ग्रामीण समाज में बढ़ रहा पाखंडवाद

हिन्दुस्तान में ग्रामीण परिवेश बहुत तेज़ी बदलता जा रहा है। नयी ग्रामीण पीढ़ी में शहरीकरण और पाखंडवाद का असर तेज़ी से हो रहा है। पिछले आठ-नौ वर्षों में जिस प्रकार से ग्रामीण समाज, ख़ासतौर पर ग्रामीण युवा पीढ़ी के ज़ेहन से खेती-किसानी का रंग उतरता और भगवा रंग का ख़ुमार चढ़ता जा रहा है, उससे इस ग्रामीण युवा पीढ़ी का भविष्य ख़तरे में नज़र आ रहा है।

दरअसल ग्रामीण युवा पीढ़ी इतनी तेज़ी से पाखंडवाद के रास्ते पर जा रही है कि उसके संस्कारों और शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। उसे अब सब कुछ इतना आसान लगने लगा है कि वह मेहनत करने से कतराने लगी है। इसकी कई वजह हैं, जिनमें से एक प्रमुख वजह है- उसके हाथ में एंड्रायड फोन और दूसरी वजह है- राजनीति और पाखंडी बाबाओं का धर्म के नाम पर बढ़ता पाखंडवाद। मैं इसमें राजनीति और पाखंडवाद को ज़िम्मेदार इसलिए मानता हूँ। क्योंकि आज की तारीख़ में अगर युवाओं को मोबाइल से भी ज़्यादा कोई बर्बाद कर रहा है, तो वो आज की देशद्रोह के रास्ते पर चलने वाली राजनीति और अधर्म के रास्ते पर चलने वाला पाखंडवाद ही हैं। ये दोनों ही पेशे आजकल इतने धनवर्षा वाले हैं कि हमारे ज़्यादातर युवा इन्हीं पेशों से प्रभावित हैं।

देश-भक्ति और ईश्वर-भक्ति के नाम पर हमारी युवा पीढ़ी को भटकाने वाले ये दो पेशों से जुड़े चालाक लोग हमारे युवाओं का दुरुपयोग हिंसक और नारे लगाने वाली भीड़ के रूप में कर रहे हैं। और इन सब चक्करों में फँसने वाले युवाओं में सबसे ज़्यादा ग्रामीण युवा हैं, जो कि किसान पुत्र हैं। इस ग्रामीण युवा पीढ़ी का बाक़ी समय मोबाइल पर जाता है, जहाँ इन युवाओं को बर्बाद करने के लिए कई ऐप मौज़ूद हैं। इन ऐप पर वे कुछ लिखकर, मीम्स डालकर और वीडियोग्राफी करके रातोंरात अमीर होने का सपना मन में पाले बैठे हैं। मुझे यह देखकर दु:ख होता है कि युवा अपने संस्कार, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। और दु:ख सिर्फ़ इसी बात का नहीं है, बल्कि इस बात का और भी ज़्यादा है कि वे संस्कारों के नाम पर गालियाँ देना, अभद्रता करना, बदतमीजी करना, बड़ों की बेइज़्ज़ती करना सीखकर ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की ग़लती कर रहे हैं। अपनी संस्कृति के बारे में उन्हें कुछ अता-पता नहीं है। अपने धर्म और परंपराओं के नाम पर वो सिर्फ़ और सिर्फ़ भोंडापन, पागलपन, पाखंडवाद और हुड़दंग करने लगे हैं। उन पर पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा कुसंगति और बुरे कर्मों का असर पड़ रहा है। वे कम उम्र में ही नशे में उतर रहे हैं। अपने चरित्र का पतन कर रहे हैं। रातोंरात अमीर होने के चक्कर में कुछ भी करने पर आमादा हैं। अगर कोई उन्हें समझाने की कोशिश करे, तो वे उसे मूर्ख समझते हैं।

दरअसल हमें और हमारे समाज के हर तबक़े की अगुवाई करने वाले लोगों को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर चूक कहाँ हो रही है? हमारे बच्चों में ये बुराइयाँ क्यों आ रही हैं और उनका समाधान क्या है? हालाँकि मेरा मानना है कि अपने बच्चों को सुधारने के लिए उनकी ग़लतियाँ देखने से पहले हमें अपनी ग़लतियाँ सुधारनी होंगी। जब तक हम अपनी ग़लतियाँ नहीं सुधारेंगे, तब तक हम बच्चों की ग़लतियाँ करने से रोकने में सफल नहीं हो सकेंगे।

