केंद्र के भारी भरकम दावों के बावजूद महत्वपूर्ण योजनाएं जो 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अमल में आनी शुरू तो हुई पर वे इसलिए बेहतर नहीं हुई क्योंकि ग्रामीण भारत को आसानी से कजऱ् नहीं मिला। ऐसी योजनाएं मसलन प्रधानमंत्री मुद्रार योजना (पीएमएमवाइ) जनधन और प्रधानमंत्री जनधन योजना (पीएमजेडीवाई) का पूरा ध्यान फाइनेंशियल इन्क्लूजन और क्रेडिट अवेलिबिलिटी पर था जिससे देश की ग्रामीण जनता को छुटकार दिलाना था।
दूसरी और छोटा कजऱ् लेने वाले उपभोक्ताओं की तादाद जो बढ़ी रहती थीं वह 2014 और 2017 के दौरान बेहद कम हुई है। यह तादाद वापस उन क्रूर महाजनों के पास लौट गई है जो खून की आखिरी बूंद तक चूस लेने के लिए मशहूर हैं।
यह जानकारी उस अध्धयन से मिली है जिसका शीर्षक है ‘एन्स्नेर्ड इन पावर्टी : ए स्टडी ऑन रूरल इन्डेटनेस इन इंडियाÓ। यह अध्ययन एसोचेम ने थॉट आरबिटरेज के साथ मिल कर किया है। इस में सरकार की बेहद इनोवेटिव योजनाएं जो बैंक के बाहर के लोगों को बैंक से जोडऩे के लिए बनाई गई थीं मसलन मुद्रा योजना, जनधन योजना और बीमा पेंशन योजना इनका इशारा था कि इन्फार्मल सेक्टर में क्रेडिट को किस हद तक कम किया जाए।
मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाहर करोड़ लोगों के लाभान्वित होने के लिए मुद्रा योजना के तहत सरकार के जरिए कजऱ् देने की योजना शुरू की थी। इससे गरीबों की जिंदगी में बदलाव की रोशनी और रोजगार की संभावनाओं को बढ़ाने का इरादा था।
शिड्यूल बैंकों की ग्रामीण कजऱ् उपलब्ध कराने की योजनाएं तो लगभग नौ फीसद ही मार्च 2014 से जून 2017 के दौरान रहीं। छोटे कजऱ्दारों की तादाद ज़रूर मार्च 2014 मे 36.5 फीसद से जून 2017 में 33 फीसद हो गई।
अध्ययन के अनुसार 2014 में जो योजनाएं अमल में आई थीं वे आसानी से ग्रामीण इलाकों में कजऱ् चुकाने में लाभकारी नहीं थी। और इन्होंने ग्रामीण इन्डेटेडडनेस में सहजता से न तो कजऱ् दिलाया और न ग्रामीण कजऱ् बढ़ोतरी में कोई सुधार ही किया बल्कि इससे नुकसान ही हुआ।
निजी कजऱ्ों (पर्सनल लोन) की हिस्सेदारी – जिसे कहते हैं गैर उत्पादी मामलों के लिए कजऱ् कुल ग्रामीण कजोंऱ् के लिए शिड्यूल बैंकों से 2014 से ज़रूर बढ़ता रहा। यह 2017 में लगभग 20 फीसद हो गया। सरकार की अपनी क्रेडिट स्कीमें भी इस झुकाव को कतई रोक नहीं पाई। इसके मायने हुए कि गैर संस्थानिक कजऱ्दाता जिनमें गांव का महाजन भी है वह कजऱ् देने वाला महत्वपूर्ण स्त्रोत है। भले कितना ही बदनाम वह रहा हो।
अध्ययन के अनुसार ग्रामीण कजऱ् ठीक ठाक दिया ज़रूर गया लेकिन गरीबों को नहीं बल्कि धंधा कमाने वाले धनपिपासुओं को ही।