हाल में हिन्दी के एक अख़बार में छपी ख़बर के एक शीर्षक- ‘12,109 बच्चियों, 1,295 शिक्षिकाओं को गुड टच और बेड टच की ट्रेनिंग दी, एक भी लडक़े को नहीं’ ने अपनी ओर मेरा ध्यान खींचा।
यह ख़बर राजस्थान के सन्दर्भ में थी। राजस्थान में बच्चियों से छेड़छाड़-दुष्कर्म की घटनाएँ बढ़ रही हैं और इसके मद्देनज़र राज्य बाल आयोग गुड टच और बेड टच (अच्छा स्पर्श और बुरा स्पर्श) में अन्तर को समझाने के लिए जागरूकता अभियान में जुट गया है। गुड टच और बेड टच के बारे में जानकारी सभी को चाहे वह लडक़ी हो या लडक़ा दोनों को होनी चाहिए। सम्बन्धित क़ानून भी कहता है कि यह लिंग निरपेक्ष है। लेकिन राजस्थान का बाल आयोग अधिक फोकस महिलाओं पर ही कर रहा है। इसका प्रशिक्षण सिर्फ़ महिला शिक्षकों और बालिकाओं को ही दिया जा रहा है। पुरुष शिक्षकों और लडक़ों (बालकों) को नहीं। राज्य के विभिन्न ज़िलों में आयोग अब तक कुल 13,434 लोगों को प्रशिक्षण दे चुका है, इसमें 12,109 बालिकाएँ व 1,295 शिक्षिकाएँ शामिल हैं। पुरुष शिक्षकों की संख्या महज़ 60 हैं और बालक एक भी नहीं।
दरअसल राजस्थान में बच्चों व महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की मुश्किलें भी बढ़ायी हैं। सम्भवत: इसी के मद्देनज़र राज्य में तीन विभाग, जिसमें शिक्षा विभाग और महिला व बाल विकास विभाग भी शामिल है; अलग-अलग योजनाओं के तहत जागरूकता अभियान चला रहे हैं। इन सभी का ध्यान महिलाओं और बालिकाओं पर केंद्रित है। दरअसल बच्चों के प्रति यौन शोषण / उत्पीडऩ की घटनाएँ केवल राजस्थान की ही समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की एक गम्भीर समस्या है। सरकार की ओर से दावा किया जा रहा है कि भारत बहुत-ही जल्द विश्व शक्ति बन जाएगा। लेकिन जहाँ तक समाज का सवाल है, अभी भी बच्चों, किशोरों के साथ उनके शारीरिक अंगों के बारे में खुलकर बात करने से हिचकते हैं। ऐसा करना वर्जित माना गया है। बात करने वालों को समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता। बाल यौन शोषण जन-विमर्श का विषय ही नहीं बन सका है।
देश में क़रीब 44 करोड़ बच्चे हैं और युवाओं की तादाद भी उल्लेखनीय है। सरकार द्वारा प्रायोजित एक सर्वे से सामने आया कि देश में 53फ़ीसदी बच्चों ने यौन शोषण / उत्पीडऩ का कभी-न-कभी सामना किया था। शोषण करने वाले बच्चों के जानकार, रिश्तेदार और वे लोग थे, जिन पर बच्चे, उनके माता-पिता भरोसा करते थे। अधिकतर बच्चों ने इस सन्दर्भ में शिकायत दर्ज नहीं करायी। ऐसे मामले केवल महानगरों, नगरों में ही सामने नहीं आते, बल्कि गाँव भी इनसे अछूते नहीं हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, बाल यौन शोषण से अभिप्राय किसी बच्चे का इस तरह की यौन गतिविधि में शामिल होना है, जिसकी उसे (बालक / बालिका) पूरी तरह से समझ नहीं है, उस यौन गतिविधि के लिए अपनी सूचित सहमति देने में अयोग्य है, या बच्चा उस गतिविधि के बारे में विकासात्मक रूप से तैयार नहीं है और अपनी सहमति नहीं देता अथवा जो क़ानून का उल्लंघन करने वाली गतिविधि हो। अब सवाल यह है कि कितने अभिभावकों, शिक्षकों और अन्य लोगों को इस परिभाषा या भारत में बने बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012 (पॉस्को अधिनियम-2012) की जानकारी है। इस सन्दर्भ में दिल्ली के एक न्यायालय में एक मामले की सुनवाई के दौरान पता चला कि दिल्ली सरकार ने पॉक्सो क़ानून के सन्दर्भ में जागरूकता अभियान के तहत जो पोस्टर लगाये थे, वो पूरी जानकारी नहीं बता रहे थे।
दिल्ली सरकार की तरफ़ से बताया गया कि सरकार ने मेट्रो स्टेशनों, बस स्टॉप पर पोस्टर और होर्डिंग लगाये हैं। सरकार अपनी तरफ़ से पूरे प्रयास कर रही है कि आमजन इस क़ानून के बारे में जाने। लेकिन एक वरिष्ठ वकील ने न्यायालय को बताया कि वह जानकारी अधूरी है; क्योंकि उस सामग्री में अपराध करने पर क्या सज़ा हो सकती है? इसका ज़िक्र नहीं है। इसलिए यह समाज में कोई डर नहीं पैदा करती। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में वृद्धि की एक वजह यह कि लोगों को इस क़ानून के बारे में कोई जानकारी नहीं होना तथा क़ानूनी कार्रवाई का कोई भय नहीं होना भी बताया। न्यायालय ने दिल्ली सरकार को इस सन्दर्भ में प्रयासों को ज़मीनी स्तर पर उतारने के निर्देश दिये।
