मशूहर फिल्म अभिनेत्री और फिल्म निर्देशक नंदिता दास अपने एक लेख की शुरुआत ऐसे करती हैं- ‘जबसे मेरा सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ है और मेरे बारे में लिखा जाने लगा है, 10 में नौ लेखों की शुरुआत इस बात से होती है कि मेरा रंग धूमिल या मटमैला है। अच्छे-से-अच्छा पत्रकार भी यह बताना नहीं भूला है कि मेरी त्वचा का रंग कैसा है? माना जाता है कि अभिनेत्री तो गोरी ही होगी। अत: मेरा अनुमान है कि जो इससे हटकर है, वह सामान्य से विचलन है। या एक ऐसी कंडीशनिंग है, जिससे लोग बच नहीं पाते? अपने अनुभवों के आधार पर कह सकती हूँ कि बचपन से ही जब भी मुझे किसी से मिलाया जाता रहा है या किसी को मेरे बारे में बताया जाता रहा है; तब मेरी त्वचा का रंग अपरिहार्य रूप से एक मुद्दा रहा है। लोग कहते थे कि बेचारी उसका रंग कितना काला है। या रंग काला होने के बावजूद तुम्हारे फीचर कितने सुन्दर हैं। लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी इस बात की चर्चा नहीं की। अगर वे न होते, तो मैं यही मानकर बड़ी होती कि मैं किसी काम की नहीं हूँ।’ नंदिता दास के लेख के शुरुआती अंश के ज़िक्र का तात्पर्य यही है कि भारत में साँवला / काला बनाम गोरा रंग को लेकर लोगों के बीच एक कमतर बनाम श्रेष्ठ का कंप्लेक्स बहुत गहरी जड़ें जमाये हुए है। और इस सामाजिक नज़रिये ने किशोरियों / युवतियों और महिलाओं को बुरी तरह से अपनी ज़द में कैद कर रखा है। मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल कमानी ने अपनी किताब ‘इन फाइटिंग पॉवर्टी टूगेदर’ (2011) में फेयर एंड लवली क्रीम बनाने वाली कम्पनी हिन्दुस्तान यूनिलीवर की एक शोध का ज़िक्र किया था। एचयूएल कम्पनी ने उस शोध में दावा किया था कि 90 फीसदी भारतीय महिलाएँ त्वचा को सफेद (गोरा) करने वाले उत्पादों का इस्तेमाल करने की चाह रखती हैं। यह वज़न कम करने वाली अभिलाषा की ही तरह है। एक गोरी त्वचा को सामाजिक और आॢथक तरक्की में आगे बढऩे के लिए शिक्षा की ही तरह समझा जाता है। बहरहाल खबर यह है कि बीते दिनों हिन्दुस्तान यूनिलीवर कम्पनी ने फेयर एंड लवली क्रीम से फेयर शब्द हटाने की घोषणा की और बताया कि कम्पनी ने पेटेंट डिजाइन और ट्रेडमार्क महानियंत्रक के पास ‘ग्लो एंड लवली’ नाम पंजीयन के लिए भेज दिया है। गौरतलब है कि 25 मई को अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की एक श्वेत पुलिस अधिकारी के द्वारा बर्बर तरीके से दी गयी यंत्रणा के बाद मौत हो गयी थी। उसके बाद से अमेरिका सहित दुनिया के कई मुल्कों में अश्वेतों के साथ भेदभाव को लेकर ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ अभियान चल रहा है। कई बड़ी-बड़ी हस्तियों ने आगे आकर इस मुहिम को अपना समर्थन दिया हैै। ब्लैक लाइव्स मैटर्स मुहिम ने बाज़ार पर भी अपनी छाप छोडऩी शुरू कर दी है। यानी बिजैनसस भी रंगभेद को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों, नीतियों, कार्यक्रमों को हटाने वाले प्रेशर में आये दिन दिखायी दे रहे हैं। मसलन-अमेरिकी कम्पनी जॉनसन एंड जॉनसन ने अपने उत्पाद ‘बैंडएड’ की स्किन