महिलाओं को आधी दुनिया भी कहा जाता है। विश्व भर में महिलाओं की तरक़्क़ी का लेखा-जोखा हर साल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय दिवस पर मीडिया में छाया रहता है। दुनिया की आधी आबादी में एक तबक़ा कामकाजी महिलाओं का है। हाल ही में डेलॉयट ‘पेशेवर सेवा नेटवर्क’ कम्पनी ने विश्व भर में कामकाजी महिलाओं की समस्याओं के बाबत ‘वीमेन एट वर्क-2023’ नामक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में भारत समेत 10 देशों की 5,000 कामकाजी महिलाओं की असल स्थिति पर रोशनी डाली गयी है। इन 5,000 कामकाजी महिलाओं में 10 फ़ीसदी यानी 500 भारतीय महिलाएँ भी शामिल हैं।
वीमेन एट वर्क-2023 रिपोर्ट अन्य रिपोट्र्स की तरह इस तथ्य की तस्दीक़ करती हैं कि महिलाएँ कार्यालयों में चाहे कितने ही शीर्ष पदों पर क्यों न हो, ज़्यादातर घरेलू ज़िम्मेदारियाँ उन्हीं के कंधों पर हैं। वैश्विक स्तर पर यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कार्य सम्बन्धित कई पैमानों पर बीते साल की तुलना में कुछ सुधार हुआ है; लेकिन कामकाजी महिलाओं के अनुभव बोलते हैं कि अभी भी कई ऐसे बिन्दु हैं, जहाँ सुधार नहीं हुआ या हालात और भी बदतर हो गये हैं।
सर्वे में शामिल अधिकतर महिलाओं के लिए सरोकार वाले बिन्दु-अपने अधिकारों को बनाये रखना, वित्तीय सुरक्षा और शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य हैं। ये तीन मुद्दे उनकी शीर्ष प्राथमिकताएँ हैं। 88 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं ने कहा कि वे पूर्णकालिक नौकरी करती हैं; लेकिन इसके बावजूद साफ़-सफ़ाई और परिवार के सदस्यों को देखने की ज़िम्मेदारी उनकी ही है। 46 फ़ीसदी ने कहा कि बच्चों की देख-रेख का पूरा ज़िम्मा उनका ही है। केवल 10 फ़ीसदी ने ही कहा कि उनके जीवनसाथी की अधिक ज़िम्मेदारी है। जहाँ तक भारत का सवाल है, तो केवल 15 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं ने स्वीकारा कि उनके पति / जीवनसाथी घरेलू कामों में हाथ बँटाते हैं। यानी 85 फ़ीसदी महिलाएँ कमाऊ होते हुए भी घर की साफ़-सफ़ाई, बच्चों व बुजुर्गों की देखभाल ख़ुद ही करती हैं। 67 फ़ीसदी मामलों में पार्टनर प्राइमरी आय का स्रोत है। 11 फ़ीसदी महिलाएँ घर में सबसे बड़ी आमदनी का स्रोत हैं।
ग़ौरतलब है कि 21वीं सदी में भी 40 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें पार्टनर के करियर को अधिक प्राथमिकता देनी पड़ती है। घर में अधिक कमाने वाली 20 फ़ीसदी महिलाओं को भी पति की नौकरी पहले देखनी पड़ती है। इससे महिलाओं की ख़ुद की तरक़्क़ी और अधिक कमायी के मौक़े सीमित हो जाते हैं। महिलाएँ चाहे वे कामकाजी हों या घरेलू, सामाजिक नियमों के तहत बच्चों को सँभालने व घरेलू काम करने की ज़िम्मेदारियाँ अक्सर उन्हीं के कंधों पर होती हैं। ऐसा करने वाली महिलाओं को समाज अच्छी महिला का तमग़ा देता है।
