सात जून. गोरखपुर डिविजनल जेल. जेल से थोड़ी ही दूरी पर मैं और मेरा फोटोग्राफर दो घंटे से खड़े हैं. राइफल के साथ एक दर्जन के करीब पुलिसकर्मी जेल के विशाल गेट पर तैनात हैं. जेल परिसर के बाहर भी पुलिस का एक दल तैनात किया गया है. किसी को हम पर शक न हो इसलिए हमने अपनी गाड़ी जेल की दीवार से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी कर रखी है.
लगभग एक बजे काले शीशों वाली एक सफेद टाटा सूमो (UP 53 AS 8797) जेल के बाहर आकर रुकती है. दो लोग इसमें से निकलते हैं. दोनों की बेल्ट पर वॉकी-टॉकी लगे हैं. अगले आधे घंटे तक उनके और जेल गार्डों के बीच बातचीत होती रहती है. इस दौरान कभी-कभी सम्मिलित ठहाके भी सुनाई देते हैं.
दो बजे के आस-पास नीले रंग का एक मिनी ट्रक वहां आकर रुकता है. इस पर लिखा है 207 वज्र. तीन कांस्टेबल और एक सब इंस्पेक्टर बाहर आते हैं. वॉकी-टॉकी वाले दोनों व्यक्तियों से थोड़ी देर की बातचीत के बाद सब इंस्पेक्टर जेल के भीतर चला जाता है. 15 मिनट बाद वह अमरमणि त्रिपाठी के साथ बाहर आता है. त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के खतरनाक गैंगस्टर और अब समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता हैं. 58 साल का यह शख्स मधुमिता शुक्ला की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा काट रहा है. मधुमिता गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली एक नवोदित कवयित्री थी जिसकी 22 साल की उम्र में लखनऊ स्थित उसके घर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. यह मई, 2003 की घटना है. हत्या इसलिए हुई क्योंकि मधुमिता ने अपने पेट में पल रहे अमरमणि त्रिपाठी के बच्चे को गिराने से इनकार कर दिया था. हत्या के वक्त उसे छह महीने का गर्भ था. त्रिपाठी तब बसपा सरकार में मंत्री थे. हत्याकांड पर बवाल मचने के बाद मायावती ने त्रिपाठी को न सिर्फ सरकार और पार्टी से रुखसत कर दिया था बल्कि इस मामले को सीबीआई के सुपुर्द भी कर दिया था. जांच में त्रिपाठी को दोषी पाया गया था.
लेकिन जब से अखिलेश यादव ने राज्य के नए मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता संभाली है, तब से त्रिपाठी सजा सिर्फ कागजों पर काट रहे हैं. सही मायने में देखा जाए तो वे आजाद हैं. पिछले तीन महीने से हर दोपहर पुलिस की एक गाड़ी त्रिपाठी को लेने जेल में आती है. ऊपर-ऊपर से इसका मकसद होता है उन्हें इलाज के लिए बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर ले जाना. लगभग इसी समय त्रिपाठी का निजी वाहन भी जेल पहुंचता है. जेल से बाहर निकलने के बाद त्रिपाठी पुलिस की गाड़ी में नहीं बल्कि अपनी आरामदेह गाड़ी में सवार होते हैं. पुलिस वाहन उनके पीछे चलता है. गाड़ी बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचती है जहां त्रिपाठी एक प्राइवेट लक्जरी रूम में भर्ती होते हैं. तहलका के पास पुख्ता जानकारी है कि इसके बाद अगले कई घंटों तक इस कमरे में एक दरबार लगता है. इसमें उनके गैंग के सदस्य और समर्थक भी होते हैं. रोज की इस पंचायत में त्रिपाठी शिकायतें सुनते हैं, फोन लगाते हैं, अफसरों को चिट्ठियां लिखते हैं, प्रॉपर्टी के सौदों का मोलभाव करते हैं, जमीन के झगड़ों में मध्यस्थता करते हैं और अपने गैंग के साथ बैठक भी करते हैं. शाम को उन्हें फिर जेल पहुंचा दिया जाता है ताकि उम्र कैद का दिखावा जारी रखा जा सके.
उम्रकैद का मतलब है आजीवन कैद. लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो कोई अपराधी 14 साल के बाद अपनी रिहाई के लिए अपील कर सकता है जो ज्यादातर मौकों पर मंजूर भी हो जाती है. बहुमत पाई समाजवादी पार्टी की सरकार का कार्यकाल 2017 में पूरा होना है. त्रिपाठी 2003 से जेल में हैं. इसलिए यह माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के साथ ही त्रिपाठी की कैद एक तरह से खत्म हो गई है.
