सन् 2017 के बजट सत्र में केंद्रीय क़ानून मंत्रालय ने जिस गुप्त चंदा (इलेक्टोरल बॉन्ड) को आधिकारिक सहमति दी थी, उसके नुक़सान और दुरुपयोग को लेकर कयास लगते रहे हैं। ऐसे आरोप लग चुके हैं कि भारतीय जनता पार्टी के पास 70 से 80 फ़ीसदी तक गुप्त चंदा आ रहा है और वह इस चंदे का दुरुपयोग कर रही है। मोदी की केंद्र सरकार पर पहले भी आरोप लगता रहा है कि उसने जल्दबाज़ी में विवादास्पद गुप्त चंदा अधिनियम को अन्य क़ानूनों की संसदीय प्रक्रिया के तहत मनमानी करते हुए निर्णय लेते हुए इसे वैध बना दिया, जबकि चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया इसके पक्ष में नहीं थे।
जानबूझकर केंद्र सरकार के क़ानून मंत्रालय की तरफ़ से कई गड़बडिय़ों को नज़रअंदाज़ करते हुए लोकसभा में यह बिल पास करके राज्यसभा को बाइपास करके इस बिल को पास किया गया, जो कि असंवैधानिक और ग़ैर-क़ानूनी था। इस बिल को पास करने की चर्चा को अनौपचारिक चर्चा का नाम देकर जिस प्रकार से केंद्र्र सरकार ने इसे पास किया, उसमें अज्ञात लोगों को शामिल किया गया। केंद्र सरकार का यह क़दम न केवल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना था, बल्कि ख़ुद केंद्र सरकार के कामकाज की नियमावली का उल्लंघन भी था।
इस बिल को लेकर क़ानून मंत्रालय ने जो दो पन्नों का दस्तावेज़ तैयार किया, उससे पता चलता है कि सरकार ने दबे स्वर में इसे न्यायसंगत ठहराने की कोशिश की। हालाँकि एक नियम यह भी है कि राजनीतिक दलों को सन् 1976 के बाद मिले विदेशी चंदे की अब जाँच नहीं हो सकेगी।
इस सम्बन्ध में भी सन् 2018 को वित्त विधेयक में 21 संशोधनों के बाद लोकसभा में संशोधित क़ानून बिना किसी चर्चा के ही पारित हो चुका है, जिसमें से एक संशोधित क़ानून विदेशी चंदा नियमन क़ानून 2010 है। जबकि पहले क़ानून के मुताबिक, राजनीतिक दलों पर विदेशी चंदा लेने से रोक थी। लेकिन केंद्र्र की मोदी सरकार ने पहले वित्त विधेयक-2016 के ज़रिये विदेशी चंदा नियमन क़ानून (एफसीआरए) में संशोधन करके विदेशी चंदा लेने को भी आसान कर दिया था, जिसमें कहा गया कि सन् 1976 के बाद से मिले विदेशी चंदे की जाँच नहीं होगी, चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल को मिला हो। इस संशोधन के बाद सभी राजनीतिक दल, ख़ासकर भाजपा और कांग्रेस दोनों बच गये। क्योंकि सन् 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन दोनों बड़े दलों को एफसीआरए क़ानून के उल्लंघन का दोषी पाया ठहराया था।
इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार तत्कालीन वित्तमंत्री (अब स्व.) अरुण जेटली सबसे बड़े ज़िम्मेदार हैं। आरटीआई कार्यकर्ता व एनसीपीआरआई के सदस्य सौरव दास ने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत इसकी जानकारी सरकार से हासिल की, जिससे पता चलता है कि किस तरह तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियाँ उड़ाते हुए इस विवादास्पद धन शोधन की प्रक्रिया को धन विधेयक की श्रेणी में डालकर संविधान के आर्टिकल 110 की धज्जियाँ उड़ायीं, जिसे पास कराने की कोई मजबूरी सरकार को नहीं थी। क्योंकि चंदा गुप्त रखने का कोई कारण नहीं था; लेकिन गुप्त चंदा योजना को फिर भी गुप्त रखा गया, ताकि लोगों को इसका अंदाज़ा न हो सके कि पार्टियों के पास इतना पैसा कहाँ से, क्यों और किस काम के लिए आता है। इसी के चलते चंदा लेने की इस प्रक्रिया को इतना गुप्त रखा गया कि केवल सरकार और बैंक को ही चंदा देने और लेने वाले के बारे में पता रहेगा, बाक़ी किसी को नहीं। इससे हुआ यह कि सरकार हर पार्टी को मिल रहे चंदे पर नज़र तो रख सकती है; लेकिन अपनी पार्टी को मिल रहे गुप्त चंदे के बारे में किसी को कानोंकान हवा तक नहीं लगने दे सकती है।
