गुजरात विधानसभा चुनाव का डंका बज गया है। आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नतीजा जो भी आए, परंतु बहुत समय बाद भाजपा की पेशानी पर पसीनें की बूंदें दिख रही हैं। गुजरात को भारत का पर्याय बना देने के प्रयास में, हम यह भुला देना चाहते हैं कि गुजरात (विकास) मॉडल किसी सफलता की गांरटी नहीं है। यह औपनिवेशिक युग की लोकतांत्रिक प्रस्तुति की तरह है।
उपनिवेश पूर्व के काल में भारत नामक कोई एक राजनीतिक इकाई नहीं थी। ब्रिटिश शासनकाल में भी भारत कोई एक अकेली राजनीतिक इकाई नहीं रही। उसके दो भाग थे। एक प्रेसिडेंसी कहलाता था, जिस पर अंग्रेज़ों का सीधा राज चलता था और दूसरा था लगभग 600 देशी रियासतें। ‘इनमें राजा महाराजाओं का करीब-करीब अपना शासन चलता था। पर बाहरी मामलों में वे अंग्रेजों का आधिपत्य मानते थे। पिछले तीन वर्षों से दिल्ली से जिस तरह से शासन किया जा रहा है वह कमोबेश दर्शा रहा है कि सत्ता के शिखर पर लोकतांत्रिक पद्धति से बैठा व्यक्ति भी अपने ‘राज्य मोहÓ से उबर नहीं पा रहा है। आखिर में यह दिखाई देने लगा है कि अब गुजरात बनाम बाकी भारत जैसा माहौल बनाया जा रहा है। इसके सुखद व दुखद परिणामों पर चिंता करना शायद बेमानी होगा क्योंकि विचार तो भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर होना चाहिए।
शुरूआत में ही गुजरात मॉडल की उपलब्धियों को बिना किसी टीका टिप्पणी के समझ लेना चाहिए। मानव विकास सूचकांक संबंधित एक रिपोर्ट के अनुसार यदि राज्यवार गणना करें तो हम पाते हैं कि गरीबी के मामले में गुजरात देश में 10 वें स्थान पर, सुरक्षा के मामले में 24वें, शिक्षा में 15 वें, स्वास्थ्य में 16 वें और लैंगिक समानता के मामले में 16 वें स्थान पर है। सत्ता के इस चक्र ने एक ही राष्ट्र के भीतर रह रहे नागरिकों को आमने सामने खड़ा कर दिया है। गुजरात चुनाव में नर्मदा पर बनने वाला सरदार सरोवर बांध प्रमुख मुद्दा बन गया है। ध्यान रहे कि सरदार सरोवर बांध का शिलान्यास पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। यह शिलान्यास सरदार पटेल के निधन के करीब दस साल बाद हुआ और कथित तौर पर पटेल विरोधी कहे जाने के बावजूद पंडित नेहरू ने इस बांध का नाम महात्मा गांधी नही सरदार पटेल के नाम पर रखा। जबकि दोनों ही गुजरात से थे। परंतु एक अपूर्ण बांध का उद्घाटन करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेहरू का जिक्र न कर, पद की गरिमा को धक्का ही पहुंचाया है। चुनाव जीतने और सिर्फ गुजरात के विशिष्ट वर्ग को लाभ पहुंचाने की नीयत से भाजपा की सरकार ने अपने गठन के 17वें दिन बांध के गेट बंद करने का एक तरफा निर्णय ले लिया। इसमें मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र ही नहीं गुजरात के भी बांध प्रभावितों और विस्थापितों की पूरी तरह से अनदेखी की गई। वे लोग आज भी भटक रहे हैं। अभी तीन नवंबर को नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मेधा पाटकर के नेतृत्व में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलने का समय मांगा, जिससे कि वे पुनर्वास में आ रही समस्याओं पर बात कर सकें और उनके सामने अपना पक्ष रख सकें। लेकिन पिछले 13 वर्षों की तरह किसान पुत्र मुख्यमंत्री ने समय नहीं दिया।
गुजरात चुनाव के मद्देनज़र जीएसटी में जब ‘खाखराÓ पर कर कम किया तो उसका विशेष उल्लेख किया गया। घाटे का रेलमार्ग और 40 प्रतिशत से अधिक क्षमता खाली रहने के बावजूद बुलेट ट्रेन अहमदाबाद व मुंबई के मध्य ही चलेगी। भले ही अंत में मुफ्त में मिले 1,50,000 करोड़ से 10 गुणा ज़्यादा भारत को जापान को वापस करने होंगे। क्यों और कैसे यह चिंता का विषय है। गुजरात के प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने मध्यप्रदेश की सीमावर्तीं जि़लों में स्थानांतरित हो रहे हैं, और मध्यप्रदेश शासन-प्रशासन आंखों पर पट्टी बांधे पड़ा है। उसमें हिम्मत ही नहीं है कि वह गुजरात के उद्यमियों का विरोध कर सके। सरदार सरोवर बांध से नर्मदा नदी के प्रवाह में आई रुकावट से मछुआरों की दुर्दशा और भड़ूच जि़ले में बड़े पैमाने पर उपजाऊ भूमि का क्षारीय होते जाना भी भाजपा व सरकार की आंख खोल पाने में असमर्थ है। जीत हार या व्यक्तिगत उच्चकांक्षा के लिए, देश-प्रदेश का भविष्य दांव पर लगाना कोई समझदारी की बात नहीं है। परंतु यदि राष्ट्राध्यक्ष भी तात्कालिकता के वशीभूत होकर कार्य करेंगे तो राजनीति का भविष्य अधिक अंधकारमय होता चला जाएगा।
