के सबसे नामी डाकू मानसिंह के गैंग के सदस्य रहे लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का डाकू आज अपनी बीहड़ की जिंदगी याद नहीं करना चाहते…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘तब डाकू होना रुतबे की बात हुआ करती थी’
इस बीच जयप्रकाश नारायण और डॉ सुब्बाराव ने सन 1972 में लगभग 511 डकैतों को आत्मसमर्पण के लिए राजी कर बीहड़ के इतिहास में सबसे विशाल आत्मसमर्पण अभियान चलाया. फिर 80 के दशक में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने भी कई बड़े डकैतों ने आत्मसमर्पण किया और राज्य-सरकारों ने अपने अपने प्रदेशों से डकैती की समस्या के खात्मे के दावे भी शुरू कर दिए. ठीक इसी समय गुर्जर डाकुओं की एक पूरी पीढ़ी का उदय हुआ. निर्भय गुर्जर, सलीम गुर्जर, रज्जन गुर्जर, पंजाब सिंह गुर्जर और अरविंद गुर्जर जैसे दुर्दांत गुर्जर डाकुओं के साथ ही जगजीवन परिहार जैसे क्रूर ठाकुर गैंग भी इसी समय मजबूत होना शुरू हुए.
अब तक ठाकुर और गुर्जर गैंग से आबाद रहने वाले चंबल ने सन 2005 के आसपास, एक नया बदलाव देखा. पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करने वाला कुख्यात गड़रिया गैंग यहां के सबसे क्रूर और दुर्दांत डाकू गैंग के रूप में उभर कर आया. इस समय हजरत रावत, शक्ति-कच्छी, भारत यादव-दामोदर और लाखन लोधी जैसे कई छोटे-छोटे गैंग भी सक्रिय रहे. इस दौर में जातिगत दमन और श्रेष्ठता के नाम पर अपराधियों ने जाति को आधार बनाकर भी अपने गैंग बनाए. पहली बार नाथू जाटव, मेहराम जाटव, राजू आदिवासी और इंदर आदिवासी जैसे अनुसूचित जाति-जनजाति से जुड़े नाम भी डकैतों की इस घाटी में मशहूर हुए. फिलहाल तो इनमें से ज्यादातर डाकू मारे जा चुकी हैं लेकिन उनके गैंग के सदस्य आज भी घाटी में सक्रिय हैं. चंबल घाटी में एक दशक से भी लंबे समय तक काम कर चुके चंबल रेंज के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक विजय यादव बीहड़ की संरचनाओं के साथ-साथ जाति को नए डाकुओं के पनपने और बने रहने की वजह बताते हैं. वे कहते हैं, ‘ इनके पास अपनी-अपनी जाति का जबर्दस्त लोकल सपोर्ट होता है. एक बड़ा डाकू हमेशा अपनी जाति के लिए गर्व का विषय होता है. और जाहिर है जहां जाति है वहां राजनीति और उसका प्रभाव भी होता है.’
चंबल के कटाव से लगातार कम हो रही भूमि व उससे उपजे संघर्ष और बड़ी मात्रा में बंदूकों की मौजूदगी यहां डाकुओं के लगातार पैदा होने और बने रहने की एक प्रमुख वजह है. भिंड जैसे छोटे से जिले में इस समय 23,000 से ज्यादा लायसेंसी बंदूकें हैं वहीं मुरैना में ये संख्या 15, 000 और शिवपुरी में लगभग 11,000 बंदूकें हैं. जानकार बताते हैं कि इलाके में इससे कहीं ज्यादा गैरलायसेंसी बंदूकें हैं. चंबल के बारे में यह किंवदंती मशहूर है कि यहां आदमी के पास खाने को रोटी हो न हो, बंदूक जरूर होगी. बीहड़ की पगडंडियों पर फटे जूते पहने हुए मजदूर भी कंधे पर 60-60 हजार रुपये की कीमत वाली दोनाली बंदूक टांगे आसानी से देखे जा सकते हैं.