त्रिपाठी के जेल के गेट से बाहर निकलते ही एक आदमी फुर्ती से टाटा सूमो के दरवाजे के पास खड़ा हो जाता है. नीला कुरता, चमड़े की चप्पल और काला चश्मा पहने त्रिपाठी गाड़ी की ओर बढ़ते हैं. हम तस्वीरें खींचना शुरू कर देते हैं. त्रिपाठी की नजर हम पर पड़ जाती है. वे पीछे मुड़ते हैं और सीधे हमारी तरफ आते हैं.
धमकी भरे अंदाज में कहते हैं, ‘किसी की इजाजत के बगैर उसकी तसवीरें लेना ठीक बात नहीं है.’
‘मैं अपनी हद जानता हूं. मैं एक सार्वजनिक सड़क पर खड़ा हूं और सार्वजनिक हित का काम कर रहा हूं.‘ मैं कहता हूं.
‘कौन हैं आप’, उधर से सवाल दागा जाता है.
‘मैं एक पत्रकार हूं. दिल्ली से आया हूं, ‘यह कहने के साथ ही त्रिपाठी को अपना विजिटिंग कार्ड थमाता हूं.
‘आप पहले मुझसे क्यों नहीं मिले?’, त्रिपाठी फिर पूछते हैं.
इसके बाद वे मेरे सहयोगी की तरफ मुड़ते हैं और उसे तुरंत पहचान लेते हैं. वह एक स्थानीय फोटो पत्रकार है. त्रिपाठी कहते हैं, ‘बचवा, तुम तो यहीं के हो. सब अच्छा है?’ वे उसके चेहरे पर अपने दोनों हाथ रखते हैं और जोर से दबाते हैं. तब तक पुलिसकर्मी और त्रिपाठी के आदमी भी हमें चारों तरफ से घेर चुके हैं.
त्रिपाठी फोटो पत्रकार को आदेश देते हैं, ‘पिक्चरें डिलीट कर दो.’
मैं हस्तक्षेप करते हुए कहता हूं, ‘तस्वीरें डिलीट नहीं होंगी.’
त्रिपाठी मेरी तरफ मुड़ते हैं. कुछ देर सोचते हैं और फिर कहते हैं, ‘प्लीज, अब आप चले जाएं.’
मैं कहता हूं, ‘पहले आप.’
जवाब आता है, ‘नहीं, हम आपके प्रोटोकाल में खड़े हैं.’
मैं कार में बैठता हूं और ड्राइवर से चलने के लिए कहता हूं. 100 मीटर आगे जाने के बाद हम रुकते हैं और कुछ और फोटो खींचते हैं.
हमारी योजना अस्पताल में त्रिपाठी के दरबार की तस्वीरें लेने की भी थी. लेकिन बाद में हमने यह विचार त्याग दिया. हमें लगा कि चूंकि हमें देख लिया गया है इसलिए ऐसा करना सुरक्षित नहीं होगा.
त्रिपाठी का पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक व्यवस्थित अपराध सिंडीकेट है. उनका रिकॉर्ड खंगालने पर तीन दर्जन से भी ज्यादा मामलों के बारे में पता चलता है जिनमें उन पर हत्या, फिरौती वसूलने, अपहरण, हत्या की कोशिश जैसे संगीन आरोप रहे हैं. मधुमिता हत्याकांड की सीबीआई जांच से पहले किसी भी स्थानीय अदालत में उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं हो पाया था. इन मामलों में अक्सर गवाह या तो बयान से मुकर जाते या फिर सबूत गायब हो जाते थे. केस स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से चले, यह सुनिश्चित करने के लिए फरवरी, 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि मधुमिता हत्याकांड की जांच एक विशेष सीबीआई जज द्वारा देहरादून में की जाए. त्रिपाठी के गढ़ गोरखपुर से 800 किमी दूर.
लेकिन जहां सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की प्रक्रिया में त्रिपाठी को एक खतरा माना वहीं 2007 के चुनावों में समाजवादी पार्टी ने उन्हें महाराजगंज जिले की लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से टिकट दे दिया. त्रिपाठी ने जेल से ही चुनाव लड़ा और 20,000 वोट से जीत गए. इसके छह महीने बाद अक्टूबर, 2007 में देहरादून स्थित अदालत ने उन्हें मधुमिता शुक्ला हत्या मामले में उम्रकैद की सजा सुना दी.