इससे जिस पार्टी की केंद्र में सरकार है, वह तो अपना चंदा आसानी से पचा सकती है और चंदा देने वालों को लाभ भी पहुँचा सकती है; लेकिन अगर विपक्षी को चंदा किसी ने दिया, तो न तो विपक्ष उसका दुरुपयोग कर सकेगा और न ही चंदा देने वालों की ख़ैर होगी। और अब हो भी यही रहा है। जो कम्पनियाँ, फर्में और व्यक्ति सत्तासीन पार्टी को चंदा दे रहे हैं, उनको मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा हो रहा है और जो विपक्षी दलों को चंदा दे रहे हैं, उनके यहाँ छापा ही छापा हो रहा है।
अगर वित्त वर्ष 2018-19 की चुनाव आयोग के सामने भारतीय जनता पार्टी द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट देखें, तो पता चलता है कि उसने इस वित्तीय वर्ष में क़रीब 1,450 करोड़ रुपये इस गुप्त चंदे से प्राप्त किये। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने ही वित्त वर्ष 2019-20 में चुनाव आयोग को बताया कि इस बड़ी पार्टी ने इस वित्तीय वर्ष में गुप्त चंदे के ज़रिये तक़रीबन 2,555 करोड़ रुपये प्राप्त किये। जबकि वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान 18 मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों ने गुप्त चंदे के ज़रिये कुल 3,441 करोड़ रुपये ही प्राप्त किये। इसमें कांग्रेस ने केवल 318 करोड़ रुपये प्राप्त किये। जबकि तृणमूल कांग्रेस को 100 करोड़ रुपये, डीएमके को 45 करोड़ रुपये, शिवसेना को 41 करोड़ रुपये, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 20 करोड़ रुपये, आम आदमी पार्टी को 17 करोड़ रुपये और राष्ट्रीय जनता दल को केवल 2.5 करोड़ रुपये ही गुप्त चंदे के ज़रिये मिले।
वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी वित्त वर्ष 2017-18 में 68 फ़ीसदी और 2018-19 में 75 फ़ीसदी गुप्त चंदा प्राप्त हुआ। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने वित्त वर्ष 2021-22 में 1,917 करोड़ रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदे के रुप में प्राप्त किये। जबकि शुरू में भारतीय जनता पार्टी को केवल 200 करोड़ रुपये ही गुप्त चंदे के ज़रिये मिले थे। लेकिन यह गुप्त चंदा भारतीय जनता पार्टी के खाते में धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते 2,500 करोड़ से ज़्यादा हो गया।
ऐसा नहीं है कि गुप्त रूप से केवल राजनीतिक दलों को ही चंदा मिलता है। नेताओं को भी गुप्त चंदे के रूप में बहुत पैसा मिलता है। लेकिन चुनाव आयोग से लेकर केंद्र सरकार तक किसी ने अभी तक ऐसा नियम नहीं बनाया है कि नेताओं को मिले गुप्त चंदे की जाँच की जाए या उसका हिसाब उनसे लिया जाए। चुने हुए नेता गुप्त चंदे और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से चंद दिनों में करोड़पति और अरबपति हो जाते हैं।
