भारतीय जनता पार्टी का मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से और न्यूज चैनलों का भाजपा से प्यार किसी से छिपा नहीं है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा के कई नेताओं की ‘लोकप्रियता’ और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में ‘चमकाने’ में टीवी की बड़ी भूमिका है. कई तो बिना किसी राजनीतिक जमीन के सिर्फ चैनलों के कारण भाजपा की राजनीति में चमकते हुए सितारे हैं. दूसरी ओर, मीडिया और न्यूज चैनल भी भाजपा को इसलिए पसंद करते हैं कि दोनों का दर्शक वर्ग एक है और दोनों तमाशा पसंद करते हैं. न्यूज चैनलों का कारोबार तमाशे से चलता है तो भाजपा की राजनीति तमाशे के बिना कुछ नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि बीते सप्ताह गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जब पार्टी में लंबे समय से जारी सत्ता संघर्ष अपने क्लाइमैक्स पर पहुंचा तो उस तमाशे को 24×7 और वाल-टू-वाल कवर करने के लिए मीडिया और चैनलों की भारी भीड़ मौजूद थी. जाहिर है कि वहां एक हाई-वोल्टेज तमाशे के सभी तत्व मौजूद थे. पार्टी में कथित तौर पर ‘सबसे लोकप्रिय’ नेता नरेंद्र मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास और कानाफूसियां तेज थीं. आडवाणी और कई दूसरे नेता इसे लेकर नाराज बताए जा रहे थे और बीमारी का बहाना बनाकर गोवा नहीं पहुंचे.
इसके बाद भारतीय झगड़ा पार्टी बनती जा रही भाजपा में गोवा और फिर दिल्ली में जो कुछ हुआ. उसका कुछ आंखों देखा और कुछ कानों सुना हाल पूरे देश ने चैनलों पर देखा और अहर्निश देख रहे हैं. एक धारावाहिक सोप आपेरा की तरह यह ड्रामा चैनलों पर जारी है जहां घटनाक्रम हर दिन और कई बार कुछ घंटों और मिनटों में नया मोड़ ले रहा है. इसमें एक पल उत्साह और खुशी के पटाखे हैं और दूसरे पल आंसू और बिछोह है और तीसरे पल साजिशों और कानाफूसी का रहस्य-रोमांच है
कहने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेन्स’ का दावा करने वाली भाजपा की नैतिकता और अनुशासन की धोती सार्वजनिक तौर पर खुल रही है. लेकिन मुश्किल यह है कि पार्टी इसकी शिकायत किससे करे. आखिर चैनलों में भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष के बारे में चल रहे किस्से-कहानियों, साजिशों, उठापटक और खेमेबंदी से जुड़ी ‘खबरों’ का स्रोत खुद भाजपा और संघ के नेता हैं. सच यह है कि ‘खबरों’ के नाम पर चल रहे इन किस्से-कहानियों में सबसे ज्यादा कथित ‘खबरें’ भाजपा और संघ के विभिन्न गुटों के नेताओं की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ ‘प्लांटेड स्टोरीज’ हैं.
खास बात यह है कि इनमें से ज्यादातर ‘खबरें’ भाजपा बीट कवर करने वाले उन रिपोर्टरों के जरिए आ रही हैं जो खुद भी भाजपा के इस या उस खेमे के करीब माने जाते हैं. इन रिपोर्टरों की पहुंच भाजपा या संघ के अंत:पुर तक है और कुछ उनके किचन कैबिनेट तक में शामिल हैं. इनमें से कई रिपोर्टर चैनलों पर रिपोर्टिंग और विश्लेषण के नाम पर भाजपा के विभिन्न गुटों या खेमों के प्रवक्ता-से बन जाते हैं और संबंधित गुटों का बचाव करते दिखने लगते हैं. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है. भाजपा और चुनिंदा पत्रकारों के बीच रिश्ता बहुत पुराना है. अतीत में इनमें से कई पत्रकार बाद में पार्टी में एमपी और मंत्री भी बने हैं.
सच पूछिए तो भाजपा या संघ में पत्रकारों की यह घुसपैठ काफी अंदर तक है. लेकिन इसके उलट मीडिया के अंदर भाजपा की घुसपैठ भी काफी दूर तक रही है. इस घुसपैठ के नतीजे राम जन्मभूमि अभियान के दौरान दिखे और इन दिनों नरेंद्र मोदी को लेकर मीडिया के एक बड़े हिस्से के उत्साह में भी दिखाई दे रहा है. लेकिन भाजपा-न्यूज मीडिया के इस ‘मुहब्बत’ की कीमत वे पाठक-दर्शक चुका रहे हैं जिन्हें देश के मुख्य विपक्षी दल के बारे में ‘खबरों’ के नाम पर ‘प्लांटेड स्टोरीज’ और कानाफूसियों-अफवाहों से काम चलाना पड़ रहा है.