मायावती के पांच साल के शासनकाल के दौरान त्रिपाठी देहरादून जेल में ही रहे. जून, 2011 में अदालत ने उन्हें उनकी मां के अंतिम संस्कार के लिए गोरखपुर आने की इजाजत दे दी. बताया जाता है कि अंतिम संस्कार के दौरान बीमारी का बहाना बनाकर वे बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गए. अस्पताल के कुछ अधिकारियों की मदद के चलते वे दो महीने से भी ज्यादा समय तक अस्पताल में रहने में सफल हो गए. जब यह बात प्रकाश में आई तो मायावती सरकार ने वापस उन्हें देहरादून जेल में भेज दिया. यही नहीं, इस मामले में एक पुलिस इंस्पेक्टर और चार कांस्टेबलों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी हुई. इसके साथ ही यह भी आदेश हुआ कि उन डॉक्टरों के खिलाफ जांच हो जिन्होंने त्रिपाठी को उनके मनमुताबिक मेडिकल रिपोर्टें दीं.
लेकिन 15 मार्च को एक तरफ अखिलेश सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे और दूसरी ओर त्रिपाठी को देहरादून से गोरखपुर डिविजनल जेल ले लाया जा रहा था. यादव प्रभुत्व वाली समाजवादी पार्टी में त्रिपाठी एक अहम ब्राह्मण नेता हैं. चूंकि उन पर आपराधिक आरोप साबित हो चुके थे, इसलिए वे कोई चुनाव नहीं लड़ सकते थे. ऐसे में सपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके बेटे अमनमणि त्रिपाठी को महाराजगंज जिले की ही नौतनवा सीट से टिकट दे दिया. लेकिन माना यही जा रहा था कि असली उम्मीदवार तो अमरमणि त्रिपाठी ही हैं. उन्होंने जेल से ही एक वीडियो भी जारी किया जिसमें उन्होंने वोटरों से उनके बेटे को वोट देने की अपील की थी. वीडियो में उन्होंने कहा था कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनाए और गिराए हैं. वोटरों से वे कह रहे थे कि उन्होंने हमेशा अपने लोगों की रक्षा की और अब उनकी बारी है कि वे इसका बदला चुकाएं और उनके सम्मान की रक्षा करें.
15 मार्च को एक तरफ अखिलेश मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे और दूसरी ओर त्रिपाठी को देहरादून से गोरखपुर डिविजनल जेल ले लाया जा रहा था
तहलका को पता चला है कि गोरखपुर वापस आने के लिए त्रिपाठी ने अपने खिलाफ गोरखपुर और इसके आस-पास के जिलों में चेक बाउंस होने संबंधी तीन फर्जी केस दर्ज करवाए. स्थानीय पुलिस अधिकारी बताते हैं कि इन मामलों में शिकायत करने वाले त्रिपाठी के अपने ही लोग हैं. इसके बाद त्रिपाठी के वकीलों ने अदालत को बताया कि अदालती कार्यवाही के लिए ज्यादा व्यावहारिक यह होगा कि पेशी के लिए उनका मुवक्किल देहरादून के बजाय गोरखपुर से आए. अदालत से इस संबंध में एक आदेश भी ले लिया गया. इसके बाद त्रिपाठी गोरखपुर जेल में आ गए जहां वे कैदी से ज्यादा एक आजाद व्यक्ति हैं. नाम गोपनीय रखने की शर्त पर एक पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘अगर स्वतंत्र जांच हो तो चेक बाउंस होने के इन फर्जी मामलों की सच्चाई सामने आ सकती है. इससे पता चल जाएगा कि कैसे अमरमणि त्रिपाठी न्याय का मखौल उड़ा रहे हैं.’
चेक बाउंस संबंधी ये मामले फर्जी थे, यह बात गोरखपुर में सभी जानते हैं. हर चेक के मामले में धनराशि 50 हजार से एक लाख रु तक थी. देखा जाए तो करोड़ों रु के आसामी त्रिपाठी के लिए यह रकम कुछ भी नहीं. गोरखपुर में बहुत-से लोग मिलते हैं जो दबी जबान में बताते हैं कि कैसे ये मामले बनाए गए ताकि त्रिपाठी गोरखपुर में रह सकें. स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि त्रिपाठी जब चाहें, कोई भी जेल में उनसे मिलने आ सकता है. यह भी कि वे जेल के भीतर मोबाइल और कंप्यूटर का बेझिझक इस्तेमाल करते हैं. जब त्रिपाठी जेल परिसर से बाहर निकल रहे थे तो हमने खुद भी उनके एक सहयोगी के हाथ में एक लैपटॉप बैग देखा था.