गड़रिया गैंग के सरगना रामबाबू गड़रिया की बहन रामश्री डाकुओं के परिवार का सदस्य होने की व्यथा बता रही हैं…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘आईजी पहले अपने भाई को मरवाकर दिखाते’
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में लगभग 30 वर्षों से काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली बताते हैं, ‘ जमीन और औरत को लेकर ही यहां सबसे ज्यादा झगड़ा होता है. लगभग हर आदमी के पास बंदूकें हैं इसलिए छोटी-मोटी लड़ाई में भी गोली चल जाती है. यहां जैसे ही शोर होता है लोग लड़ने लगते हैं. फिर गोली चलने की आवाज आती है और पता चलता है किसी की हत्या हो गई. फिर पुलिस से बचने के लिए हत्यारे जंगल का रुख करते हैं और बीहड़ में एक और डाकू पैदा हो जाता है. पुलिस और ऊंची जाति वालों के अत्याचारों से तंग आकर बागी बनने वाले डाकू तो 60 -70 के दशक में हुआ करते थे. आज तो ये सिर्फ पैसे और दूसरे ऐशोआराम के लिए के लिए डाकू बन रहे हैं.’ पिछले सालों में हुई कुछ घटनाएं इस बात की पुष्टि भी करती है. सबसे ताजा घटना इसी साल 20 फरवरी की है जब शिवपुरी जिले के मानपुरी गांव में पांच डकैतों ने एक परिवार के यहां लूटपाट करने के बाद दो महिलाओं से बलात्कार किया था.
चंबल क्षेत्र में अपराध करके जंगल भागने वाले ज्यादातर लोग सबसे पहले तो बीहडों में सक्रिय किसी बड़े गैंग से जुड़ते हैं, फिर बाद में कुछ अपनी अलग गैंग भी बना लेते हैं. इन नए डाकुओं की कोशिश होती है कि हर अपराध को जातिगत संघर्ष की तरह प्रचारित किया जाए ताकि वे अपनी जाति की सहानुभूति बटोर सकें और क्षेत्र में मजबूत आधार बना सकें. इस तरह चंबल में एक जाति के डाकुओं के अत्याचार के खिलाफ दूसरी जाति के डाकुओं की नई पौध खड़ी हो जाती है. अतीत में चंबल ने ठाकुरों के खिलाफ गुर्जर और मल्लाह, गुर्जरों के खिलाफ गड़रियों, गड़रियों और गुर्जरों के खिलाफ रावत, और इन सभी के खिलाफ ठोकिया, गया कुर्मी, ददुआ और राजू आदिवासी जैसे अनुसूचित जाति के डाकूओं को बनते और कुख्यात होते देखा है. अपनी जाति के लोगों में उस जाति के डाकू की छवि रक्षक और तारणहार की तरह होती है.
जानकार मानते हैं कि क्षेत्रीय लोगों द्वारा डाकुओं के महिमामंडन और सरकार के रवैये ने भी चंबल में डाकुओं के पनपने में बड़ी मदद की है. तमन्ना कहते हैं, ‘ जिस आदमी ने दसियों लोगों की हत्याएं की हों उसे फूल-माला, नौकरी और जमीन का प्लॉट और जिनकी हत्याएं हुईं, उन्हें कुछ नहीं? यह कैसा इंसाफ है? और यह तर्क कि ये लोग अत्याचार की वजह से डाकू बने, एकदम फिजूल है. सवाल यह है कि अन्याय के खिलाफ खड़ा होनेवाला अगर खुद ही अन्याय कर रहा हो तो उसे अच्छा कैसे कहा जा सकता है? इनमें से कोई डाकू कभी उन लोगों से माफी मांगने नहीं गया जिनके परिवार-वालों को इन्होंने मारा और न ही किसी ने उन बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी ली जिन्हें इन्होंने अनाथ बना दिया. इन्हें हमेशा अपने अपराधी होने पर नाज रहा और सरकार के रवैए ने भी इसका मौन समर्थन कर दिया.’