कलर वाली पट्टी को गहरे काले और भूरे रंग का करने जा रही है। शादी डॉट कॉम ने अपनी वेबसाइट से उस विकल्प को हटा दिया है, जिसके तहत लोग स्किन टोन के आधार पर अपने पार्टनर को सर्च कर सकते थे। अमेरिकी कम्पनी ग्लोशियर ने अपने सभी उत्पादों से नस्लभेद के विकल्प को न केवल हटाया, बल्कि इसके खिलाफ चलाये जा रहे अभियान में करीब चार करोड़ रुपये की रकम भी दान की है। भारत में 45 साल पहले हिन्दुस्तान यूनिलीवर ने बाज़ार में भारतीय समाज की गोरी खाल को श्रेष्ठ मानने वाली मानसिकता को बाज़ार में भुनाने की मंशा से ‘फेयर एंड लवली’ क्रीम लॉन्च की और इन 45 वर्षों की उसकी बिजनेस यात्रा ने उसे भारत में गोरेपन का दावा करने वाले सौंदर्य उत्पादों के बीच अलग ही मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। यह क्रीम भारत में त्वचा को गोरा करने वाली क्रीमों में से सबसे अधिक बिकती है। इसका सालाना बिजेनस भारत में करीब 2,000 करोड़ रुपये का है। अक्सर सुन्दर त्वचा का मतलब गोरे रंग से लिया जाता है। स्टेस्टिा के अनुसार, भारत में मौज़ूदा अनुमान बताते हैं कि यहाँ 58,000 करोड़ रुपये का स्किन केयर प्रोडक्ट्स का बाज़ार है। भारत में 2023 तक स्किन केयर प्रोडक्ट्स का बाज़ार 73,000 करोड़ रुपये का हो जाएगा। मुल्क में स्किन केयर प्रोडक्ट्स में सालाना 7.9 फीसदी की वृद्धि हो रही है। टॉप की फिल्मी अदाकारा फेयर एंड लवली के विज्ञापन में नज़र आती रही हैं और इसके विज्ञापनों ने यही संदेश समाज में दिया है कि गोरा रंग नौकरी पाने में मददगार साबित होता है और प्यार पाने में भी। यह बात दीगर है कि कम्पनी ने जारी अपने बयान में कहा कि बीते एक दशक में फेयर एंड लवली के विज्ञापन ने महिला सशक्तिकरण का संदेश दिया, ब्रांड का विजन सुन्दरता को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण को अपनाना है। हिन्दुस्तान यूनिलीवर कम्पनी का कहना है कि उस पर कई साल से आरोप लग रहे हैं कि त्वचा के रंग को लेकर वह दुराग्रह पैदा कर रही है, जिसके चलते कम्पनी ने इस क्रीम का नाम बदलने का निर्णय लिया है।
कम्पनी ने यह भी कहा कि 2019 में कम्पनी ने दो चेहरे वाला कैमियो हटा दिया था। अब कम्पनी अपने ब्रांड की पैकेजिंग से फेयर, व्हाइटनिंग और लाइटनिंग जैसे शब्दों को हटा देगी। कम्पनी अब नये लॉन्च किये जाने वाले उत्पाद में अलग-अलग स्किन टोन वाली महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर अधिक ध्यान देगी। यानी विज्ञापनों और प्रचार सामग्री में हर रंग की महिलाओं को जगह दी जाएगी। कम्पनी के नाम बदलने पर बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रणौत ने ट्वीट करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की- ‘यह कभी-कभी अकेली लड़ी गयी लड़ाई रही है। लेकिन परिणाम तभी मिलते हैं, जब पूरा मुल्क इसमें भाग लेता है।’ अपनी त्वचा के रंग को लेकर पक्षपात का सामना कर चुकी सुहाना खान ने भी इस कदम की सराहना की और इंस्टाग्राम पर ब्रांड की घोषणा वाली पोस्ट साझा की। दरअसल त्वचा के एक खास रंग यानी गोरे रंग को बढ़ावा देने के पीछे कई शाक्तिशाली ताकतों का हाथ रहा है। इसके ज़रिये कभी एक नस्ल / जाति विशेष को कमतर आँका गया, तो कभी किसी अन्य तबके को निशाना बनाया गया। किसी नस्ल/इंसान का त्वचा का रंग क्यों कैसा होता है? इसे जानने-समझने के लिए साइंस जर्नल में छपे एक अध्ययन में बताया गया है कि त्वचा का बदलता रंग एक विकासवादी प्रक्रिया का हिस्सा है। जीन के विकास का पता लगाने वाली टीम ने यह जाँचा कि जीन दुनिया भर में कैसे यात्रा करते हैं। अंतत: टीम इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अफ्रीकी मूल के लोगों के एक बड़े हिस्से में जीन में ऐसे बदलाव हुए, जो उनकी त्वचा के रंग के लिए ज़िम्मेदार है। दरअसल त्वचा का रंग सब का एक जैसा नहीं हो सकता। क्योंकि जीन की अहम भूमिका के साथ-साथ भूगौलिक परिस्थितियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। जिस तरह नाम में क्या रखा है, उसी तर्ज पर त्वचा के रंग में क्या रखा है? समाज में इसी नज़रिये पर अधिक ज़ोर देने की ज़रूरत है। और यह हमारे सामने एक बहुत बड़ी चुनौती भी है और 21वीं सदी के मानव जाति के लिए शर्मनाक भी है कि वह अभी भी रंग की उलझन में फँसा हुआ है। बदलते वक्त के साथ मुनाफा कमाने वाली कम्पनियों ने पुरुषों पर भी अपनी पकड़ बनायी और उनके लिए भी फेयर एंड हैंडसम जैसे सौंदर्य उत्पाद बाज़ार में उतार दिये। भारत एक विशाल देश है और विविधता ही इसकी अहम पहचान है। यहाँ दक्षिण में अधिकतर लोगों का रंग साँवला / काला होता है; मगर बाज़ार ने यहाँ भी लोगों के मन में गोरे रंग की चाहत की लालसा पैदा कर दी। यह विविधता के लिए एक खतरा है। दरअसल वैश्वीकरण के युग में सब कुछ एक ही साँचे में देखने वाली सोच के अपने खतरनाक नतीजे भी सामने आने लगे हैं। कद, काठी, रंग, नैन-नक्श, बोली में विविधता एकरूपता को तोड़ती है और सौंदर्य के दायरे को फैलाती है। क्या गोरापन ही सुन्दरता है? अगर ऐसा होता, तो वह कहावत कि सुन्दरता तो देखने वालों की आँखों में होती है; कब की गायब हो चुकी होती। गोरेपन को ही सौंदर्य का मज़बूत प्रतीक बनाने वाली अवधारणा को तोडऩे व सौंदर्य के दायरे को बड़ा करने या उसे समावेशी बनाने व लोगों को रंगवाद के प्रति जागरूक करने के मकसद से 2009 में भारत में ‘डार्क इज ब्यूटीफुल मुहिम शुरू की गयी। आज यह मुहिम भारत सहित विश्व के 18 मुल्कों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। इस मुहिम की संस्थापक कविता इम्मानुएल का विश्वास है कि रंग इत्यादा को लेकर जोभी पूर्वाग्रह या मतभेद हैं, वे तभी खत्म होंगे, जब पूरी दुनिया में लोगों की सोच एक जैसी बनेगी। लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर और कॉरपोरेट स्तर पर नीतियों में बदलाव की ज़रूरत है। विशेषतौर पर विज्ञापन के क्षेत्र में बड़े बदलाव ज़रूरी हैं। कविता ने अपने ये विचार हाल ही में अपने एक लेख में अभिव्यक्त किये हैं। उनका यह भी मानना है कि डार्क केवल सुन्दर ही नहीं है, यह स्मार्ट भी है; बोल्ड भी है और स्ट्रॉन्ग भी है। अब देखना यह है कि ‘फेयर’ की जगह लेने वाला ‘ग्लो’ शब्द रंगभेद की मानसिकता पर कितनी तीव्रता से प्रहार कर पायेगा।