बीती 20 अप्रैल को गोरखपुर के एसएसपी आशुतोष कुमार ने गृह विभाग को एक गोपनीय रिपोर्ट भेजकर जेल से बाहर त्रिपाठी की अवैध आवाजाही के बारे में बताया था. सूत्रों के मुताबिक एसएसपी ने जेल के बाहर त्रिपाठी के समर्थकों के अवैध जमावड़े और जेल में उनकी निर्बाध पहुंच की वीडियोग्राफी भी की थी. लेकिन अब तक कुमार की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
त्रिपाठी के बेटे अमनमणि 7,837 वोटों के मामूली अंतर से चुनाव हार गए थे. उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार कौशल किशोर ने हराया था. लेकिन इससे पिता-पुत्र की इस जोड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. जिला प्रशासन को उनकी दबंगई अब भी झेलनी पड़ती है. जेल के भीतर से ही त्रिपाठी खुल्लमखुल्ला जिले के अधिकारियों को निर्देश देती चिट्ठियां भेजते हैं. जैसे कि वे सजायाफ्ता अपराधी न होकर कोई मंत्री हों. तहलका के पास मौजूद ऐसे दो पत्र बताते हैं कि जिला प्रशासन को न सिर्फ त्रिपाठी की तरफ से ऐसे पत्र मिल रहे हैं बल्कि वह उनके निर्देशों के हिसाब से कार्रवाई भी कर रहा है.
उदाहरण के लिए, चार मई को त्रिपाठी ने महाराजगंज की जिला पंचायत के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी को एक पत्र लिखा. इसके शब्द हैं : ‘राज्य वित्त आयोग योजना के तहत, मैं अपने विधानसभा क्षेत्र में निम्नलिखित चार कार्यों का प्रस्ताव करता हूं. कृपया जनहित में इन्हें प्राथमिकता के आधार पर करवाएं.’ करीब हफ्ते भर बाद 12 मई को त्रिपाठी ने इन्हीं अधिकारी को एक और पत्र लिखा. इसमें उन्होंने करीब आधा दर्जन कार्यों की एक सूची देते हुए उन्हें पूरा करने के लिए कहा था. अधिकारी ने इंजीनियर को निर्देश दिए जिसमें कहा गया था कि त्रिपाठी द्वारा बताए गए कार्यों को मंजूरी दी जाए.
विकास कार्यों में दखलअंदाजी तो त्रिपाठी की कारगुजारियों का छोटा पहलू है. महाराजगंज से कांग्रेस विधायक कौशल किशोर मुख्यमंत्री को लिख चुके हैं कि सपा की सरकार बनने के बाद त्रिपाठी के गैंग ने 68,000 वर्गफुट क्षेत्रफल वाली सरकारी जमीन के एक टुकड़े पर कब्जा कर लिया है. किशोर कहते हैं, ‘अगर सरकार पूर्व विधायक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती तो मैं यह मुद्दा विधानसभा में उठाऊंगा’.
अमरमणि त्रिपाठी अकेले अपराधी नहीं हैं जिन्हें अखिलेश यादव के बागडोर संभालने के बाद राहत मिली है. उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के कुख्यात अपराधी और समाजवादी पार्टी के विधायक अभय सिंह भी अब पुरानी रंगत में लौट आए हैं.मायावती के शासनकाल के एक बड़े हिस्से में अभय सिंह हमीरपुर जेल में रहे. यह उनके विधानसभा क्षेत्र फैजाबाद से 300 किलोमीटर दूर है. अभय को हमीरपुर जेल में रखने के पीछे बसपा सरकार का तर्क यह था कि इससे उन्हें उनके गैंग से दूर रखा जा सकेगा और जिले में कानून व्यवस्था भी बेहतर होगी. लेकिन अखिलेश की ताजपोशी के दो दिन बाद यानी 17 मार्च, 2012 अभय सिंह को हमीरपुर से स्थानांतरित करके फैजाबाद डिविजनल जेल में भेज दिया गया. राज्य सरकार का दावा था कि हमीरपुर जेल में अभय सिंह की जिंदगी को खतरा है. अपने इलाके की जेल में लौटने के बाद सिंह वहां राजसी ठाठ-बाठ से रहने लगे.
