यहां सुधा भारद्वाज को 30 दिसम्बर को पुणे कोर्ट में हाजिर नही किया गया क्योंकि सारी पुलिस भीमा कोरेगांव में व्यवस्था में लगी थी। साल भर पहले हुई हिंसा के मद्देनजर महाराष्ट्र की पुलिस फोर्स उन तमाम लोगों व संगठनों को वहां जाने से रोक रही थी जिनको उन्होंने पिछले साल षड्यंत्रकारी रूप से दोषी ठहरा दिया है। भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद को भी काफी मशक्कत के बाद जाने की इज़ाजत मिली।
पुणे से मात्र 30 किलोमीटर दूर भीमा कोरेगांव में हर साल दलित महार पेशवा बाजीराव द्वितीय के खिलाफ जीत की सालगिरह मनाते हैं। 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव जीत की 200वीं वर्षगाँठ थी। अंग्रेज़ी सेना में मुख्य तौर पर दलित महार सैनिक थे। महार सैनिकों की जीत का जश्न महाराष्ट्र का दलित समुदाय लंबे समय से अपने मुक्ति संघर्षों के मिसाल के तौर पर मनाता आया है। पिछले साल भी ऐसा ही हुआ किंतु हिंदुत्व वादियों को यह कैसे स्वीकार हो कि दलित समाज और वह भी महार समाज खड़ा होकर उन पर अपनी जीत का जश्न मनाए। देश के प्रधानमंत्री मोदी जिन को अपना गुरु मानते हैं उन संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे ने खास करके इतिहास को बिगाड़ते हुए, इस जीत को झूठा करार देते हुए पर्चे बांटे और हिंसा फैलाई मगर इसके बाद सरकार ने जो जाल रचा उसमें सुधा भारद्वाज और देश के चुनिंदा वकील और समाज कर्मी, जो दलितों, आदिवासियों, मजदूरों के और मानव अधिकारों के मुद्दे उठाते रहे हैं, अदालतों में लड़ते रहे हैं, उनको अजीबोगरीब इल्जाम लगाकर विधि विरुद्ध गतिविधि निरोधक कानून, 1967 (यू ए पी ए) जैसे जन विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। आइए जरा सिलसिलेवार इस पूरी गढ़ी गई कहानी को समझा जाए।
भीमाकोरेगांव में 200 साल पर एल्गार परिषद की बैठक
कार्यक्रम 31 दिसंबर 2017 को पुणे की शनिवारवाडा किला में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायमूर्ति सावंत व बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति कोलसे पाटिल के नेतृत्व में 200 से ज़्यादा दलित,आदिवासी, अल्पसंख्यक व अन्य पिछड़े वर्गों के संगठनों ने मिलकर किया था। जहाँ एक लाख से अधिक लोगों ने बहुत ही शांतिपूर्वक तरीके से भाग लिया था और देश भर से जुझारू कार्यकर्ताओं को अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया था। दिन भर चली इस बैठक में फासीवाद के विरुद्ध गोलबंद होने की बुलंद आवाज़ उठी थी।
पहली जनवरी 2018 को जब दलित जत्थे भीमा कोरेगांव में विजय स्तंभ को अपना अभिनंदन देने इक_े हुए तो उन पर भगवा झंडा लिए लोगों ने हमला किया। इतिहास में यह पहली बार हुआ। इस घटना की पहली प्रथम दृष्टया रिपोर्ट दो जनवरी 2018 कार्यक्रम में शामिल एक महिला द्वारा दर्ज कराई गई थी। इसकी जांच पुणे ग्रामीण पुलिस द्वारा आज तक की जा रही है। यह जग ज़ाहिर था कि इस हमले के मुख्य नायक मिलिंद एकबोटे (कार्यकारी अध्यक्ष, समस्त हिंदू आगाड़ी और गौ रक्षा अभियान) और संभाजी भिड़े (संस्थापक, शिवप्रतिष्ठान संगठन, पूर्व सदस्य आरएसएस और प्रधानमंत्री द्वारा माने गए गुरु) हैं।