बता दें कि जब गुप्त चंदे की प्रक्रिया को गोपनीय और आसान बनाया गया, तब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इसका विरोध कई आशंकाएँ जताते हुए किया था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कहा था कि गुप्त चंदे से भ्रष्टाचार बढ़ेगा, सरकार को सबसे ज़्यादा चंदा मिलेगा, मोटा चंदा देने वालों को ज़्यादा लाभ पहुँचाया जाएगा और लोग बढ़चढक़र इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदेंगे, ताकि उन्हें सरकार से लाभ मिल सके। गुप्त चंदे को लेकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने ही नहीं, बल्कि चुनाव आयोग से लेकर कई नेताओं और समाज सुधारकों ने भी आपत्ति जतायी है; लेकिन सरकार ने किसी की नहीं सुनी, जिसके फलस्वरूप राजनीतिक दलों को गुप्त रूप से जमकर चंदा मिल रहा है।
भारतीय जनता पार्टी पर तो यहाँ तक आरोप हैं कि वह इस गुप्त चंदे के पैसों से विधायक ख़रीदने का काम भी करती है। आज व्यापारियों से लेकर, तमाम बड़े उद्योगपति गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को गुप्त चंदा देकर मोटा लाभ कमाने में लगे हैं। जबकि चुनावी फंडिंग के नाम पर बना गुप्त चंदा क़ानून लोकतंत्र और देश के आम लोगों के लिए बिलकुल अच्छा नहीं है। विरोध की अनदेखी करके अपने हित में क़ानून पारित करने में पारंगत भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपना हित इस क़दर साधने में लगी है कि कोई भी क़ानून अपनी मर्ज़ी से पास कर देती है। हालाँकि चुनाव आयोग ने पहले 20,000 से ज़्यादा चंदा मिलने पर पार्टी द्वारा उसकी जानकारी देने की बाध्यता को ख़त्म करके अब 2,000 से ज़्यादा का गुप्त चंदा लेने पर जानकारी देने की बाध्यता तय कर दी है। इतना ही नहीं, चुनाव आयोग ने चुनावी गुप्त चंदे अधिकतम 20 करोड़ रुपये तक लेने की सीमा तय करने का प्रस्ताव भी रखा है।
इसके अलावा चुनाव आचरण नियम-1961 के नियम संख्या-89 में संशोधन लागू किया गया है, जिसके तहत एक उम्मीदवार को चुनाव से सम्बन्धित रसीद और भुगतान के लिए एक खाता अलग खोलकर रखना होगा, जिसमें प्राप्त चंदे के बारे में पार्टी या नेता को चुनाव ख़र्च के लिए उस खाते में प्राप्त रक़म के बारे में चुनाव आयोग को बताना ही होगा।
इतने सख्त नियम होने के बाद भी राजनीतिक दल पारदर्शिता रखते होंगे, इसकी कम ही उम्मीद है। क्योंकि इस तरह से गुप्त चंदा मिलने और उसकी गोपनीयता बनाये रखने के चलते राजनीतिक दल इस चंदे का दुरुपयोग करते ही होंगे। क्योंकि अब इस गुप्त चंदे का हिसाब देना ज़रूरी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की यह ख़ासियत है कि वह किसी भी परिस्थिति में अपने पूरे पत्ते कभी नहीं खोलती है। केंद्र में सरकार भाजपा की ही है और पीएम केयर फंड का हिसाब न देने से ही केंद्र्र सरकार की नीयत का पता चलता है, जो कि क़ायदे से सरकारी खाता है और उसमें पारदर्शिता बहुत-ही आवश्यक है।
राजनीति में ईमानदारी अब दूर की कौड़ी हो चुकी है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के चलते ही हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरे तक फैल चुकी हैं। अगर देश में भ्रष्टाचार को ख़त्म करना है, तो सबसे पहले राजनीति के क्षेत्र से भ्रष्टाचार को ख़त्म करना होगा।