नवभारत टाइम्स के जिला संवाददाता वीएन दास कहते हैं,‘फैजाबाद जेल में अभय सिंह से हर रोज 100-150 समर्थक मिलने आते हैं.’ नियम कहते हैं कि एक सप्ताह में किसी भी कैदी से छह से ज्यादा लोग मिलने नहीं आ सकते. दास आगे बताते हैं, ‘चर्चा यह भी है कि सिंह जेल में कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं.’ दास ने अपनी एक खबर में इस बात का भी जिक्र किया था कि सिंह जेल में भी गैर-कानूनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं. लेकिन न जेल अधिकारियों ने और न ही जिला प्रशासन ने उस खबर को संज्ञान में लिया.
24 मई को समाजवादी पार्टी की सरकार ने यह निर्णय लिया कि फैजाबाद जिले में यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत दर्ज एक मामला वापस लिया जाए (पत्र संख्या 104 डब्ल्यूसी/सेवन-जस्टिस-5-2012-42). सिंह के खिलाफ लंबित 18 मामलों में से यही एक ऐसा मामला है जिसमें उन्हें जमानत नहीं मिली थी जिसके चलते वे जेल में दिन गुजार रहे हैं. राज्य सरकार ने फैजाबाद न्यायालय में कहा कि इस मामले को ‘न्याय के हित’ में वापस लिया जा रहा है. जिला पुलिस के नए एसएसपी रमित शर्मा ने राज्य सरकार की इस इच्छा पर अपनी सहमति जाहिर की है. हालांकि दो साल पहले इसी जिला पुलिस ने अभय सिंह के खिलाफ यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत मामला दर्ज किया था. दो साल पहले दर्ज की गई प्राथमिकी संख्या (677/10) में यह कहा गया था, ‘सिंह का आतंक आम लोगों में इस कदर व्याप्त है कि वे उनके खिलाफ गवाही देने तक से डरते हैं.’
राज्य चुनाव आयोग के सामने पेश किया गया सिंह का हलफनामा भारतीय दंड संहिता की धाराओं का संग्रह लगता है. यह बताता है कि सिंह के खिलाफ 18 आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें उनके खिलाफ हत्या, उगाही, सार्वजनिक कर्मचारियों को प्रताड़ित करने, दंगा, गैर-कानूनी तरीके से भीड़ जुटाने, अवैध हथियार रखने जैसे आरोप हैं.
उत्तर प्रदेश में किसी माफिया डॉन के खिलाफ आरोप साबित करना असंभव सा है. अपराधियों के खिलाफ चल रही जांच-पड़ताल की कार्रवाइयों में या तो ढिलाई बरती जाती है या फिर गवाह बयान से मुकर जाते हैं. सिंह को लखनऊ जेल के अधीक्षक आरके तिवारी की हत्या के मामले में बरी किया जा चुका है. गौरतलब है कि इस मामले में सभी 36 गवाह अपने बयान से पीछे हट चुके हैं. सिंह के गैंग का संबंध पूर्वी उत्तर प्रदेश के खतरनाक मुख्तार अंसारी गैंग से भी है. दोनों गैंग हत्या, अपहरण और जबरन वसूली जैसे अपराधों में लिप्त हैं.
लेकिन समाजवादी पार्टी के टिकट और बीएसपी के खिलाफ चुनावी लहर ने अभय सिंह को फैजाबाद के गोसाईंगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनवा दिया. सिंह ने चुनाव भारी अंतर से जीता था. मामला वापस लेकर सरकार ने सिंह की जेल से रिहाई का रास्ता भी साफ कर दिया. न्याय का मजाक उड़ाते हुए फैजाबाद में तैनात सब-इंस्पेक्टर संजय नागवंशी ने न्यायालय के समक्ष 28 मई को कहा कि इस मामले को वापस लिया जाता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. एक साल पहले इन्हीं संजय नागवंशी ने अभय सिंह को नामजद करने की सिफारिश की थी. सिंह को 28 मई को ही हवालात से छोड़ दिया गया.
सिंह पर फैजाबाद में ही गैंगस्टर एक्ट के दो अन्य मामले (संख्या 361/05 और 2808/05) भी चल रहे हैं. इसी एक्ट के तहत लखनऊ में दर्ज चार और मामलों (केस संख्या 428/1999, 269/2000, 224/2001, 310/2008, ) में भी उनके खिलाफ कभी-भी सुनवाई शुरू हो सकती है. पुलिस द्वारा दर्ज इन मामलों पर नजर डालें – जोकि 1999 से 2012 के बीच भाजपा, बीएसपी और सपा की सरकारों के शासनकाल में दर्ज किए गए हैं – तो पता चलता है कि सिंह की आमदनी का मुख्य जरिया उगाही, हफ्ता वसूली और सरकारी टेंडरों पर जबरन कब्जा रहा है.