आजकल हम देखते हैं कि राजनीतिक लोगों की भाषा, व्यवहार निचले स्तर के हो चुके हैं। जिन नेताओं से देश के लाखों-करोड़ों युवा प्रभावित हैं, वही नेता मंचों से लेकर संसद तक में अपनी भाषा की मर्यादा को भुलाकर गली के गुंडों वाली सडक़छाप भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। युवाओं का उचित मार्गदर्शन करने की बजाय उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जा रहे हैं। उन्हें झूठे और दिखावे के राष्ट्रवाद, नक़ली राष्ट्रभक्ति और आडंबर भरी धर्मांधता के कुएँ में धकेल रहे हैं। और ये सब वे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सत्ता बचाने के लिए कर रहे हैं। सत्ता बचाने के लिए यही नेता अपनी रैलियों और जनसभाओं में शराब और मांस आदि परोसने से परहेज़ नहीं करते। युवाओं को रैलियों में ले जाने के लिए अपने कुछ पाले हुए गुंडों की शह लेते हैं और युवाओं को हज़ार-पाँच सौ रुपये का लालच देकर उनसे हुड़दंग करवाते हैं। नारे लगवाते हैं और रात को उन्हें शराब आदि परोसकर उनके अश्लील मनोरंजन का इंतज़ाम कराते हैं। लेकिन जब सत्ता में आते हैं और युवाओं को पेट की भूख सताती है और रोज़गार की ज़रूरत महसूस होती है, तब उनके काम नहीं आते। और जब वे रोज़गार की माँग करते हैं, तो उन पर लाठियाँ बरसवाते हैं और पिटने वालों में सबसे ज़्यादा ग्रामीण युवा ही होते हैं।

इसी प्रकार से तमाम धर्मों के ज़्यादातर बाबा, फ़क़ीर और पंडे-पुजारियों से लेकर मौलवी और पादरी आदि हैं; जो कि लोगों को धर्म का सही पाठ पढ़ाने की बजाय उन्हें अंधविश्वास, आडंबर, पाखंड और तरह-तरह की मूढ़ताओं में धकेलते जा रहे हैं। आजकल तो एक-से-एक नये-नये बाबाओं के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। अब तो ऐसे बाबाओं की एक लम्बी फ़हरिस्त है, जो बिना किसी क़ानून के डर के लगातार भोले-भाले ग्रामीणों को दिन-रात बेवक़ूफ़ बनाकर पैसा ऐंठ रहे हैं। ऐसे बाबाओं पर अब कोई प्रतिबंध भी नहीं लगाता और न ही उनकी करोड़ों की कमायी पर कोई कर (टैक्स) आदि लगता है। परिणाम यह होता है कि एक सडक़छाप अनपढ़ और धर्म के बारे में कुछ भी न जानने वाला भी अगर बाबा बनकर एक-दो साल प्रवचन देने का काम करने लगता है, तो अगले-दो तीन साल में उसके पास आलीशान बंगला, आलीशान लग्जरी कारें और 10-20 चेले चपाटे, सिक्योरिटी सब कुछ होता है। जैसे ही ऐसे बाबाओं के पास चार-छ: हज़ार भक्त पहुँचा शुरू हो जाते हैं, उनके आगे नेता भी माथा टेकने लगते हैं और उनकी सिक्योरिटी को और टाइट करने का हुक्म पुलिस को देकर उसे अलग परेशान करते हैं। जिस पुलिस का गठन समाज की व्यवस्था सुधारने के लिए किया गया है, उस पुलिस के जवान बड़ी संख्या में ऐसे बाबाओं और अपराधियों की सुरक्षा में लगा दिये जाते हैं। और धर्म को धंधा बनाने वाले ये लोग पूरी ज़िन्दगी ऐश करते हैं। कई तो धर्म की आड़ में अपराध भी करते हैं। कई पकड़े भी गये हैं। लेकिन इन्हें पकडऩा आसान नहीं होता। क्योंकि जिस प्रकार से ग़लत नेताओं की सुरक्षा गुप्त तरीक़े से कुछ गुंडे करते हैं, उसी प्रकार से ऐसे बाबाओं की सुरक्षा भी गुप्त तरीक़े से कुछ गुंडे ही करते हैं। और उन गुंडों की सुरक्षा नेता और बाबा करते हैं।