साल 2009 में प्रभात कुमारी के पूरे परिवार को डाकुओं ने जलाकर मार डाला था…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘डाकुओं के डर से मेरे परिवार को कोई भी बचाने नहीं आया’
चंबल क्षेत्र भारत के सबसे अविकसित और पिछड़े इलाकों में से है. सत्तर के दशक में चंबल नहर के आ जाने से यहां के लोगों को खेतीबाड़ी में थोड़ी-बहुत सुविधा तो मिली पर बीहड़ों की वजह से इलाके की ज्यादातर जमीन आज भी बंजर और असिंचित ही है. शिक्षा और रोजगार के अवसरों की भारी कमी को भी यहां लगातार पैदा होने वाले डाकुओं के पीछे एक कारण माना जाता रहा है. लेकिन इस राष्ट्रव्यापी संकट से इतर यहां बसने वाले लोगों की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना डकैतों की अंतहीन पैदाइश के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अपराध और अपराधी के प्रति गौरव का भाव रखने वाली चंबल घाटी में, ‘जाके बैरी जीवित घूमें बाके जीवन को धिक्कार’ जैसे मुहावरे प्रचलित हैं. तमन्ना कहते हैं, ‘ यह दुनिया का शायद एक मात्र समाज है जहां एक लंबे अरसे तक मांएं बदला लेने के लिए अपने बेटे को ही अपराधी बनवाती रही हैं. कुछ जातियों में तो उन लोगों के यहां लड़कियां ब्याहने का रिवाज ही नहीं है जिनके यहां लड़के ने किसी की हत्या न की हो. ऐसा न करने वाले को मर्द नहीं माना जाता. असल में यहां के लोगों में पयाप्त क्षमाशीलता नहीं है. यहां लोग पूरी जिंदगी सिर्फ बदला लेने के लिए स्वाहा कर सकते हैं. पुलिस और राजनेता हमेशा इनका इस्तेमाल करते रहे हैं. नेता वोट जुटवाने के लिए और पुलिस तमगों के लिए.’
पिछले एक दशक में यहां डकैत कम भले नहीं हुए हों मगर मोबाईल फोन और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग (ईवीएम) मशीनों के आने से पुलिस को डकैतों के सफाए में बड़ी मदद मिली है. एक ओर जहां ईवीएम की वजह से वोटिंग बूथ लूटने के लिए नेताओं द्वारा पोषित और संरक्षित किए जाने वाले डाकुओं का राजनीतिक महत्व समाप्त हो गया वहीं मोबाईल टावरों को ट्रेस करके पुलिस ने भी कई बड़े डाकुओं का एनकाउंटर करने में सफलता हासिल की है.
चंबल में डाकुओं के लगातार बने रहने की समस्या के पीछे क्षेत्रीय पुलिस के असंवेदनशील रवैये पर भी सवाल उठते रहे हैं. मध्यप्रदेश सरकार के डकैत उन्मूलन विभाग के प्रसिद्ध एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और वर्तमान में रीवा रेंज के पुलिस महानिरीक्षक गाजी राम मीणा यह स्वीकारते हुए कहते हैं कि निचले स्तर पर काम करने वाले पुलिस बल को आम लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना डकैती की समस्या को खत्म करने के लिए सबसे जरूरी है. तहलका से बातचीत वे कहते हैं, ‘ हम मुठभेड़ में डाकुओं को मारते जाते हैं और नए डाकू फिर पैदा हो जाते हैं. इसीलिए इस समस्या से निपटने के लिए अब हम लोग मल्टी-एजेंसी एफर्ट पर ध्यान दे रहे हैं. हम थानेदारों के लिए सेन्सेटाइजेशन प्रोग्राम चला रहे हैं. सभी को सख्त निर्देश दिए गए हैं कि एक भी फरियादी बिना अपनी शिकायत दर्ज करवाए वापस न जाने पाए. हर एक की शिकायत पर ध्यान देकर तुरंत कार्रवाई की जाए ताकि लोग ऐसा न महसूस करें कि उन्हें न्याय पाने के लिए उन्हें डाकू बनना पड़ेगा. विकास के और दूसरे काम और लोगों को समझ कर उनकी परेशानी दूर करने की यह कोशिशें हमें कम-से-कम अगले 10 साल तक लगातार करनी होगी, तभी हम नए डकैतों को पनपने से रोक सकते हैं.’