ग़ौरतलब है कि बाल अधिकारों के कड़े संघर्ष के बाद बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम-2012 बनाया गया, ताकि बच्चों को यौन अपराधों, यौन शोषण और अश्लील सामग्री से संरक्षण प्रदान किया जा सके। हालाँकि इस अधिनियम में संशोधन करते हुए 2019 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2019 लाया गया, जो फ़िलहाल लागू है। यह अधिनियम यह स्वीकार करता है कि बच्चों को विषेश तौर पर निशाना बनाया जा सकता है। लिहाज़ा जब पीडि़त कोई बच्चा हो, तो उसके संरक्षण के लिए विशेष क़दम इंडियन पीनल कोड से परे क़ानून की ज़रूरत होती है। इसमें बच्चे को अनुचित तरीक़े से तथा ग़लत मंशा से छूने वाला बिन्दु भी कवर होता है। यह 18 साल तक के बच्चों पर लागू होता है, यह क़ानून लिंग निरपेक्ष है यानी पीडि़त लडक़ा व लडक़ी दोनों हो सकते हैं और आरोपी महिला या पुरुष कोई भी हो सकता है।
लिंग निरपेक्ष होने से समाज में यह भी सन्देश गया कि बालक (लडक़ों) का भी यौन शोषण होता है, यह अलग बात है कि समाज इस कड़वी हक़ीक़त को खुले में स्वीकार करने से भागता है। इसी साल जनवरी में केरल की एक फास्ट ट्रेक न्यायालय में गुड टच बनाम बेड टच मामले की सुनवाई के दौरान नौ साल के पीडि़त बालक ने न्यायालय को बताया कि उसे इसकी समझ है कि उसे गुड टच और बेड टच में क्या अन्तर है? उस बालक ने न्यायालय को बताया कि उसे आरोपी ने बुरी मंशा से छुआ। न्यायाधीश ने बालक के बयान को महत्त्व दिया और 50 वर्षीय आरोपी को पॉक्सो के तहत सज़ा सुनायी और 25,000 रुपये का आर्थिक दण्ड भी सुनाया। यही नहीं, न्यायालय ने यह भी कहा कि यह आर्थिक दण्ड वाली रक़म पीडि़त बालक को दी जाए। इस बालक ने न्यायालय में बताया कि उसे गुड टच और बेड टच के बारे में जानकारी विद्यालय से हासिल हुई थी। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ बच्चों से बात करने पर पता चलता है कि इस बाबत उन्हें जानकारी मुहैया कराने वाला प्रमुख स्रोत विद्यालय है।
विद्यालयों के ऊपर यह ज़िम्मेदारी है कि वहाँ इस संवेदनशील विषय पर पेशेवर सलाहकार (प्रोफेशनल काउंसलर) रखें, बच्चे विद्यालय में बतायी गयी जानकारी पर अधिक भरोसा करते हैं। विद्यालयों में बालिकाओं, बालकों, अध्यापिकाओं और अध्यापकों को इस बाबत प्रशिक्षित करना चाहिए। अन्य स्टाफ को भी। विद्यालय इस सन्दर्भ में अहम भूमिका निभा सकते हैं; क्योंकि देश में विद्यालय जाने वाले बच्चों काफ़ीसद बढ़ रहा है। प्राइमरी स्तर पर तो कोरोना महामारी से पहले यहफ़ीसद क़रीब 95फ़ीसदी तक पहुँच गया था। दरअसल क़ानून बनाना व उस पर अमल की भावना को चरितार्थ करने के वास्ते सरकार को बजट भी आवंटित करना होता है, निगरानी के लिए प्रतिबद्धता की भी दरकार होती है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-15(3) राज्य को बच्चों के हित की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित बाल अधिकार कन्वेंशन के मानकों को ध्यान में रखते हुए पॉक्सो अधिनियम बनाया गया था और इस बाल अधिकार कन्वेंशन पर भारत सरकार ने अपनी सहमति भी दर्ज करायी हुई है। इस बाल अधिकार कन्वेंशन के अनुच्छेद-3 के अनुसार परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य संस्थाओं और सरकार पर बच्चों के हितों को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी डाली गयी है।
बाल यौन शोषण, छेड़छाड़ के मामलों के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए बच्चों का भरोसा जीतना बहुत ज़रूरी है। उन्हें निडर बनाना होगा कि ग़लत, अनुचित होने पर चुप नहीं रहना, बल्कि घर, विद्यालय या भरोसेमंद इंसान को बताना है।
न्यायालय इस सन्दर्भ में क्या कर सकता है? इसकी मिसाल पेश करनी चाहिए। बीते साल मुम्बई की एक विशेष पॉक्सो न्यायालय ने एक पाँच साल की बेड टच की पीडि़त बालिका के मामले में बालिका के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए आरोपी की जमानत याचिका ख़ारिज कर दी। न्यायाधीश ने साफ़ कहा कि पीडि़ता की उम्र चाहे पाँच साल है; लेकिन आरोपी ने उसे ग़लत नीयत से छुआ, तो वह वही बता रही है, जो उसने उस समय महसूस किया होगा। यह नहीं माना जा सकता कि पाँच साल की बच्ची गुड टच व बेड टच के अन्तर को महसूस नहीं कर सकती। बच्चे भविष्य हैं, उनकी बेहतरी के लिए परिवार, विद्यालय, समाज, सरकारी मशीनरी सभी को संजीदगी से काम करना होगा।