सपा सरकार का सिंह के खिलाफ मामले को वापस लेने का निर्णय हैरान करने वाला है. सिंह के खिलाफ छह मामलों में सरकारी वकील यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वे संगठित अपराधों के सरगना रहे हैं जबकि जिस एक मामले में उन्हें न्यायालय से जमानत नहीं मिली उसी में सपा सरकार ने उनके खिलाफ लगे आरोप वापस ले लिए. राज्य सरकार अभय सिंह पर छह मामलों में गैंगस्टर का आरोप सिद्ध करना चाहती है और एक विशेष मामले में उन्हें आरोप से मुक्त करना चाहती है. सवाल उठता है कि यह कैसा विरोधाभास है.
हम यह सवाल फैजाबाद के एसएसपी रमित शर्मा से करते हैं
उनके कार्यालय में मैं शर्मा से सवाल करता हूं, ’अभय सिंह के मामले को वापस लेने के पीछे क्या वजह है?’
शर्मा कहते हैं, ‘यह अदालत और पुलिस के बीच का मामला है. हमने अदालत को अपनी राय दे दी है.’
‘जो कि जहां तक मेरा अंदाजा है, उन्हें फायदा पहुंचाने वाली है.’, मैं कहता हूं.
शर्मा गुस्से में कहते हैं, ‘आप यह सवाल करने वाले कौन होते हैं?’
‘मेरे हिसाब से जनहित में यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों दो मामलों में पुलिस अभय सिंह को कानून और व्यवस्था के लिए खतरा मानती है मगर तीसरे में नहीं. ’
‘नोटबुक उठाइए और जाइए’, जवाब आता है.
अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार इस्तेमाल करने की मैं एक और कोशिश करता हूं, ‘लेकिन मेरा मानना है कि लोगों को यह जानने का अधिकार है.’
‘जाते हैं कि मैं आपके खिलाफ कारवाई करूं?’, सिपाही को मुझे बाहर करने का संकेत करते हुए शर्मा कहते हैं. नोटबुक उठाकर मैं वहां से निकल जाता हूं. लेकिन फैजाबाद में दो दिन पड़ताल करने के दौरान तहलका को पता चला कि एक ओर अभय सिंह पर लगे आरोपों को वापस लिया जा रहा है तो दूसरी ओर उनके विरोधियों पर झूठे मामले लादे जा रहे हैं.
18 मई को सिंह गैंग के एक सदस्य विजय गुप्ता ने जबरन वसूली का आरोप पुलिस में दर्ज कराया. विचित्र बात तो यह है कि गुप्ता पर पहले से ही गुंडा टैक्स की वसूली के आरोप हैं. गुप्ता पर यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत हत्या का मामला चलाया जा रहा है. लेकिन रमित शर्मा के नेतृत्व में जिला पुलिस ने गुप्ता की शिकायत पर 30 मई को चार लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश मातंबर सिंह ने यह पाया कि पुलिस गुप्ता के आरोपों की पुष्टि के लिए कोई भी ठोस सबूत नहीं जुटा पाई. गुप्ता ने अपनी शिकायत में विनय सिंह का उल्लेख किया है. विनय, अभय सिंह के गांव के ही रहने वाले हैं. वे कहते हैं, ‘विधानसभा चुनाव में हमने अभय सिंह के खिलाफ प्रचार किया था. जिला पुलिस उनके इशारों पर काम कर रही है और राजनीतिक वजहों से हमारे खिलाफ मामले चलाए जा रहे हैं.’
अखिलेश की ताजपोशी के दो दिन बाद यानी 17 मार्च 2012 को अभय सिंह को हमीरपुर से स्थानांतरित करके फैजाबाद डिविजनल जेल में भेज दिया गया
फैजाबाद के विकास कार्य से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि पीडब्ल्यूडी, सिंचाई, राजकीय निर्माण निगम और जिला जल निगम से जुड़े ठेके अभय सिंह और उसके गैंग के सदस्यों को सौंपे जा रहे हैं. यह कोई अचरज की बात नहीं है. पिछले 15 साल के दौरान राज्य की सभी पुलिस एजेंसियों ने अभय सिंह और उसके गैंग के सदस्यों के मामले में यह पाया है कि वे विकास कार्यों से जुड़े अधिकारियों और ठेकेदारों को धमकियां देते रहे हैं और उनसे कमीशन वसूलते रहे हैं.मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी पारी की शुरुआत में कहा था कि उनकी यह सरकार सबसे अलग होगी. सपा की पिछली सरकारों का कार्यकाल सरकार और अपराधी तत्वों के बीच गठजोड़ का उदाहरण बन गया था. ऐसे में जब अखिलेश ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डीपी यादव को अपनी पार्टी में नहीं आने दिया तो यह धारणा बनी कि वे जो कह रहे हैं उस पर अमल करने की दिशा में भी वे गंभीर हैं.