इस प्रकार से ये तीन ग़लत लोग एक-दूसरे की सुरक्षा करते हैं और समाज को न सिर्फ़ भटकाते हैं, बल्कि डरा-धमकाकर उसे कमज़ोर भी बनाये रखते हैं। कोई क़ानून से डराता है। कोई धर्म और भगवानों से डराता है, तो कोई ख़तरनाक हथियारों से डराता है। इसलिए बहुत चालाक लोग, जो कि न कभी ठीक से पढ़ते-लिखते हैं और न ही किसी काम के लायक होते हैं, ऐसे लोग तीन ही प्रकार के धंधों में उतरते हैं। पहला धंधा राजनीति है, दूसरा धर्म का धंधा और तीसरा बदमाशी। ग्रामीण युवाओं को भटकाने में इन तीनों का बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि वो इनसे सीख रहे हैं।  भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवतगीता के कर्मयोग अध्याय में कहते हैं- ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणम् कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।’ यानी श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुशरण करते हैं। आज जिस प्रकार का आरचण समाज को आईना दिखाने वाले लोग कर रहे हैं; आम लोग, ख़ासतौर पर युवा उसी प्रकार का आचरण कर रहे हैं। जिन लोगों को समाज को बचाने का काम करना चाहिए और युवाओं को रास्ता दिखाना चाहिए, वे उन्हें भटका रहे हैं।

बहरहाल हमारे युवाओं के भटकने से समाज तेज़ी से पिछड़ रहा है और गर्त में जा रहा है। हमारी युवा पीढ़ी भ्रमित है और अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भूल बैठी है। आज समाज के सियासी दलों के नुमाइंदों ने गाँवों, क़स्बों में मेले बंद करवाकर नौटंकियाँ शुरू करवा दी हैं। गौशालाओं, मंदिरों, धार्मिक ट्रस्टों में बढ़-चढक़र अथाह दान के रूप में सोने के अंडे रखने और रखवाने शुरू किया है। हिन्दू धर्म के नाम पर गाँव-गाँव में भजन, कीर्तन और कथावाचन के नाम पर पाखंडवाद किया जा रहा है। समाज के युवाओं को कावड़ लाने और अन्य धार्मिक आयोजनों की ओर आकर्षित करने का एक अभियान-सा चलाया जा रहा है। धार्मिक आयोजनों और कथावाचकों को लाखों रुपये दान दिये जा रहे हैं। ‘एक रात, गोमाता के नाम’ जैसे शीर्षक पर नक़दी, ज़मीन और सोना दिया जा रहा है। अयोध्या में बन रहे राममंदिर के लिए भी सबसे ज़्यादा दान इसी ग्रामीण वर्ग ने दिया है। तमाम सियासी पार्टियाँ अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए ‘80 बनाम 20’ और ‘35 बनाम एक’ जैसे जबरदस्त नारे बुलंद करके ग्रामीण इलाक़ों में सियासत करते हैं, जिसमें मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। छिपी हुई सियासी पार्टियों की राजनीतिक आईटी सेल की भी मूल भूमिका रहती है।

गाँव के किसान और कामगार वर्ग में जातीय एकता की कमी इसका सबसे बड़ा मूल कारण है। एक तरफ़ गाँव में शिक्षण संस्थानों, स्वास्थ्य सेवाओं और इस आधुनिक युग में कम्प्यूटर और दूसरे संस्थानों का टोटा साफ़ दिखायी देता है, जिस पर न किसी राजनीतिक दल का ध्यान है और न ही किसी सामाजिक-धार्मिक ठेकेदार का। ग्रामीण समाज के युवा इन सब चीज़ों की कमी होने के चलते ग़रीबी, बेरोज़गारी, नशाख़ोंरी और आपराधिक गतिविधियों की तरफ़ तेज़ी से अग्रसर हो रहे हैं, जिसका लाभ सियासी दलों के प्रतिनिधि अपने चुनाव जीतने के समय बख़ूबी लेते रहते हैं।

दरअसल पहले गाँव-समाज के सभी जातियों के बड़े-बूढ़े और मुखिया अपने छोटे-मोटे झगड़े-फ़साद आपसी मतभेद आदि आपस में ही पंचायत में बैठकर सुलझा लेते थे। इसीलिए गाँव-देहात में पंचायतों का ख़ास महत्त्व होता था, जो धीरे-धीरे समाप्त होता दिखायी दे रहा है। आजकल गाँव समाज के किसी भी सामाजिक संगठन, ख़ास या किसान संघ का मुखिया हमेशा राजनीतिक दलीय व्यक्ति होता है। जबकि जाति संगठन या ख़ास का मुखिया ग़ैर-राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से मज़बूत, शक्तिशाली और विद्वान होना चाहिए; जो सभी राजनीतिक प्रतिनिधित्व के नेताओं को एक मंच पर ला सके। गाँव-देहात में आ रही परेशानियों का निराकरण करवा सके।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)