भीमा-कोरेगांव में दलितों पर हुए हमले के विरुद्ध दो जनवरी 2018 को महाराष्ट्र बंद का आह्वान दलितों के संगठनों ने किया था। इस दरमयान हुई हिंसा के दौरान प्रशासन ने दलितों के ऊपर 600 से अधिक प्रथम दृष्टया रिपोर्टें दर्ज की। एक आयोग के गठन का एलान भी किया गया जो अभी कार्यरत है।
इस हिंसा के सात दिन बाद सोची समझी साजिश के तहत तुषार दामगुडे नामक एक व्यक्ति ने दूसरी एफआईआर नंबर 4/18 विश्राम बाग थाना, पुणे शहर में दजऱ् कराई (यह व्यक्ति खुले रूप से संभाजी भिडे की फेसबुक पर उनका प्रशंसक है)। इस प्रथम दृष्टया रिपोर्ट में इल्ज़ाम लगाया गया कि यह हिंसा एल्गार परिषद् में हुए भड़काऊ भाषणों का परिणाम है। शरारत पूर्ण तरीके से इस हिंसा में नक्सल और माओवादी कोण लाया गया, यह कहते हुए की आयोजकों में से किसी एक सदस्य के पूर्व में नक्सलियों से सम्बन्ध हैं।
पुणे पुलिस की भूमिका संदेहास्पद है: असली जांच को किनारे करके हिंदूवादी राजनीति से प्रेरित जांच की जा रही है। पुणे नगर निगम के उप महापौर सिद्धार्थ ढेंडे ने पहली जनवरी को हुए भीमा-कोरेगाँव हमले को लेकर अपनी जांच रपट में कहा कि हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा वितरित पर्चे में भीमाकोरेगांव युद्ध के इतिहास को गलत प्रस्तुत किया था और इन पर्चों ने सवर्ण संगठनों को दलितों पर हिंसा करने के लिए भड़काया। गौर करने की बात है की शुरुआती जांच में पुणे ग्रामीण पुलिस ने भी अपनी जांच इसी दिशा में की और दो जनवरी की प्रथम दृश्य रिपोर्ट की जांच को आधार बना कर असली दोषियों तक अपनी पहुँच बनाई थी। एक मुख्य आरोपी मिलिंद एकबोटे गिरफ़्तारी के डर से उच्चतम न्यायालय में अग्रिम ज़मानत लेने पहुंचे क्योंकि महाराष्ट्र पुलिस ने अपने हलफनामे में आरोपी मिलिंद एकबोटे को पहली जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव जा रहे जत्थों पर हुए हमले के साजिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया था। उच्चतम न्यायालय में मिलिंद एकबोटे की अंतरिम ज़मानत ख़ारिज हुई और उन्हें पुणे पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार किया। पर फिर अचानक से दो जनवरी वाली प्रथम दृष्टया रिपोर्ट ठन्डे बस्ते में डाल दी गई, मिलिंद एक्बोटे को 20 अप्रैल को ज़मानत मिल गई, जिसकी ऊँची अदालत में पुणे पुलिस ने चुनौती भी नहीं दी। संभाजी भिड़े को तो अभी तक गिरफ्तार तक नहीं किया गया न उनसे कोई पूछताछ की गई।
असली दोषियों को बचाते हुए पुलिस ने प्रथम दृष्टया रिपोर्ट 4/18, विश्रामबाग थाने, पुणे शहर, को जाँच का आधार बना दिया है। यह कहते हुए की एल्गार परिषद् के मंच का उपयोग प्रतिबंधित समूह, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) ने भारत को अस्थिर करने की साजिश बतौर, दलित भावनाओं को भड़काया और हिंसा के लिए उकसाया। महाराष्ट्र सरकार ने ऐसा करके दलित समुदायों के शांतिपूर्ण बैठक का अपमान किया,उन पर संदेह किया, यही नहीं बल्कि उन्होंने संगठित हो कर हकों की मांग करने को अवैध करार करने की कोशिश की है। क्या यह राज्य द्वारा दलितों पर हमला व उत्पीडऩ नहीं?