लेकिन साफ था कि अपने पिता मुलायम, चाचा शिवपाल और वरिष्ठ नेता आजम खान जैसे कई सत्ता केंद्रों के बीच में खड़े अखिलेश के हाथ पूरी तरह से खुले नहीं थे. ऐसे में जब उन्होंने कम से कम ऐसे आठ लोगों को टिकट दिए जो पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक पक्के अपराधी हैं तो मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस पर सवाल उठाने में नाकामयाब रहा.
1. शेरबाज खान- दर्जन भर से ज्यादा आपराधिक मामलों के इतिहास वाले खान को चांदपुर से टिकट मिला. इनमें फर्जीवाड़े से लेकर यूपी गैंगस्टर एक्ट तक आरोप थे. खान को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.
2. भगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित को डिबाई, बुलंदशहर से टिकट दिया गया. पंडित पर बलात्कार, अपहरण, फिरौती वसूलने आदि जैसे कई आरोपों में मुकदमे दर्ज हैं जिनका उनके चुनावी शपथ पत्र में भी जिक्र है. पंडित को जीत मिली.
3. कुख्यात डकैट लाला राम के बेटे रामेश्वर सिंह यादव का रिकॉर्ड 50 से भी ज्यादा आपराधिक मामलों का है. यादव को एटा के अलीगंज से उतारा गया और उन्हें भी जीत मिली.
4. एक समय दो दर्जन से ज्यादा मामलों में आरोपी हिस्ट्रीशीटर दुर्गा प्रसाद यादव को आजमगढ़ से सपा का टिकट मिला. आठ साल पहले यादव पर एक अस्पताल में चार लोगों की हत्या का आरोप लगा था. यादव न सिर्फ चुनाव जीते बल्कि उन्हें मंत्री पद भी दिया गया. हाल ही में उन्होंने मीडिया से कहा था, ‘उत्तर प्रदेश में अपराध नहीं रुकेगा चाहे भगवान भी यहां सरकार बना ले.’
5. मित्रसेन यादव को दिसंबर 2011 में फैजाबाद के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने एक मामले में सात साल की कड़ी सजा सुनाई थी. एक समय वे दो दर्जन से भी ज्यादा मामलों में आरोपी थे. उन्हें फैजाबाद की बीकापुर सीट से टिकट मिला और वे जीते भी.
6. महबूब अली- 1999 से 2011 के बीच दर्ज हुए 12 आपराधिक मामलों के आरोपी अली को ज्योतिबा फुले नगर की अमरोहा सीट से टिकट दिया गया था. एक स्टिंग ऑपरेशन में वे यह कहते हुए दिखे थे कि वे अपने आधिकारिक वाहन में ड्रग्स लेकर जा सकते हैं. वे अब कपड़ा और रेशम उत्पादन मंत्री हैं.
7. अभय सिंह
8. माफिया डॉन विजय मिश्रा—25 आपराधिक मामलों के इतिहास वाले मिश्रा को संत रविदास नगर की ज्ञानपुर विधानसभा सीट से टिकट मिला था. मिश्रा पर हत्या से लेकर फर्जीवाड़े, दंगा फैलाने, लूटपाट जैसे कई आरोप हैं. 2002 और 2007 में भी सपा के टिकट पर इसी सीट से विधायक रहे हैं. इस बार भी वे जीते.
जिन आठ नामों का जिक्र ऊपर हुआ है, इनमें से तीन-अभय सिंह, शेरबाज खान और विजय मिश्रा ने जेल से ही चुनाव लड़ा. सिंह अब आजाद हैं. मिश्रा जेल में हैं मगर यह नाम की ही जेल है. इस स्टोरी के लिखे जाने तक दो हफ्ते से वे लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल के प्राइवेट एसी रूम में थे. अदालत ने मिश्रा को बजट सत्र के लिए विधानसभा जाने की इजाजत भी दे दी थी, मगर इस शर्त के साथ कि उन्हें लखनऊ जिला जेल की साधारण बैरक में रखा जाएगा और रोज विधानसभा की कार्यवाही खत्म होते ही वापस जेल पहुंचा दिया जाएगा. लेकिन बीमारी के बहाने मिश्रा ने खुद को अस्पताल में भर्ती करवा लिया. पुलिस वाहन के बजाय अपनी टोयोटा फॉर्च्यूनर गाड़ी में सवार होकर वे रोज विधानसभा जाते थे. ये दोनों गाड़ियां मिश्रा के प्राइवेट वार्ड के बाहर खड़ी थीं.