गुजरात चुनाव में सामने आ रही कटुता की परिणति क्या होगी। इसका अनुमान आज लगा पाना कठिन है। परंतु एक किस्म की निष्ठुरता के चलते कोई यह नहीं सोच पा रहा है, कि इस विध्वंसकारी प्रचार के बाद संबंधों को सामान्य कैसे बनाएंगे। सरदार सरोवर बांध से विस्थापित समुदाय को उम्मीद थी कि चुनाव में उनकी दुर्दशा पर या उनके जख्मों पर मरहम लगाने का कोई तो उपाय सुझाया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
आज़ादी के तुरंत बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों पर काबू न पाने की अवस्था में महात्मा गांधी से दिल्ली आने का आग्रह किया गया था। वे दिल्ली आए। तब प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी उनसे मिले और कहा कि ‘आपने इस राष्ट्र को बनाया है। आपको इसे आगे बढ़ाना चाहिएÓ। लंबी चर्चा के बाद गांधी ने कहा,’ मैं जो कहता हूं, वही करना चाहता हूं। मुझमें धीरज है, परंतु मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मेरा धीरज तेजी से टूट रहा हैÓ। आज देश एक बार फिर उसी दौर जैसी परिस्थितियों में प्रवेश कर सकता है। बढ़ती आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता, आंचलिकता और जातिवाद में आए उछाल को यदि काबू में लाने का प्रयास नहीं किया गया तो स्थितियां बेकाबू हो सकती हैं।
विकास के उपकरणों -सड़क,बिजली, पानी को विकास बताकर जो नुकसान हम कर रहे हैं, वह वास्तव में अनूठा है। गुजरात यदि अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा व सुरक्षा, लैगिंक भेदभाव जैसे मामलों में तसल्ली नहीं दे पा रहा है, तो वह किसका व किस तरह का विकास कर रहा है? स्वास्थ्य के मामले में तो गुजरात मध्यप्रदेश से भी पीछे है। मानव विकास सूचकांक में हम पिछले वर्ष 130वें स्थान से 131 वें स्थान पर आ गए। लेकिन गुजरात चुनाव में मनुष्य-मनुष्यता और गरिमा चुनाव के विषय नहीं हैं। सिर्फ आर्थिक बतौलेबाजी ही एकमात्र ध्येय बन कर रह गया है।
सम्पन्नता यदि एकमात्र पैमाना है, तो गुजरात मॉडल हो भी सकता है। परंतु यदि राष्ट्र विकास पैमाना है तो सम्पन्नता बिना समता के अर्थहीन ही है। पूंजी के संग्रहण के समानांतर यदि उसका वितरण न्यायोचित नहीं होगा तो एक स्वतंत्र और औपनिवेशिक राष्ट्र के मध्य का अंतर भी अर्थहीन हो जाएगा।
यह साल विश्व बैंक के भारत में आगमन का 50 वां साल है और नक्सलवादी आंदोलन की शुरूआत का भी। विकास के यह दोनों पैमाने हमारे यहां की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। विकल्प वही है जो गांधी ने सुझाया था और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे समूह पिछले तीन दशकों से उसकी उपयोगिता और औचित्य को सही सिद्ध कर रहे हैं। विश्व बैंक के सपनों का भारत तो बेरोज़गारी का नरक ही लाएगा। गुजरात विकास माडल उसकी का एक सजीव प्रदर्शन है। पूरे चुनाव में गुजरात की शिक्षा, स्वास्थ्य प्रणाली पर कोई गंभीर बहस या विकल्प का सुझाव सामने नहीं आ रहा है। वहां के आदिवासियों के साथ हो रहें अत्याचार अब भी सुर्खी नहीं बटोर पा रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि समाज में मौजूद उदासीनता के वातावरण को समाप्त किया जाए।
डा. लोहिया कहा करते थे कि,’ हर स्कूली बच्चे को यह मालूम होना चाहिए कि राजाओं की फूट के कारण नहीं,बल्कि लोगों की उदासीनता के कारण हमलावरों को कामयाबी मिली, इसलिए लोगों की दिलचस्पी सबसे अधिक महत्व की बात हैÓ। हमें भी लोकतंत्र के प्रति भारतीय जनमानस में बढ़ती उदासीनता को समाप्त करना होगा जिससे कि वे फैसला लेने की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभा सके।
नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे समूहों ने हमें बता दिया है कि अच्छे अधिकारों के प्रति सचेत रहने से किस तरह अत्याचार से टकराया जा सकता है।