‘कर्म करो फल की चिन्ता मत करो’ हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है; उसके फल पर नहीं। यह श्रीमद्भगवद्गीता का बहुत ही खूबसूरत और ऐसा सार है, जो इंसान को उसकी विवशता और निरीह होने की हकीकत के दर्शन कराता है। लेकिन फिर भी लोग मोह नहीं छोड़ते और यहाँ तक कि बहुत-से लोग तो दूसरों को लूटकर खाने की फिराक में लगे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी लिखा है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह तो संसार एवं विज्ञान का धारण और एक तय नियम है। इसलिए उन्मुक्त हृदय से श्रद्धापूर्वक एवं सामथ्र्य के अनुसार, दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ-साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा। भारत में दान करने की प्रथा युगों-युगों से चली आ रही है। शास्त्रों के अनुसार, दान कई प्रकार के होते हैं। जैसे- धनदान, अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान और अभयदान। माना जाता है कि ये सभी दान इंसान को पुण्य का भागीदार बनाते हैं।
परन्तु यहाँ एक अनोखे दान की बात कर रहे हैं, जो एक प्रकार गुप्त दान ही है। शास्त्रों के अनुसार, किसी भी वस्तु का दान करने से मन को सांसारिक आसक्ति यानी मोह से छुटकारा मिलता है। हर तरह के लगाव और भाव को छोडऩे की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। आयु, रक्षा और सेहत के लिए तो दान को अचूक माना जाता है। जीवन की तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए भी दान का विशेष महत्त्व है। दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है। वेदों में लिखा है कि सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और हज़ार हाथों से दान करना चाहिए। गुप्त दान के ज़रिये हम न केवल धर्म का ठीक-ठीक पालन कर पाते हैं, बल्कि जीवन की तमाम समस्याओं से भी निकल सकते हैं। आज वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण के दौरान गुुप्त दान या अन्य दान अवश्यंभावी हो जाता है। क्योंकि इस महामारी के मद्देनज़र लॉकडाउन की परिस्थितियों में कई लोग परेशान और भुखमरी के कगार पर पहुँच गये हैं। कई लोग रोज़गार खत्म होने से मानसिक तनाव में आ गये हैं। उनकी इस हालत को देखते हुए गुप्त दान का महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि भारत में सामाजिक धाॢमक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार, ‘गुप्त दान’ का विशेष महत्त्व शास्त्रों में बताया गया है। कहा गया है कि देवी-देवताओं का आशीर्वाद उन लोगों को प्राप्त होता है, जो अपने जीवन में गुप्त दान करते हैं। कभी भी उस दान का फल नहीं मिलता, जो दूसरों को बताकर किया जाता है।
मेरा भी मानना है कि प्रकट रूप से जो दान किया जाता है, उसकी तुलना में गुप्त दान का कई गुना ज़्यादा फल मिलता है। गुप्त दान बिना किसी कर्मकाण्ड के किया जा सकता है। इतिहास में ऋषियों ने गुप्त दान की प्रशंसा करते हुए बताया है कि अपनी सामथ्र्यनुसार गरीब को यह दान करने से पुण्य मिलता है। इस दान का साक्षी सिर्फ भगवान होता हैं। इसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताया जाता। पत्नी-पति को और पति-पत्नी को भी इसके बारे में जानकारी नहीं देते।
भारत में आमतौर पर दानवीर धन, जेवर आदि सबकी नज़र बचाकर यह दान करते हैं। दान करते समय वे मन-ही-मन ईश्वर को प्रणाम करते हैं। इसके अलावा कुछ लोग चुपचाप मुट्ठी में रखकर कोई भी चीज़ किसी सुपात्र को देकर आगे बढ़ जाते हैं। वे दान लेने वाले को अपना परिचय नहीं देते और न कोई संकल्प लेते हैं। गुप्त दान ईश्वर को बहुत प्रिय है। यहाँ मैं मेरे एक परिचित द्वारा भेजी गयी कथा का वर्णन करना चाहूँगा, जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। कहानी इस प्रकार है- ‘नॉर्वे के एक रेस्तरां के कैश काउंटर पर एक महिला आयी और कहा कि पाँच कॉफी, एक निलंबित। उसने पाँच कॉफी के पैसे दिये और चार कप कॉफी ले गयी। एक भोजनालय पर एक और आदमी आया उसने कहा कि चार भोजन (पैकेट), दो निलंबित। उसने चार थाली का भुगतान किया और दो पैकेट लेकर चला गया। उसके बाद एक और आया और उसने आदेश दिया- 10 कॉफी, छ: निलंबित। उसने 10 कॉफी का भुगतान किया और चार कॉफी ले गया। थोड़ी देर के बाद एक बूढ़ा आदमी जर्जर कपड़ों में काउंटर पर आया और उसने पूछा कि कोई निलंबित कॉफी है? काउंटर पर मौज़ूद महिला ने कहा- ‘हाँ’ और उसने उस बूढ़े आदमी को एक कप गर्म कॉफी दे दी। कुछ समय बाद एक और दाढ़ी वाला आदमी अन्दर आया और उसने पूछा- एनी सस्पेंडेड मील्स? तो काउंटर पर मौज़ूद आदमी ने उसे गर्म खाने का एक पार्सल और पानी की बोतल दे दी।’ अपनी पहचान न कराते हुए और किसी के चेहरे को जाने बिना भी अज्ञात गरीबों, ज़रूरमन्दों की मदद करना महान्कार्य है और सही मायने में मानवता है।
बहरहाल इस कहानी ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि मैं भारतीय लोगों की सोई हुई दान की प्रवृत्ति को जगा सकूँ। उल्लेखनीय है कि यह अच्छा कार्य यूरोप के एक देश नॉर्वे में हो रहा है और अब दुनिया के कई यूरोपियन देशों में फैल रहा है। अगर दुनिया के देश इस तरह की परम्परा का पालन कर रहे हैं। तो हमारी तो परम्परा ही हर प्रकार के दान करने की रही है। तो क्यों न हम इस आधुनिक युग में एक नयी परम्परा की शुरुआत करते हुए इस कोरोना-काल में लोगों की मदद इस गुप्त दान के माध्यम से करें। क्यों न हम भी इस स्तर तक बढ़ें कि बिना किसी भेदभाव और पहचान के हम किसी भूखे को कम-से-कम एक समय का भोजन ही करा सकें। भारत में आज इस प्रकार के निलंबित भोजन (खाना, चाय आदि) की प्रथा की भावनाओं को जागरूक करना चाहिए। क्योंकि यह नि:स्वार्थ सेवा है, वह भी बिना किसी को जताये-बताये। दान पाने वाले को भी नहीं।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)