मायावती सरकार के कार्यकाल में मिश्रा के 13 महीने मेरठ जेल में कटे. यह जगह उनके प्रभाव वाले इलाहाबाद, वाराणसी और संत रविदास नगर जैसे इलाकों से सैकड़ों किलोमीटर दूर थी. उन पर 12 जुलाई, 2010 को इलाहाबाद में बम से एक हमला करने का आरोप था. यह हमला मायावती सरकार मंे मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ पर किया गया था. इसमें इंडियन एक्सप्रेस अखबार के फोटोग्राफर की मौत हो गई थी. नंदी और उनके सुरक्षा अधिकारी इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गए थे. आठ महीने तक मिश्रा फरार रहे. आखिरकार यूपी स्पेशल टास्क फोर्स ने दिल्ली पुलिस की मदद से उन्हें दिल्ली के ही उनके एक ठिकाने से 11 फरवरी , 2011 को गिरफ्तार किया था. अखिलेश यादव के शपथ लेने के थोड़ी ही देर बाद 15 मार्च को सरकार ने एक आदेश पारित किया. इसमें कहा गया था कि मिश्रा को उनके गृहनगर इलाहाबाद की नैनी जेल लाया जाए.
जब हम मिश्रा से उनके प्राइवेट रूम में मिले तो उन्होंने अस्पताल में रहने के कई कारण गिनाए. उन्होंने बताया कि उन्हें स्पोंडिलाइटिस, स्लिप डिस्क और हाई कोलेस्ट्राल की शिकायत है. लेकिन एक घंटे की बातचीत के दौरान हमें उनमें दर्द के कोई लक्षण नहीं दिखे. वे बेड पर सीधे बैठे हुए थे. बातचीत के दौरान वे बेड से उछलकर सोफे पर हमारे बगल में बैठ गए. इस दौरान उनका प्राइवेट स्टाफ उन्हें सूखे मेवे, चाय और सिगरेट पेश करता रहा. हमें पता चला कि मिश्रा अस्पताल में मरीजों के लिए परोसा जाने वाला खाना नहीं खाते. बाद में हमें यह भी पता चला कि सरकार मिश्रा पर चल रहा बम हमले वाला मामला वापस ले सकती है. मिश्रा द्वारा लिखे गए वे दो पत्र तहलका के पास हैं जिनमें उन्होंने मुख्यमंत्री से मांग की है कि उनके खिलाफ दर्ज 15 आपराधिक मामले वापस लिए जाएं.
जिस दिन तहलका ने अमरमणि त्रिपाठी को अवैध तरीके से जेल से बाहर जाते पकड़ा, उसी दिन प्रदेश के जेल राज्य मंत्री इकबाल महमूद भी गोरखपुर में थे. हम गोरखपुर सर्किट हाउस में उनसे मिले और उन्हें वह सब बताया जो देखा था. महमूद का जवाब था कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. हमने उन्हें बताया कि त्रिपाठी ने हमें अप्रत्यक्ष रूप से धमकी दी और हमसे तस्वीरें डिलीट करने के लिए कहा. इसके जवाब में उनका भाषण तैयार था, ‘हमारे युवा मुख्यमंत्री को बदनाम करने के लिए साजिश हो रही है. विरोधियों को लग गया है कि कम से कम अगले 20 साल तक इस नौजवान को सत्ता से नहीं उखाड़ा जा सकता. इसलिए वे झूठी अफवाहें फैला रहे हैं. ‘ जैसे ही हम जाने को हुए उन्होंने पूछा, ‘तो क्या आपने तस्वीरें डिलीट कर दीं?’ आखिर में हम अंबिका चौधरी से मिले. चौधरी, अखिलेश की कोर टीम में होने के साथ-साथ राजस्व मंत्री भी हैं. जब हमने उन्हें अपनी पड़ताल के बारे में बताया तो उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि अपराधियों को खुला छोड़ना सरकार की नीति नहीं है. उनका कहना था, ‘मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि किसी भी तरह की अवैध गतिविधि को ऊपर से कोई मंजूरी नहीं है. मायावती के कार्यकाल में प्रशासन पूरी तरह से ढह गया था. चीजों को पटरी पर लाने के लिए नई सरकार को कम से कम छह महीने चाहिए.’
(वीरेंद्र नाथ भट्ट के सहयोग के साथ)