इस तमग़े का महिलाओं के शारीरिक व मानसिक सेहत पर प्रभाव पड़ता है। वे अक्सर तनाव में रहती हैं। कार्यालय व घर के काम में सन्तुलन बनाना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती है। कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे बड़ी मुश्किल उनके काम के घंटों को लेकर होती है। इसी कारण बीते साल 14 फ़ीसदी महिलाओं ने महज़ इसलिए नौकरी छोड़ी कि वहाँ काम के घंटों को लेकर सख़्ती थी। 30 फ़ीसदी महिलाएँ ऐसी भी हैं, जो इस कारण के चलते अपनी नौकरी छोडऩे के लिए मन बना रही हैं। यही नहीं, 97 फ़ीसदी कामकाजी महिलाएँ मानती हैं कि अगर काम के घंटों को लेकर किसी तरह की छूट या रियायत माँगी, तो उनकी पदोन्नति अटक जाएगी। 95 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें भरोसा नहीं है कि काम के घंटों में छूट के मुद्दे पर उनकी सुनी जाएगी। 44 फ़ीसदी ने कहा कि कार्यस्थल पर उन्हें उत्पीडऩ झेलना पड़ा।
बीते साल डेलायॅट की वीमेन एट वर्कप्लेस 2022 रिपोर्ट में उत्पीडऩ का आँकड़ा 59 फ़ीसदी था, यानी ऐसे मामलों में 15 फ़ीसदी की कमी आयी है। 14 फ़ीसदी महिलाओं ने कहा कि जिन कम्पनियों में यौन उत्पीडऩ सहन नहीं करते, वहाँ लम्बे वक़्त तक रुकना चाहेंगी। कामकाजी महिलाएँ अपनी नौकरी बचाये रखने के लिए अपनी शारीरिक व मानसिक सेहत पर भी ध्यान नहीं दे पाती हैं। वैश्विक स्तर पर 41 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं ने माना कि पीरियड्स के दर्द में भी काम करना पड़ा। वहीं 19 फ़ीसदी ने माना कि काम से तो अवकाश मिल गया; लेकिन कार्यालय में यह नहीं बता पायी कि पीरियड्स के कारण अवकाश चाहिए।
वैश्विक स्तर पर 41 फ़ीसदी महिलाओं की तुलना में 33 फ़ीसदी भारतीय महिलाओं ने माना कि उन्हें पीरियड्स सम्बन्धित लक्षणों के दौरान काम करना पड़ा। 56 फ़ीसदी महिलाओं ने कहा कि मानसिक ओर शारीरिक स्वास्थ्य उनकी सबसे बड़ी चिन्ता है। 51 फ़ीसदी महिलाओं ने कहा कि बीते साल के मुक़ाबले उनका तनाव बढ़ता जा रहा है। 2021 में ऐसा कहने वाली महिलाओं की संख्या 53 फ़ीसदी थी। 7 फ़ीसदी महिलाओं ने कहा कि मानसिक तनाव के कारण पिछली नौकरी छोडऩी पड़ी। 25 फ़ीसदी महिलाओं ने कहा कि कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करने में वे सहज महसूस करती हैं, जबकि 2021 में यह आँकड़ा 43 फ़ीसदी था। यहाँ गिरावट दर्ज की गयी है, जो कि महिलाओं के साथ-साथ कम्पनियों के लिए भी चिन्ता का मुद्दा है। अगर कर्मचारी मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं होंगे या अपनी ऐसी परेशानियाँ साझा नहीं करेंगे, तो इसका असर सम्बन्धित कर्मचारी पर तो पड़ता ही है; कम्पनी / कार्यालय के काम / उत्पादन पर भी पड़ता है। जबकि वैश्विक व भारत में कार्यस्थल में तनाव व वर्कआउट यानी काम सम्बन्धित मानसिक, शारीरिक थकान का स्तर काफ़ी अधिक है। लेकिन उत्साहजनक यह है कि भारत में युवा कर्मचारी कार्यस्थल में मानसिक सेहत के बारे में बात करने को लेकर सहज हैं।