भीमा कोरेगांव में यू ए पी ए व माओवादी के नाम गिरफतारियां
18 अप्रैल, 2018 देश के अनेक शहरों में पुणे पुलिस द्वारा छापा मारने की कार्रवाई की जाती हैं। नक्सलीयों से तार जुडे होने के आरोप में वकील सुधीर गैडलिंग, रौना विल्सन, सुधीर धवले, ज्योति जगताप व हर्षाली पौदार के घरों में छापा डाला जाता हैं। जून 2018 से पुणे पुलिस ने पहली गिरफ्तारियां की जिसमे शोमा सेन (कॉलेज शिक्षक, महिला अधिकारों के लिए कार्यरत),रोना विल्सन (बंधियों की रिहाई के लिए कार्यरत), सुधीर धावाले (मराठी कवि), महेश राउत (विस्थापन विरोधी कार्यकर्ता), सुरेन्द्र गैडलिंग (वकिल व मानवाधिकार संरक्षक) को भीमा-कोरेगाव मामले में हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, बाद में इन पर प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजि़श रचने का भी प्रचार किया गया।
28 अगस्त 2018 को पुणे पुलिस ने तो हद ही कर दी देश के 11 जाने-माने मानव अधिकार कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार, वकील, अकादमिक व ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता के घरों में प्रवेश किया, छापामारा और 5 को यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया, जिनका नाम है, सुधा भारद्वाज (वकिल, श्रमिक एवं मानवाधिकार संरक्षक), गौतम नवलखा (लोकतांत्रिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता), अरुण फरैरा (वकिल व श्रमिक एवं मानवाधिकार संरक्षक), वरनन गोन्जल्वीस (वकील, मानवाधिकार संरक्षक), वरवर रॉव (कवि) छह अन्य जिनके घरों पर छापा मारा गया वे हैं आनंद टैलटूमडे (प्रोफेसर, लेखक व अम्बेडकर अध्येता), फादर स्टैन स्वामी (आदिवासी हकों के लिए कार्यरत), के. सत्यनारायण (प्रोफेसर व अम्बेडकर अध्येता), सूजऩ एब्रैहम (वकिल), कुमरन्त (पत्रकार), क्रान्ति तेलुका (फोटो पत्रकार)।
राज्य दमन की यह कार्रवाई, कानून को ताक में रख कर की गई जिसका मूल मकसद था दहशत फ़ैलाना। साफ जाहिर है कि यह कार्रवाई असहमति ज़ाहिर करने की आज़ादी, कानूनी रूप से आरोपियों के बचाव पक्ष में खड़े होने की आज़ादी व लोगों को संगठित करने के हकों पर सीधा हमला है। इन गिरफ्तारियों का ख़ास मकसद आम मानवाधिकार कार्यकर्ता में डर पैदा करना है।
मीडिया ट्रायल
भीमा कोरेगांव मामले में एक और रोचक कोण है -मिडिया का। हालिया गिरफ्तारियों में खास न्यूज़ चैनलों और खास मिडिया द्वारा जैसी खबरें चलाई गयीं उससे जनता में इन लोगों के प्रति वैमनस्य बढ़ा। ये मनगढंत आरोप बिना किसी सबूत के लगाए गए। ऐसा लगा मानो कुछ न्यूज़ वक्ताओं और महाराष्ट्र की पुलिस ने मिल कर भूमिका तैयार की हो। इन चैनलों ने अपनी ओर से खबरों में और सोशल मीडिया में निष्कर्ष देना शुरू कर दिया। जिसमें राजीव गाँधी के समान, प्रधानमंत्री मोदी को मारने की साजिश का एक पत्र का भी हवाला दिया गया। मज़ेदार बात है कि अभी तक प्रधानमंत्री की हत्या के साजिश जैसे गंभीर मुद्दे पर कोई नई प्रथम दृष्टया रिपोर्ट तक दाखिल नहीं की गई और अभी भी इस पर मात्र पुणे पुलिस द्वारा जांच ही की जा रही है।
कुल मिला कर पुणे पुलिस व महाराष्ट्र व भारत सरकार द्वारा एक साजिश के तहत जाने माने सामाजिक कार्यकर्ताओं की छवि को गिराना, जेल भेजना, साथ ही दलित व आदिवासी आन्दोलन को माओवादी आवरण देना।
आज के सत्ताधारियों को कभी तो इस बात का जवाब देना चाहिए कि असली आरोपी मिलिंद एकबोटे, संभाजी भिड़े व अन्य को गिरफ्तार क्यो नही किया गया?