आश्वस्त करने वाली बात यह है कि कामकाजी महिलाओं ने बीते साल की तुलना में हाइब्रिड व्यवस्था सम्बन्धित बेहतर कामकाजी अनुभव दर्ज कराये हैं। पर भारत में हाइब्रिड व्यवस्था में काम करने वाली कामकाजी महिलाओं में इस व्यवस्था के बाबत पूर्वानुमान में कमी आयी है। वर्ष 2022 में ऐसी महिलाओं की संख्या 15 फ़ीसदी थी, जो बढक़र 2023 में 28 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। इसी तरह काम के लचीलेपन को लेकर भी भारतीय महिलाओं में बीते साल की तुलना में कमी देखने को मिली। वर्ष 2022 में ऐसी महिलाओं की संख्या 13 फ़ीसदी थी, जो कि 2023 में बढक़र 32 फ़ीसदी हो गयी। भारत में डेलॉयट की आला अधिकारी सरस्वती कस्तूरीरंजन का कहना है कि ‘संगठनों को निश्चित रूप से लचीलेपन, पूर्वानुमान सरीखे मुद्दों को सम्बोधित करने की ज़रूरत है, क्योंकि इनका कर्मचारियों को जोडऩे व उन्हें रोके रहने जैसे अहम बिन्दुओं पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।’
58 फ़ीसदी महिलाएँ वित्तीय सुरक्षा को लेकर अधिक चिन्तित हैं। 54 फ़ीसदी ने व्यक्तिगत सुरक्षा को लेकर अपनी चिन्ता व्यक्त की। 53 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं ने माना कि सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि उनकी नौकरी न चली जाए। 59 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल से इतर महिला अधिकार सबसे बड़ी चिन्ता है। डेलॉयट के वैश्विक सीईओ जोसेफ बी. उकुजोग्लू का कहना है कि कुछ सुधार के बावजूद कामकाजी महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग मानता है कि उन्हें नहीं लगता कि उनके नियोक्ता लैंगिक बराबरी को लेकर की गयी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए ठोस क़दम उठा रहे हैं। बिजनेस नेताओं की ज़िम्मेदारी है और उनके पास मौक़े हैं किवे कार्यस्थलों पर बदलाव लाएँ, जिनकी बहुत ज़रूरत है। इसमें पहली बड़ी ज़रूरत लैंगिक बराबरी की है।’
दरअसल आज की महिलाएँ महत्त्वाकांक्षी व पेशेवर हैं। हाल ही में भारत में सिविल सेवा 2022 के नतीजे जारी हुए और जारी नतीजों में लड़कियों का दबदबा जारी रहा। लगातार दूसरी बार टॉप पर चार लड़कियाँ आयीं। वर्ष 2000 में सिविल परीक्षा में 85 महिलाओं ने परीक्षा पास की थी और अब 2022 में 320 महिलाओं ने बाज़ी मारी है। इस दौरान महिला आवेदकों की संख्या सात गुणा बढ़ी। सात वर्ष से सिविल सेवा में महिला भागीदारी 23 फ़ीसदी से अधिक है। यह तथ्य भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि यूपीएससी में महिला उम्मीदवारों की संख्या बढऩे के बावजूद देश की नौकरशाही में इनकी संख्या बेहद कम है। एक अध्ययन के मुताबिक, 2020 में देश की ब्यूरोक्रेसी में महिलाओं की हिस्सेदारी महज़ 13 फ़ीसदी थी। विश्व भर में व्याप्त लैंगिक पूर्वाग्रह महिलाओं को आगे बढऩे की राह में कई तरह के व्यवधान पैदा करते हैं। भारत विश्व के सबसे अधिक परम्परागत देशों में से एक है। यही नहीं, यहाँ हर प्रान्त की अपनी विभिन्न प्रथाएँ हैं और महिलाओं, कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ भी कई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि व्यवसायी, व्यावसायिक और सरकारी नीतियाँ कामकाजी महिलाओं की समस्याओं पर रोशनी डालने वाली रिपोट्र्स पर ध्यान देंगे।